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S124, (क) बिना ध्यान के समाधि नहीं ।। Aatma aur Paramaatma mein Antar ।। १३.८.१९५५ ई०अपराह्न

महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर / 124

प्रभु प्रेमियों ! सत्संग ध्यान के इस प्रवचन सीरीज में आपका स्वागत है। आइए आज जानते हैं-संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज के हिंदी प्रवचन संग्रह "महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर" के प्रवचन नंबर 124 के बारे में। इसमें बताया गया है कि  परमात्मा का ज्ञान कैसे करें? आत्मा किसे कहते है? जीवात्मा किन इन्द्रियों से युक्त है? अनंत किसे कहते हैं? अनंत का सही अर्थ क्या है?

इसके साथ ही आप इस प्रवचन (उपदेश, अमृतवाणी, वचनामृत, सत्संग सुधा, संतवाणी, गुरु वचन, उपदेशामृत, ज्ञान कथा, भागवत वाणी, संतवचन, संतवचन-सुधा, संतवचनामृत, प्रवचन पीयूष )  में  पायेंगे कि- ईश्वर स्वरूप का ज्ञान कहां होता है? आकाश और हवा की उपमा से आत्मा और परमात्मा का ज्ञान कैसे करें? आत्मा किसे कहते है? जीवात्मा किन इन्द्रियों से युक्त है? अनंत किसे कहते हैं? अनंत का सही अर्थ क्या है? आत्मा और परमात्मा में क्या अंतर है? परमात्मा का वर्णन बुद्धि क्यों नहीं कर सकती है? आत्मा अल्पज्ञ और परमात्मा सर्वज्ञ क्यों है? जीवात्मा परमात्मा के साथ है फिर भी सर्वज्ञ क्यों नहीं है? ध्यान योग और प्राणायाम में श्रेष्ठ कौन है? इत्यादि बातों  के बारे में। इसके साथ-ही-साथ निम्नलिखित प्रश्नों के भी कुछ-न-कुछ समाधान इसमें मिलेगा। जैसे कि- आत्मा और परमात्मा में क्या अंतर है? परमात्मा कैसे मिलते हैं? परमात्मा का मतलब क्या है? आत्मा और परमात्मा में क्या फर्क है? परमात्मा का मिलन कैसे होता है? आत्मा और परमात्मा का क्या संबंध है? परमात्मा की परिभाषा, आत्मा और परमात्मा का दर्शन, आत्मा परमात्मा का रहस्य, परमात्मा का क्या अर्थ है? आत्मा और परमात्मा के बीच का अंतर, आत्मा परमात्मा की एकता का सिद्धांत, परमात्मा की पहचान, आत्मा को परमात्मा से मिलाने को क्या कहते हैं? परमात्मा कैसे होते हैं? इत्यादि बातें। इन बातों को जानने-समझने के पहले, आइए !  संत सदगुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज का दर्शन करें।

इस प्रवचन के पहले वाले प्रवचन नंबर 123 को पढ़ने के लिए   यहां दवाएं

Atma aur Parmatma mein kya bhed hai ise samjhate hue sadguru Maharshi Mehi paramhans Ji Maharaj aur shishya Ganj

 

१२४. बिना ध्यान के समाधि नहीं


प्यारे लोगो ! 
     सत्संग में सबसे विशेष बात यह है कि ईश्वर - स्वरूप का ठीक - ठीक निर्णय हो जाय और वह बुद्धि को ठीक - ठीक अँच जाय । इसीलिए उपनिषद् और रामचरितमानस का पाठ हुआ । 

     उपनिषद् में ईश्वर को आत्मा कहा गया है। कहीं - कहीं परमात्मा कहा है । जैसे कोई आकाश कहे तो घर का आकाश और बाहर का आकाश दोनों का ज्ञान होता है । ऐसा नहीं कि आत्मा कहने से केवल शरीर के अंदर की आत्मा जानो । जैसे कोई - कोई आकाश कहने से घर के आकाश को समझे और बाहर के आकाश को नहीं समझे , उसकी यह भूल है । उसी प्रकार आत्मा कहने से केवल शरीर के अंदर की आत्मा जानना भूल है । जिस तरह वायु सब घट - मठ को भरकर उनके अनुरूप रूपों को धारण करती है । एक गिलास में भरकर हवा है । उस हवा का रूप उस समय गिलास के समान है । एक घर में व्यापक हवा घर के रूप के अनुरूप है और उससे बाहर भी है । उसी प्रकार उपमा देकर उपनिषत्कार ने समझाया है कि जैसे घर और बाहर की हवा सब एक ही है , उसी तरह सब भूतों में और सबके बाहर एक ही अंतरात्मा है । सब भूतों का अर्थ सब जीवों का है । 

