महर्षि मेँहीँ सत्संग सुधा सागर / 131
|
भारतीय संस्कृति का आरंभ माता के पेट से
|
2. मैं आध्यात्मिक प्रचार करता हूँ । मुझे विश्वास हो गया है कि बिना आध्यात्मिकता के राजनीति में शान्ति नहीं आ सकती। संतों ने जगत कल्याणार्थ आध्यात्मिकता के प्रचार का काम किया और आज भी वही बात चल रही है। इसका तो प्रचार होता ही है।
3. सांस्कृतिक कार्य मनुष्य को सुधारकर उसके उदात्त गुणों को विकसित करता है। हमलोग सुधरे हुए कम हैं। कभी देखने में आता है कि सुधरे हुए नहीं हैं । इसलिए हमको सीखना होगा कि सुधरें कैसे ? अच्छे आचरण से चलें, यही सुधार है। यदि अच्छे आचरण से नहीं चलें तो सुधार नहीं है। अच्छा सुधार बिना अच्छे संग और अच्छी विद्या के नहीं हो सकता। अच्छे आचरण से संसार में रहें, इसके लिए विद्या की बड़ी आवश्यकता है। साथ ही यह भी देखें कि हमारे यहाँ जो महान हुए, उनका आचरण कैसा था ? उनके आचरण के मुताबिक चलें तो हमारा कल्याण होगा।
योग गुरु जी |
प्रातकाल उठिकै रघुनाथा। मातु पिता गुरु नावहिं माथा ।।
5. यह ! यह नहीं कि एक दिन, बल्कि प्रत्येक दिन। हमारे देश में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम आदर्श राजा हुए। उनके नमूने पर हम चलें तो हमारा सुधार हो। यह देखिए कि उपर्युक्त आचरण अपने में है कि नहीं।
साष्टांग प्रणाम |
6. भगवान बुद्ध का वचन है- 'जो बूढ़ों को प्रणाम और आदर करते हैं, उनकी चार चीजें , बढ़ेंगी – आयु, सुख, सुन्दरता और बल।' आप पूछेंगे कि भगवान बुद्ध ने यों ही कहा या होना भी संभव है, तो कहूँगा - होना संभव है । जिनको आप प्रणाम कीजिएगा, उनकी शुभेच्छा आपके प्रति होगी, यह संभव ही है। आज के वैज्ञानिक विद्वान भी कहते हैं कि मनोबल में भी कुछ बल है । शुभेच्छा में भी मनोबल है । जिसके लिए शुभेच्छा की गई, उसकी भलाई हो, पूर्णतया संभव है। भगवान बुद्ध महान व्यक्ति थे। वे विशेष अवतारों में गिने गए हैं। उनका वचन मिथ्या नहीं है।
7. हमारा सुधार माता की गोद से ही होना चाहिए अथवा माता के पेट से ही सुसंस्कारित करने का प्रयत्न होना चाहिए । इसका अर्थ है-- माता-पिता स्वयं समुचितरूपेण सुसंस्कृत हों। आपको आश्चर्य होगा कि बच्चा पेट में भी वेद पढ़ता है। पराशर मुनि शक्ति मुनि के पुत्र थे और शक्ति मुनि वशिष्ठ के पुत्र थे । वशिष्ठ के सौ पुत्र थे, वे मारे गए थे। उन्होंने देखा कि एक पतोहू के गर्भ में बालक है, इसलिए उसकी किसी तरह सुरक्षा की जाय । उसको सुरक्षित स्थान में रखने के के लिए वे कहीं ले जा रहे थे । वशिष्ठ आगे और पतोहू पीछे थी। शक्ति मुनि की तरह कण्ठ स्वर से वह पेट का बच्चा वेद-ऋचा गाता था । वशिष्ठ ने कहा - 'पुत्री ! यह कौन गा रहा है ?' पतोहू बोली कि वह आपका पोता है, जो मेरे गर्भ में है । आपको आश्चर्य होगा कि यह कैसे संभव है ! किंतु परमात्मा की सृष्टि में क्या नहीं हो सकता !
