S132 (क) ध्वन्यात्मक नाम भजन से सभी क्लेशों से मुक्ति || Glory of Naad Brahma || What is Naad Brahman?

महर्षि मेँहीँ सत्संग सुधा सागर / 132

     प्रभु प्रेमियों ! संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज के हिंदी प्रवचन संग्रह "महर्षि मेँहीँ सत्संग सुधा सागर" के इस प्रवचन  में बताया गया है कि शब्द ब्रह्म, नाद ब्रह्म,शब्द ब्रह्म का रहस्य,नाद किसे कहते है?  ब्रह्म शब्द का अर्थ, उपनिषद के अनुसार ब्रह्म क्या है?  ब्रह्म ज्योति क्या है?  अनहद नाद कब सुनाई देता है? इत्यादि बातें। आइये इस प्रवचन का पाठ करने के पहले गुरु महाराज का दर्शन करें-

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महर्षि मेँहीँ सत्संग सुधा सागर प्रवचन S132
 प्रवचन S132

ध्वन्यात्मक नाम भजन से सभी क्लेशों से मुक्ति

   प्रभु प्रेमियों ! इस प्रवचन (उपदेश, अमृतवाणी, वचनामृत, सत्संग सुधा, संतवाणी, गुरु वचन, उपदेशामृत, ज्ञान कथा, भागवत वाणी, संतवचन, संतवचन-सुधा, संतवचनामृत, प्रवचन पीयूष ) में पायेंगे कि-  1. सत्संग किस आधार पर होना चाहिए? संतों के अनुसार मनुष्य का परम कर्तव्य क्या है? ईश्वर भक्ति कैसे करते हैं?    2. परमात्मा से क्या मांगना चाहिए? कबीर साहब ईश्वर से क्या मांगे? गो. तुलसी दास जी महाराज ईश्वर से क्या मांगने कहते हैं? गुरु नानक साहेब ईश्वर से क्या मांगे? गुरु महाराज ईश्वर से क्या मांगने कहते हैं?   3. ईश्वर स्तुति क्यों करते हैं? भक्त सूरदास जी ईश्वर भक्ति करने क्यों कहते हैं?    4. ईश्वर भक्ति क्या है? नाम भजन कैसा होना चाहिए? जप कैसे करें? क्या गिनती के साथ जप करना चाहिए?   5. राम किसे कहते हैं? कोई काम करने की इच्छा क्यों होती है?   6. पांडवलोग वनारस क्यों गये? पांडवों के वनारस जाने की कथा।  ईश्वर का दर्शन कैसे होता है?    7. प्रार्थना कैसे करना चाहिए? पांडव और दुर्वासा मुनि की कहानी।    8. भगवान के स्थूल-दर्शन से क्या लाभ होता है? लोक-परलोक में क्या-क्या होता है?  9. सभी आपदाओं का नाश कैसे होता है?   10. ध्वन्यात्मक शब्द से क्या-क्या होता है? 11. नादानुसंधान की महिमा। 11. निर्गुण राम-नाम और प्राणमय शब्द क्या एक जैसा ही है? नाम भजन कितने प्रकार का होता है? ब्रह्मध्वनि कहाँ सुन सकते हैं? शब्द ब्रह्म क्या है? 12. कौन संत किस गति तक पहुँचे हैं इसका सही-सही पता कैसे लग सकता है? इत्यादि बातें। इन बातों को आसानी से समझने के लिए उपरोक्त प्रश्नों के उत्तर प्रश्न नंबर देकर किया गया है। जिससे प्रवचन समझने में सरस हो जाय। आइये प्रवचन पढ़े ं- 


132  दो विद्याएं-- शब्द ब्रह्म और पर परब्रह्म

S132_Mahrshi_menhi_pravachan, महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर प्रवचन नंबर 132
S132_Mahrshi_menhi_pravachan

धर्मानुरागिनी प्यारी जनता ! 

