महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर / 124
१२४. बिना ध्यान के समाधि नहीं
उपनिषद् में ईश्वर को आत्मा कहा गया है। कहीं - कहीं परमात्मा कहा है । जैसे कोई आकाश कहे तो घर का आकाश और बाहर का आकाश दोनों का ज्ञान होता है । ऐसा नहीं कि आत्मा कहने से केवल शरीर के अंदर की आत्मा जानो । जैसे कोई - कोई आकाश कहने से घर के आकाश को समझे और बाहर के आकाश को नहीं समझे , उसकी यह भूल है । उसी प्रकार आत्मा कहने से केवल शरीर के अंदर की आत्मा जानना भूल है । जिस तरह वायु सब घट - मठ को भरकर उनके अनुरूप रूपों को धारण करती है । एक गिलास में भरकर हवा है । उस हवा का रूप उस समय गिलास के समान है । एक घर में व्यापक हवा घर के रूप के अनुरूप है और उससे बाहर भी है । उसी प्रकार उपमा देकर उपनिषत्कार ने समझाया है कि जैसे घर और बाहर की हवा सब एक ही है , उसी तरह सब भूतों में और सबके बाहर एक ही अंतरात्मा है । सब भूतों का अर्थ सब जीवों का है ।
वायुर्यथैको भुवनं प्रविष्टो रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव । एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मारूपं रूपंप्रतिरूपो बहिश्च ॥
अर्थात् जिस प्रकार इस लोक में प्रविष्ट हुआ वायु प्रत्येक रूप के अनुरूप हो रहा है , उसी प्रकार संपूर्ण भूतों का एक ही अंतरात्मा प्रत्येक रूप के अनुरूप हो रहा है और उनसे बाहर भी है ।
आत्मा कहने से जीव - दशा नहीं होती । वह सबमें है , किंतु सब - सा नहीं है । वह मन से जानने योग्य नहीं है । मन उसका मनन नहीं कर सकता है । जैसे और वस्तु को मन जानता - पकड़ता है , उस तरह उसको नहीं जान सकता , पकड़ सकता है । यह आत्मा वेद वाक्यों से , बुद्धि से , बहुत स्मरण रहने से प्राप्त नहीं हो सकता । आत्मा से ही आत्मा - परमात्मा प्राप्त होता है । जो सबके अंदर रहते हुए सबसे बाहर है , वह शरीरस्थ आत्मा से प्राप्त होता है । शरीरस्थ आत्मा एक अंत : करण व्यापी होता है और दूसरे उससे परे होता है । अंतःकरण अर्थात् भीतर की इन्द्रियाँ ।
मन से कुछ जानते हो , बुद्धि से विचारते हो , चित्त से कम्पन होता है , अहंकार में मैंपन का बोध होता है । इन चारों से युक्त है जीवात्मा । ये चारों इन्दियाँ जड़ हैं चेतन आत्मा से नीचे है , चेतन आत्मा नहीं है । क्षर नाशवान है । अक्षर अनाश है , इससे परे पुरुषोत्तम है । इसी के लिए उपनिषद् अनंत , अचल , ध्रुव कहा गया है । अनंत का अर्थ यदि कोई असंख्य करता है , तो वह भूल है । अनंत एक से अधिक नहीं हो सकता । दो अनंत होने से दोनों का जहाँ मेल मिलेगा , वहाँ ससीम हो जाएगा । जैसे घर के बाहर के आकाश का भेद जानने के लिए घटकाश और महदाकाश कहते हैं । उसी प्रकार शरीरस्थ आत्मा के लिए जीवात्मा शब्द का व्यवहार होता है और ब्रह्माण्ड में व्यापक ब्रह्म के लिए परमात्मा शब्द का व्यवहार होता है । जहाँ प्रकृति का फैलाव है , वह ब्रह्म । और जहाँ प्रकृति का फैलाव नहीं है , वहाँ उसको परमात्मा कहते हैं ।
