S170 पूजा- पाठ, यज्ञ- अनुष्ठान, जप-तप क्यों करते हैं? Why do we perform worship, rituals, yagna, chanting and meditation?
महर्षि मेँहीँ सत्संग सुधा सागर / 170.
प्रभु प्रेमियों ! संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज के भारती (हिंदी) प्रवचन संग्रह "महर्षि मेँहीँ सत्संग सुधा सागर" के प्रवचन नंबर 170 में बताया गया है कि द्रव्ययज्ञ से ज्ञानयज्ञ श्रेष्ठ है आइये इस प्रवचन का पाठ करने के पहले गुरु महाराज का दर्शन करें-
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प्रभु प्रेमियों ! इस प्रवचन (उपदेश, अमृतवाणी, वचनामृत, सत्संग सुधा, संतवाणी, गुरु वचन, उपदेशामृत, ज्ञान कथा, भागवत वाणी, संतवचन, संतवचन-सुधा, संतवचनामृत, प्रवचन पीयूष ) में आप निम्नलिखित बातों को पायेंगे- 1. पूजा- पाठ, यज्ञ- अनुष्ठान, जप-तप क्यों करते हैं? 2. अपने इतिहास से कौन सा शिक्षा लें? 3. माया के सेनापति कौन हैं? 4. माया से कौन बचा सकता है? 5. कौन सा अनुष्ठान करना जरूरी है? 6. ईश्वर भक्ति क्यों करना चाहिए? 7. किनकी पूजा से कौन-सा फल मिलता है? 8. हमारे देश का विज्ञान कैसा है? 9. अवतार और आत्मस्वरूप में क्या अंतर है? 10. परमात्मा-ईश्वर किसे कहते हैं? 11. बुद्धिमान और मूढ़ कौन है? इत्यादि ।
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धर्मानुरागिनी प्यारी जनता !
आजकल हमलोग बहुत कडुवे समय के अंदर से चल रहे हैं। लोगों में हल्ला है कि यह अष्टग्रहों के संयोग का समय है। इसमें भयंकर- भयंकर रोग फैलते हैं, राष्ट्रों में युद्ध होते हैं, भूकम्प होता है, आदमी बहुत कष्ट पाते हैं। इन सब बातों से डरकर लोगों ने बहुत से शुभ अनुष्ठान किए हैं। यह बहुत अच्छा है। दुःख से बचने के लिए शुभ कर्म की ओर अपने मन को लगाओ, तो दुःख की ओर से मन हट जाता है। महाभारत के समय बहुत उत्पात हुआ था। युद्ध में युधिष्ठिर के बहुत से लोग मर गए थे, उनका मन राज्य करने में नहीं लगता था, वे जंगल जाकर तप करना चाहते थे। उनका मन बहुत दुःखी था तो उनके मन को दुःख की ओर से फेरने के लिए यज्ञ करवाया गया था। इसी तरह लोग कीर्तन, यज्ञ आदि की ओर मन को लगाकर दुःख को भुलाते हैं। हो सकता है, ईश्वर की कृपा से इन कर्मों से अष्टग्रह-योग का प्रभाव भी कम पड़े। लेकिन लोग जो इतना खर्च कर रहे हैं, यह थोड़े दिनों के लिए। इस आपदा से बढ़कर और भी आपदा है, जो सब दिन लगी रहती है। रामचरितमानस में आया है-
व्यापि रहेउ संसार महँ, माया कटक प्रचण्ड ।
सेनापति कामादि भट, दम्भ कपट पाखण्ड ।।
आप इतिहास को याद कीजिए। एक समय ऐसा हुआ कि यहाँ से धन लूटकर ले जानेवाले ले जाते थे, गाँवों को जलाते थे, पुरुषों को गुलाम बनाते थे, स्त्रियों को भी पकड़-पकड़कर ले जाते थे; ऐसा अपने देश में पहले हुआ था। यदि फिर ऐसा हो तो आप इतने डरेंगे कि खाना-पीना भूल जाएँगे। एक बार फ्रांसिसी सेना इंगलैंड में उतर गई, तो डर के मारे इंगलैंड के बहुत लोगों को पेचिश की बीमारी हो गई। यदि आपके ऊपर भी कोई आक्रमण करे तो आपकी क्या हालत होगी? इस तरह मनुष्य की फौज का आक्रमण कुछ काल तक रहता है, फिर नहीं रहता। लेकिन जो आक्रमण सदा से है, उसके दबाव में सब दिन पड़े हैं। उसका कुछ भी डर नहीं, आश्चर्य है! भारत ही नहीं, तमाम संसार में माया की भयानक सेना फैली हुई है। सेना की मार खाते हैं, दुःखद भोग भोगते हैं। फिर भी होश में नहीं आते। माया के सेनापति बाहर में नहीं, सबके अंदर-अंदर हैं। सोचिए, है कि नहीं? कभी काम, कभी क्रोध, कभी लोभ, कभी मोह इतना सताता है कि मनुष्य, मनुष्य नहीं रह जाता है, पशु से भी खराब हो जाता है। इस सेना के दबाव में हम सदा से पड़े हैं। इससे छुटकारा मिले, इसका क्या यत्न है? यह माया किसकी है?
