महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर / 05 क
प्रभु प्रेमियों ! सत्संग ध्यान के इस प्रवचन सीरीज में आपका स्वागत है। आइए आज जानते हैं- संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज के हिंदी प्रवचन संग्रह "महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर" के इस प्रवचन में मुक्ति किसे कहते हैं? मनुष्य शरीर और संसार में क्या संबंध है? संसार से कैसे छूटा जा सकता है? आदि बातों की विस्तार से जानकारी दी गई है। इन बातों को जानने-समझने के पहले, आइए ! संत सदगुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज का दर्शन करें।
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जीव की कितनी अवस्थाएं होती हैं? What are the stages of an organism,
सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज इस प्रवचन, उपदेश, अमृतवाणी, वचनामृत, सत्संग सुधा, संतवाणी, गुरु वचन, उपदेशामृत, ज्ञान कथा, भागवत वाणी, संतवचन, संतवचन-सुधा, संतवचनामृत, प्रवचन पीयूष में कहते हैं - मुक्ति किसे कहते हैं? मनुष्य शरीर और संसार में क्या संबंध है? संसार से कैसे छूटा जा सकता है? क्या मर जाने से मुक्ति होती है? शरीर कितने प्रकार का है? मृत्यु में क्या होता है? सभी शरीरों से कैसे छूट सकते हैं? साम्यावस्था धारणी किसे कहते हैं? सृष्टि का निर्माण कैसे हुआ? जाग्रत स्वप्न सुषुप्ति अवस्था में कैसे जाते हैं? ब्रह्मांड को कैसे जीता जा सकता है? गुरु की क्या आवश्यकता है? तीन अवस्था कौन-कौन सी है? तीनों अवस्थाओं से छूटने पर क्या होता है? सूर कौन होता है? मनुष्य शरीर पाने का क्या फल है ? मनुष्य शरीर से कौन-सा काम कर लेना चाहिए? स्वर्ग में कैसा सुख है? जीवन-मुक्ति कैसे प्राप्त होती है? श्रवण, मनन, निदिध्याशन और अनुभव ज्ञान किसे कहते हैं? सहज समाधि क्या है? चित्त रूप बृक्ष के कितने बीज है? इत्यादि बातों के बारे में। इसके साथ-ही-साथ निम्नलिखित प्रश्नों के भी कुछ-न-कुछ समाधान इसमें मिलेगा। जैसे कि- जीव की कितनी अवस्थाएं होती हैं, जीव की अवस्था किस आधार पर परिभाषित होती है, जीव की पांचवी अवस्था कौन सी है, जीव की तीन अवस्थाओं में अंतर,जीव का पीव में बदलना क्या कहलाता है, जीव की कितनी अवस्थाएं होती हैं, जीव की परिभाषा, जीव की अवस्था में परिवर्तन, जीव क्या है, जीव की तीन अवस्थाओं में अंतर स्पष्ट करें, जीव किसे कहते हैं, जीव की छठी अवस्था क्या है,, इत्यादि बातें। इन बातों को अच्छी तरह समझने के लिए निम्नलिखित प्रवचन को मनोयोग पूर्वक पूरा पढ़ें-
५. मुक्ति और उसकी साधना
प्यारे धर्मप्रेमी सज्जनो !
