प्रभु प्रेमियों ! सत्संग ध्यान के इस प्रवचन सीरीज में आपका स्वागत है। आइए आज जानते हैं-संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज के भारती (हिंदी) प्रवचन संग्रह "महर्षि मेँहीँ सत्संग सुधा सागर" के प्रवचन नंबर 496 के बारे में। इसमें बताया गया है कि सतगुरु की महिमा कैसी है? सतगुरु ऐसा कीजिए, संत महिमा, गुरु का उद्देश्य क्या है मनुष्य के जीवन में गुरु का क्या महत्व है? अपने गुरु की पहचान कैसे करें? गुरु का काम क्या है? वैर व शत्रुता नाश के अचूक उपाय।।गुरु जयंती पर विशेष कार्यक्रम के दौरान दिया गया कुप्पाघाट का प्रवचन। इस प्रवचन को पढ़ने के पहले गुरु महाराज जी का दर्शन करें--
संतमत में अनंत है गुरु की महिमा Anant hai guru kee mahima
प्रभु प्रेमियों ! इस प्रवचन (उपदेश, अमृतवाणी, वचनामृत, सत्संग सुधा, संतवाणी, गुरु वचन, उपदेशामृत, ज्ञान कथा, भागवत वाणी, संतवचन, संतवचन-सुधा, संतवचनामृत, प्रवचन पीयूष ) में आप निम्नलिखित बातों को पायेंगे-- 1. संत मत सत्संग में कौन भाग ले सकते हैं? 2. सत्संग में क्या सिखाते हैं? 3. शिव नारायण स्वामी गुरु ध्यान के बारे में क्या कहते हैं? 4. शिवाजी की गुरु भक्ति कैसी थी ? 5. समर्थ रामदास जी महाराज कैसे महापुरुष थे? 6. दादू दयाल जी महाराज के चरित्र कैसा था? 7. संतमत के सत्संगी स्वावलंबी जीवन क्यों जीते हैं? 8. ध्यान कैसा करना चाहिए? इत्यादि बातें। आइये उपरोक्त बातों को अच्छी तरह समझने के लिए निम्नलिखित प्रवचन का पाठ करें--
S496 सन्तमत में गुरु को बड़ी महिमा है।
महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा प्रवचन नंबर 496
बन्दों गुरु पद कंज, कृपा सिन्धु नर रूप हरि ।
महा मोह तम पुंज, जासु वचन रविकर निकर।।
प्यारे लोगो !
शांति संदेश मुख्य कभर
आवश्यकता की जितनी बातें होनी चाहिये, उतनी बातें सन्तसेवी जी और शाही स्वामी जी के प्रवचन में हो चुकीं। मैं कहता हूँ, यहाँ बड़ी सभा को करके फायदा क्या है? इस बड़ी सभा में सभी प्रकार के लोग आते हैं-गरीब भी आते हैं, और अमीर भी आते हैं। इसमें किसी धर्म को मना है नहीं। सभी धर्म के लोग हों तो सो भी सम्भव है। यहाँ किसी से नहीं कहा जाता है. कि आप नहीं आइये। जो लोग कम समझ के हैं, वे बराबर सत्संग करते-करते उस तरह समझदार हो जाते हैं कि धर्म के सम्बन्ध में जो जानने योग्य धर्म का सारतत्त्व है, उसको जान जाते हैं। क्या राजनीति इसका विरोध करेगी ? नहीं करेगी।
एक तो गुरु को मानो। दूसरी बात सत्य बोलो । तीसरी बात ईश्वर का भक्त बनो। चौथी बात हिंसा से जो भोजन प्राप्त हो, वह भोजन मत करो और पाँचवीं बात सब सन्तों के वचनों का जो मेल हो, उसको अवश्य मानो। अभी के प्रवचन में मेल मिलाया गया है। कबीर साहब और गुरु नानक साहब के वचन में बड़ा मेल है। अभी जिकर-फिकर की बात भी सन्तसेवी जी कह रहे थे। एक सन्त हुए हैं जगजीवन साहब। उन्होंने कहा है--
"जिकर करके शिखर हेरे फिकर रारंकार की।"
जगजीवन साहव क्षत्रिय थे और शिवनारायण स्वामी भी क्षत्रिय थे। शिवनारायण स्वामी कहते हैं--
निहारो यारो गुरु मूरति की ओर।
गुरु मूरति सूरति विच निरंखो, तब उर होत इंजोर ॥
छूटत कर्म तार सब टूटत, फूटत कठिन कठोर।
