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S112, संतमत सत्संग का आधार ।। Vaigyaanik Vidhi aur Eeshvareey Gyaan ।। ६.६.१६५५ ई० प्रातः

महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर / 112

प्रभु प्रेमियों ! सत्संग ध्यान के इस प्रवचन सीरीज में आपका स्वागत है। आइए आज जानते हैं-संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज के हिंदी प्रवचन संग्रह "महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर" के प्रवचन नंबर 112 के बारे में। इसमें बताया गया है कि  वैज्ञानिकों ने बहुत चीजों को पहचाना है और बहुत चीजों का  आविष्कार किया है , जिन्हें देखकर आश्चर्य होता है । किंतु इसे जानने से ऐसा नहीं हुआ कि और कुछ जानने को बाकी नहीं ।

इस प्रवचन के पहले वाले प्रवचन नंबर 111 को पढ़ने के लिए   यहां दवाएं। 

वैज्ञानिक विधि और ईश्वरीय ज्ञान पर प्रवचन करते सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज और भक्त गण

वैज्ञानिक विधि और ईश्वरीय ज्ञान । Scientific method and theology


 इस प्रवचन (उपदेश, अमृतवाणी, वचनामृत, सत्संग सुधा, संतवाणी, गुरु वचन, उपदेशामृत, ज्ञान कथा, भागवत वाणी, संतवचन, संतवचन-सुधा, संतवचनामृत, प्रवचन पीयूष )  में  पायेंगे कि- वैज्ञानिकों ने क्या-क्या है? संत लोग क्या करने कहते हैं? शांति कैसे मिलती है? ज्ञान कितने तरह का होता है ? अपरोक्ष ज्ञान कैसे प्राप्त करते हैं? वैज्ञानिक यंत्रों का ज्ञान कैसा है? सूक्ष्मातिसूक्ष्म सूक्ष्म कैसे प्रकट होता है? ईश्वर का पता कहां लगता है? आत्मा क्या है? परमात्मा क्या है? आत्मा और परमात्मा से क्या समझना चाहिए? क्या आत्मा, ईश्वर और परमात्मा एक ही है? शरीर कितने प्रकार का है? चार जड़ शरीरों के क्या-क्या नाम है? मृत्यु होने पर कौन सा शरीर छूटता है? परमात्मा की पहचान कब होती है? तीर्थ किसे कहते हैं? ओ३म् , प्रणव ध्वनि , सत्शब्द क्या है? पवित्रता कैसे होती है? हिंसा कितने प्रकार की होती है? हिंसा को विस्तार से कैसे समझ सकते हैं? पाप और पुण्य क्या है? इत्यादि बातों  के बारे में। इसके साथ-ही-साथ निम्नलिखित प्रश्नों के भी कुछ-न-कुछ समाधान इसमें मिलेगा। जैसे कि- क्या वैज्ञानिक विधि से ईश्वर को पहचान सकते है? वैज्ञानिक ज्ञान क्या है? ईश्वर की शक्ति क्या है? ईश्वर को कैसे जाने? ईश्वर का असली नाम क्या है? ईश्वर में विश्वास कैसे करें? वैज्ञानिक इतिहास, भारतीय वैज्ञानिक, वैज्ञानिक शोध क्या है, निम्नलिखित में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का तत्व है, वैज्ञानिक कितने प्रकार के होते हैं, वैज्ञानिक विधि की सीमाएं, वैज्ञानिक विधि क्या है, वैज्ञानिक दृष्टिकोण क्या है, इत्यादि बातें। इन बातों को जानने-समझने के पहले, आइए !  संत सदगुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज का दर्शन करें।

११२. एक को जानने से शांति मिलेगी


वैज्ञानिक विधि और ईश्वरीय ज्ञान पर प्रवचन करते सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज और भक्त गण

धर्मानुरागिनी प्यारी जनता !

     मनुष्य बहुत कुछ पहचानता है । कोई थोड़ा पहचानता है , कोई उससे ज्यादे, तो कोई उससे भी ज्यादे पहचानता है। आजकल के वैज्ञानिकों ने बहुत चीजों को पहचाना है और बहुत चीजों का  आविष्कार किया है , जिन्हें देखकर आश्चर्य होता है । किंतु इसे जानने से ऐसा नहीं हुआ कि और कुछ जानने को बाकी नहीं । वैज्ञानिकों ने संसार में बहुत तत्त्वों को जाना है , किंतु वे कहते हैं कि अभी कितना जानना बाकी है , ठिकाना नहीं । अभी  तो समुद्र के किनारे के बालूकण ही देख रहे हैं , समुद्र भरा पड़ा है । 