मुक्ति का अर्थ है- छूट जाना । किससे छूट जाना ? शरीर और संसार से । जब शरीर और संसार से छूटा जाय , तब मुक्ति है । शरीर और संसार का आपस में बड़ा संबंध है । जितने तत्त्वों से संसार बना है , उतने ही तत्त्वों से शरीर भी बना है । तत्त्वों के स्थूल - सूक्ष्म भेद से जितने ही शरीर के तल हैं , संसार के भी उतने ही तल हैं । शरीर को पिण्ड तथा संसार को ब्रह्माण्ड कहते हैं । शरीर के जिस तल पर जब जो रहता है , संसार के भी उसी तल पर तब वह रहता है । शरीर ( पिण्ड ) के जिस तल को जब जो छोड़ता है , संसार ( ब्रह्माण्ड ) के भी उसी तल को तब वह छोड़ता है । इससे यह जानने में आता है कि अगर शरीर के सब तलों को कोई छोड़े , तो संसार के भी सब तलों को वह छोड़ेगा ।
लोग अगर समझे कि मरने पर शरीर से छूटता है और संसार से भी छूट जाता है , तो जानना चाहिए कि इस साधारण मृत्यु से किसी की मुक्ति नहीं होती । यह एक स्थूल देह देखने में आती है , किन्तु इसके भीतर तीन और शरीर हैं , जिन्हें सूक्ष्म , कारण तथा महाकारण शरीर कहते हैं । ये चारो शरीर जड़ हैं इनके भीतर भी एक और शरीर है , जिसको चेतन शरीर कहते हैं । कबीर साहब तो छह प्रकार के शरीर मानते हैं , जैसे उनके इस शब्द से ज्ञात होता है
साधो ! पट प्रकार की देही । स्थूल सूक्ष्म कारण महाकारण कैवल्य हंस की लेही ।।
अर्थात् वे छठा शरीर हंस का मानते हैं । किन्तु चारो शरीरों से छूट जाय , तो जड़ावरण से छूट जाता है । साधारण मृत्यु में केवल एक स्थूल शरीर छूटता है , किन्तु इसके अन्दर में तीन और जड़ शरीर रह जाते हैं , जिससे फिर स्थूल शरीर हो जाता है । जैसे वृक्ष के कट जाने पर अगर जड़ मजबूत है , तो पुनः वृक्ष उग आता है । कैसे विश्वास करें कि पाँच शरीर हैं ? हम देखते हैं कि यह स्थूल शरीर है । किन्तु किसी भी स्थूल का बनना तबतक सम्भव नहीं है , जबतक सूक्ष्म न हो अर्थात् बिना सूक्ष्म के स्थूल नहीं हो सकता है । और सूक्ष्म भी बिना कारण के नहीं हो सकता । इस घर में आपलोग हैं , यह स्थूल है , किन्तु यह स्थूल घर तबतक नहीं बना , जबतक कि इसका चित्र पहले मन में नहीं आता । पहले मन से बनता है , पीछे कागज पर नक्शा खींच लेते हैं , फिर घर बनता है बिना कारण के कार्य नहीं होता , इसके बिना सूक्ष्म नहीं बनता । कारण भी एक ही हो तब तो ? अनेक कारण हैं । इस तरह सब कारणों को एकत्र कर देखें , तो वही महाकारण कहलाता है । संसार में कारण उत्पन्न होते जाते हैं और घर बनते जाते हैं । एक बर्तन बनाने में जितनी मिट्टी लगती है , वह एक बर्तन का कारण है । सब बर्तनों के कारण वही नहीं है । एक बर्तन के कारणरूप मिट्टी से असंख्य बर्तनों के कारण अथवा सब बर्तनों के कारण की मिट्टी अवश्य ही अत्यन्त अधिक होगी । उसके अतिरिक्त समस्त भूमण्डल की मिट्टी , जो कार्यरूप होने से बची रहती है , कितनी