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S98, Essential for early meditation ।। महर्षि मेंहीं अमृतवाणी ।। दि.31-10-1954ई.मुंगेर

महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर / 98

प्रभु प्रेमियों ! सत्संग ध्यान के इस प्रवचन सीरीज में आपका स्वागत है। आइए आज जानते हैं-संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज के हिंदी प्रवचन संग्रह "महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर" के प्रवचन नंबर ९८वां, के बारे में। इसमें  बताया गया है कि संतमतानुसार प्रारंभिक ध्यान कैसे किया जाता है।

इसके साथ ही आप इस प्रवचन (उपदेश, अमृतवाणी, वचनामृत, सत्संग सुधा, संतवाणी, गुरु वचन, उपदेशामृत, ज्ञान कथा, भागवत वाणी, संतवचन, संतवचन-सुधा, संतवचनामृत, प्रवचन पीयूष )  में  पायेंगे कि-  sansaar kya hai? roop , ras , gandh , sparsh aur shabd kya hai? shabd kitane prakaar ka hota hai? eeshvar bhakti kya hai? dhyaan karana kya hai? guru-mantr kya hai? praarambhik dhyaan kaise karen? geeta mein bataen bhagavaan ke anoraneeyaam roop ka darshan kaise hota hai? paramaatma ka darshan kaise hota hai? asalee bhakti kya hai?    इत्यादि बातों  के बारे में। इसके साथ-ही-साथ निम्नलिखित प्रश्नों के भी कुछ-न-कुछ समाधान इसमें मिलेगा। जैसे कि- dhyaan kendrit kaise karen, bhagavaan ka dhyaan kaise karen, mediteshan kaise karen hindee mein, dhyaan ke chamatkaarik anubhav, dhyaan kaise karen maharshi-meheen, dhyaan saadhana kaise kare, gahare dhyaan ke anubhav, dhyaan lagaane kee vidhi, paramaatma ka dhyaan kaise karen, dhyaan ka arth aur mahatv,      इत्यादि बातें। इन बातों को जानने-समझने के पहले, आइए !  संत सदगुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज का दर्शन करें। 

इस प्रवचन के पहले वाले प्रवचन नंबर 97 को पढ़ने के लिए   यहां दबाएं।

shuruaati-Dhyan-ke-liye-jaruri-baten
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Essential for early meditation

सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज कहते हैं कि- प्यारे लोगो ! मन की चंचलता में संसार है और मन की निश्चलता में परमात्मा है । मन चंचल होता है , विषयों के अवलम्ब से । .....इस तरह प्रारंभ करके गुरुदेव----What is world? What is form, juice, smell, touch and word? What type of word is there? What is godliness? What to meditate on? What is Guru-mantra? How to do initial meditation? Explain in the Gita, how is the vision of the form of God Anoraniyam? How is the vision of God? What is real devotion?.......आदि बातों पर विशेष प्रकाश डालते हैं। इन बातों को अच्छी तरह समझने के लिए पढ़ें-

९८ . सिमटी दृष्टि से देखो 

शुरुआती ध्यान करने के लिए आवश्यक बातों की जानकारी देते सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज

प्यारे लोगो !
     मन की चंचलता में संसार है और मन की निश्चलता में परमात्मा है । मन चंचल होता है , विषयों के अवलम्ब से । जैसे भौंरा एक फूल से दूसरे फूल पर जाता है, सुगंधि के लिए ; क्योंकि बगीचे में विविध प्रकार के फूल रहा करते हैं । जहाँ एक - ही - एक फूल हो और फूल नहीं हो , वहाँ भौंरा एक ही फूल पर रहेगा । इसी प्रकार रूप , रस , गन्ध , स्पर्श और शब्द ; इन पंच विषयों पर मन दौड़ता रहता है । यदि इन पंच विषयों को हटा दीजिए तो संसार क्या रहता है ? जो आँख से देखा जाय , वह रूप है , जो कान से ग्रहण हो वह शब्द है , जो जिभ्या से ग्रहण हो वह रस है , जो त्वचा से ग्रहण हो वह स्पर्श है तथा जो नासिका से ग्रहण हो वह गन्ध है । इन पाँचो को हटा दो तो संसार नहीं रहेगा । इन्हीं पाँचों में विविध प्रकार हैं । एक ही शब्द में छत्तीस प्रकार हैं । तीस राग और छह रागिनी । इसी प्रकार दृश्य कितने प्रकार के हैं , ठिकाना नहीं । इन्हीं सब विषयों की ओर मन दौड़ता रहता है । मन केवल एक ही विषय पर नहीं दौड़ता । जहाँ एक विषय है , वहाँ दूसरा विषय भी है । एक विषय दूसरे विषय का साथी है । इन सब विषयों में मन जब किसी एक विषय पर रहता है, तो अन्य विषयों पर भी दौड़ता है । दूसरी बात यह कि घर में बहुत चीजें हैं , सबको निकाल दीजिए तो केवल शून्य बच जाता है । मन बिना किसी एक पर रहे नहीं मानता । मन से पंच विषयों को हटा दीजिए तो संसार नहीं बचता , तब परमात्मा बचता है । ईश्वर में मन को लगाना चाहे तो पंच - विषयों से मन को हटा लीजिए । परमात्मा की ओर हो जाएगा । ईश्वर की भक्ति यही है कि निर्विषय की ओर मन जाए ।

     ध्यान करना भक्ति है । मन को निर्विषय करना ध्यान है । ' ध्यानं निर्विषयं मनःसंसार को पंच - विषयमय कहते हैं , तीन को छोड़ देने पर दो रहने पर भी संसार है नाम और रूप । शब्द और दृश्य । शब्द और दृश्य चले गए तो संसार भी चला गया । नाम और रूप संसार है । संसार - मुख नहीं , ईश्वर - मुख होना है । संसार को नहीं , ईश्वर को पकड़ना है । नाम और रूप छूट जायँ , तो ईश्वर को पाओगे ।