     1. आपलोगों को अब विदित हो चुका है कि इस सत्संग में संतों की वाणियों का बिल्कुल सहारा है। उन वाणियों से यह निचोड़ निकलता है कि मनुष्य को ईश्वर की भक्ति करनी चाहिएईश्वर की भक्ति के लिए तीन बातों की बड़ी आवश्यकता होती है। स्तुति, प्रार्थना और उपासना । अपने देश में तीनों बातों के लिए एक ही शब्द नहीं है, तीनों को तीन तरह से कहते हैं । अवश्य ही पश्चिमी लोग तीनों के लिए एक ही शब्द प्रेयर कह देते हैं ।

    2. प्रेयर को हम प्रार्थना में रखते हैं । ईश्वर की महानता और उनका प्रभुत्व बड़ा है, ये स्तुति के द्वारा विदित होते हैं। मनुष्य स्वभाव से ही कुछ-न-कुछ माँग रखता है। संतों ने कहा- वह माँग ईश्वर के सामने रखो। परंतु यह भी ख्याल रखो कि उस महान प्रभु के सामने कौन-सी माँग अच्छी होगी । इस संबंध में कबीर साहब ने एक शब्द में कहा है-

ऐसी दिवानी   दुनियाँ    भक्ति भाव   नहिं   बूझै जी ।। 
कोई आवै    तो   बेटा   मांगे,  यही  गुसाई दीजै जी ।। 
कोई आवै  दुख   का मारा, हम पर किरपाकीजै जी ।। 
कोई आवै    तो  दौलत मांगै,    भेंट रुपैया लीजै जी ।। 
कोई   करावै  व्याह सगाई,  सुनत   गुसाई  रीझै जी ।। 
साँचे का कोई गाहक  नाहीं,  झूठे  जक्त  पतीजै जी ।। 
कहै कबीर सुनो भाई साधो, अंधों को क्या कीजै जी ॥ 

गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं-

जो   सुख   सुरपुर-नरक   गेह  बन, आवत बिनहिं बुलाये ।
तेहि सुख कहँ बहु जतन करत मन, समुझत नहिं समुझाये
।। 

     इन चीजों के लिए प्रार्थना अल्पज्ञता से ही की जाती है। ज्ञान बढ़ने पर तो गुरु नानक की वाणी में - 

वसुधा   सपत   दीप   है   सागर,  कढ़ि  कंचनु काढ़ि धरीजै । 
मेरे ठाकुर के जन इनहूँ न बाछहि, हरि माँगहि हरि रसु दीजै ।।

मनोकामना पूरक नाद ध्यान, नादानुसंधान की महिमा,
मनोकामना पूरक नाद ध्यान
     जिस माँग से सब प्रश्न समाप्त हो जाय, ऐसी माँग माँगो | ऐसा नहीं कि एक माँग पूरी हुई, फिर दूसरी की आवश्यकता हुई। माँगों यह कि प्रभु ऐसी कृपा करो कि सिमटाव हो और तुम्हारी ओर चल पड़ें। स्वरूप की प्रत्यक्षता, मुझे दो। यह सब माँगों का अंत है। यह सबसे उत्तम माँग है। इस माँग के बाद और कुछ बाकी नहीं रहता ।

     3. ईश्वर की स्तुति से उसमें श्रद्धा-विश्वास उपजता है। श्रद्धा से प्रीति होती है और प्रीति से भक्ति होती है। बिना प्रीति के भक्ति नहीं होती है । द्रौपदी ने प्रार्थना की कि मेरा वस्त्र बढ़े। वस्त्र बढ़ गया, ऐसी कथा है। इतना बढ़ा कि बलवान राजकुमार दुःशासन खींचते - खींचते थक गया, किंतु वस्त्र कम नहीं हुआ। इतने पर भी दुःख से पिण्ड छूटा नहीं, तुरंत ही जंगल जाना ही पड़ा और वहाँ बड़ी बेइज्जती हुई । युद्ध में उनके पाँचों पुत्र मारे गए, भारी कष्ट आ गया। एक लाभ हुआ और फिर हानि हुई । इस प्रकार हानि-लाभ होते ही रहते हैं । सूरदासजी ने कहा- 