वायुर्यथैको भुवनं प्रविष्टो रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव । एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मारूपं रूपंप्रतिरूपो बहिश्च ॥ 

     अर्थात् जिस प्रकार इस लोक में प्रविष्ट हुआ वायु प्रत्येक रूप के अनुरूप हो रहा है , उसी प्रकार संपूर्ण भूतों का एक ही अंतरात्मा प्रत्येक रूप के अनुरूप हो रहा है और उनसे बाहर भी है ।

      आत्मा कहने से जीव - दशा नहीं होती । वह सबमें है , किंतु सब - सा नहीं है । वह मन से जानने योग्य नहीं है । मन उसका मनन नहीं कर सकता है । जैसे और वस्तु को मन जानता - पकड़ता है , उस तरह उसको नहीं जान सकता , पकड़ सकता है । यह आत्मा वेद वाक्यों से , बुद्धि से , बहुत स्मरण रहने से प्राप्त नहीं हो सकता । आत्मा से ही आत्मा - परमात्मा प्राप्त होता है । जो सबके अंदर रहते हुए सबसे बाहर है , वह शरीरस्थ आत्मा से प्राप्त होता है । शरीरस्थ आत्मा एक अंत : करण व्यापी होता है और दूसरे उससे परे होता है । अंतःकरण अर्थात् भीतर की इन्द्रियाँ । 

     मन से कुछ जानते हो , बुद्धि से विचारते हो , चित्त से कम्पन होता है , अहंकार में मैंपन का बोध होता है । इन चारों से युक्त है जीवात्मा । ये चारों इन्दियाँ जड़ हैं चेतन आत्मा से नीचे है , चेतन आत्मा नहीं है । क्षर नाशवान है । अक्षर अनाश है , इससे परे पुरुषोत्तम है । इसी के लिए उपनिषद् अनंत , अचल , ध्रुव कहा गया है । अनंत का अर्थ यदि कोई असंख्य करता है , तो वह भूल है । अनंत एक से अधिक नहीं हो सकता । दो अनंत होने से दोनों का जहाँ मेल मिलेगा , वहाँ ससीम हो जाएगा । जैसे घर के बाहर के आकाश का भेद जानने के लिए घटकाश और महदाकाश कहते हैं । उसी प्रकार शरीरस्थ आत्मा के लिए जीवात्मा शब्द का व्यवहार होता है और ब्रह्माण्ड में व्यापक ब्रह्म के लिए परमात्मा शब्द का व्यवहार होता है । जहाँ प्रकृति का फैलाव है , वह ब्रह्म । और जहाँ प्रकृति का फैलाव नहीं है , वहाँ उसको परमात्मा कहते हैं ।

     ईश्वर एक है , उससे बाहर कोई जा नहीं सकता ; क्योंकि अनंत का कहीं अंत ही नहीं है । अनंत के बाहर कौन जा सकता है ? परमात्मा अवर्णनीय है । बुद्धि वर्णन नहीं कर सकती है ; क्योंकि बुद्धि बहुत पीछे हुई है । जीवात्मा का ज्ञान और आत्मा का ज्ञान परमेश्वर का ज्ञान है । यदि कहा जाय कि ' एक ईश्वर नहीं अनेक ईश्वर हैं । ' तो यह युक्ति संगत नहीं । आज तक संसार में जितने आचार्य हुए , किसी के वचन से ' वेदान्त- सिद्धान्त ' का मेल नहीं है । 