     संतलोग कहते हैं - ' एक को जानो तो सब को जान जाओगे । ' उस एक को जानने से शान्ति मिलेगी । संतों ने उस एक परमात्मा को जाना और उन्हें शान्ति मिली । संत लोग उसी ईश्वर को जानने कहते हैं । जानने के लिए केवल बौद्धिक ज्ञान से नहीं , बल्कि उसे पहचानकर जानो । केवल परोक्ष ज्ञान ही नहीं , उसको अपरोक्ष ज्ञान से भी जानो । अपरोक्ष ज्ञान के लिए बहुत साधन और प्रयास करना पड़ता है । पहले श्रवण - मनन करना पड़ता है । इसमें भी समय लगता है और प्रयास करना पड़ता है । श्रवण , मनन के बाद मनुष्य को पहचानकर जानने के लिए निदिध्यासन करना चाहिए । 

     श्रवण से तत्त्व का कुछ बोध जानने में आता है । किंतु स्वरूपतः वह क्या है ? उसे पहचानता नहीं है । इसलिए वह बहुत अधूरा ज्ञान है । संसार को देखने के लिए आँखों और कानों को खोलते हैं । उसी तरह परमात्मा को जानने के लिए आँख और कान की शक्तियों को बढ़ाओ । बाहर की ओर नहीं , अंतर की ओर देखने और सुनने का प्रयास करो बाहर में देखने - सुनने से जैसे कोई बाहर का पदार्थ पहचानता है , वैसे ही अंतर में देखने - सुनने से तुम परमात्मा को पहचानोगे । बाहर की ओर इन्द्रियों में रहते हुए स्थूलता में फँसा रहता है - स्थूल बुद्धि होती है । यदि कहो कि वैज्ञानिक यंत्रों के द्वारा बहुत छोटे - छोटे पदार्थों को देखता है , अणु को भी चीर सकता है , तो भी यह स्थूल ही है । इसको स्थूल के अतिरिक्त सूक्ष्म नहीं कह सकते हैं । सूक्ष्म तत्त्व वह है , जो स्थूल इन्द्रियों से नहीं जाना जाता । स्थूल इन्द्रियों से जो जाना जाता है , उससे स्थूल ज्ञान ही होता है । अपने अन्दर देखने के ढंग से यदि देख सको तो सूक्ष्मातिसूक्ष्म प्रकट हो जाता है । बाहरी इन्द्रियों में जो शक्तियाँ हैं , वे जब उधर से फिरती हैं तो अन्दर में प्रवेश करती हैं , वे ही सूक्ष्म हैं । इन सूक्ष्म धाराओं से काम लो, तो जो काम होगा , वह सूक्ष्म काम है । इसको जानो ।

     संतों ने कहा कि अपने अंदर देखो , अपने अंदर सुनो । अपने अन्दर देखने - सुनने से अंत में पता लगेगा कि यही ईश्वर है । फिर तुमको कुछ जानने के लिए बाकी नहीं रहेगा । आवागमन से छूट जाओगे । सभी दुःखों से छूट जाओगे।

     ईश्वर - स्वरूप के लिए कहा गया है कि वह मन से ग्रहण नहीं हो सकता । वह इन्द्रिय - गोचर पदार्थों में से कुछ नहीं है । इन्द्रियों को जो कुछ प्रत्यक्ष है , वह माया है । गोस्वामी तुलसीदासजी ने रामचरितमानस में लिखा है कि श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा

 गो गोचर जहँ लगि मन जाई । सो सब माया जानहु भाई ।। 

     अर्थात् जो सब शरीरों में रहता है , वह शरीरों से निर्लेप रहता है । सब पदार्थों में भी जो रहते हुए अथवा सब आकारों में रहते हुए सबसे निर्लेप और निराकार है , वही आत्मा है । इसको पहचानो , यही ईश्वर है । आत्मा कहने से आत्मा परमात्मा दोनों को जानना चाहिए । जैसे आकाश कहने से बाहर के आकाश का और भीतर घर के आकाश का भी ज्ञान होता है । उपनिषदों में आत्मा शब्द का विशेष प्रयोग किया गया है । जबकि यह पृथक किया जाय , तो पिण्ड में व्यापक वह आत्मा , ब्रह्माण्ड में व्यापक वह आत्मा और प्रकृति में व्यापक आत्मा सब एक ही है सब पिण्डों , ब्रह्माण्डों , सारे प्रकृति मण्डल में व्यापक तथा इन सबको भर कर फिर इन सबके जो परे है , वह है परमात्मा । और शरीरस्थ आत्मा का ज्ञान केवल आत्मा कहने से होता है । सबमें रहता हुआ सबके गुणों से जो निर्लेप है , वह आत्मा ही परमात्मा है , वही ईश्वर है । उससे बाहर कुछ नहीं है । उसको पहचानने से फिर कुछ पहचानने के लिए बाकी नहीं रहेगा । उसको पहचानने के लिए संसार में कहीं जाना , शरीरों में फंसा रहना है । 

