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S97, ऋषियों की सबसे महत्वपूर्ण खोज || पूरी संतुष्टि देनेवाला पदार्थ क्या है? The most important d...

महर्षि मेँहीँ सत्संग सुधा सागर / 97

     प्रभु प्रेमियों ! संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज के भारती (हिंदी) प्रवचन संग्रह "महर्षि मेँहीँ सत्संग सुधा सागर" के प्रवचन नंबर 97 को। इसमें बताया गया है कि पूरी संतुष्टि देनेवाला पदार्थ परम प्रभु परमात्मा ही है। परम सुख-शांति का रहस्य भारत की प्राचीन ऋषियों ने बहुत पहले ही खोज करके उपनिषदों और संतवाणीयों में लिख दिया है।

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महर्षि मेँहीँ सत्संग-सुधा सागर प्रवचन नंबर  97.
महर्षि मेँहीँ सत्संग-सुधा सागर प्रवचन नंबर 97. 

The most important discovery of sages

     प्रभु प्रेमियों ! इस प्रवचन (उपदेश, अमृतवाणी, वचनामृत, सत्संग सुधा, संतवाणी, गुरु वचन, उपदेशामृत, ज्ञान कथा, भागवत वाणी, संतवचन, संतवचन-सुधा, संतवचनामृत, प्रवचन पीयूष ) में आप निम्नलिखित बातों को पायेंगे- 1. सांसारिक वस्तुओं से पूरी संतुष्टि नहीं मिलती है।   2. पूरी संतुष्टि देनेवाला पदार्थ क्या है?   3. ईश्वर या परमात्मा को क्यों खोजें?   4. परमात्मा को कहाँ खोजें?   5. मनुष्य जीवन को लोग कैसे गवां रहे हैं?   6. जीव कहाँ-कहाँ  रहता है?    7. भजन किस अवस्था में कर सकते हैं?    8. तुरीयावस्था कैसे प्राप्त होता है?   9. संतमत सत्संग क्या है?  10. त्रैकाल संध्या क्या है? .....इत्यादि बातें।  इन बातों को अच्छी तरह समझने के लिए निम्नलिखित प्रवचन  पढ़ें-

९७ . एहि तें मैं हरि ज्ञान गवायो 

प्राचीन ऋषियों की महत्वपूर्ण खोज पर प्रवचन करते हुए गुरुदेव

प्यारे लोगो ! 

     आपलोगों को संसार की वस्तुओं में से कुछ-न-कुछ अवश्य प्राप्त है । किंतु इन वस्तुओं से आप अपने को कैसा समझते हैं , मालूम है । सांसारिक वस्तुओं में से अधिक या कम जो कुछ भी प्राप्त है , इसमें संतुष्टि नहीं आती है । जहाँ संतुष्टि नहीं है , वहाँ सुख - शान्ति नहीं है । यह खोज अवश्य चाहिए कि जिसको पाकर पूरी संतुष्टि हो जाए , वह क्या है ? इसके लिए संसार में कोई खोजे तो संसार के सभी पदार्थ इन्द्रियों के द्वारा जानते हैं । रूप को आँख से , शब्द को कान से आदि ; इन सब पंच विषयों से विशेष कुछ संसार में नहीं है । यदि है भी तो आप कैसे जान सकते हैं? इसलिए संत महात्मा कहते हैं कि जिसमें पूरी संतुष्टि है , वह पूरी संतुष्टि देनेवाला पदार्थ परमात्मा के अतिरिक्त और कुछ नहीं है । उस परमात्मा की खोज करो । इसका कारण है कि परमात्मा पूर्ण हैं और इन्द्रियाँ अपूर्ण शक्तिवाली हैं । अपूर्ण शक्तिवाली इन्द्रियों से पूर्ण सुख - शान्ति को कैसे प्राप्त कर सकते हैं । इसलिए पूर्ण परमात्मा को खोजो । वह परमात्मा कहाँ है , स्वरूपतः वह क्या है ? इसका पता लगाओ । मुख्तसर में है कि जो इन्द्रियों से अगोचर है , आत्मगम्य है , वह वही है । वह सर्वत्र है । कहीं से भी खाली नहीं है ।  बाहर - भीतर एक रस सब में है । ' बाहरि भीतरि एको जानहु इहु गुर गिआन बताई । ' ( गुरु नानक साहब )

      इसलिए उसकी खोज करो । जो वस्तु आपके घर में हो और दूसरे के घर में भी हो तो उसे लेने की सुगमता कहाँ होगी ? अपने घर में या दूसरे घर में ? अपने घर की वस्तुओं को लेने में ही सुगम है । दूसरी बात है कि इन्द्रियों से विषयों का बाहर में ज्ञान होता है , किंतु परमात्मा इन्द्रिय - ज्ञान द्वारा जाना नहीं जाता । तब फिर उसे बाहर इन्द्रियों से खोजकर कैसे प्राप्त कर सकते हैं । संत कबीर साहब ने कहा है - 