8. एक विद्वान आज कहते हैं कि सब मैंने बनाया। मैंने कहा कि संसार - भण्डार से कुछ लिए बिना एक घास या एक चुटकी मिट्टी बना दीजिए, हो नहीं सकता। ईश्वर की लीला अद्भुत है। परमात्मा की आश्चर्यमयी लीला है। कौन चीज कैसे बनी, कोई ठीक-ठीक कह नहीं सकता ।
वीर अभिमन्यु |
10. मुहम्मद साहब के पास एक बुढ़िया अपने पोते को ले गई, जिसको सर्दी हुई थी। मुहम्मद साहब बोले- 'इसे कल ले आना।' दूसरे दिन बुढ़िया फिर अपने पोते को लेकर मुहम्मद साहब के पास गई। मुहम्मद साहब बोले- 'आज जाओ, इसे कल ले आना।' बुढ़िया फिर मुहम्मद साहब के पास आई । इस प्रकार कई दिनों तक लगातार उस बुढ़िया को मुहम्मद साहब बुलाते रहे और बुढ़िया आती रही । अन्त में मुहम्मद साहब बोले कि बच्चे को शक्कर नहीं खिलाओ, सर्दी छूट जाएगी । बुढ़िया भिन्नाई और बोली- ' आपने पहले ही दिन यह बात क्यों नहीं कही, जो आज लगातार कई दिनों तक हैरान कर लेने के बाद आपने यह बात कही है। मुहम्मद साहब बोले- मुझे भी सर्दी लगी थी और मैं भी शक्कर खाता था। किंतु शक्कर छोड़ देने पर मेरी सर्दी छूट गई । यदि मैं शक्कर खाता और दूसरों को शिक्षा देता कि शक्कर मत खाओ तो इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता। मैंने शक्कर खाना छोड़ दिया है, तब आज मैंने तुमसे कहा है । इसी तरह हमारे आचार्यगण, अध्यापकगण अपने में अच्छे आचरण लावें तो लड़के भी अच्छे आचरण से रहेंगे।
11. उत्तम संस्कृति के लिए बड़ों का आदर और उनके सामने नम्र अवश्य रहें और अपने से छोटे को प्यार करें। यह शीलता है। शीलता कहते हैं सत्यता और नम्रता से मिल-जुलकर जो व्यवहार होता है। दिखलावे की बात नहीं हो, जो हो, सच्चाई की बात हो। तब हम अच्छे होंगे और हमारी संस्कृति अच्छी होगी । कितना अच्छा है कि-
12. यदि आप ऐसा नहीं करते हैं तो आपने भारतीय आर्य के संस्कारों को छोड़ दिया है, यदि करते हैं तो भारतीय आर्य हैं। यों तो कई देश के लोग अपने को आर्य कहते हैं, किंतु हम भारतीय आर्य हैं। यदि हम नम्र नहीं होते हैं तो हम अपनी सुसंस्कृति छोड़ते हैं।
विद्यालय और विद्यार्थी |
13. आजकल विद्यालयों और महाविद्यालयों में लोग ऐसे बरतते हैं, जिससे अन्य लोग कुछ कहने लग गए हैं। लोगों को विद्यार्थी और अध्यापक दोनों के पक्ष में संशय हो गया है। जितने विद्यालय और महाविद्यालय हैं, उनमें - नम्रता तोड़कर व्यवहार करते प्राय: देखा जाता है । ये ऐसे संस्थान हैं, जहाँ से हम उत्तम संस्कार लेकर सुसंस्कृत होते हैं। यदि हम यहाँ भी नहीं सीखें तो फिर कहाँ जाकर सीखेंगे ? यहाँ से शिक्षा प्राप्त कर लेने के बाद आप जहाँ कहीं भी रहें, वहाँ इतनी उत्तमता से रहें कि देश का कल्याण हो । हमको गौरव है कि हम परराज्य में नहीं रहते, अपने राज्य में हैं । इसमें उत्तमता तभी आवेगी, जब हम सुधरे हों । इसके लिए शील धारण कीजिए । शील निभाना है, तो आवश्यक यह है कि जिस काम के लिए जो व्रत है, उसमें मजबूत रहो ।
14. आर्य संस्कार में तो विद्यार्थी ब्रह्मचर्य का पालन करते थे। आचार्य गृहस्थ होते हुए भी ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते थे । यहाँ ब्रह्मचर्य व्रत पर बहुत ख्याल रखना चाहिए। जहाँ ब्रह्मचर्य व्रत पर ख्याल नहीं है, वहाँ ओजपूर्ण तेज नहीं हो सकता, विद्या-ग्रहण की शक्ति पूर्णतया विकसित नहीं हो सकती। आपके महाविद्यालय में सांस्कृतिक और आध्यात्मिक परिषद् का भी स्थान है, यह बहुत अच्छा है। सभी विद्यालयों में इस परिषद् का रहना अच्छा है।