     शरीर एक ही नहीं है । हमलोग चार जड़ शरीरों में पड़े हुए हैं । जैसे मूंज होती है । मूूंज के अन्दर सींकी होती है । सींकी के ऊपर मूंज के कई खोल होते हैं । एक - एक कर सभी खोलों को उतारने पर सीकी निकलती है । केले में भी कई परतें होती हैं । उन परतों को एक - एक कर उतारने पर केले का थम्भ निकलता है । इसी तरह चेतन आत्मा इस शरीर में है । एक ही शरीर में नहीं , चार जड़ शरीरों - स्थूल , सूक्ष्म , कारण और महाकारण में है । ऊपर से एक स्थूल शरीर देखने में आता है । साधारणतः एक स्थूल शरीर की मृत्यु होती है , बाकी और तीनों की मृत्यु हो जाती तो बड़ा कुशल होता । जब परमात्मा की पहचान होती है , तब ये तीनों भी झड़ जाते हैं ।

     परमात्मा की पहचान तबतक नहीं हो सकती , जबतक मायिक सभी आवरणों , पापों से छूट नहीं जाएँ । कबीर साहब ने कहा 

राम निरंजन न्यारा रे । अंजन सकल पसारा रे ॥ अंजन उतपति वो ऊँकार । अंजन मांड्या सब बिस्तार ॥ अंजन ब्रह्मा शंकर इन्द । अंजन गोपी संगि गोव्यंद ॥ अंजन वाणी अंजन वेद । अंजन किया नाना भेद । अंजन विद्या पाठपुरान । अंजन फोकट कथहि गियान ॥ अंजन पाती अंजन देव । अंजन की करै अंजन सेव ।। अंजन नाचै अंजनगावै । अंजन भेष अनंत दिखावै ॥ अंजन कहाँ कहाँ लगि केता । दान पुंनि तप तीरथ जेता ॥ कहै कबीर कोइ विरला जागे , अंजन छाडिनिरंजन लागै ॥ 

     सब माया ही माया है तीर्थ , दान , व्रत सब माया है । इसके अच्छे - अच्छे फल तुम पा सकते हो , स्वर्ग - वैकुण्ठ पाओगे , फिर यहाँ आना होगा । किंतु परमात्मा का दर्शन इससे नहीं होता । मनुष्य शुभ कर्मों को करे । पवित्र जल को ही तीर्थ कहते हैं । इसमें स्नान करो , किंतु यह मत समझो कि इसी से सब कुछ हो गया । परमात्मा का दर्शन या आवागमन छूटना इससे नहीं हो सकता । इसके लिए अपने अन्दर में चलना होगा । अंदर में चलने से माया से छूटोगे । बाहर में चलने से माया में ही रहोगे । गुरु नानकदेव ने कहा कि वह परमात्मा अलख , अगम , अगोचर है । उसका बाहर में कोई चिह्न नहीं है । उसका यदि कोई चिह्न है तो ओ३म् , प्रणव ध्वनि , सत्शब्द है । 

     हमलोग मुँह से जो ओ३म् , सतनाम उच्चारण करते हैं , सतशब्द नहीं है । गहरे ध्यान में जाने से वह ग्रहण होता है । परमात्मा जैसे अव्यक्त है , उसकी प्रतिमा भी अव्यक्त है । वह हई है । कहीं से वह आवेगा सो नहीं । वह सब जगह है । तुम पहचानते नहीं हो । पहचानने की योग्यता ध्यान से होगी । इसलिए ध्यान करो । सब शरीरों में ब्रह्म छिपा हुआ है । उसकी ज्योति सब शरीरों में है । जो निडर ध्यान लगाता है , वह उसको प्राप्त करता है ।

     पवित्र बर्तन में सत्य अँटता है । अंत करण रूप बर्तन को पवित्र करो , तब ईश्वर को पाओगे । सत्य आचरण करनेवाले बहुत कम होते हैं । सत्य आचरण करनेवाले की संसार में भी प्रतिष्ठा होती । प्रतिष्ठा - युक्त होने का जीवन पवित्र आचरण से होता है । भ्रष्ट आचरण से नहीं होता । अपवित्रता का जीवन तो मरे हुए के समान है । तुम अपना जीवन पवित्र रखो । इससे बुरे - बुरे कर्मों को निकाल दो । बुरी - बुरी इच्छाओं को छोड़ दो । अच्छे - अच्छे कर्मों को अपने अन्दर लो ।