अधिक है , जानने में आती है ? यही महाकारण का स्वरूप है । महाकारण त्रयगुणमयी साम्यावस्थाधारिणी मूल प्रकृति । कारण दो होते हैं - एक उपादान , दूसरा निमित्त कारण । कुम्हार निमित्त कारण है और मिट्टी उपादान कारण । सृष्टि का निमित्त कारण परमात्मा है । जिससे सृष्टि बनती है , उसे उपादान कारण कहते हैं , यह महाकारण है । साम्यावस्थाधारिणी कहने का अर्थ है - जिसमें उत्पादक शक्ति , पालक शक्ति तथा विनाशक शक्ति अर्थात् रजोगुण , सतोगुण तथा तमोगुण - ये तीनों शक्तियाँ समान हों । इन तीनों से खाली संसार का काम नहीं है । मूल प्रकृति वयगुणमयी होते हुए भी उसकी प्रथमावस्था सम अवस्था में है । रज , सत्त्व , तम ; तीनों बराबर रहने से कुछ बनता नहीं है जबतक किसी की शक्ति में कमी वा बेशी नहीं , तबतक तीनों में सम शक्ति है । इसलिए तबतक मूल रूप में कोई हलचल नहीं । जैसे तीन पुरुष बराबर जोरवाले हों और एक रस्सी में तीन छोर हों , तीनों पुरुष एक - एक छोर लेकर खींचे , तो कोई हलचल नहीं होगी।
' मैं एक हूँ , अनेक हो जाऊँ ' - जब ईश्वर की यह मौज होती है , तब उस प्रकृति में उनकी मौज - रूपी वेग से उसके जिस भाग में ठोकर लगी , उस भाग में स्थित त्रयगुण में से किसी में उत्कर्ष तथा किसी में अपकर्ष हुआ । और वह भाग कम्पित हो गया , यह कम्पित भाग कारण - रूप है , जिससे अनेक पिण्ड ब्रह्माण्ड बनते हैं । कुम्हार संसार से मिट्टी लेकर वर्तन बनाता है , किंतु संसार की मिट्टी का अंत नहीं होता । आशय यह है कि अनेक पिण्ड ब्रह्माण्ड बनते रहने पर भी साम्यावस्था धारिणी मूल प्रकृति का सम्पूर्ण मण्डल कारण और कार्य - रूप नहीं बना है । बल्कि कारण और कार्य रूप बनने से वह कितनी अधिक बची हुई है , इसकी माप कोई बतला नहीं सकता , यही महाकारण है । उस कम्पित भाग से जो कुछ बना , वह सूक्ष्म है , उससे फिर यह स्थूल , जो हमलोगों का शरीर है । इन चारों से जो छूट जाता है , वह मोक्ष प्राप्त करता है ।
शरीर के जितने तल हैं , संसार के भी उतने ही तल हैं । जाग्रत् अवस्था में शरीर के जिस तल पर रहते हैं या काम करते हैं , संसार के भी उसी तल पर रहते हैं या काम करते हैं । जाग्रत् अवस्था से स्वप्नावस्था में जाते हैं । इन दोनों अवस्थाओं के बीच में तन्द्रावस्था होती है । उस समय क्या होता है ? बाहरी बातों को भूलते जाते हैं ; हाथ - पैर कमजोर होने लगते हैं , इनकी शक्ति भीतर की ओर खिंचती जाती है शरीर का ख्याल भूलते जाते हैं , संसार से भी बेखबर होते जाते हैं । इससे मालूम होता है कि स्थूल शरीर के स्थूल तल से दूसरे तल पर चले जाते हैं । इसलिए स्थूल संसार के भी स्थूल तल को छोड़कर दूसरे तल पर जाते हैं । इसलिए शरीर के सब तलों को जो पार करें , तो ब्रह्माण्ड के भी सब तलों को पार कर लेंगे । जिसने पिण्ड को जीता , उसने ब्रह्माण्ड को भी जीता । पिण्ड से तबतक नहीं छूटता , जबतक कि ' मैं सुखी हूँ , दुखी हूँ , कर्ता हूँ , भोगता हूँ ' - यह न छूटे । जाग्रत् या स्वप्न में यह नहीं छूटता । नशे - क्लोरोफॉर्म में यह थोड़ी देर के लिए नहीं जानता , किन्तु कुछ देर के बाद जानता है । ' मैं कर्ता हूँ , भोक्ता हूँ , सुखी हूँ , दुःखी हूँ ' - यह जाग्रत् तथा स्वप्न - दोनों अवस्थाओं में होता है । सुषुप्ति में यह नहीं होता , सुषुप्ति में यह नहीं होता , परन्तु जगने पर कहता है - ' मैं आज खूब सुख से सोया । ' सुषुप्ति में ऐसा नहीं कह सकता । ऐसा क्यों होता है ? तीन अवस्थाओं में तीन प्रकार का बोध क्यों होता है ? तीन अवस्थाओं में तीन स्थानों में रहते हैं । स्थान - भेद से अवस्था भेद होता है , अवस्था भेद से ज्ञान - भेद होता है ।
इस तन में मन कहा बसै , निकसि जाय केहि ठौर । गुरुगम है तो परखि ले , नातर कर गुरु और ।। नैना माहीं मन बस , निकसि जाय नौ ठौर । सतगुरु भेद बताइया , सब सन्तन्ह सिरमौर ।।
नेत्रस्थंजागरितं विद्यात्कण्ठे स्वप्नंसमाविशेत् । सुषुप्तं हृदयस्थं तु तुरीयं मूनि संस्थितम् ।। -ब्रह्मोपनिषद्
तीनों अवस्थाओं से ऊपर जाय , तब ' मैं सुखी हूँ , दुःखी हूँ, कर्ता हूँ , भोक्ता हूँ ' मिट जायगा । जाग्रत् से स्वप्न और स्वप से सुषुप्ति में जाना यह स्वाभाविक है । किन्तु इन तीनों से ऊपर जाने के लिए साधन करें ।
ख्यालों को छोड़ना , यही यत्न है । ध्यान में ख्यालों को छोड़ते हैं । प्रत्याहार से ख्यालों को भगाते हैं । ख्याल आता है और उसे भगाते हैं इस युद्ध में जो हार गया , वह पस्त हो जायगा तथा कायर कहलावेगा ; किन्तु इस लड़ाई में जो जीत जायगा , वही शूर कहलावेगा ।
शूर संग्राम को देख भाग नहीं , देख भाग सोइ शूर नाहीं । कामऔक्रोधमदलोभसेजूझना , मँडाघमसानतहतमाहीं ।। साँचऔशील सन्तोषशाही भये , नाम शमशेर तहखूब बाज । कहै कबीर कोइ जूझिहै शूरमा , कायरॉ भीड़ तहँ तुस्त भाज । ' ' साधसंग्रामतोविकट बेनामती , सती औरशूरकी खेल आगे । शूर संग्राम है पलकदोचार का , सती संग्राम पल एक लागे ।। साध संग्राम है रैन दिन जूझना , जन्मपर्यन्त का काम भाई । कहैकबीरटुकबागीलीकर उलटिमन गगन सौजीआई । '
कबीर साहब यह युद्ध करना होगा । यह पुरुष के प्रयत्न से साधित होगा । जैसे पुत्रकामी व्यक्ति पुत्रेष्टि यज्ञ द्वारा पुत्र , धनार्थी व्यक्ति वाणिज्यादि द्वारा धन तथा स्वर्गकामी मनुष्य ज्योतिष्टोम यज्ञ द्वारा स्वर्ग - लाभ करते हैं , वैसे ही पुरुष के प्रयत्न से साधन द्वारा वेदान्त श्रवणादि जनित समाधि से जीवन्मुक्त्यादि लाभ होते हैं ।
लोग धन - पुत्रादि से ऊब जाते हैं । किसी को धन है , तो पुत्र नहीं , पुत्र है तो धन नहीं । शान्ति किसी को नहीं मिलती । अपने जीवन काल में यज्ञ करके अथवा लोगों के कहे अनुसार श्राद्ध क्रिया से स्वर्ग चले जाय , तो क्या लाभ होगा ?