ईश्वर एक है , उससे बाहर कोई जा नहीं सकता ; क्योंकि अनंत का कहीं अंत ही नहीं है । अनंत के बाहर कौन जा सकता है ? परमात्मा अवर्णनीय है । बुद्धि वर्णन नहीं कर सकती है ; क्योंकि बुद्धि बहुत पीछे हुई है । जीवात्मा का ज्ञान और आत्मा का ज्ञान परमेश्वर का ज्ञान है । यदि कहा जाय कि ' एक ईश्वर नहीं अनेक ईश्वर हैं । ' तो यह युक्ति संगत नहीं । आज तक संसार में जितने आचार्य हुए , किसी के वचन से ' वेदान्त- सिद्धान्त ' का मेल नहीं है ।
यहाँ के लोग यदि समझना चाहें , तो यहाँ आकर बहुत दिनों तक सत्संग करें । ' वेदान्त - सिद्धान्त ' अनेक आत्मा मानता है ; यह नास्तिक है , आस्तिक हरगिज नहीं । इस पुस्तक में दो ही शरीर माना है । उपनिषदों में तीन शरीर माना है और संतवाणी में पाँच शरीर माना है । ये पाँचों शरीर उन तीनों में ही समा जाते हैं , इसलिए तीन मानो या पाँच । एक कोई भी ऐसा स्थूल पदार्थ नहीं , जिसमें सूक्ष्म का प्रवेश नहीं । सूक्ष्म ऐसा पदार्थ नहीं , जिसमें कारण न प्रवेश कर सके । ' वेदान्त - सिद्धान्त ' है कि ' ईश्वर सर्वज्ञ है और जीव अल्पज्ञ है , तो जीव में ईश्वर व्यापक है , तब वह सर्वज्ञ क्यों नहीं हो जाता है ? ' मैं कहता हूँ कि एक ही इन्द्रिय से सब ज्ञान क्यों नहीं होता ? हाथ से देखते क्यों नहीं , आँख से सुनते क्यों नहीं ? यह तो यंत्र के अनुकूल है । सर्वव्यापी ईश्वर सब में रहते हुए जीव अज्ञान में है । अल्पज्ञ और सर्वज्ञ एक साथ नही रह सकते । ऐसा उनका सिद्धांत है ।
किसी विषय को तुम विशेष जानते हो , किसी विषय को कम जानते हो तो तुममें ही कम ज्ञान और विशेष ज्ञान दोनों है , तो इन दोनों को एक साथ रखते हुए कैसे रहते हो ? इसका निर्णय कर लो । यदि तुम दोनों एक साथ रह सकते हो , तब अल्पज्ञ और सर्वज्ञ एक साथ है , तो क्या आश्चर्य है ? व्यक्ति का सर्वज्ञ होना सिद्ध नहीं हो सकता । भगवान बुद्ध ने कहा- मैं सर्वज्ञ हूँ । ' कितने प्रश्न उन पर हुए । कितने में वे चुप हो गए । मलिन्द शाह ने नागसेन से पूछा कि ' तुम्हारे भगवान सर्वज्ञ थे , तब उन्होंने कितने का उत्तर क्यों नहीं दिया ? ' नागसेन ने कहा - ' राजा ! कितने ऐसे प्रश्न हैं , जिनका उत्तर चुप होना ही उत्तर है । ' कितनी चीजें बुद्धि में आती हैं , किंतु वचन में नही आती हैं । नमक का स्वाद कैसा होता है ? इसका वर्णन नहीं किया जा सकता । अलग - अलग आम को खाते हो , आम के स्वाद को जानते हो , किंतु उसको फुटा - फुटाकर लिखना असंभव है । योगवाशिष्ठ नामक ग्रंथ में वशिष्ठ मुनि और भगवान राम संवाद है । वशिष्ठ मुनि ने कहा - ' जितने हमलोग हैं , सब एक ही हैं । ' श्रीराम ने कहा - ' तब आप कहते किसको हैं ? ' वशिष्ठजी चुप हो गए । श्रीराम ने कहा - ' गुरुदेव ! आप रूष्ट तो नहीं हो गए ? ' उन्होंने कहा - ' नहीं बेटा ! मैं उत्तर दे रहा हूँ । इसका उत्तर चुप है । ' वाह्व और वास्कल मुनि का शंका समाधान होते - होते अंत में वाह्न मुनि चुप हो गए । इसका उत्तर ही चुप है ।
ईश्वर अनेक कभी नहीं हो सकते । यहाँ इस संसार में एक दूसरे पर काबू रखता है । यदि एक दूसरे पर काबू नहीं रखे तो संसार की क्या हालत हो ? राष्ट्रपति हैं , मंत्री हैं , राज्य - राज्य में मंत्री हैं । थाने - थाने में दारोगा रहते हैं । इसके ऊपर के हाकिम इन पर काबू रखते हैं , तब ठीक - ठीक काम होता है । धर्म में आचार्य होते हैं । वे जैसे - जैसे बताते हैं , लोग उनके अनुकूल चलते हैं , तो वह संस्था ठीक ठीक चलती है । यदि आचार्य नहीं हों , नियंत्रण करनेवाले नहीं हों तो संस्था नहीं रह सकती ।