' परमातम गुरु निकट विराजै, जागु जागु मन मेरे ।

     परमात्मा अपने अंदर में अत्यंत निकट है । यह शरीर कब गुजर जाएगा , ठिकाना नहीं । भजन करने का अवसर निकल जाता है। पीछे पछतावा होती है । इसलिए इसके छूटने के पहले से ही भजन करो । परमात्मा को ढूढ़ने में विलम्ब मत करो 

काल्ह  करै सो  आज कर , आज करै सो अब । 
पल   में   परलै   होयगा , बहुरि   करेगा   कब ॥                                                             -संत कबीर साहब

     इसलिए जल्दी खोज करनी चाहिए । फिर कहा 

जुगन जुगन तोहि सोवत बीते , 
                             अजहुँ न जाग सबेरे ।   -संत कबीर साहब 
माया मुख जागे सभै , सो सूता कर जान । 
दरिया जागेब्रह्म दिसि , सोजागा परमान ।। -संत दरिया साहब

     गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज का कहना है-

मोह निशासबसोवनिहारा । देखिअसपन अनेक प्रकारा ।

संतों की प्राचीन खोज, गुरुदेव
संतों की प्राचीन खोज  

     जाग्रत , स्वप्न और सुषुप्ति ; ये तीनों अवस्थाएँ सबको प्रतिदिन हुआ करती हैं । यह कैसे होता है ? जागने के समय में एक स्थान में, स्वप्न में दूसरे स्थान में , सुषुप्ति में तीसरे स्थान में जीव रहता है । स्थान - भेद से अवस्था - भेद और अवस्था - भेद से ज्ञान - भेद होता है । अभी आप जगे हुए हैं , किंतु साधु - संत इस जगना को भी जगना नहीं कहते हैं । तीन अवस्थाओं से ऊपर तुरीय अवस्था में अपने को ले जाओ तब जगना है । ' तीन अवस्था तजहु भजहु भगवन्त । ' जबतक तुरीय में जीव नहीं जाता है , तबतक जगना नहीं है । केवल विचार में जान लेने से जगना नहीं है , जगना तब होता है , जब चौथी अवस्था में जाओ । इसके लिए गुरु से यत्न जानो । गुरु यत्न बता भी दे और यत्न जाननेवाला अभ्यास नहीं करे तो वहाँ कैसे पहुँच सकता है ? जितने पदार्थों में हमारी आसक्ति होती है , वहाँ - वहाँ हम लसकते हैं । इस लसकाव से अपने को विचार द्वारा छुड़ाओ और अंतर अभ्यास द्वारा उस लसकाव के संबंध को ढीला करो । तुरीय का मैदान भी बहुत लम्बा है । इसमें बढ़ने पर आसक्ति छूटती जाती है । साधु - संत लोग ईश्वर की खोज अपने अंदर करने कहते हैं । गुरु नानकदेव ने भी कहा है-

बाबा नानक
बाबा नानक
काहे रे वन खोजन जाई । सरब निवासी सदा अलेपा , तोही संग समाई ॥ पुहुप मधि जिउ बासु बसतु है , मुकुर माहिं जैसे छाई । तैसे ही हरि बसे निरंतरि , घटही खोजहु भाई ॥ बाहरि भीतरि एको जानहु , इहु गुर गिआन बताई । जन नानक बिनु आपा चीनै , मिटै न भ्रम की काई । 

     गोस्वामी तुलसीदासजी को भी अपने अन्दर में ईश्वर की प्राप्ति हुई । वे कहते हैं--

गो. तुलसी दास जी महाराज
गो. तुलसी दास जी महाराज
एहितें मैं हरि ज्ञान गँवायो । परिहरि हृदयकमल रघुनाथहिं , बाहर फिरत विकल भय धायो ।। ज्यों कुरंग निज अंग रुचिर मद , अति मति हीन मरम नहिं पायो । खोजत गिरि तरु लता भूमि बिल , परम सुगंध कहाँ ते आयो ।। ज्यों सर विमल वारि परिपूरन , ऊपर कछु सेवार तॄन छायो । जारत हियो ताहि तजिहौं सठ , चाहत यहि विधि तृषा बुझायो ।। व्यापित त्रिविध ताप तन दारुण , तापर दुसह दरिद सतायो । अपने धाम नाम सुरतरु तजि , विषय बबूर बाग मन लायो ।। तुम्ह सम ज्ञान निधान मोहि सम , मूढ न आन पुरानन्हि गायो । तुलसिदास प्रभु यह विचारि जिय , कीजै नाथ उचित मन भायो ।। 

     लोग ग्रंथों को पढ़ - पढ़कर व्याख्यानों को सुन - सुनकर ईश्वर का ज्ञान समझते हैं । किंतु यह ज्ञान पूर्ण नहीं है । पूर्ण ज्ञान प्रत्यक्षता में है । गोस्वामी तुलसीदासजी अपने लिए कहते हैं 

ज्यों सर विमल वारि परि पूरन , ऊपर कछु सेंवार तृन छायो । जारत हियो ताहि तजिहौं सठ, चाहत यहि विधि तृषा बुझायो ।। 