सो दासी रघुवीर कै, समुझे मिथ्या सोपि ।
छूट न राम कृपा बिनु, नाथ कहउँ पद रोपि ।।
कोई उकताकर रोवे, चिल्लावे वा देह को नष्ट करे तो कोई लाभ नहीं होगा। जिसके द्वारा माया रचित है, उसको जानो। यदि उसकी शरण लो तो उसकी जरा-सी कृपा से माया खत्म हो जाए।
जो माया सब जगहिं नचावा।
जासु चरित लखि काहु न पावा।।
सो प्रभु भ्रूबिलास खगराजा।
नाच नटी इव सहित समाजा।।
जिस तरह आपलोग ग्रह से डरकर शुभ अनुष्ठान करते हैं, उसी तरह यह भी डरिए कि आप सब कोई माया की फौज से दबे हैं, इससे छूटें, इसके लिए भी शुभ अनुष्ठान करें। शुभ अनुष्ठान का एक ही यत्न है कि ईश्वर की कृपा प्राप्त करो; क्योंकि 'छूट न रामकृपा बिनु' कहा गया है। पहले राम को जानो।
यह भारत धर्म प्रधान देश है, ईश्वर की मान्यता के लिए मुँह फैलाकर कहता है कि ईश्वर है। हमारे देश में कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो ईश्वर की सत्ता में विश्वास नहीं करते। वे अनात्म- वादी हैं। लेकिन उनकी संख्या बहुत कम है। भारत देश की सर्वोत्तम निजी उपज आध्यात्मिक ज्ञान है। राम-राम, शिव शिव आदि कहने के लिए बचपन से ही हमको सिखाया जाता है। आजतक कितने बच्चे, बूढ़े और जवान इस संसार से चले गए; लेकिन बहुत कम लोग ईश्वर-स्वरूप को जानते हैं। इसीलिए जो ईश्वर नहीं है, उसको भी ईश्वर कहकर मानते हैं। ईश्वर की प्राप्ति नहीं करके ईश्वर की माया को पाते हैं। श्रीकृष्ण भगवान ने कहा है कि भूतों को पूजनेवाले भूतों को, देवताओं को पूजनेवाले देवताओं को और मुझे भजनेवाले मुझको पाते हैं।
ईश्वर की सत्ता का बोध हमको होना चाहिए। वह ईश्वर राम कैसा है? 'सोइ सच्चिदानन्द घन रामा। अज विज्ञान रूप बलधामा ।।' विज्ञान का अर्थ है विशेष ज्ञान। लेकिन आजकल यह प्रचलित है कि कुछ सामान लेकर जो यंत्र बनाते हैं, वह विज्ञान है। वैज्ञानिक ऐसे-ऐसे बम, तोप आदि बनाते हैं कि तीन, चार वा पाँच बमों से ही संसार को खत्म कर दें। लेकिन ऐसा एक भी यंत्र नहीं बन सका है कि मृतक को जीवित किया जा सके। कहानी है भगवान श्रीराम के दल के जो लोग मर गए, उन लोगों को अमृतवर्षा करके श्रीराम ने जिला दिया। यह भी विज्ञान है। ईश्वर महावैज्ञानिक हैं। भौतिक वैज्ञानिक संसार के तत्त्वों को लिए बिना कुछ बना नहीं सकते। लेकिन ईश्वर ऐसा वैज्ञानिक है कि बिना उपादान के ही सृष्टि करता है।
तदि अपना आपु आप ही उपाया।
नाँ किछु ते किछु करि दिखलाया ।।
गुरु नानक ने कहा। इसलिए परमात्मा 'अज विज्ञान रूप बलधामा' है। भौतिक विज्ञानी बिना उपादान के एक चुटकी मिट्टी भी नहीं बना सकता। ईश्वर की तरह वैज्ञानिक आधिभौतिक विज्ञानी हो नहीं सकता। रामचरितमानस में कहा गया कि-
