महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर / 125
हठयोग और राजयोग में अंतर पर व्याख्या करते हुए |
१२५. श्रीमद्भगवद्गीता में ध्यानयोग
प्यारे लोगो !
मोक्ष पाने के वास्ते अथवा परमात्म दर्शन के वास्ते ज्ञान और योग - दोनों की बड़ी आवश्यकता है । ज्ञान का अर्थ है - जानना । योग का अर्थ है मिलना । ईश्वर संबंधी बातों का जानना , सत्य- असत्य का निर्णय होना , आत्मा - अनात्मा का विचार होना जिस ज्ञान में होता है , वह है ज्ञान । मात्र व्यावहारिक ज्ञान सत्य - असत्य ज्ञान के समक्ष अज्ञान मेंं दाखिल है । श्रीमद्भगवद्गीता में एक अध्याय क्षेत्र क्षेत्रज्ञवाला ज्ञानयोग है । इसमें है कि क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ के ज्ञान को ज्ञान कहते हैं और सबको अज्ञान कहते हैं ।
पाँच स्थूल तत्त्व ( मिट्टी , जल , अग्नि , वायु और आकाश ) पाँच सूक्ष्म तत्त्व ( रूप , रस , गन्ध , स्पर्श और शब्द ) , दशेन्द्रियाँ ( पाँच ज्ञान इन्द्रियाँ आँख , कान , नाक , जिह्वा और त्वचा । पाँ कर्मेन्द्रियाँ हाथ , पैर , गुदा , लिंग और मुँह ) तथा मन , अहंकार , बुद्धि , प्रकृति , चैतन्य , संघात ( कहे गए का संघ रूप ) , धृति ( धारण करने की शक्ति ) , इनके विकार- इच्छा द्वेष , सुख , दुख ; इन इकतीस तत्त्वों को सविकार क्षेत्र कहते हैं । इनके अतिरिक्त जो शरीर में है , उसको क्षेत्रज्ञ या आत्मा कहते हैं । महाभारत में है कि यही क्षेत्रज्ञ जब शरीर के गुणों से छूट जाता है , तब परमात्मा हो जाता है । जैसे घटस्थित आकाश महादाकाश से भिन्न नहीं है , किंतु घट के फूट जाने पर वह एक - ही - एक महदाकाश रहता है । जैसे वह एक ही आकाश सबमें है , उसी तरह एक ही परमात्मा सबमें है , किंतु उस एक को पहचानना कठिन है । जैसे एक जेवर है सोने का । उस जेवर में सोना - ही - सोना है । जेवर का नाश होगा , सोना रहेगा । उसी तरह यह संसार जेवर है । परमात्मा सोना है , संसार का नाश होगा , परमात्मा रहेगा ।
दार्शनिक विचार भिन्न - भिन्न हैं । ऐसा क्यों ? एक जगह चार अंधे थे । उन लोगों के मन में हुआ कि हाथी देखा जाय । उनके सामने हाथी लाया गया । चारों ने हाथी के अंगों का अलग- अलग स्पर्श किया । जब हाथी चला गया , तब आपस में पूछने लगे कि हाथी कैसा है ? जिसने हाथी के पाँव को छुआ था उसने कहा - हाथी स्तम्भ के समान होता है । जिसने कान छुआ था- उसने कहा - हाथी सूप के समान होता है । जिसने लँड छुआ था , उसने कहा - हाथी मूसल के समान होता है । जिसने पेट - पीठ छूए थे , उसने कहा- हाथी कोठी के समान होता है । जिस तरह उन अंधों को नयनहीनता के कारण हाथी का सही ज्ञान नहीं हुआ , उसी तरह केवल दार्शनिक - विचार में यह अंधापन नहीं छूटता । कोई बड़ा दार्शनिक है , किंतु उसकी आँख खुलती नहीं । यह आँख कैसे खुलेगी ? योग के द्वारा । योग के द्वारा जो परमात्मा से जाकर मिलता है , वही ठीक - ठीक जानता है । इसलिए योग और ज्ञान - दोनों की बड़ी आवश्यकता है ।