अनेक ईश्वर मानते हैं । एक ईश्वर दूसरे से लड़ते हैं , डाका मारते हैं । यदि कहो कि एक दिन हम ईश्वर हो जाएंगे । तो जब ईश्वर हो जाओगे , तब कहना । एक साधारण साधक कहे कि मैं संत हूँ , हो नहीं सकता । संत का अर्थ मैं पूर्ण मानता हूँ एक साधारण विद्यार्थी कहे कि कॉलेज की पढ़ाई समाप्त कर दी , हो नहीं सकता । कॉलेज की पढ़ाई पढ़े , पढ़ते - पढ़ते पढ़ाई समाप्त करे , फिर कहे । सत्संग से लोगों को यह ज्ञान दिया जाता है कि लोग बहके नहीं , ठीक - ठीक रास्ते पर चले ।
ईश्वर का ज्ञान होना चाहिए । ईश्वर एक है । अनेक ईश्वर मानने से बीचमें अवकाश देना होगा । बिना अवकाश के एक दो का ज्ञान नहीं हो सकता । दोनों के बीच में उसको फुटाने के लिए कुछ फाँक अवश्य रहेगी । अपने शरीर को ही देखिए । आँख और कान के बीच में अवकाश के बिना पहचाना नहीं जा सकता । अपने अल्प ज्ञान में विशेष ज्ञान को दुहराओ , उचित नहीं ।
आत्मा एक ही है । आत्मा से प्रार्थना करो । जब एक ही आत्मा है , तब प्रार्थना किसी दूसरे से करोगे ? कहाँ तो काम का दास और कहाँ परमात्मा का दास - दोनों एक ही हैं ? अपना गुलाम आप बनते हो । सवेरे पखाना जाते हो , तो अपना मैला साफ करते हो , इसकी लज्जा नहीं और परमात्मा का दास - भक्त बनो , इसमें लज्जा ! यह कौन ज्ञान है ? परमात्मा के सिवा संसार में और ऐसा पदार्थ नहीं है , जो अनंत । अनंत एक ही हो सकता है । विचारने से एक अनंत अवश्य सिद्ध होता है । गोस्वामी तुलसीदास या और कोई आचार्य झूठे नहीं । उनकी बातों को टालने से अपनी ही हानि होगी , उनका कुछ नहीं बिगड़ेगा । अंत : करण से जो तुम बोध करते हो , उससे विशेष वह है । जो तुम अंत : करण रहित होकर बोध करोगे , तब तुम संतों की वाणियों को समझोगे । संतों की बुद्धि के परे की वाणी को तुम बुद्धि में अँटाओगे , हो नहीं सकता । जब सब ईश्वर ही हैं , तब मुनि , मुनिवर , मुनिरत्न आदि छोटी - बड़ी पदवियाँ क्यों ? गोस्वामी तुलसी दासजी ने कहा - ' जानत तुम्हहिं तुम्हइ होइ जाई । ' अपने शरीरस्थ आत्मा को पहचान लो , वही हो जाओगे । तब फिर सभी शंकाएँ मिट जाएँगी । इसके लिए बहुत शुद्ध आचरण चाहिए । इसलिए संतों ने झूठ , चोरी , नशा , हिंसा और व्यभिचार ; इन पाँचों महापापों से बचने को कहा ।
हमारे पेट में जोंकटी कीटाणुओं से भी बड़ी है । तन में भी चेतन है , किंतु वह लेक्चर नहीं देता । मनुष्य शरीर रहते हुए भी उसमें मनुष्य वाला ज्ञान क्यों नहीं होता है ? उसी तरह परमात्मा के इसमें व्यापक रहने पर भी जीव को सर्वज्ञता नहीं होती । जैसे लकड़ी में अग्नि है , किंतु लकड़ी को पकड़ने से हाथ जलता नहीं है । अग्नि को पकड़ने से हाथ जलता है । लकड़ी को भी रगड़ने से अग्नि निकलती है । इस देह में चेतन है , तो इसको रगड़ने से चेतन क्यों नहीं निकलता है ? तुम तो व्यक्त लकड़ी को व्यक्त लकड़ी से रगड़ते हो । यहाँ तो शरीर व्यक्त है और परमात्मा अव्यक्त है । इन दोनों को कैसे रगड़ सकते हो ? ब्रह्मानन्द स्वामी ने कहा कि
जिमि दूध के मथन से निकसत है , घी जतन से । तिमिध्यान के लगन से , परब्रह्म ले निहारा ॥