भगत हेतु भगवान प्रभु, राम धरेउ तनु भूप ।
किये चरित पावन परम, प्राकृत नर अनुरूप ।।
जथा अनेकन वेष धरि, नृत्य करइ नट कोइ ।
सोइ सोइ भाव देखावइ, आपुन होइ न सोइ ।।
यह क्या है? जिसका रूप काछते हैं, वह वही नहीं बन जाता। जिसने राजा का रूप धारण किया, वह कौन था?
उमा राम विषयक अस मोहा।
नभ तम धूम धूरि जिमि सोहा ।।
जथा गगन धन पटल निहारी।
झाँपेउ भानु कहेहु कुविचारी ।।
आकाश में अंधकार, धूल और धुआँ फैला हुआ देखकर कुविचारी कहते हैं कि सूर्य इनसे ढँक गया है। लेकिन एक ही समय में समस्त संसार में धुआँ, धूल वा अंधकार नहीं हो सकता। हमारे यहाँ मालूम होता है कि दिन है और इसी समय अमेरिका में रात है। धुआँ, धूल वा अंधकार समूचे संसार को व्याप नहीं सकता। किसी अंश में है तो और अंश बाकी है। आप जो माया का फैलाव देखते हैं, ईश्वर इससे ढँक गए हैं, ऐसा नहीं। लेकिन ऐसा कि माया के आवरण से आवृत उसका कोई अंश ही हो सकता है। सूर्य बादल, धुएँ और धूल से ढँक नहीं सकता; क्योकि वह बहुत बड़ा है। बादल का मण्डल उसके सामने बहुत छोटा है। हमारी दृष्टि दूर तक नहीं जाती है, इसलिए सूर्य को नहीं देखकर हम बादल-ही-बादल देखते हैं। इसी तरह माया से आवृत रहने के कारण जो आत्मस्वरूप है, उसे हम नहीं देख पाते। राम वैसा भी है, जिसका जन्म हुआ है- 'जन्म कर्म अगनित हरि केरे।' और राम वैसा भी है, जिसका जन्म न हो। जन्म होने से आपको कहना पड़ेगा कि वे कभी हुए, उसके पहले वे नहीं थे। मायारूप का जन्म होता है, स्वरूप का नहीं। स्वरूप का कभी होना नहीं होता, वह सदा रहता ही है। स्वरूप के लिए गोस्वामी तुलसीदासजी ने लिखा है-
अनुराग सो निजरूप जो जग तें विलच्छन देखिये।
संतोष सम सीतल सदा दम देहवन्त न लेखिये ।।
निर्मल निरामय एकरस तेहि हरष सोक न व्यापई ।
त्रय लोक पावन सो सदा जाकी दसा ऐसी भई ।।
इसको समझिए। अवतार में देह है, लेकिन आत्मस्वरूप में देह नहीं है। भगवान का जन्म हुआ, इतने बड़े हुए और इतने दिन रहे, यह माया में होता है। लेकिन वहाँ 'निर्मल निरामय एक रस तेहि हरष सोक न व्यापई', यह आत्मस्वरूप है। इसका जन्म कभी नहीं हुआ। इसके पहले कुछ नहीं हो सकता। उसको परमात्मा-ईश्वर कहते हैं। जो सबसे पहले का है, वह कितना बड़ा है? अगर कहा जाय कि उसमें सीमा थी, तो आकाश उस सीमा के बाहर था। तब अवकाश पहले हुआ, उसी अवकाश में भगवान श्रीराम, भगवान श्रीकृष्ण ने विराट रूप धारण किया वा विष्णु भगवान ने विराट रूप धरकर बलि से पृथ्वी ली थी। मेरा वा आपका जो शरीर इस पृथ्वी पर है, यह माता के गर्भ में था, पीछे इस पृथ्वी पर आया। इसलिए जिसके पहले का कुछ नहीं, अपनी सत्ता से वह इतना व्यापक कि जिस व्यापकता के परे और कुछ मानना असंभव है। जो सदा असीम है, कभी ससीम हो नहीं सकता, वह परमात्म-स्वरूप है। वह असीम है, अपरिमित है, शक्तियुक्त है। गोस्वामी तुलसीदासजी के शब्द में है-