यह योग हमारे देश में जितने अधिक दिनों से आ रहा है , उतने पुराने और किसी देश में नहीं । दार्शनिक विचार दूसरे - दूसरे देश में भी थे , किंतु योग के सहित दर्शन हमारे देश में भी था और है । हाल ही में हमारे देश में एक अंग्रेज पाल ब्रटन नाम के आए थे योग की खोज में । दक्षिण भारत के मदुरै में श्री महर्षि रमण से बहुत संतुष्ट होकर वे अपने देश गए । लोग योग से डरते हैं , किंतु योग का अर्थ जोड़ना है । योगदर्शन पढ़नेवाले कहते हैं - चित्तवृत्ति - निरोध को योग कहते हैं । यह भी ठीक ही है । हमारे देश में हठयोग विशेष प्रसिद्ध है । यह इसलिए कि इस क्रिया के द्वारा शरीर की पूरी सफाई हो जाती है , जिससे राजयोग क्रिया करने में सुलभता होती है । हठयोग राजयोग की क्रिया करने के योग्य बनाने के लिए किया जाता है , न कि यह हठयोग - योग है । इसमें ठीक - ठीक रीति से किया जाय , तब तो ठीक है , यदि अविधि हुई तो बड़ी गड़बड़ी होती है ।
एक योगी थे , वे लम्बे दतुवन अपने मुँह से धीरे - धीरे गले के नीचे उतारते थे , फिर उसे निकाल लेते थे । यह क्रिया वे प्रायः प्रतिदिन किया करते थे । एक दिन ऐसा हुआ कि दतुवन असावधानी के कारण उसके पेट चला गया । उसके चलते दतुवन मुंह से निकल नहीं सका । परिणामस्वरूप उनका प्राणान्त हो गया । हठयोग में किसी का मस्तिष्क खराब हो जाता है । इससे लोग समझते हैं कि योग बड़ा कठिन है । शाण्डिल्योपनिषद् में लिखा है
यथा सिंहोगजो व्याघ्रो भवेतश्यः शनैः शनैः । तथैव सेवितो वायुरन्यथा हन्ति साधकम् ॥
अर्थात् जैसे सिंह , हाथी और बाघ धीरे - धीरे काबू में आते हैं इसी तरह प्राणायाम ( अर्थात् वायु का अभ्यास कर वश में करना ) भी किया जाता है , प्रकारान्तर होने से वह अभ्यासी को मार डालता है । इन घटनाओं से हमारे देश के लोग योग से बहुत डर गए हैं । अकेला हठयोग पूर्णता को प्राप्त नहीं करा सकता । उसके बाद राजयोग करने से ही पूर्णता प्राप्त होगी और राजयोग बिना हठयोग के भी पूर्णता को प्राप्त करा देता है ।
श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा - ' यह योग मैंने पहले पहल सूर्य को बताया । सूर्य ने अपने पुत्र मनु को , मनु ने अपने पुत्र इक्ष्वाकु को दिया था । इस भाँति राजर्षियों की परम्परा में यह उपदेश बहुत काल तक चलता रहा ' दीर्घकाल की प्रबलता से इस योग का लोप हो गया , जिसे भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को सुनाकर प्रकट किया ।
गीता में ध्यानयोग का एक अध्याय खास करके है । प्राणायाम के विषय में चर्चा तो है , किंतु एक भी अध्याय प्राणायाम योग का नहीं है । ध्यान योग के लिए तो कहा गया है कि ऐसी जगह पर बैठो , ऐसी आसनी रखो , इस ढंग से बैठो ; किंतु प्राणायाम के लिए ये सब कुछ नहीं बतलाए गए हैं । इससे साफ मालूम होता है कि भगवान ने ध्यानयोग की ओर विशेष ध्यान दिया है । मन को पवित्र रखो और मन को साधना में लगाए रहो इस प्रकार निरन्तर अभ्यास करते रहने से ध्यान- योग सिद्ध होगा । गुरु नानकदेवजी ने कहा है-
गुरकी मूरति मन महि धिआनु । गुरु कै शबदि मंत्र मनु मानु ।। गुर के चरण रिदै लै धारउ । गुरु पारब्रह्म सदा नमसकारउ ।। मत को भरमि भूलै संसारि । गुर बिनु कोई न उतरसि पारि ॥ भूलैकउ गुरिमारगि पाइआ । अबरितिआगी हरि भगती लाइआ ।। जनम मरण की त्रास मिटाई । गुर पूरे की बेअंत बड़ाइ ।। गुरप्रसादि ऊरय कमल विगास । अंधकारमहि भइआ प्रगास ।। जिनिकिआ सोगुरतेजानिआ । गुरकिरपा ते मुगधमने मानिआ ।। गुरु करता करणै जोगु । गुरु परमेसुर है भी होगु ॥ कहु नानकप्रभि इहु जनाई । बिनुगुरु मुकति न पाइ भाई ।।