ताते सेइये यदुराई ।
सम्पति विपति विपति सों सम्पति देह धरे को यह सुभाई ।। 
तरुवर फूलै   फलै   परिहरै   अपने कालहिं पाई। 
सरवर नीर   भरै   पुनि    उमड़े सूखे खेह उड़ाई । 
द्वितीय चन्द्र बाढ़त ही बाढ़े घटत घटत घटि जाई । 
सूरदास सम्पदा    आपदा जिनि कोऊ पतिआई ।। 

     सम्पत्ति - विपत्ति का ऐसा स्वभाव ही है। इन दोनों में से एक भी स्थिर रहनेवाला नहीं है । ईश्वर की प्राप्ति से - बहुत सुख हुआ, फिर मिट गया- ऐसा नहीं होता प्रार्थना ऐसी होनी चाहिए कि जिससे ईश्वर मिल जाय ।

     4. परंतु स्तुति करने से ही काम समाप्त नहीं होता । मिलने के लिए कोशिश करो। जैसे बच्चा माता की गोद में जाने के लिए उठता भी है और बाँह भी पसारता है, उसी तरह तुम भी उठो और अपना बल भी करो, यदि अपना बल नहीं है तो परमात्मा बल देगा। बाँह उठाने के लिए नाम - भजन है । नाम - भजन में वर्णात्मक शब्द का ज्ञान पहले सबको होता है। इसलिए मुँह से और मन से कहकर नाम - भजन होना चाहिए। किंतु एकाग्रता हो । गिनती में पाँच हजार बार हो जाय, गिनती का ख्याल रहे और एकाग्रता नहीं हो तो जप ठीक नहीं।


माला से जप करना
माला से जप करना

माला तो कर   में  फिरै,  
                   जीभ  फिरै मुख माहिं ।
मनुवाँ तो दह दिसि फिरै, 
                  यह जो सुमिरन नाहिं ।। 

बल्कि

तन थिर मन थिर वचन थिर, सुरत निरत थिर होय । 
कह कबीर   इस   पलक को,  कलप न पावै कोय ।।

    5. मन में स्थिरता आवे, एकाग्र मन से जप हो । जिस शब्द का जप होता है, वह ईश्वर का गुण प्रकट करता है । गुण बखान करनेवाला शब्द है । जैसे 'राम' कहा, तो इसका अर्थ हुआ सर्वव्यापी - कहीं से हीन नहीं - सबमें रमण करनेवाला अथवा योगी जिसमें रमण करते हैं, वह राम है इससे ईश्वर का गुण प्रकट होता है। जिसका गुण प्रकट होता है, उस ओर मन लगता है । उस ओर लोभ होता है कि वह गुण मुझमें हो अथवा उस गुण से मुझको लाभ हो । जिसकी ओर किसी को होना हो । उसके विषय में वह विशेष गुण सुने तो वह उस ओर हो जाएगा। 

     6. कौरवों की इच्छा हुई कि पाण्डवों को किसी तरह काशी भेजा जाय। इसलिए जब कभी पाण्डव लोग उनके निकट आते, खास करके जब युधिष्ठिर उन लोगों (कौरवों) के पास जाते तो वे लोग काशी की प्रशंसा करने लगते। काशी के विषय में विशेष सुनते-सुनते युधिष्ठिर की इच्छा काशी जाने की हो गई और वे काशी चले गए। इसका आशय यह कि किसी ओर होने के लिए उस ओर की अच्छी बातें विशेष सुनिए, उस ओर मन झुक जाएगा। नाम रटते-रटते उसका अर्थ भी मालूम हो तो उस ओर मन झुकेगा। जपते-जपते ईश्वर दर्शन देते हैं, ऐसा लोग कहते हैं । यह भी अविश्वास करने योग्य नहीं, किंतु दर्शन में अंतर है । जपते-जपते ध्रुव को दर्शन हुआ। जंगल में पाण्डवों को बारम्बार भगवान के दर्शन हुए उनके स्मरण से। 

