महर्षि मेँहीँ सत्संग सुधा सागर" / 434
प्रभु प्रेमियों ! सत्संग ध्यान के इस प्रवचन सीरीज में आपका स्वागत है। आइए आज जानते हैं-संतमत सत्संग के महान प्रचारक
सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज की भारती (हिंदी) पुस्तक "महर्षि मेँहीँ सत्संग सुधा सागर"
प्रवचन संग्रह के प्रवचन नंबर
434 के बारे में। इसमें बताया गया है कि
दिव्य शक्तियां कैसे प्राप्त होती है? दिव्य दृष्टि से क्या होता है? दृष्टि कैसे बनती है? दृष्टियोग कैसे करते है? संतमत का सार ज्ञान क्या है? इत्यादि बातें सांप्रदायिक पंथों के नाम और संतमत के मौलिक विचार एक है।
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| महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा सागर 434 |
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दृष्टि कैसे खुलती है? How does vision open?
प्रभु प्रेमियों ! इस प्रवचन (उपदेश, अमृतवाणी, वचनामृत, सत्संग सुधा, संतवाणी, गुरु वचन, उपदेशामृत, ज्ञान कथा, भागवत वाणी, संतवचन, संतवचन-सुधा, संतवचनामृत, प्रवचन पीयूष ) में आप निम्नलिखित बातों को पायेंगे- 1. विभिन्न संप्रदायों के नाम कैसे रखे गए हैं? 2. विभिन्न मतों में एकता कैसे हो सकती है? 3. संतों ने क्या बतलाया है? 4. संत दरिया साहब की वाणी में माया किसे कहा गया है? 5. पांचो तत्व किस क्रम में उत्पन्न हुए हैं? 6. तृप्ति कैसे मिलती है? 7. दृष्टि योग कैसे किया जाता है? 8. परम ध्यान क्या है? 9. संतों की वाणियों का सार क्या है? 10. बाबा नानक साहेब जी ने बगदाद में क्या चमत्कार दिखाया था? 11. संतों को छोटा बड़ा कौन मानता है? 12. ध्यान करने से क्या मिलता है? इत्यादि बातें। उपरोक्त प्रश्नों को अच्छी तरह समझने के लिए मनोयोग पूर्वक निम्नलिखित प्रवचन का पाठ करैं---
434. दृष्टियोग कैसे करते हैं?
| सत्संग सुधा सागर S434 |
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प्यारे लोगो !
जितने मत-मतान्तर संसार में हैं, सब की जड़ में कोई-न-कोई एक महापुरुष हैं । जैसे रामानन्दी साधु की जड़ में रामानन्द स्वामी जी और रामानुजीय पंथ में रामानुज, कबीर पथ में कबीर साहब आदि । परन्तु जिन-जिन सन्तों के नाम पर आज जो मत प्रचलित हैं वे सब सन्त जिस समय थे, उस समय क्या उन लोगों ने कहा कि इस पंथ का नाम कबीर पंथ या अमुक पंथ रखो ? भक्ति भाव में भक्तों ने अपने आचार्य का नाम रख दिया है। यह गलत तो नहीं है, लेकिन ऐसा हो गया है कि लोग आपस में शास्त्रार्थ करते हैं और लड़ भी जाते हैं।
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संतमत के संत महात्मा |
यहाँ गुरु नानक देव जी का भी मत है। गुरु ग्रन्थ साहब में दसो गुरुओं का नाम तो है, लेकिन हमारे नाम पर हमारा मत कहो, ऐसा उसमें कहीं लिखा हुआ है, ऐसा मुझे मालूम नहीं। हालाँकि गुरुमुखी अक्षर जिसको पंचम गुरु ने अपने ज्ञान से बनाया, वह नही जानता हूँ, लेकिन नागरी लिपि में गुरुग्रन्थ साहब मेरे पास मौजूद हैं। जितने सन्त हुए हैं सबने ईश्वर की भक्ति बतलाई है। ईश्वर की भक्ति में ईश्वर-स्वरूप का निर्णय बतलाया और बतलाया कि यह संसार एक वृक्ष के समान है। जैसे वृक्ष बढ़ता है, उसमें पत्ते होते हैं; पुराना हो जाने पर वह वृक्ष गिर जाता है। उसी तरह मनुष्य जन्म लेते हैं, बढ़ते हैं और समय आने पर मर जाते हैं। शरीर समाप्त हो जाता है, जीवात्मा शरीर से निकल जाता है।
इन्द्रियगम्य चीजों को लोग पहचानते हैं। इसलिए गो० तुलसीदास जी कहते हैं-
"गो गोचर जहँ लगि मन जाई । सो सब माया जानहु भाई ॥"