संत कबीर साहब ने कहा है
मूल ध्यान गुरु रूप है , मूल पूजा गुरु पाँव । मूल नाम गुरु वचन है , मूल सत्य सतभाव ।।
संतों ने साधना के आरंभ में कुछ व्यक्त उपासना का सहारा अवश्य लिया है । किसी ने राम का , किसी ने कृष्ण का , किसी ने देवी आदि के स्थूल रूप का सहारा उपासना में लिया ; किंतु इतना ही नहीं , इसके बाद उन्होंने सूक्ष्मध्यान भी बताया है , जैसे अणोरणीयाम् का ध्यान अर्थात् विन्दु ध्यान । तेजोविन्दूपनिषद् में आया है
तेजो विन्दुः परंध्यानं विश्वात्महृदि संस्थितम् ।
अर्थात् हृदयस्थित विश्वात्म तेजस् स्वरूप विन्दु का ध्यान परम ध्यान है । ध्यानविन्दूपनिषद् में भी आया है
बीजाक्षरं परं विन्दु नादं तस्योपरि स्थितम् । सशब्दं चाक्षरे क्षीणे नि : शब्दं परमं पदम् ॥
अर्थात् परम विन्दु ही बीजाक्षर है । उसके ऊपर नाद है । नाद जब अक्षर ( अनाश ब्रह्म ) में लय हो जाता है , तो निशब्द परम पद है । संयम के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के छठे अध्याय में कहा है
युक्ताहार विहारस्य युक्त चेष्टस्य कर्मसु । युक्त स्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ॥
अर्थात् दुःखों का नाश करनेवाला योग तो यथायोग्य आहार - विहार करनेवाले का , कर्मों का यथायोग्य चेष्टा करनेवाले का और यथायोग्य सोने तथा जागनेवाले का ही सिद्ध होता है । इसलिए भोजन , शयन , जागरण और जागतिक कार्यों में भी संतुलन रखो ।
शरीर की सफाई रखो । केवल शरीर की सफाई ही नहीं , शरीर मैला रहे और मन पवित्र रहे , तो वही विशेष है । केवल शरीर पवित्र हो और मन मैला हो तो वह किस काम का ? सूक्ष्म ध्यान के बाद अरूप ध्यान नाद है । इसी को कहा-
बाजत नाम नौबति आज । द्वै सावधान सुचित सीतल , सुनहु गैब आवाज ॥ सुख कंद अनहद नाद सुनि , दुःखदुरितक्रमभ्रम भाज । सतलोक वर सोपानि , धुनि निर्वान यहि मनबाज ॥ तोहंचेत चित दै प्रेम मगन , अनंद आरति साज । घर राम आये जानि , भइनि सनाथ बहुरा राज ॥ जगजीवन सतगुरु कृपा पूरन , सुफल भेजन काज । धनि भाग दूलन दास तेरे , भक्ति तिलक विराज ॥ -संत दूलनदासजी
और कबीर साहब ने कहा
पाँचो नौबत बाजती , होत छतीसोराग । सो मंदिर खाली पड़ा , बैठन लागे काग ।
किंतु जबतक विन्दु को कोई नहीं पकड़ सकता , वह नाद ध्यान करने के योग्य नहीं होता । संत पलटू साहब ने कहा -
' विन्दु में तहँ नाद बोले , रैन दिवस सुहावन । '
इसकी युक्ति गुरु से जानकर त्रयकाल संध्या करो । इसके लिए घरवार छोड़ने की जरूरत नहीं । जो जिस अवस्था में है , उसी में रहते हुए भजन करो । फिर सोते समय भी थोड़ा - थोड़ा ध्यान करते हुए सो जाओ । तन काम में , मन राम में लगाए रहो । तामसी - राजसी भोजन नहीं करो । सात्त्विक भोजन करो । सात्त्विक भोजन भी हल्का करो । विशेष खाने से आलस्य विशेष आता है - उससे भजन नहीं बन सकता । कम खाने से ऐसा नहीं होगा कि शरीर में बल नहीं रहेगा । हल - फाल जोतनेवाले भी ध्यान कर सकते हैं । हमारे विशेष सत्संगी तो हल - फाल जोतनेवाले ही हैं । योग कोई हौआ नहीं है । इससे डरने की जरूरत नहीं है । थोड़ा - थोड़ा सब कोई अभ्यास कीजिए ।∆
(यह प्रवचन भागलपुर जिलान्तर्गत मोहद्दीनगर के दुर्गास्थान में दिनांक १८.९ .१९५५ ई० को प्रातः सत्संग में हुआ था । )
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