भगवान श्री कृष्ण और पांडव, वन में भगवान कृष्ण और पांडव
भगवान श्री कृष्ण और पांडव

     7. एक बार दुर्वासा मुनि साठ हजार शिष्यों के साथ उस जंगल में पाण्डवों के पास पहुँचे और उनसे बोले कि हमलोगों को कुछ भोजन कराओ। युधिष्ठिर बोले- बहुत अच्छा महाराज ! किंतु आपलोगों को जो कुछ नित्य नैमित्तिक क्रिया-कर्म आदि करने का हो तो सो आपलोग कर आवें। सभी अपने- अपने क्रिया-कर्म करने के निमित्त नदी किनारे गए। इधर पाण्डवों को चिन्ता हुई कि वे मुनि लोग जब स्नानादि क्रिया-कर्म करके यहाँ आवेंगे, तो उन्हें भोजन क्या कराया जाएगा ? क्योंकि पास में तो भोजन की कुछ सामग्री है ही नहीं । और यदि उन लोगों को भोजन नहीं करा सकूँगा, तो दुर्वासा मुनि शाप दे देंगे। इस डर के मारे पाण्डव लोग चिन्तित होकर भगवान श्रीकृष्ण की प्रार्थना करने लगे । भगवान वहाँ आ गए और युधिष्ठिर द्वारा दुर्वासा विषयक सब समाचार जानकर भगवान ने अपनी कुछ ऐसी लीला की जिससे वे लोग लौटकर फिर युधिष्ठिर के पास न आ सके। इस प्रकार इस संकट से भगवान ने पाण्डवों को मुक्त कर दिया। इस प्रकार की और बातें तो बारम्बार हुईं, किंतु ऐसी कौन बात बाकी रही कि अर्जुन को उपदेश किया गया कि यह करो और वह करो। 

     8. मैं कहता हूँ कि इस दर्शन से – संसार के अंदर के जो-जो काम उनमें - एक काम बनता है, तो दूसरा नहीं बनता है। यह परमात्म-दर्शन नहीं है, मायिक दर्शन है। क्षेत्र का दर्शन होता है, क्षेत्रज्ञ का नहीं । शरीर कहीं भी हो, चाहे यहाँ मृतलोक में, चाहे विष्णुधाम में, चाहे शिवधाम में, कोई पवित्र से पवित्र, सुन्दर - से- सुन्दर और बलवान - से- बलवान शरीरधारी हों, वहाँ उनको किसी प्रकार का कोई दुःख न हो, किंतु ऐसी बात नहीं । यह तो लोक का बड़ा विचित्र वर्णन है, श्रीराधाजी का वर्णन , बहुत विशेष है । गर्गसंहिता पढ़कर देखिए। वहाँ भी शापा - शापी होता है । श्रीराधाजी से कृष्ण के मित्र श्रीदामाजी को शाप हुए। श्रीदामाजी राक्षस हो गए। उनका कंस से युद्ध हुआ, दोनों में से कोई नहीं हारे, अंत में दोनों में मित्रता हो गई। कंस की आज्ञा पाकर श्रीदामा (जो कि राक्षस वेश में थे) भगवान श्रीकृष्ण को मारने चले । अंत में भगवान श्रीकृष्ण के हाथों से उस शरीर से उनकी मुक्ति हुई । नारदजी भगवान के यहाँ जाते हैं और उनको विशेष भ्रम उत्पन्न होता है । नारदजी भगवान को शाप भी देते हैं । भृगु, अज्ञानवश भगवान की छाती में लात भी मारते हैं। जय-विजय को बैकुण्ठ में शाप मिलता है। इसलिए जहाँ देश है, वहाँ काल है, जहाँ देश - काल है, वहाँ कुछ-न-कुछ उपद्रव होगा ही । इसलिए गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा-