"जहुँ लगि दृष्टि लखन में आवे, सो माया महरानी।" --संत दरिया साहब (बिहारी)
अभी आपलोगों ने सन्तसेवी जी से सुना है-
'जैसे जल महि कमलु निरालमु मुरगाई नैसाणे ।
सुरति सबदि भवसागर तरीये, नानक नामु बखाणे।"
पाँच तत्त्वों का उपजना हुआ है। पहले आकाश हुआ है, फिर हवा, उसके बाद अग्नि, तब जल और अन्त में मिट्टी। इसी प्रकार ब्रह्माण्ड बना है और हमलोगों का पिण्ड भी बना है। जितने तल ब्रह्माण्ड में हैं, उतने ही तल हमलोगों के पिण्ड में है। इसीलिये कहा है- "जो पिण्डे सो ब्रह्माण्डे।" यह पिडण्ब्रह्माण्ड का भेद जानना चाहिये। शरीर में रहने से जो अच्छा या बुरा भोग है, सभी जानते हैं। इस भोग से किसी को तृप्ति नहीं हुई, अशान्ति बनी रहती है। तृप्ति का मार्ग ईश्वर-भजन है।
अभी रामानन्द स्वामी का नाम लिया गया है। कबीर साहब का नाम लिया गया है। बाबा नानक साहब का नाम लिया गया है। सबों के वचन का सार है- "संसार-सागर से पार होना।"
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गुरुदेव और भक्तजन |
संसार की चीजों को देखकर आप पहचानते हैं। अगर हवा किसी वृक्ष में लगती है तो आवाज आती है। तमाम संसार में देखना और सुनना होता है। इसी को माया कहते हैं। अपने शरीर को हमलोग देखते हैं। अपने को आप देखते हैं? यह दिखाई नहीं देता। इसी को देखने का उपदेश सन्तों ने दिया है और कहा है कि बहिर्मुखो नहीं रहकर अन्तमुखी होकर देखो। आँख बन्द करने पर भी बाहर का ख्याल रखोगे तो बहिर्मुखो रहोगे। इसमें अन्तर्मुखी होकर देखा जाता है तो अन्धकार देखा जाता है। अन्धकार में क्या देखोगे ? आँख बन्द कर देखने पर भी मन छिरयाया रहता है, दृष्टि छिरयायी रहती है। इसलिये दृष्टि समेट करके देखो। इसी को दृष्टि साधन कहते हैं। दृष्टियोग समाप्त कहाँ होता है ? दृष्टि को समेट कर देखा जाता है तो देखने का काम शुरू हो जाता है। यही एक दृष्टि हुई। दृष्टि को एकत्र करके देखना यानी दृष्टि को एक करके देखना है। देखने को शक्ति एक पर नहीं रही तो एक का देखना नहीं हुआ। इसलिये दृष्टि को समेट कर एक पर रखो। एक पर रखने से भिन्नता छूट जाती है, तब क्या होता है ? अणुओं से सत्र बनते हैं, सभी छूट जाते हैं। परमाणु बच जाता है। परमाणु यानी सबसे छोटा। इसमें बड़ा बल है। आजकल वैज्ञानिकों ने परमाणुओं को पकड़ा है। उससे बहुत काम करके दिखलाया है। दृष्टि को एक करके देखो - यही दृष्टियोग है।
यहीं से कर्मयोग का आरम्भ हो जाता है। काम करना, लेकिन लिप्त नहीं होना। एक साधु ने कहा- "देखो दाखो, ताको मत।" ऐसा देखो कि एक पर ही दृष्टि रहे, एक ही को निरखा जाय। इसके बिना आगे बढ़ने का काम हो ही नहीं सकता है। उप- निषद् में आया है-
"बीजाक्षरं परं विन्दु, नादं तस्यो परिस्थितम् ।
सशब्दं चाक्षरे क्षौणे, निशब्दं परमं पदम् ।।"
अर्थात् परम विन्दु ही बीजाक्षर है, उसके ऊपर नाद है। नाद जब अक्षर (अनाश ब्रह्म) में लय हो जाता है तो निःशब्द परम पद है।
यह ध्यान परम ध्यान है। देखना एक पर अर्थात् एकविन्दु ही हो और सुनना भी एक ही सारशब्द हो । अनेक शब्द नहीं, एक ही एक शब्द का सुनना हो। जहाँ पर शब्द सुनना होता है, यदि एक ही एक शब्द रह जाय तो वह सारशब्द होगा। बाहर में कोलाहल है, अन्दर में भी कोलाहल है। सब शब्द छूट जाय, एक ही एक रह जाय, तब जो मिलेगा, वही एक ईश्वर होगा। उसका कहीं आरम्भ नहीं है, न कहीं अन्त है और न मध्य है। इसी को सन्त सुन्दर दास जी ने कहा है- "आदि न अन्त सुमध्य कहाँ है।"
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दस गुरु साहिवान |