सूरदासजी महाराज भी यही कहते हैं--

     अपुन पो आपुन ही में पायो । 
शब्दहिं  शब्द  भयो  उजियारो ,  सतगुरु भेद बतायो ।। 
ज्यों  कुरंग  नाभि   कस्तूरी ,  ढूँढ़त   फिरत   भुलायो । 
फिर चेत्यो जव चेतन वै करि , आपुन  ही  तनु  छायो ॥ 
राज कुँआर कण्ठे मणि भूषण,भ्रम भयो कह्यो गँवायो । 
दियो बताइ और सत जन तब, तनु  को पाप  नशायो ॥ 
सपने माहिं नारिको  भ्रम भयो ,  बालक कहुँ  हिरायो । 
जागि लख्यो ज्यों को त्यों ही है, ना कहूँ गयो न आयो
सूरदास समुझै की यह गति,  मन  ही  मन   मुसुकायो । 
कहि न जाय या सुख की महिमा, ज्यों गूंगो गुर खायो।। 

     गोस्वामी तुलसीदासजी की तरह सूरदासजी भी मृगा की उपमा देते हैं । फिर ये एक माई की उपमा देते हैं कि जैसे कोई माई अपने बच्चे को साथ में लेकर सो गई और स्वप्न में देखती है कि बच्चा खो गया । किंतु जगने पर उसे अपने नजदीक ही मिलता है । उसी तरह माया में सोया हुआ प्राणी को ईश्वर खोया हुआ मालूम होता है , किंतु ईश्वर उसके नजदीक में ही है । पलटू साहब भी कहते हैं--

बैरागिन भूली आप में  जल में खोजै राम ॥ 
जल में खोजै राम  जाय  के   तीरथ  छाने । 
भरमै चारिउ खूट नहीं  सुधि अपनी आनै ॥ 
फूल माहिंज्यों बास काठ में अगिन छिपानी। 
खोदे बिनु नहिं  मिलै  अहै धरती में पानी ।। 
दूध मॅहै  घृत  रहै  छिपी  मिंहदी  में  लाली । 
ऐसे पूरन ब्रह्म कहूँ  तिल भरि नहिं खाली ॥ 
पलटू सत्संग बीच में  करि ले अपना काम । 
बैरागिन भूली  आप  में जल में खोजै राम

      हमलोगों का यह संतमत - सत्संग है । संतमत वह है , जो सब संतों की राय है । यह ज्ञान कि ईश्वर अपने अंदर है। अपने अंदर उसकी खोज करो,  यही सब संतों की राय है । लोग ईश्वर की खोज में दूर - दूर तक हैरान न हों , उसकी खोज अपने अंदर में करें । इसलिए संतों का सत्संग है । शरीर से जैसे मनुष्य है , उसी प्रकार ज्ञान से भी मनुष्य होना चाहिए । जब बाहर के विषयों को छोड़कर परमात्मा को प्राप्त कर लेता है , तब वह पूरा मनुष्य होता है । इसलिए हमलोगों को चाहिए कि पूरा मनुष्य बनें और सारे क्लेशों से दूर हो जाएँ । त्रैकाल संध्या अवश्य करनी चाहिए । ब्राह्ममुहूर्त में उठकर मुँह - हाथ धोकर , दिन में स्नान के बाद और फिर सायंकाल ; तीनों काल संध्या करो । यह कितने पूर्व से है ठिकाना नहीं । हमारे मुसलमान भाइयों के लिए पंचबख्ती नमाज है । बहुत मुसलमान भाई करते हैं , वे बहुत अच्छा करते हैं । जो नहीं करते हैं , वे ठीक नहीं करते हैं , पाप करते हैं । उसी तरह हमारे भारतीय वैदिक धर्मावलम्बी को भी त्रैकाल संध्या करनी चाहिए । जो नहीं करते हैं , वे ठीक नहीं करते , पाप करते हैं । अपने अंदर में परमात्मा की खोज होनी चाहिए । मन्दिरों में जो दर्शन होता है , वह अपूर्ण है इच्छा रह ही जाती है कि प्रत्यक्ष दर्शन होता । इसलिए अपने अंदर में खोजिए ।∆


नोट-  इस प्रवचन में निम्नलिखित रंगानुसार और विषयानुसार ही  प्रवचन के लेख को रंगा गया या सजाया गया है। जैसे-  हेडलाइन की चर्चा,   सत्संग,   ध्यान,   सद्गगुरु  ईश्वर,   अध्यात्मिक विचार   एवं   अन्य विचार   । 


महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा सागर में प्रकाशित प्रवचन-

महर्षि मेंही सत्संग सुधा सागर प्रवचन नंबर 97 चित्र नंबर 1
महर्षि मेँहीँ सत्संग-सुधा सागर प्रवचन नंबर 97. क


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S97, ऋषियों की सबसे महत्वपूर्ण खोज || पूरी संतुष्टि देनेवाला पदार्थ क्या है? The most important d... S97, ऋषियों की सबसे महत्वपूर्ण खोज || पूरी संतुष्टि देनेवाला पदार्थ क्या है? The most important d... Reviewed by सत्संग ध्यान on 8/31/2018 Rating: 5

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