सोक मोह भय हरष दिवस निसि, देस काल तहँ नाहीं । 
तुलसिदास एहि   दसा - हीन,   संसय निर्मूल न जाहीं ॥ 

     9. सब धामों में, सभी लोकों में, सभी आपदाएँ ऐसे नाश नहीं होतीं । परमात्मा के दर्शन से ही इनका नाश होगा। श्रीराम या श्रीकृष्ण के क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ - दोनों का दर्शन हो तो सब काम ठीक हो जाय। इसमें सत्य को कोई आँच नहीं । श्रीमाताजी के क्षेत्र का और उनके अंदर क्षेत्रज्ञ का भी दर्शन हो । संतलोग इसी प्रकार का दर्शन करने कहते हैं । किंतु केवल वर्णात्मक नाम के जप से क्षेत्रज्ञ का दर्शन नहीं होगा । नाम जप से नामी के प्रति श्रद्धा होती है। और भजन करने में श्रद्धालु भक्त आगे बढ़ता है। भगवान के क्षेत्र रूप का दर्शन भी बड़े भाग्य से मिलता है और उनके क्षेत्रज्ञ - स्वरूप का दर्शन हो तो काम ही खतम हो जाएगा। 

     10. जिस ईश्वर को सर्वव्यापी कहते हैं, वह वर्णात्मक शब्द में ही व्यापक हो और ध्वन्यात्मक में नहीं, यह कोई बात नहीं। शब्द केवल वर्णात्मक ही नहीं- ध्वन्यात्मक भी है। विद्वान जानते हैं कि शब्द दो तरह के होते हैं - सार्थक और निरर्थक । निरर्थक का अर्थ बेकार नहीं, अर्थरहित है । यह है ध्वन्यात्मक शब्द, और इसमें कितना गुण है कि गाते-गाते रोग छूटता है और चिराग भी जलता है । शंकराचार्य ने कहा है- 'मन तो भेरी, मृदंग और शंख आदि के आघातजन्य नादों में भी एक क्षण के लिए मग्न हो जाता है, फिर इस मधुवत् मधुर अखण्डित और स्वच्छ अनाहत नाद की तो बात ही क्या है?' (प्रबोध सुधाकर) उन्होंने योगतारावलि में नादानु- संधान की स्तुति की है- 

नादानुसंधान नमोऽस्तु तुभ्यं त्वां मन्महेतत्त्वपदंलयानाम् ।
भवत्प्रसादात् पवनेन साकं विलीयते विष्णु पदे मनो मे ।
। 

     अर्थात् हे नादनुसंधान! आपको नमस्कार है, आप परमपद में स्थित कराते हैं, आप ही के प्रसाद से मेरा प्राणवायु और मन; ये दोनों विष्णु के परमपद में लय हो जाएँगे ।

     11ध्वन्यात्मक शब्द सुर है। श्रीमद्भागवत में तीन प्रकार के शब्दों का वर्णन है - प्राणमय, इन्द्रियमय और मनोमय । चेतन के संचार में जो ध्वनि हो वह प्राणमय शब्द है । मुँह और मन से वर्णात्मक नाम को जपो और प्राणमय शब्द जो ईश्वर का नाम है, वह जपने का नहीं है, उसमें सुरत लगाने का है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने भी इसका वर्णन निर्गुण राम-नाम कहकर वर्णन किया है- 

बन्दउँ रामनाम  रघुवर   को ।   
               हेतु  कृषाणु भानु हिमकर को ।।
विधि हरि हर मय वेद प्रान सो। 
               अगुण अनूपम गुण निधान सो।।