भक्त सूरदास जी महाराज |
15. अभी आपलोगों ने सूरदासजी की वाणी सुनी। इसकी पुष्टि वेद, उपनिषद् और भगवद्गीता के वाक्यों में भी है। किंतु साक्षात्कार के बिना फिर भी संशय रह जाता है। ऐसा कहकर मैं ग्रंथों की निन्दा नहीं करता हूँ। ग्रंथों से ही साक्षात्कार नहीं होता, साधन द्वारा साक्षात्कार होता है और साक्षात्कार होने पर ही संशय छूटता है। सूरदासजी की वाणी को फिर दुहराता हूँ। वे कहते हैं-
16. पहले श्रवण-मनन अवश्य चाहिए, इसके बाद फिर अभ्यास भी करना चाहिए। सुनिए, समझिए और अपने अंदर में चलिए । जबतक अपने अंदर नहीं चले, तबतक आध्यात्मिकता पूरी हो नहीं सकती । आत्मा की तरफ लोग दो तरह से चलते हैं। एक आत्म उपासी बनकर अपनी खोज में आप जाते हैं। यह ज्ञान का पथ है। दूसरा भक्ति मार्गी बनकर; वहाँ भक्त - भक्ति - भगवन्त तीनों यानी त्रिपुटी रहती है। कबीर साहब भक्त बनते हैं, भगवान को अपना मित्र और प्रभु बनाते हैं और उसको पाना अपने अंदर में बताते हैं और पानेवाला प्रेम का पागल होता है । इसलिए-
17. होशियारी नहीं तो क्या, बेवकूफी में रहने को कहा है? धूर्त्त भी होशियार होता है, जिसको अंग्रेजी में कनिंग (Cunning) कहते हैं। धूर्तता छोड़कर कबीर साहब होशियार थे। आजकल बहुधा धूर्तता की होशियारी है। ऐसी होशियारी को छोड़कर शुद्ध और सीधा रास्ता पकड़ो और उसमें होशियार रहो । ‘रहें आजाद या जग से हमन दुनिया से यारी क्या ।' दुनिया से यारी मत करो तो क्या वैर करो? नहीं । आसक्ति छोड़कर रहो, अपनी सच्ची कमाई करो और अपना जीवन-यापन करो ।
18. यह कथा प्रसिद्ध है। कबीर साहब इतने संतुष्ट थे । वे थोड़े में गुजर करनेवाले थे और आध्यात्मिकता के शिखर पर चढ़े हुए थे। यह संस्कार, यह संस्कृति अपने देश की है। वे आजाद क्यों थे? इसलिए कि सांसारिक पदार्थों की आसक्ति उन्हें नहीं थी । ऐसा नहीं कि घर में खर्च वर्च नहीं देते - चलाते थे या कि घर से अलग रहते थे।
कपड़े बीनते संत कबीर |
19. अकर्मी में कर्मी और कर्मी में अकर्मी रहो। कर्म करो किंतु उसके फल में आसक्ति मत रखो, यह कर्म में अकर्म है और चुपचाप बैठा है, बाहर में कुछ नहीं करता है और भीतर में कर्म करता है, यह अकर्म में कर्म है। यह पाखण्ड है। किंतु बाहर में कुछ नहीं करे और भीतर से ईश्वर भजन करे तो यह उत्तम है। लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने कहा है कि यदि कोई माँ-बाप को मारता है और दूसरा कोई देखता है, कुछ बोलता नहीं है तो मारनेवाला तो विकर्म (निषिद्ध कर्म) करता ही है, साथ-ही- साथ वह देखनेवाला अकर्मी होते हुए भी उसके दुष्ट कर्म का भागी बनता है । विकर्म का अर्थ निषिद्ध कर्म है। क्रमश:
आगे है-
गांधीजी तथा रामानुजाचार्यजी ने भी बताया है । इससे विपरीत अर्थ कोई करे, तो मानने योग्य नहीं है । आजादी - स्वतंत्रता तभी पूरी होती है, जब विषय-भोगों से हृदय को छुड़ाकर रखा जाता है। विषय-भोगों में आसक्त रहने से हानि ही होती है। आप सांसारिक कामों को भी करें, किंतु अनासक्त होकर, तो यही हमारे यहाँ की सांस्कृतिक शिक्षा है।.....
इस प्रवचन का शेष भाग पढ़ने के लिए 👉 यहाँ दवाएं।
|
|
|
महर्षि मेँहीँ सत्संग-सुधा सागर |
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
प्रभु प्रेमियों! कृपया वही टिप्पणी करें जो सत्संग ध्यान कर रहे हो और उसमें कुछ जानकारी चाहते हो अन्यथा जवाब नहीं दिया जाएगा।