महर्षि मेँहीँ सत्संग सुधा सागर / 245
दिमाग की ताजगी के लिए करें सत्संग
२४५. मस्तिष्क को ताजा बनाने के लिए सत्संग
प्यारे लोगो !
2 आपलोग जो सत्संग-प्रेमी हैं, घर के कामों को छोड़कर, विहार के इस कठिन महँगाई के समय में भी खर्च करके यहाँ आए हैं। यह देखकर मेरे चित्त को बहुत ही प्रसन्नता होती है। हमलोग क्यों आए? इसलिए कि जहाँ ढाई हजार वर्ष पूर्व भगवान बुद्ध सत्संग करते थे, वहाँ सत्संग करें।
3. सत्संग से हम क्या सीखते हैं? बच्चे खेल खेलने में-खिलौने में खुश होते हैं। वे कुछ वर्ष खुश रहते है। उनको समझाया-बुझाया जाता है, अभिभावक की ओर से उनको भय दिखाया जाता है, दबाव डाला जाता है और विद्याभ्यास में लगाया जाता है। जैसे-जैसे वे विद्याभ्यास में बढ़ते हैं, वैसे-वैसे उनके ज्ञान का विकास होता है। वे समझते हैं कि बचपन का खेल भले ही छूट गया। वह सदा का सुखदायक नहीं था। पढ़-लिख लेने के बाद कर्तव्य और अकर्तव्य को समझने लगते हैं तथा उचित विचार कर उचित कर्म को करते हैं। ऐसे ही वे चलते हैं।
अध्यात्मिक ज्ञान के अभाव में बच्चे |
4. यहाँ ऐसे बच्चे हैं, जो देखते हैं कि केवल संसार के ही काम हैं। जो संसार के आगे का ख्याल नहीं रखते, वे भी बच्चे हैं। मैं कहूँगा, जिनको जीवन के बाद का ख्याल नहीं है, चाहे वे कितनी अधिक उम्र के हो गए हों, फिर भी वे बच्चे हैं, चाहे वे मेरी उम्र (८३ वर्ष) के हों वा मेरी उम्र से अधिक के हों।
6. संतों ने संसार के खेल को देखा और कहा कि इसको छोड़ देना अच्छा है। एक बात तो यह है कि संसार के कामों से उपराम होना और दूसरी बात यह है कि संसार के कामों में लगे रहने पर भी संसार से उपरामता रहे। संसार के कामों में त्रुटि नहीं होने देकर उसमें उपरामता रहे, यह उत्तम है। जो संसार के कामों को छोड़कर रहते हैं, वे भी संसार के कामों और प्रबन्धों को छोड़कर नहीं रह सकते।
संसार के काम |
भगवान बुद्ध संन्यासी हुए, औरों को भी उन्होंने संन्यासी बनाया। भगवान बुद्ध के समय में जितने संन्यासी हुए उतने किन्हीं के समय में नहीं। केवल संन्यासी ही नहीं बनाए, राजा और सेनापति भी उनके शिष्य थे। उनको उन्होंने संन्यासी नहीं बना लिया, उस तरह की शिक्षा दी।
'कर ते कर्म करो विधि नाना। सुरत राख जहँ कृपानिधाना।।
8. युद्ध भी करो और स्मरण भी करो। 'तन काम में मन राम में।' करम करै करता नहीं, दास कहावै सोय।' - कबीर साहब कर्म करते थे। उन्होंने अपने जीवन यापन के लिए किसी दूसरे पर भार नहीं दिया। 'थोड़ा बनिज बहुत है बाढ़ी उपजन लागे लाल मई।' संतोष उनको बहुत था। थोड़ा-सा काम करते थे, अपना जीवन-यापन जिससे हो। मतलब यह कि जो संन्यासी हो जाते हैं, उनका कर्तव्य हो जाता है कि वे संसार के पार को बतावें। संसार में सदा रहना नहीं है।
गूरू गोविन्द सिंह जी और संत महात्मा |
10. वेद के उपदेश से यही मालूम हुआ कि इन्द्रिय का सुख, सुख नहीं है। संसार के पदार्थों में सुख नहीं, ईश्वर-भजन में सुख है। भगवान बुद्ध के वचन का धम्मपद ग्रन्थ से पाठ हुआ, उसमें भी यही आया, 'ईश्वर-भजन करो'- ऐसा तो उसमें नहीं आया, लेकिन यह आया कि संसार के सुखों में आसक्त मत होओ। तब क्या करो ? संसार के सुख में नहीं फँसकर, शरीर-सुख से जो विशेष सुख है, उस ओर चलो। निर्वाण की ओर चलो। यह संसार जो दीप-टेम के समान जलता है, सदा के लिए बुझ जाए, उधर चलो। हमलोग इन्हीं बातों को याद दिलाने और जो नहीं सुने हैं, उनको सुनाने के लिए यह सत्संग करते हैं।
3. जिनको सत्संग का चसका लग जाता है, वे दूर-दूर से आते हैं। उनके मस्तिष्क को ताजा बनाने के लिए सत्संग होता है। सुनकर लोग विद्वान होते हैं। भगवान बुद्ध ने जो वचन कहे थे, लोगों ने सुने, याद रखे। लिखे तो पीछे गए।
11. उपनिषद् के पाठ में आया कि भवसागर को पार करने के लिए सूक्ष्म मार्ग का अवलम्बन करो। स्थूल रास्ते पर चलकर संसार भर ही रहोगे, बाहर नहीं जा सकते। संसार का मार्ग तो यह है कि यहाँ से कलकत्ता जाओ और कलकत्ता से यहाँ आओ। यह स्थूल मार्ग है। दूसरा मार्ग है कि शरीर छूटने के बाद-संसार से जाने के बाद आराम से रहना हो। इसके लिए जो उत्तम उत्तम कर्म हैं, स्थूल दर्जे के ही हैं। फिर भी उत्तम हैं, उनको करो। सूक्ष्म मार्ग बहुत उत्तम है।
'लखे रे कोई बिरला पद निर्वाण।'
यह बाहर में नहीं है, भीतर का रास्ता है। उसपर पैर से चला नहीं जाता। सूक्ष्म अवलम्ब लेकर चलना होता है।
इस सत्संग से ये ही सब बातें बतायी जाएँगी। मैं धीरे-धीरे बतलाऊँगा कि सूक्ष्म मार्ग कहाँ है, उसका आरम्भ कहाँ से है और अंत कहाँ है? मैं विश्वास दिलाता हूँ कि मैं बतलाऊँगा कि जहाँ से आपको फिर लौटकर इस संसार में आना नहीं होगा। n
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महर्षि मेँहीँ सत्संग-सुधा सागर |
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