श्रीमद्भगवद्गीता के अनुयायी ने कहा कि ' अब ध्यान करने का समय नहीं है । जिन भगवान बुद्ध को ध्यान - योगी कहते हैं , उनके शिष्य कहते हैं अब ध्यान करने का समय नहीं है । सारे संसार के लोग जिस अध्यात्म - विद्या के लिए यहाँ आते थे , उस ज्ञान को झाँप दो , उचित नहीं । गीता में सबसे विशेष कर्मयोग को माना गया है । स्थिर बुद्धि रखकर समान दृष्टि से सब संसार को देखते हुए काम करो । अपना सुख - दुख जैसा , दूसरे का भी सुख - दुःख वैसा ही समझो । सब काम करते रहो और ईश्वर की तरफ मन लगाते रहो , यह भक्ति - कर्मयोग है । स्थितप्रज्ञता - समत्व कैसे होगा , इसके लिए प्राणायाम योग करो या ध्यानयोग करो गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने प्राणायाम का वर्णन किया है , किंतु ध्यानयोग की जैसी विधि बतलाई गई है , वैसी नहीं । वहाँ कहा गया है कि ' समाधि में तुम्हारी बुद्धि स्थिर होगी । ' बिना ध्यान के समाधि नहीं हो सकती । जिससे हो सके प्राणायाम करो । जिससे नहीं हो सके यह ध्यान करो । प्राणायाम में आपदा भी आ सकती है , उससे फेफड़ा बिगड़ सकता है , मस्तिष्क बिगड़ कर पागलपन हो सकता है , किंतु ध्यानयोग में आपदा नहीं शाण्डिल्योपनिषद् में आया है
यथा सिंहोगजो व्याघ्रो भवेतश्यः शनैः शनैः । तथैव सेवितो वायुरन्यथा हन्ति साधकम् ॥
अर्थात् जैसे सिंह , हाथी और बाघ धीरे- धीरे काबू में आते हैं , इसी तरह प्राणायाम भी किया जाता है । प्रकारान्तर होने से वह अभ्यासी को मार डालता है । नीचे के पाँच चक्रों का नहीं , केवल छठे चक्र ( आज्ञाचक्र ) से ही साधना आरंभ करो , तो पाँचों चक्रों के जो गुण हैं , वे भी आ जाएँगे , ऐसा वर्णन शिवसंहिता में है
यानि यानि हि प्रोक्तानि पंच पट्टे फलानि वे । तानि सर्वानि सुतरामेतज्ज्ञानाद्भवन्ति हि ॥
अर्थात् पंच पद्मों का जो - जो फल पहले कहा , सो समस्त फल आप ही इस आज्ञाकमल के ध्यान से प्राप्त हो जाएगा ।
यदि किसी को गुरु ने सिखाया हो नीचे के चक्र से ध्यान करने का , तो वही करो । गीता बहुत अच्छी पुस्तक है । जो उसके अनुकूल चलेगा उसका कल्याण होगा ।
भक्ति बहुत दूर तक अंदर - अंदर है । बाहर में सत्संग का सहारा है । जो पिछले जन्म किया हुआ आया है , वह बाहर - बाहर की पूजा नहीं करे , अंदर - अंदर की करे , तो करे । ज्ञानकाण्ड में भी भक्ति है । बिना भक्ति के कल्याण नहीं , बिना सत्संग के भक्ति नहीं होती । बिना सद्गुरु के सत्संग नहीं हो सकता । जो गुरु , सत्संग , भक्ति - ध्यान की शरण लेगा , वह भव सागर से पार होगा । ∆
( यह प्रवचन कटिहार जिला के श्रीसंतमत सत्संग मंदिर मनिहारी में दिनांक १३.८.१९५५ ई० को अपराह्नकालीन सत्संग में हुआ था ।)
नोट- इस प्रवचन में निम्नलिखित रंगानुसार और विषयानुसार ही प्रवचन के लेख को रंगा या सजाया गया है। जैसे- हेडलाइन की चर्चा, सत्संग, ध्यान, सद्गगुरु, ईश्वर, अध्यात्मिक विचार एवं अन्य विचार ।
महर्षि मेंहीं सत्संग-... |
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
प्रभु प्रेमियों! कृपया वही टिप्पणी करें जो सत्संग ध्यान कर रहे हो और उसमें कुछ जानकारी चाहते हो अन्यथा जवाब नहीं दिया जाएगा।