     यहाँ के लोग यदि समझना चाहें , तो यहाँ आकर बहुत दिनों तक सत्संग करें । ' वेदान्त - सिद्धान्त ' अनेक आत्मा मानता है ; यह नास्तिक है , आस्तिक हरगिज नहीं । इस पुस्तक में दो ही शरीर माना है । उपनिषदों में तीन शरीर माना है और संतवाणी में पाँच शरीर माना है । ये पाँचों शरीर उन तीनों में ही समा जाते हैं , इसलिए तीन मानो या पाँच । एक कोई भी ऐसा स्थूल पदार्थ नहीं , जिसमें सूक्ष्म का प्रवेश नहीं । सूक्ष्म ऐसा पदार्थ नहीं , जिसमें कारण न प्रवेश कर सके । ' वेदान्त - सिद्धान्त ' है कि ' ईश्वर सर्वज्ञ है और जीव अल्पज्ञ है , तो जीव में ईश्वर व्यापक है , तब वह सर्वज्ञ क्यों नहीं हो जाता है ? ' मैं कहता हूँ कि एक ही इन्द्रिय से सब ज्ञान क्यों नहीं होता ? हाथ से देखते क्यों नहीं , आँख से सुनते क्यों नहीं ? यह तो यंत्र के अनुकूल है । सर्वव्यापी ईश्वर सब में रहते हुए जीव अज्ञान में है । अल्पज्ञ और सर्वज्ञ एक साथ नही रह सकते । ऐसा उनका सिद्धांत है । 

     किसी विषय को तुम विशेष जानते हो , किसी विषय को कम जानते हो तो तुममें ही कम ज्ञान और विशेष ज्ञान दोनों है , तो इन दोनों को एक साथ रखते हुए कैसे रहते हो ? इसका निर्णय कर लो । यदि तुम दोनों एक साथ रह सकते हो , तब अल्पज्ञ और सर्वज्ञ एक साथ है , तो क्या आश्चर्य है ? व्यक्ति का सर्वज्ञ होना सिद्ध नहीं हो सकता । भगवान बुद्ध ने कहा- मैं सर्वज्ञ हूँ । ' कितने प्रश्न उन पर हुए । कितने में वे चुप हो गए । मलिन्द शाह ने नागसेन से पूछा कि ' तुम्हारे भगवान सर्वज्ञ थे , तब उन्होंने कितने का उत्तर क्यों नहीं दिया ? ' नागसेन ने कहा - ' राजा ! कितने ऐसे प्रश्न हैं , जिनका उत्तर चुप होना ही उत्तर है । ' कितनी चीजें बुद्धि में आती हैं , किंतु वचन में नही आती हैं । नमक का स्वाद कैसा होता है ? इसका वर्णन नहीं किया जा सकता । अलग - अलग आम को खाते हो , आम के स्वाद को जानते हो , किंतु उसको फुटा - फुटाकर लिखना असंभव है । योगवाशिष्ठ नामक ग्रंथ में वशिष्ठ मुनि और भगवान राम संवाद है । वशिष्ठ मुनि ने कहा - ' जितने हमलोग हैं , सब एक ही हैं । ' श्रीराम ने कहा - ' तब आप कहते किसको हैं ? ' वशिष्ठजी चुप हो गए । श्रीराम ने कहा - ' गुरुदेव ! आप रूष्ट तो नहीं हो गए ? ' उन्होंने कहा - ' नहीं बेटा ! मैं उत्तर दे रहा हूँ । इसका उत्तर चुप है । ' वाह्व और वास्कल मुनि का शंका समाधान होते - होते अंत में वाह्न मुनि चुप हो गए । इसका उत्तर ही चुप है । 

     ईश्वर अनेक कभी नहीं हो सकते । यहाँ इस संसार में एक दूसरे पर काबू रखता है । यदि एक दूसरे पर काबू नहीं रखे तो संसार की क्या हालत हो ? राष्ट्रपति हैं , मंत्री हैं , राज्य - राज्य में मंत्री हैं । थाने - थाने में दारोगा रहते हैं । इसके ऊपर के हाकिम इन पर काबू रखते हैं , तब ठीक - ठीक काम होता है । धर्म में आचार्य होते हैं । वे जैसे - जैसे बताते हैं , लोग उनके अनुकूल चलते हैं , तो वह संस्था ठीक ठीक चलती है । यदि आचार्य नहीं हों , नियंत्रण करनेवाले नहीं हों तो संस्था नहीं रह सकती । 

