महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर / 123
प्रभु प्रेमियों ! सत्संग ध्यान के इस प्रवचन सीरीज में आपका स्वागत है। आइए आज जानते हैं-संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज के हिंदी प्रवचन संग्रह "महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर" के प्रवचन नंबर 123 के बारे में। इसमें बताया गया है कि नाड़ी कितने प्रकार की होती है? पिंगला का अर्थ क्या है? नाड़ी विज्ञान क्या है? सुषुम्ना नाड़ी के चमत्कार, सुषुम्ना नाड़ी को कैसे जागृत करें?
इसके साथ ही आप इस प्रवचन (उपदेश, अमृतवाणी, वचनामृत, सत्संग सुधा, संतवाणी, गुरु वचन, उपदेशामृत, ज्ञान कथा, भागवत वाणी, संतवचन, संतवचन-सुधा, संतवचनामृत, प्रवचन पीयूष ) में पायेंगे कि- मुमुक्षु किसे कहते हैं? ज्ञान और योग किसे कहते हैं? क्या ईश्वर को इंद्रियों से देख सकते हैं? चित्तवृत्ति निरोध किसे कहते हैं? योग सिद्धि किसे मिलती है? योग सिद्ध होना क्या है? योगी के मर जाने पर क्या मुक्ति होती है? लोग योग से क्यों डरते हैं? पूजा, जप, ध्यान और लय में श्रेष्ठ कौन है? इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना किसे कहते हैं? सबसे उत्तम तीर्थ कौन है? स्थूल और सूक्ष्म नामजप किसे कहते हैं? इत्यादि बातों के बारे में। इसके साथ-ही-साथ निम्नलिखित प्रश्नों के भी कुछ-न-कुछ समाधान इसमें मिलेगा। जैसे कि- मुमुक्षुत्व का अर्थ, मुमूर्ष का अर्थ, मुमुक्षा शब्द का अर्थ, मुमुक्षु शब्दाचा अर्थ मराठीत, मुमुर्ष का अर्थ, सुषुम्ना नाड़ी जाग्रत कैसे करे? नाड़ी कितने प्रकार की होती है? पिंगला का अर्थ क्या है? नाड़ी विज्ञान क्या है? सुषुम्ना नाड़ी के चमत्कार, सुषुम्ना नाड़ी को कैसे जागृत करें, सूर्य नाड़ी एंड चन्द्र नाड़ी इन हिंदी, सुषुम्ना नाड़ी किसे कहते हैं, नाड़ी का अर्थ, नाड़ी संस्थान क्या है, सुषुम्ना के दो कार्य, नाड़ी क्या है, सुषुम्ना की परिभाषा, पिंगला क्या है? इत्यादि बातें। इन बातों को जानने-समझने के पहले, आइए ! संत सदगुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज का दर्शन करें।
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१२३. सुषुम्ना ही प्रधानतीर्थ है ।
प्यारे लोगो !
संतों की वाणी में सब मनुष्यों को सदा से यही उपदेश है कि जो मनुष्य कष्टों में पड़े हैं , वे मुमुक्षु बनें । मुमुक्षु का अर्थ है - मुक्ति की इच्छा रखनेवाला । मुक्ति का अर्थ है - मोक्ष । शरीर और संसार के बंधन से छूटने को मुक्ति कहते हैं । मुक्ति की केवल इच्छा ही नहीं , बल्कि संसार में संयम से बरतें । जबतक संसार में संयम से नहीं रहें , संसार के भोग विलास में फंसे रहते हैं । उसको लालच नहीं छोड़ते हैं , वे केवल कहते हैं कि मुमुक्षु हूँ । यह उनका कथन मात्र है । संतों ने ऐसे मुमुक्षु के लिए कहा है कि जो संसार के भोगों , लालचों को छोड़ना चाहें , उनको ज्ञान और योग दोनों का अभ्यास करना चाहिए । ज्ञान का अर्थ ' जानना ' है और योग का अर्थ ' मिलाप ' है । चित्त की वृत्तियाँ बिखरी हैं , वे मिलकर एक हो जायँ – यही योग है । चेतन आत्मा ईश्वर से मिलेगी , तभी उसकी मुक्ति होगी ।
ईश्वर ऐसा है कि वह इन्द्रियों के ज्ञान से बाहर है । गोस्वामी तुलसीदासजी ने रामचरितमानस में लिखा है , माया यह है
गोगोचर जहँ लगि मन जाई । सो सब माया जानहु भाई ।।
और ईश्वर के संबंध में लिखा है
राम स्वरूप तुम्हार , वचन अगोचर बुद्धि पर । अविगत अकय अपार , नेतिनेतिनित निगम कह ।