वहाँ भी सुख नहीं । यहाँ के समान ही वहाँ भी छोटे बड़े होते हैं । काम - क्रोधादिक विकार वहाँ भी उत्पन्न होते हैं तथा दूसरे से ईर्ष्या होती है आदि । फिर पुण्य क्षीण होने पर वहाँ से वापस होना पड़ता है । इसलिए गोस्वामी तुलसीदासजी अपनी रामायण में लिखते हैं
'एहि तन कर फल विषय न भाई । स्वरगउ स्वल्प अन्त दुखदाई ।। ' नर तन दुर्लभ देव को , सब कोई कहै पुकार ।। सब कोइ कहै पुकार , देव देही नहिं पावै । ऐसे मूरख लोग , स्वर्ग की आस लगावै ।। पुण्य क्षीण सोइ देव , स्वर्ग से नरक में आवै । भरमै चारिउ खानि , पुण्य कहि ताहि रिझावै ।। तुलसी सतमत तत गहे , स्वर्ग पर करे खखार । नर तन दुर्लभ देव को , सब कोइ कहै पुकार ।। ' -तुलसी साहब , हाथरसवाले।
स्वर्ग या बहिश्त कहीं भी जाओ , विषय - सुख ही है इसलिए सूफी लोग बताते हैं - मुक्ति ( नजात ) को प्राप्त करो । स्वर्ग के राजा को भी विषय सुख से तृप्ति नहीं । उस राजा के गुरु बृहस्पति को भी विषय से तृप्ति नहीं हुई , ऐसी कहानी है । वहाँ भी काम क्रोधादि विकार सब के सब रहते हैं । अन्तर यह कि वहाँ विषय - सुख अल्पायास में प्राप्त होते हैं । विषयानन्द से कोई तृप्त नहीं हुआ , होने की संभावना भी नहीं । इसलिए नित्यानंद को , जो सदा एक सा रहे , प्राप्त करे । इसलिए मुक्ति का प्रयोजन है । मुक्ति जीवात्मा की होगी , जब यह अकेले होकर रहे , जब केवल अपने आप ही रहे । जहाँ इन्द्रियाँ नहीं हैं , वहीं आत्म स्वरूप की प्राप्ति होती है , जो निर्विषय है । इसी में नित्यानन्द है , इसी के लिए मोक्ष का प्रयोजन है । शरीर छूटने पर मुक्ति होगी , ऐसा नहीं । पहले जीवन्मुक्ति होगी , पीछे विदेहमुक्ति ।
जीवन मुक्त सो मुक्ता हो । जब लग जीवन मुक्ता नाही , तब लगदुख सुख भुक्ता हो ।। कबीर साहब जीवत छूट देह गुण , जीवत मुक्ता होय । जीवत काटे कर्म सब , मुक्ति कहावै सोय ।। दादू साहब
शरीर के साथ मोक्ष - जीवन्मुक्त दशा है , शरीर छूटने पर विदेहमुक्ति है । मोक्ष पाने का साह न करें वा परमात्मा को प्राप्त करने का साधन करें , दोनों एक ही बात है । स्थूल सूक्ष्मादि सब आवरणों से जहाँ छूटे , वहीं मुक्ति है ।
जिमिथल बिनु जल रहि न सकाई । कोटि भांति कोउ करइ उपाई ॥ तथा मोक्ष सुख सुनु खगराई । रहिन सकइ हरि भगति बिहाई ॥ गोस्वामी तुलसीदासजी
भक्ति को छोड़कर मुक्ति अलग नहीं रह सकती । राकापति घोड्स उअहिं , तारागन समुदाय । सकल गिरिन्ह दव लाइय , बिनुरबिरातिन जाय ॥ ऐसेहि बिनु हरिभजनखगेसा । मिटहिं न जीवन केर कलेसा ॥
श्रवण - ज्ञान के बाद मनन - ज्ञान , फिर निदि ध्यास ज्ञान और तब अनुभव - ज्ञान । श्रवण - ज्ञानकहते हैं - सुनने को । मनन - ज्ञान कहते हैं - सुने हुए विषयों को विचारने को । निदिध्यास - ज्ञान कहते हैं - सुने तथा विचारे हुए विषय को अमल में लाने को अर्थात् उसकी प्राप्ति के लिए यल करने को तथा अनुभव - ज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान को कहते हैं जिसके बाद और ज्ञान नहीं है । श्रवन - ज्ञान अग्नि के समान है , जो मायारूपी जल के बरसने पर बुत जाय । मनन - ज्ञान बिजली के समान है , यह जल से तो नहीं बुझता , किन्तु यह चंचल है , इसमें स्थिरता नहीं है । निदिध्यास ज्ञान बड़वानल के समान है ।