विविध प्रकार के जप विधि
विविध प्रकार के मंत्र जप विधि

     जो वर्णात्मक शब्द है, वह त्रैगुणमयी है । क्योंकि इस कान से उसको सुनते हैं, मुँह से बोलते हैं । ध्वन्यात्मक अनाहत प्रणवनाद को सगुण कान से नहीं सुन सकते और न सगुण मुँह से बोल सकते हैं। वह निर्गुण है। नाम विषय में गोस्वामी तुलसीदासजी ने और भी कहा है-

श्रवणात्मक    ध्वन्यात्मक,  वर्णात्मक  विधि  तीन । 
त्रिविध शब्द अनुभव अगम, तुलसी कहहिं प्रवीन ।। 
भेद जाहि   विधि  नाम महँ, बिन गुरु जान न कोय । 
तुलसी कहहिं विनीत वर,  जो   विरंचि  शिव होय ॥ 
                                                             - तुलसी सतसई

     गुरु नानक साहब कहते हैं- 

सुनि मन भूले बावरे गुरु की चरणी लागु । 
हरि नाम धिआइ तू जम डरपै दुख भागु ।। 

     यह ब्रह्मध्वनि सम्प्रज्ञात समाधि में सुनी जाती है। संत भक्त का वर्णन गोस्वामी तुलसीदासजी करते हैं- 

शांत निरपेक्ष निर्मम निरामय अगुण शब्द ब्रह्मैक पर ब्रह्मज्ञानी ।

     वह निर्गुण शब्द ब्रह्म के परे के स्वरूप को जाननेवाला होता है। यह शब्द ब्रह्म क्या है ? 'अक्षरं परमोनादः शब्दब्रह्मेति कथ्यते' है। यह निर्गुण है, यह ब्रह्म से प्रकट होता है। इसी के होने से गुणमयी प्रकृति का निर्माण होता है। इस नाद के बारे में उपनिषद् में ऐसा भी वर्णन है कि- 

द्वे विद्ये वेदितव्ये तु   शब्द  ब्रह्म  परं च यत् ।
शब्द ब्रह्मणि निष्णातः परं ब्रह्माधिगच्छति ।।

     अर्थात् दो विद्याएँ समझनी चाहिए, एक तो शब्दब्रह्म और दूसरा परब्रह्म । शब्दब्रह्म में जो निपुण हो जाता है, वह परब्रह्म को प्राप्त करता है।

     वह निर्गुण नाद है, यही अगुण शब्द है । इसका किसी संत ने कुछ कम और किसी ने कुछ विशेष वर्णन किया है। 

     12. गोस्वामी तुलसीदासजी और सूरदासजी को लोग केवल स्थूल सगुण उपासक मानते हैं और गुरु नानक साहब और कबीर साहब को निर्गुण उपासक। बात यह है कि गोस्वामी तुलसीदासजी और सूरदासजी ने सगुण का वर्णन विशेष किया और निर्गुण का कम । और गुरु नानक साहब और कबीर साहब ने निर्गुण का विशेष और सगुण का कम वर्णन किया है। साहित्यिक विद्वानों से मेरा निवेदन है कि वे संतों के पारिभाषिक शब्दों को और उनके साधनों को भी जानें, केवल शब्दार्थ के बल पर संतों की वाणी का अर्थ ठीक-ठीक नहीं लगता। उनकी योगविद्या को जानिए और साधन कीजिए, तब अर्थ ठीक-ठीक लगेगा। n



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S132 (क) ध्वन्यात्मक नाम भजन से सभी क्लेशों से मुक्ति || Glory of Naad Brahma || What is Naad Brahman? S132 (क) ध्वन्यात्मक नाम भजन से सभी क्लेशों से मुक्ति  ||  Glory of Naad Brahma ||  What is Naad Brahman? Reviewed by सत्संग ध्यान on 8/05/2023 Rating: 5

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