     झूठ मत बोलो । चोरी मत करो । व्यभिचार मत करो । व्यभिचार दो तरह के होते हैं - एक तो बलात्कार , दूसरा व्यभिचार मन के मेल से होता है , दोनों से बचो । एक वकील ने मुझसे पूछा - ' मन के मेल से व्यभिचार करने में पाप भी है ? ' मैंने कहा ' पहले आप पाप - पुण्य को जानिए । जिस कर्म से आत्मोन्नति हो , वह पुण्य है और जिस कर्म से आत्मा का अध:पतन हो , वह पाप है ।

     नशा मत खाओ , न पिओ । तम्बाकू तक नशा है । हिंसा मत करो । पंच पापों से बचो , तब अंत : करण पवित्र हो जाएगा । ईश्वर पाने का शौक हो और उसके लिए जो कर्म करना चाहिए , उससे गिरे रहो तो ईश्वर कैसे मिलेंगे । हिंसा तीन तरह की होती है मन से , वचन से , और कर्म से । और भी हिंसा के दो विभाग कर लो - वार्य और अनिवार्य । खेत जोतने में कितनी हिंसा होती है ? यदि खेती नहीं करो तो संसार के सब लोग समाप्त हो जाएँगे । भोजन नहीं मिले तो बिना एटम बम के ही सब लोग मर जाएँगे । हिटलर लड़ाई के सामानों को बनाने में लगा रहा और भोजन का प्रबंध नहीं किया , तो बिना भोजन के मारा गया । पानीपत की तीसरी लड़ाई में भोजन नहीं मिलने के कारण ही मराठे की हार हुई । कई लाख आदमी एक ही दिन - में समाप्त हो गए । मनुस्मृति में अष्टघातक का वर्णन आया है 

अनुमन्ता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी । संस्कर्ता चोपहर्ता च खादकश्चेति घातकाः ॥ -अध्याय ५ श्लोक ५१ 

     अर्थात् वध करने की आज्ञा करनेवाला , २.शस्त्र से मांस काटनेवाला , ३. मारनेवाला , ४. बेचने वाला ५. मोल लेनेवाला , ६. मांस को पकानेवाला , ७. परोसने के लिए लानेवाला , ८. खानेवाला ; ये आठो घातक हिंसा करनेवाला ) ही कहलाते हैं ।

     वार्य हिंसा से बचो और अनिवार्य हिंसा के लिए प्रायश्चित करने कहा गया है चोर - डकैत के आने पर लड़ने - भिड़ने में , एक राष्ट्र की दूसरे राष्ट्र की चढ़ाई को रोकने में लड़ाई हो तो यह अनिवार्य है । इसमें लड़ो , वीरता के साथ लड़ो । अन्नोपार्जन जो हो , उसमें से दान दो । यह प्रायश्चित है । सबसे मूल है , ईश्वर का भजन करो ।

     भगवान बुद्ध ने कहा - ' अंधकार में पड़े हुए तुम प्रकाश को क्यों नहीं खोजते । ' ध्यानाभ्यास करो , प्रकाश प्रत्यक्ष होगा ।∆


( यह प्रवचन खगड़िया जिलान्तर्गत ग्राम - मानसी में दिनांक ६.६.१६५५ ई० को प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था । )



नोट-  इस प्रवचन में निम्नलिखित रंगानुसार और विषयानुसार ही  प्रवचन के लेख को रंगा गया या सजाया गया है। जैसे-  हेडलाइन की चर्चा,   सत्संग,   ध्यान,   सद्गगुरु  ईश्वर,   अध्यात्मिक विचार   एवं   अन्य विचार   । 


इसी प्रवचन को "महर्षि मेंही सत्संग सुधा सागर"  में प्रकाशित रूप में पढ़ें-

Guru maharaj ka pravachan number 112

Guru maharaj ka pravachan number 112a

Guru maharaj ka pravachan number 112 b




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सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज के विविध विषयों पर विभिन्न स्थानों में दिए गए प्रवचनों का संग्रहनीय ग्रंथ महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा सागर
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S112, संतमत सत्संग का आधार ।। Vaigyaanik Vidhi aur Eeshvareey Gyaan ।। ६.६.१६५५ ई० प्रातः S112,  संतमत सत्संग का आधार ।। Vaigyaanik Vidhi aur Eeshvareey Gyaan ।। ६.६.१६५५ ई० प्रातः Reviewed by सत्संग ध्यान on 6/18/2018 Rating: 5

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