     अनेक ईश्वर मानते हैं । एक ईश्वर दूसरे से लड़ते हैं , डाका मारते हैं । यदि कहो कि एक दिन हम ईश्वर हो जाएंगे । तो जब ईश्वर हो जाओगे , तब कहना । एक साधारण साधक कहे कि मैं संत हूँ , हो नहीं सकता । संत का अर्थ मैं पूर्ण मानता हूँ एक साधारण विद्यार्थी कहे कि कॉलेज की पढ़ाई समाप्त कर दी , हो नहीं सकता । कॉलेज की पढ़ाई पढ़े , पढ़ते - पढ़ते पढ़ाई समाप्त करे , फिर कहे । सत्संग से लोगों को यह ज्ञान दिया जाता है कि लोग बहके नहीं , ठीक - ठीक रास्ते पर चले । 

     ईश्वर का ज्ञान होना चाहिए । ईश्वर एक है । अनेक ईश्वर मानने से बीचमें अवकाश देना होगा । बिना अवकाश के एक दो का ज्ञान नहीं हो सकता । दोनों के बीच में उसको फुटाने के लिए कुछ फाँक अवश्य रहेगी । अपने शरीर को ही देखिए । आँख और कान के बीच में अवकाश के बिना पहचाना नहीं जा सकता । अपने अल्प ज्ञान में विशेष ज्ञान को दुहराओ , उचित नहीं । 

     आत्मा एक ही है । आत्मा से प्रार्थना करो । जब एक ही आत्मा है , तब प्रार्थना किसी दूसरे से करोगे ? कहाँ तो काम का दास और कहाँ परमात्मा का दास - दोनों एक ही हैं ? अपना गुलाम आप बनते हो । सवेरे पखाना जाते हो , तो अपना मैला साफ करते हो , इसकी लज्जा नहीं और परमात्मा का दास - भक्त बनो , इसमें लज्जा ! यह कौन ज्ञान है ? परमात्मा के सिवा संसार में और ऐसा पदार्थ नहीं है , जो अनंत । अनंत एक ही हो सकता है । विचारने से एक अनंत अवश्य सिद्ध होता है । गोस्वामी तुलसीदास या और कोई आचार्य झूठे नहीं । उनकी बातों को टालने से अपनी ही हानि होगी , उनका कुछ नहीं बिगड़ेगा । अंत : करण से जो तुम बोध करते हो , उससे विशेष वह है । जो तुम अंत : करण रहित होकर बोध करोगे , तब तुम संतों की वाणियों को समझोगे । संतों की बुद्धि के परे की वाणी को तुम बुद्धि में अँटाओगे , हो नहीं सकता । जब सब ईश्वर ही हैं , तब मुनि , मुनिवर , मुनिरत्न आदि छोटी - बड़ी पदवियाँ क्यों ? गोस्वामी तुलसी दासजी ने कहा - ' जानत तुम्हहिं तुम्हइ होइ जाई । ' अपने शरीरस्थ आत्मा को पहचान लो , वही हो जाओगे । तब फिर सभी शंकाएँ मिट जाएँगी । इसके लिए बहुत शुद्ध आचरण चाहिए । इसलिए संतों ने झूठ , चोरी , नशा , हिंसा और व्यभिचार ; इन पाँचों महापापों से बचने को कहा । 

     हमारे पेट में जोंकटी कीटाणुओं से भी बड़ी है । तन में भी चेतन है , किंतु वह लेक्चर नहीं देता । मनुष्य शरीर रहते हुए भी उसमें मनुष्य वाला ज्ञान क्यों नहीं होता है ? उसी तरह परमात्मा के इसमें व्यापक रहने पर भी जीव को सर्वज्ञता नहीं होती । जैसे लकड़ी में अग्नि है , किंतु लकड़ी को पकड़ने से हाथ जलता नहीं है । अग्नि को पकड़ने से हाथ जलता है । लकड़ी को भी रगड़ने से अग्नि निकलती है । इस देह में चेतन है , तो इसको रगड़ने से चेतन क्यों नहीं निकलता है ? तुम तो व्यक्त लकड़ी को व्यक्त लकड़ी से रगड़ते हो । यहाँ तो शरीर व्यक्त है और परमात्मा अव्यक्त है । इन दोनों को कैसे रगड़ सकते हो ? ब्रह्मानन्द स्वामी ने कहा कि 

जिमि दूध के मथन से निकसत है , घी जतन से । तिमिध्यान के लगन से , परब्रह्म ले निहारा ॥