'व्यापक व्याप्य अखण्ड अनन्ता ।
अखिल अमोघ सक्ति भगवन्ता ।।'
'अलख अपार अगम अगोचरि, ना तिसुकाल न करमा ।।
जाति अजाति अजोनी संभउ, नातिसु भाउन भरमा ।।'
- गुरु नानकदेव
श्रूप अखण्डित व्यापी चैतन्यश्चैतन्य ।
ऊँचे नीचे आगे पीछे दाहिन बायँ अनन्य ।।
बड़ा तें बड़ा छोट तें छोटा मींहीँ तें सब लेखा ।
सब के मध्य निरन्तर साई दृष्टि दृष्टि सों देखा ।।
- कबीर साहब
'अणोरणीयान् महतो महीयान्' (कठोप०) और 'बड़ा तें बड़ा छोट तें छोटा' एक ही बात है। बड़े से बड़ा वही हो सकता है, जिससे बड़ा और कुछ नहीं हो। उसी में यह सारा विश्व है और इस विश्व में वह व्यापक है। जो परमात्मा इतना व्यापक है, वह इन्द्रियों से ग्रहण होने योग्य नहीं है। जो जितना अधिक व्यापक होता है, वह उतना ही अधिक सूक्ष्म होता है। जो सबसे अधिक सूक्ष्म होगा, वह सबसे अधिक व्यापक होगा। स्थूल यंत्र से सूक्ष्म तत्त्व का ग्रहण नहीं हो सकता। हमारी इन्द्रियाँ स्थूल-ही-स्थूल हैं। इन स्थूल इन्द्रियों से उस सूक्ष्म तत्त्व का ग्रहण हो, संभव नहीं। लक्ष्मणजी से श्रीराम ने कहा था-
गो गोचर जहँ लगि मन जाई।
सो सब माया जानहु भाई।।
राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर ।
अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह ।।
यह स्वरूप परमात्मा का है। इन्द्रियों से जो ग्रहण हो, वह माया है, व्यक्त है। परमात्मा का असल स्वरूप अव्यक्त है। इसीलिए-
भगत हेतु भगवान प्रभु, राम धरेउ तनु भूप ।
किये चरित पावन परम, प्राकृत नर अनुरूप ।।
जथा अनेकन वेष धरि, नृत्य करइ नट कोइ ।
सोइ सोइ भाव देखावइ, आपुन होइ न सोइ ।।
जो भाव दीखता है, वह माया है और जो उसमें व्यापक है, वह माया नहीं बना। इस बात को जाननेवाले कम हैं। सब लोगों को यह बूझना चाहिए। श्रीकृष्ण भगवान के कहे अनुकूल जो अव्यक्त को जानते हैं, वे बुद्धिमान हैं। जो अव्यक्त को नहीं जानते, वे मूढ़ हैं।
अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः ।
परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम् ।।७-२४।।
उस ईश्वर की कृपा से हम विकारों से छूटेंगे।
क्रोध मनोज मोह मद माया। छूटहिं सकल राम की दाया ।।
उसकी भक्ति हम करें। उसके स्वरूप को जानें। उसकी ओर जानेवाले कम हैं। जो नहीं जानते हैं, वे मोटी भक्ति में लगे रहते हैं। मैं कहता हूँ, मोटी भक्ति का आरंभ करो और सूक्ष्म भक्ति की ओर भी जाओ। मकान की नींव देने से ही काम खत्म नहीं होता, उस पर मकान बनाना होता है। इसी तरह मोटी भक्ति नींव है, उस पर सूक्ष्म की भक्ति मकान है।