     शब्द बहुत - से हैं और रूप भी बहुत से हैं । ये कैसे छूटे ? तो किसी एक शब्द को जपो और सब शब्दों को छोड़ दो , यही गुरु - मंत्र है । इसी तरह रूप भी बहुत हैं तो एक रूप को लो और सब रूपों को छोड़ दो । जो रूप गुरु ने दिखाया है , उस रूप पर आसक्त होकर उसमें लगे रहो । अब नाम - रूप में सिमटाव हो गया । केवल एक ही नाम और एक ही रूप है , फिर भी संसार मौजूद है । एक नाम और एक रूप में जो मन रहा तो स्थूल नाम रूप में रहा । एक ही नाम रूप में रहते - रहते मन का इतना सिमटाव हुआ कि एक पर रह सकता है । जैसे राम कहो , वाह गुरु कहो अथवा ओ ३ म् कहो , इसमें भी विस्तार है । बिल्कुल विस्तार सिमटाव में आ जाय , ऐसा कौन रूप है ? जो रूप सब रूपों का बीज है , वही एक रूप है जिसमें विस्तार नहीं है । जब वर्णात्मक नाम को जपते हैं तो उसका सिमटाव नाद में होता है । नाम का सिमटाव नाद में और रूप का सिमटाव विन्दु में होता है । इसलिए विन्दु में सिमटाव होने से स्थूल से सूक्ष्म में चले आए । नाम - रूप छूटे नहीं हैं भगवान , तो क्या छूट सकते । वे तो सर्वगत हैं । विन्दु रूप भी हरि का है । अणोरणीयाम् रूप का वर्णन भी श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने किया है । विन्दु रूप भगवान का ज्योर्तिमय रूप है यह इस दृष्टि से देखा नहीं जाता । दृष्टियोग अभ्यास से प्राप्त होता है । वह दिव्य दृष्टि है । फैली दृष्टि से नहीं सिमटी दृष्टि से देखिए । ऐसा सिमटाव हो , ऐसा निशाना कि जिसका निशान हो कि केवल वही रहे । अर्जुन , भीष्म , कर्ण सबका ऐसा निशान था । दृष्टि समेटने के लिए बाहर मत देखो , अंदर देखो । फैली दृष्टि से नहीं , सिमटी दृष्टि से देखो । 

     इसी तरह अणोरणीयाम् रूप भगवान का दर्शन होता है । फिर भी सूक्ष्म जगत रहता है । इस दर्शन से भी ऊपर उठना होगा । विराटरूप जगतरूप है । जगतरूप से ऊपर उठने के लिए अरूपी को लेना होगा । इसलिए नाद लेना पड़ेगा । नाद अरूप है । जहाँ मन का पूर्ण सिमटाव होता है , वहीं नाद का उदय होता है । विन्दु पर मन का पूर्ण सिमटाव होता है , वहीं नाद मिलता है । इसीलिए ध्यान विन्दूपनिषद् में कहा है बीजाक्षरं परम विन्दुंनादं तस्योपरिस्थितम् । सशब्दं चाक्षरे क्षीणे निःशब्दं परमं पदम् । 

     शब्द में भी जबतक विविधता है , तबतक संसार है और तबतक परमात्मा का दर्शन नहीं होता है । जब अक्षर ब्रह्म में शब्द लय हो जाता है , वहीं परमात्मा का दर्शन होता है । शून्य के बिना सगुण शब्द नहीं होता । शून्य से सगुण शब्द की यह उत्पत्ति है और वहीं लय भी होता है । उसी प्रकार ईश्वर से निर्गुण शब्द का उदय होता है और वह शब्द फिर ईश्वर में जाकर लय हो जाता है । तब वहीं ' नि : शब्दं परमं पदम् ' है । ‘ एक अनीह अरूप अनामा ' ही निःशब्दं परमं पदम् ' है । मन की स्थिरता में भक्ति है , मन की चंचलता में भक्ति नहीं है । नाम - रूप के द्वारा इसको टप कर ईश्वर को प्राप्त करो । यही भक्ति है । ०


इस प्रवचन के बाद वाले प्रवचन नंबर 99 को पढ़ने के लिए   यहां दबाएं


प्रभु प्रेमियों ! गुरु महाराज के इस प्रवचन का पाठ करके आपलोगों ने जाना कि संसार क्या है? रूप , रस , गन्ध , स्पर्श और शब्द क्या है? शब्द कितने प्रकार का होता है? ईश्वर भक्ति क्या है? ध्यान करना क्या है? गुरु-मंत्र क्या है? प्रारंभिक ध्यान कैसे करें? गीता में बताएं भगवान के अणोरणीयाम् रूप का दर्शन कैसे होता है? परमात्मा का दर्शन कैसे होता है? असली भक्ति क्या है? इतनी जानकारी के बाद भी अगर कोई संका या प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस प्रवचन के बारे में अपने इष्ट मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने  इससे आपको आने वाले प्रवचन या पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहेगी। उपर्युक्त प्रवचन का पाठ निम्न वीडियो में किया गया है।




सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज के विविध विषयों पर विभिन्न स्थानों में दिए गए प्रवचनों का संग्रहनीय ग्रंथ महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा सागर
महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा सागर
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S98, Essential for early meditation ।। महर्षि मेंहीं अमृतवाणी ।। दि.31-10-1954ई.मुंगेर S98,  Essential for early meditation ।। महर्षि मेंहीं अमृतवाणी ।। दि.31-10-1954ई.मुंगेर Reviewed by सत्संग ध्यान on 10/03/2020 Rating: 5

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