शुरू में ही 'एक ओम् सत्नाम' की प्राप्ति नहीं होती है। यह गुरु महाराज का वचन है। सार शब्द एक ही एक है, और वह सत्य है। यह जानना चाहिये और बहुत कहने से क्धा मतलब ? जैसे दूध में सार घृत है, मेहदी में सार लाली है, ईख में सार उसका रस है, उसी तरह से इस सन्तमत में सब सन्तों की वाणियों को मिलाकर सब का सार निकालकर दिखा दिया है। इसी सार में ईश्वर की भक्ति, गुरु की सेवा, सत्संग, अन्दर में दृष्टि-योग और सुरत-शब्द-योग- नादानुसंधान है। इसका अभ्यास अगर ज्यादा हो तो सन्त बना देता है।
बाबा नानक के दो पुत्र थे- श्रीचन्द जी और लक्ष्मी चन्द जी। बड़े ने कहा कि मैं कुछ नहीं लूँगा, योग लूँगा। सिक्खों के दसो गुरुओं ने शब्द- साधना का अभ्यास किया था। वे लोग बड़े सहन शोल थे, बड़े सच्चे थे। एक बार बाबा नानक साहब चले गये बगदाद - मुसलमानी देश में। वे स्वयं शब्द कहते थे, उनके साथ में बाला गाते थे और मर्दाना बजाते थे। बगदाद में गाना-बजाना नहीं होता था।
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बाबा नानक |
इसीलिये खलीफा ने कहा कि इसको कब्रगाह में ले जाकर पत्वरवाह करो। खलीफा के आदेश पर उनको कब्रगाह ले जाया गया। वहाँ बहुत लोग गये, सबों ने पत्थर फेंक-फेंक कर जान से ही मारना चाहा। जब पत्थर उठाकर मारना चाहा तो किसी का हाथ उठा ही नहीं और न तो कोई पत्थर उन पर मार सका। जब यह बात खलीफा को मालूम हुई, तो वे स्वयं कब्रगाह गये। पत्थरवाह करना चे लेकिन उनका भी हाथ उठ नहीं सका। बगदाद में उनके नाम पर एक स्थान ही हो गया। जो बहुत अभ्यास करते हैं वे किसी को कष्ट नहीं देते, अपने पर कष्ट लेते हैं। इसके नमूने थे पांचवें गुरु अर्जुन देव जी । इन्होंने अपने ऊपर बहुत कष्ट लिया, लेकिन किसी को शाप तक नहीं दिया। तरण तारण में बैठकर वे लिखते थे। उन्होंने गुरुमुखी लिपि ही बना ली। बाबा गुरु नानक साहब के ज्ञान की तरफ हम खिचे हुए हैं। कबीर साहब की ओर भी हम खिचे है। गोस्वामी तुलसीदास जी हाल में हुए हैं। उनकी वाणी को भी हम लेते हैं। इसी तरह सूरदास जी की भी वाणी हम लेते हैं। जो सन्तवाणी का अध्ययन करते हैं. उनके लिये कोई सन्त छोटे-बड़े नहीं। सन्त वे होते हैं, जिन्होंने शान्ति प्राप्त कर ली हो, शान्ति में अपने को मिला दिया हो। जैसे बाबा नानक साहब ने कहा-
जल तरंग जिउ जलहि समाइआ ।
तिउ जोती संग जोति मिलाइआ ।।
कहु नानक भ्रम कटै किवाड़ा ।
बहुरि न होइ जउला जीउ ॥•
प्रातःस्मरणीय अनन्त श्री-विभूषित परमपूज्य सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज का यह प्रवचन कुप्पाघाट आश्रम (भागलपुर) के सत्संग- हॉल में दिनांक १ जून १९८० ई० को साप्ताहिक सत्संग के अवसर पर हुआ था।
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सन्तजन करत साहिबी तन में ॥ टेक ॥
पाँच पचीस फौज यह मन की, खेलें भीतर तन में।
सतगुरु सबद से मुरचा काटो, बैठो जुगत के घर में ॥१॥
बंकनाल का धावा करिके, चढ़ि गये सूर गगन में।
अष्ट कँवल दल फूल रह्यो है, परखे तत्त नजर में ॥२॥
पच्छिम दिसि की खिड़की खोलो, मन रहे प्रेम मगन में।
काम क्रोध मद लोभ निवारो, लहरि लेहु या तन में ॥३॥
संख घण्ट सहनाई बाजे, सोभा सिंध महल में।
कहै कबीर सुनो भाई साधो, अजर साहिब लख घट में ॥४॥
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नोट- इस प्रवचन में निम्नलिखित रंगानुसार और विषयानुसार ही प्रवचन के लेख को रंगा गया या सजाया गया है। जैसे- हेडलाइन की चर्चा, सत्संग, ध्यान, सद्गगुरु, ईश्वर, अध्यात्मिक विचार एवं अन्य विचार ।
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शांति संदेश में प्रकाशित प्रवचन-
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