बड़वानल समुद्र में रहता है , समुद्र को मर्यादित रखता है , किन्तु समुद्र के समस्त जल का शोषण नहीं कर सकता । उसी प्रकार निदिध्यास - ज्ञान माया को मर्यादित रखता है ; किन्तु इससे सम्पूर्ण माया का नाश नहीं होता । अनुभव - ज्ञान महाप्रलय की अग्नि के समान है , वह द्वैत - प्रपंच अर्थात् माया को जलाकर भस्म कर देता है । अनुभव ज्ञान पूर्ण समाधि में प्राप्त होता है । तुरीयावस्था से परे अर्थात् तुरीयातीतावस्था में जहाँ ज्ञान ज्ञाता , ज्ञेय - त्रिपुटी का लय है , वहाँ पूर्ण समाधि है । यह अवस्था प्राप्त करनेवाले पुरुष की सदा सहज समाधि अवस्था बनी रहती है ।
साधो सहज समाधि भली । गुरु प्रतापजा दिन से जागी , दिन दिन अधिक चली । जहँ जहँ डोलौ सो परिकरमा , जो कुछ करौं सो सेवा । जब सोवौं तब करौं दण्डवत , पूजों और न देवा ॥ कहीं सो नाम सुनौं सो सुमिरन , खाद पियौं सो पूजा । गिरह उजाड़ एक सम लेखों , भाव मिटावौं दूजा । आँख न मूंदों कान नरुंधों , तनिक कष्ट नहिं धारौं । खुले नयन पहिचानौं हॅप्ति - हँसि , सुन्दर रूप निहारौं । शब्द निरंतर से मन लागा , मलिन वासना भागी । ऊठत बैठत कबहुँ न छूटै , ऐसी ताड़ी लागी । कहै कबीर यह उनमुनि रहनी , सो परगट कर गाई । दुख सुख से कोइ परे परम पद , तेहि पद रहा समाई ।
यही अपरोक्ष ज्ञान है , यही अनुभव ज्ञान है , इसी से तृप्ति हो सकती है । इसके अतिरिक्त कितनाहू पढ़े - लिखे , बके - व्याख्यान दे ; किन्तु यह अवस्था नहीं आ सकती ।
चित्तवृत्तियों के या ख्यालों के रोकने के विषय में अब विशेष प्रकाश डाला जाता है ।
द्वै बीजे चित्तवृक्षस्य प्राणस्यन्दनवासने । एकस्मिंश्च तयोः क्षीणे विषं वे अपि नश्यतः ।।
अर्थ - चित्तरूपी वृक्ष के दो बीज हैं - प्राणस्पन्दन और वासना । इन दोनों में से एक के क्षीण हो जाने से दोनों ही नाश को प्राप्त होते हैं ।...(क्रमशः)
नोट- हेडलाइन की चर्चा, सत्संग, ध्यान, सद्गगुरु,
ईश्वर, अध्यात्मिक विचार एवं अन्य विचार विषयों से संबंधित बातें उपर्युक्त लेख में उपर्युक्त विषयों के रंगानुसार रंग में रंगे है।
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प्रभु प्रेमियों ! गुरु महाराज के इस प्रवचन का पाठ करके आपलोगों ने जाना कि मुक्ति या मोक्ष किसे कहते हैं? मृत्यु और मोक्ष में अंतर, जीवात्मा किससे बंधा हुआ है? संसार का निर्माण कैसे हुआ? मुक्ति प्राप्ति से होने वाले सुख का नमूना, मनुष्य शरीर में जीवात्मा कहां रहता है? आत्मा को मोक्ष कैसे मिलेगा? पूरी जानकारी। इतनी जानकारी के बाद भी अगर आपके मन में किसी प्रकार का शंका या कोई प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस प्रवचन के बारे में अपने इष्ट मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने। इससे आपको आने वाले प्रवचन या पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहेगी। निम्न वीडियो में इस प्रवचन का पाठ किया गया है।
महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा सागर |
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S05, (क) Jeev kee kitanee Avasthaen hotee hain ।। गुरु महाराज का प्रवचन 17-01-1951ई.
Reviewed by सत्संग ध्यान
on
7/06/2018
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