     श्रीमद्भगवद्गीता के अनुयायी ने कहा कि ' अब ध्यान करने का समय नहीं है । जिन भगवान बुद्ध को ध्यान - योगी कहते हैं , उनके शिष्य कहते हैं अब ध्यान करने का समय नहीं है । सारे संसार के लोग जिस अध्यात्म - विद्या के लिए यहाँ आते थे , उस ज्ञान को झाँप दो , उचित नहीं । गीता में सबसे विशेष कर्मयोग को माना गया है । स्थिर बुद्धि रखकर समान दृष्टि से सब संसार को देखते हुए काम करो । अपना सुख - दुख जैसा , दूसरे का भी सुख - दुःख वैसा ही समझो । सब काम करते रहो और ईश्वर की तरफ मन लगाते रहो , यह भक्ति - कर्मयोग है ।  स्थितप्रज्ञता - समत्व कैसे होगा , इसके लिए प्राणायाम योग करो या ध्यानयोग करो गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने प्राणायाम का वर्णन किया है , किंतु ध्यानयोग की जैसी विधि बतलाई गई है , वैसी नहीं । वहाँ कहा गया है कि ' समाधि में तुम्हारी बुद्धि स्थिर होगी । ' बिना ध्यान के समाधि नहीं हो सकती । जिससे हो सके प्राणायाम करो । जिससे नहीं हो सके यह ध्यान करो । प्राणायाम में आपदा भी आ सकती है , उससे फेफड़ा बिगड़ सकता है , मस्तिष्क बिगड़ कर पागलपन हो सकता है , किंतु ध्यानयोग में आपदा नहीं शाण्डिल्योपनिषद् में आया है 

यथा सिंहोगजो व्याघ्रो भवेतश्यः शनैः शनैः । तथैव सेवितो वायुरन्यथा हन्ति साधकम् ॥ 

     अर्थात् जैसे सिंह , हाथी और बाघ धीरे- धीरे काबू में आते हैं , इसी तरह प्राणायाम भी किया जाता है । प्रकारान्तर होने से वह अभ्यासी को मार डालता है । नीचे के पाँच चक्रों का नहीं , केवल छठे चक्र ( आज्ञाचक्र ) से ही साधना आरंभ करो , तो पाँचों चक्रों के जो गुण हैं , वे भी आ जाएँगे , ऐसा वर्णन शिवसंहिता में है 

यानि यानि हि प्रोक्तानि पंच पट्टे फलानि वे । तानि सर्वानि सुतरामेतज्ज्ञानाद्भवन्ति हि ॥ 

     अर्थात् पंच पद्मों का जो - जो फल पहले कहा , सो समस्त फल आप ही इस आज्ञाकमल के ध्यान से प्राप्त हो जाएगा ।

     यदि किसी को गुरु ने सिखाया हो नीचे के चक्र से ध्यान करने का , तो वही करो । गीता बहुत अच्छी पुस्तक है । जो उसके अनुकूल चलेगा उसका कल्याण होगा । 

     भक्ति बहुत दूर तक अंदर - अंदर है । बाहर में सत्संग का सहारा है । जो पिछले जन्म किया हुआ आया है , वह बाहर - बाहर की पूजा नहीं करे , अंदर - अंदर की करे , तो करे । ज्ञानकाण्ड में भी भक्ति है । बिना भक्ति के कल्याण नहीं , बिना सत्संग के भक्ति नहीं होती । बिना सद्गुरु के सत्संग नहीं हो सकता । जो गुरु , सत्संग , भक्ति - ध्यान की शरण लेगा , वह भव सागर से पार होगा

( यह प्रवचन कटिहार जिला के श्रीसंतमत सत्संग मंदिर मनिहारी में दिनांक १३.८.१९५५ ई० को अपराह्नकालीन सत्संग में हुआ था ।)


नोट-  इस प्रवचन में निम्नलिखित रंगानुसार और विषयानुसार ही  प्रवचन के लेख को रंगा या सजाया गया है। जैसे-  हेडलाइन की चर्चा,   सत्संग,   ध्यान,   सद्गगुरु  ईश्वर,   अध्यात्मिक विचार   एवं   अन्य विचार   । 


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S124, (क) बिना ध्यान के समाधि नहीं ।। Aatma aur Paramaatma mein Antar ।। १३.८.१९५५ ई०अपराह्न S124, (क)  बिना ध्यान के समाधि नहीं ।। Aatma aur Paramaatma mein Antar ।। १३.८.१९५५ ई०अपराह्न Reviewed by सत्संग ध्यान on 6/28/2018 Rating: 5

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