इसको पढ़ने और समझने पर ज्ञात होता है कि इन्द्रियों के ज्ञान में जो आता है , वह माया है । माया से परे जो परमात्मा है , उससे मिलने की उत्कट अभिलाषा करो ।
शरीर और इन्द्रियों को छोड़कर केवल चेतन आत्मा उससे मिलेगी । चित्तवृत्ति का निरोध करना अच्छा यत्न है । मन को एक ओर करना चित्तवृत्ति - निरोध करना है । मन के अनेक भावों को छोड़कर एक ओर करना चाहिए । जप और ध्यान इसका सरल साधन है। इससे सरल साधन संसार में और कुछ नहीं हो सकता । इसके लिए गृहस्थी आश्रम को छोड़कर वनवासी होने का काम नहीं । किंतु इस रास्ते का छोर जब कोई पकड़ लेता है तो भगवान श्रीकृष्ण के कहे अनुकूल वह उसको छोड़ता नहीं है । बारम्बार संस्कार बढ़ता जाता है । शरीर छोड़ने पर स्वर्ग जाता है । वहाँ का विशाल सुख भोगकर फिर श्रीमान् के यहाँ जन्म लेता है और बढ़ते - बढ़ते कई जन्मों में पूर्ण सिद्ध होगा । यानी परमात्मा मिलेगा , मुक्ति मिलेगी । अपनी सुरत उस ओर लगाए रहो । जहाँ सुरत लगी रहेगी , वहीं पहुँचोगे ।
' जाकी सुरत लगी रही जहँवा । कह कबीर सो पहुँचे तहँवा ।। '
शरीर रहते जो प्रत्यक्ष नहीं हुआ , शरीर छूटने पर उसकी प्रत्यक्षता हो , ऐसा संतों ने नहीं कहा । शिवजी ने ब्रह्माजी से कहा कि संसार से पार होने के लिए ज्ञान और योग ; दोनों का दृढ़ता से अभ्यास करो । ब्रह्माजी जाकर शिवजी से पूछते हैं कि संसार से जीव की मुक्ति कैसे होगी ? इसके लिए आप क्या कहते हैं ? शिवजी ने कहा कि मुक्ति जीते जी होनी चाहिए । जब किसी जन्म के जीवनकाल में मुक्ति होगी , तब मरने पर भी मुक्ति होगी । संतों ने भी ऐसा ही कहा है
जीवत मुक्त सो मुक्ता हो । जब लग जीवनमुक्ता नाही , तब लग दुख सुख भुगताहो ।। - कबीर साहब
जीवत छूटै देह गुण , जीवत मुक्ता होइ । जीवत काटै कर्म सब , मुक्ति कहावै सोइ ॥ जीवत जगपति को मिले , जीवत आतम राम । जीवत दरसन देखिये , दादू मन विसराम ॥ जीवत मेला ना भया , जीवत परस न होइ । जीवत जगपति ना मिले , दादू बूड़े सोइ ॥ मूआँ पीछे मुकति बतावै , मूआँ पीछै मेला । मूआँ पीछे अमर अभै पद , दादू भूले गहिला ॥ -दादू दयाल
गोस्वामी तुलसीदासजी ने भी कहा है
सुनि समुझहिं जन मुदित मन , मज्जहिं अति अनुराग । लहहिं चारि फल अछत तनु , साधु समाज प्रयाग ।।
सभी संतों की वाणी में यही उपदेश है । लोग योग के विषय में डरते हैं ; क्योंकि वे जानते नहीं हैं । जप करना , ध्यान करना भी योग है - जपयोग , ध्यानयोग । मानस जप सब जपों में श्रेष्ठ है । इसमें जिभ्या और ओठ नहीं हिलते , फिर भी जप होता है । जप होते रहने से मन किसी तरफ नहीं जाता चित्तवृत्ति - निरोध के लिए जप करना चाहिए ।
पूजाकोटि समं स्तोत्रं , स्तोत्र कोटि समंजपः । जप कोटि समंध्यानं , ध्यान कोटि समो लयः ॥
अर्थात् पूजा से बढ़कर स्तुति है , स्तुति से श्रेष्ठ जप है । जप से बढ़कर ध्यान है और ध्यान से श्रेष्ठ लय है । संतों ने जप और ध्यान के द्वारा ईश्वर की भक्ति करने के लिए कहा ।
इसमें समझो कि तुम्हारे शरीर में दो भाग हैं । दायीं - बायीं ओर का मिलाप जहाँ है , वह मध्य है । दायीं ओर की वृत्ति पिंगला और बायीं ओर की इड़ा और बीच में सुषुम्ना है । कोशिश करो मध्य - वृत्ति में रखकर जप करने के लिए , उस स्थान में मन को लगाओ । तीर्थ - स्नान इसलिए लोग करते हैं कि उससे पुण्य होता है , ऐसा लोगों का विश्वास है । संतों ने कहा - दायीं गंगा , बायीं यमुना और बीच में सरस्वती की धारा है । इनमें गोता लगाकर देखो कि तुम्हारा मन कितना शुद्ध होता है । जो उस स्थान पर अपने को डुबाता है तो जितनी देर मन डूबा रहता है , उतनी देर तक विषय वहाँ जा नहीं सकता । इसीलिए यह सबसे उत्तम तीर्थ है । आपने अभी सुना -