सत्संग ज्ञानयज्ञ है। द्रव्ययज्ञ से ज्ञानयज्ञ श्रेष्ठ है।
श्रेेयान्द्रव्यमयाद्याज्ज्ञानयज्ञः परंतप ।
सर्व कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ।।
- श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ४-३३
यदि श्रद्धा और प्रेम से आप ज्ञानयज्ञ और द्रव्ययज्ञ; दोनों करते हैं, तो आपके दोनों हाथों में लड्डू है। इसके अतिरिक्त अध्यात्म-यज्ञ भी होता है। ज्ञानयज्ञ परोक्ष ज्ञान है, अध्यात्म यज्ञ प्रत्यक्ष कराता है। भगवान करें कि आप अध्यात्म-यज्ञ भी करें। वेद में भी अध्यात्म-यज्ञ का वर्णन आया है। यह करते-करते होता है।
कण्वा इन्द्रं यदव्रत स्तोमैर्यज्ञस्य साधनम् ।
जामि ब्रबुत आयुधा ।।
- सामवेद सूत्र, १० मंत्र २
अर्थात् ज्ञानीगण अपने स्त्रोतों द्वारा जब इन्द्र अर्थात् आत्मा ही को जीवनरूप-यज्ञ का साधन बना लेते हैं, तब विद्वान लोग अन्य प्राण आदि इन्द्रिय साधनों या यज्ञ के पात्रादि को प्रयोजन रहित ही सहयोगी मात्र कहते हैं। साधक लोग जब जब अध्यात्मयज्ञ करते हैं, तब द्रव्ययज्ञ व्यर्थ जान पड़ता है।∆
यह प्रवचन सहर्षा जिलान्तर्गत ग्राम बिहारीगंज (मधेपुरा) में दिनांक २७.१.१९६२ ई० को अपराह्नकालीन Prompt में हुआ था।•
नोट- इस प्रवचन में निम्नलिखित रंगानुसार और विषयानुसार ही प्रवचन के लेख को रंगा गया या सजाया गया है। जैसे- हेडलाइन की चर्चा, सत्संग, ध्यान, सद्गगुरु, ईश्वर, अध्यात्मिक विचार एवं अन्य विचार ।
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प्रभु प्रेमियों ! गुरु महाराज के इस प्रवचन का पाठ करके आपलोगों ने जाना कि अनुष्ठान क्यों करते हैं? ईश्वर का असली रूप क्या है? ईश्वर का सच्चा नाम क्या है? ईश्वर से बड़ा कौन है? ईश्वर कौन है कहाँ है कैसा है? मोह माया क्या है? माया से बाहर कैसे निकले? माया से कैसे बचा जा सकता है? मोह माया से छुटकारा कैसे पाएं? इत्यादि बातें। इतनी जानकारी के बाद भी अगर कोई संका या प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस प्रवचन के बारे में अपने इष्ट मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने। इससे आपको आने वाले प्रवचन या पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहेगी। उपर्युक्त प्रवचन का पाठ निम्न वीडियो में किया गया है। जय गुरु महाराज!!!!
महर्षि मेँहीँ सत्संग-सुधा सागर |
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S170 पूजा- पाठ, यज्ञ- अनुष्ठान, जप-तप क्यों करते हैं? Why do we perform worship, rituals, yagna, chanting and meditation?
Reviewed by सत्संग ध्यान
on
4/26/2024
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