' सुषुम्नैव परं तीर्थं सुषुम्नैव परो जपः । सुषुम्नैव परं ध्यानं सुषुम्नैव परागतिः ।। योगशिखोपनिषद् । '
अर्थात् सुषुम्ना ही प्रधान तीर्थ है , सुषुम्ना ही प्रधान जप है । सुषुम्ना ही प्रधान ध्यान है और सुषुम्ना ही परा ( ऊँची ) गति है । इसमें मन डूबता है , शरीर नहीं डूबता है ।
जिसका मन पवित्र है , उसकी देह से अपवित्र कर्म नहीं होगा ; क्योंकि मन का प्रभाव देह पर विशेष पड़ता है । संतवाणी में गुरु के प्रति श्रद्धा रखने के लिए कहा गया है ।
पंजाब के महात्मा गरीबदासजी थे । उन्होंने भी कहा है- " गुरु , साधु , सन्त की शरण में रहो , उनमें प्रेम रखो । उनके बताये नाम का जप करो और ध्यान करो । " नाम के ध्यान को ही नादानुसंधान कहते हैं । यह बाहर का शब्द नहीं , अंतर की ध्वनि है । शब्द बड़ा आकर्षक होता है । अंतर्नाद में जो मिठास है , उसको जो एक बार भी चख लेता है , तो मन बारम्बार उधर ही घूमता रहता है ।
लोग कहते हैं कि अप्रत्यक्ष में सुरत - मन तो व्यक्त शब्द में ही रहो , राम - राम , शिव - शिव कुछ जपो । किसी देखी हुई मूर्ति का ध्यान करो । नाम - जप और रूप - ध्यान मायिक ही है । स्थूल जपध्यान के बाद सूक्ष्मध्यान है । शून्य में अपनी वृत्ति को ले जाओ । चाहे अंधकार देखोगे , चाहे प्रकाश देखोगे । पहले तो अन्धकार ही रहेगा । वह अन्धकार तो व्यक्त हई है , उसमें अपनी सुरत को टिकाओ । जो आँख बंदकर देखता है , तो वह उस शून्य में अंधकार को पाता है । वहाँ जो अपनी सुरत को एक जगह केन्द्रित करता है , वह विन्दु ध्यान है । फिर उसको प्रकाश मालूम होता है । कोई आँख बन्द करके ठाकुरबाड़ी में जाय और तब आँख खोल दे , तो जो ठाकुरबाड़ी में है , उसे प्रत्यक्ष पाता है । उसी तरह जब वृत्ति सूक्ष्म में प्रवेश करती है , तब वह उसे देखती है , जो वहाँ है । प्रकाश के बाद शब्द की सीढ़ी है । प्रकाश में स्वत शब्द मिलता है , फिर परमात्मा को पाता है । तो संतों ने कहा कि इसके लिए साधक को नित्य सत्संग का सहारा लेना चाहिए और ध्यान करना चाहिए । सत्संग के द्वारा ज्ञान होता है और जानने में आता है कि इसकी क्रिया क्या है ? वह क्रिया किसी सच्चे गुरु से सीख लीजिए , जिनपर आपकी श्रद्धा हो । गुरु के ज्ञान को सीख लेने पर ही क्या लाभ होगा ; यदि वह ध्यानाभ्यास नहीं करे । इसलिए ध्यान नित्य करना चाहिए । नित्य साधु - संग नहीं मिल सकते तो उनकी वाणी का पाठ कीजिए अर्थात् सत्संग कीजिए । ∆
नोट- इस प्रवचन में निम्नलिखित रंगानुसार और विषयानुसार ही प्रवचन के लेख को रंगा या सजाया गया है। जैसे- हेडलाइन की चर्चा, सत्संग, ध्यान, सद्गगुरु, ईश्वर, अध्यात्मिक विचार एवं अन्य विचार ।
इस प्रवचन के बाद वाले प्रवचन नंबर 124 को पढ़ने के लिए यहां दवाएं।
प्रभु प्रेमियों ! गुरु महाराज के इस प्रवचन का पाठ करके आपलोगों ने जाना कि मुमुक्षु किसे कहते हैं? ज्ञान और योग किसे कहते हैं? क्या ईश्वर को इंद्रियों से देख सकते हैं? चित्तवृत्ति निरोध किसे कहते हैं? योग सिद्धि किसे मिलती है? योग सिद्ध होना क्या है? योगी के मर जाने पर क्या मुक्ति होती है? इत्यादि बातें। इतनी जानकारी के बाद भी अगर कोई संका या प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस प्रवचन के बारे में अपने इष्ट मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने। इससे आपको आने वाले प्रवचन या पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहेगी। उपर्युक्त प्रवचन का पाठ निम्न वीडियो में किया गया है।
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