शुभ अरु अशुभ कर्म ना लागे, जागि घरो गृह चोर ॥
शशि ना सूर्य दिवस ना रजनी, नहीं शाम नहि भोर ।
आप देखें तो कर्म मिटावत, शिबनारायण ओर ।।
ये गुरु-ध्यान बताते हैं। ये कहते हैं-
"जीव पाले ओ मारै नाहीं।" अर्थात् - जीव का पालन करो, मारो नहीं। इस तरह अपने देश में जो सन्त लोग हुए, वे कहते हैं। सन्त उत्तरी भारत में हुए और दक्षिण भारत में भी हुए। जैसे- पूर्व में चैतन्य महाप्रभु, जो संकीत्तंन करते थे।
संत तुकाराम जी
वैसे ही दक्षिण में तुकाराम जी थे। इनको शिवाजी ने कहा था, "आप मेरे गुरु बन जाइये ।" तुकाराम जी ने कहा- "नहीं, समर्थ रामदास जी तुम्हारे गुरु होंगे। तुम उनसे दीक्षित होओ।"। समर्थ रामदास जी दया की खान और परम त्यागी थे। एक दिन भिक्षा माँगते-माँगते उनको दुपहर हो गया। शिवाजी के यहाँ आये। वे टेर लगाते थे "जय जय समर्थ श्री रघुवीर की।" इसलिये उनको समर्थ रामदास जी लोग कहते थे। शिवाजी ने भिक्षा के रूप में कागज में लिखकर दिया - "समस्त राज्य गुरु महाराज को दान ।" यह लिखकर कागज समर्थ रामदास जी के झोले में रख दिया और कहा कि लीजिये यह भिक्षा। हमारे पास अब कुछ नहीं है। समर्थ रामदास जी ने कहा, "शिवा, कागज से पेट नहीं भरता, भोजन लाओ।" इस तरह दोनों गुरु- शिष्य में बड़ी-चड़ी बातें हुई । सन्तमत में गुरु को बड़ी महिमा है। मैं कहता हूँ
"सब धरती कागद करै, लेखनि सब वनराय ।
सात समुद की मसि करूं, गुरु गुन लिखा न जाय ।।"
शिवाजी और समर्थ रामदास
यह कबीर साहब का वचन है। एक दिन समर्थ रामदास जी कुछ चेलों के साथ चले आते थे। चेलों ने कहा, "हमलोगों को भूख लग गयी है।" समर्थ राम दास जी ने कहा - "देखो, खेत में मकई के भुट्टे लगे हुए हैं, खा लो।" शिष्यों ने वैसा ही किया। तबतक में खेतवाले आ गये। वह गुस्से में आकर समर्थ रामदास जी को मकई के डंठल से मार बैठा। समर्थ रामदास जी मार वदर्दाश्त कर गये और शिष्यों से कहा- "शिवा को यह बात मत कहना। नहीं तो इसे भारी दंड देगा।" जव समर्थ रामदास जी शिवा जी के यहां पधारे तो शिवाजी उनको स्नान अपने से ही कराने लगे। पीठ में मार का दाग देखकर अन्य शिष्यों से पूछा कि यह दाग इनकी पीठ में कैसे आया ? सव-के-सब चुप थे। कोई कुछ बोलते ही नहीं थे। शिवाजी ने कहा- "सही-सही बोलिये, नहीं तो आपलोगों को ही इसका दंड भोगना पड़ेगा ।" तब उन लोगों ने उक्त किसान का नाम कहा, जिसने समर्थ रामदास जी को मारा था। उसको शिवाजी ने पकड़वाकर अपने सामने मँगवाया। शिवाजी के डर से वह किसान बहुत ही कम्पित हो रहा था । समर्थ रामदास जी ने कहा- "शिवा ! देखो, तुम्हारे डर से यह बहुत दुःखी हो रहा है, इसे क्षमा कर दो । इसका मालपोत (मालगुजारी) माफ कर दो।"
यह सब नमूना दूसरों से होना मुश्किल है। दादू दयाल जी लकड़ी चुनने के लिये जंगल गये। एक बाबू घोड़े पर चढ़कर आते थे। दादू दयाल जी शिर के बाल बनाये हुए थे। उनको मुण्डित शिर देखकर बाबू के मन में हुआ कि यात्रा पर मुण्डे शिर वाले से भेंट हो गयी, यात्रा अशुभ हो गयी। इसलिये उस बाबू ने दादू दयाल जी के माथे पर कोड़े से ठोकते हुए कहा -
संत दादूदयाल जी महाराज
"संत दादू दयालजी का घर किधर है?" दादू दयाल जी बड़े गम्भीर सन्त थे। उन्होंने कहा कि थोड़ी दूर पर गाँव है । वहाँ पूछ लेने पर आपको उनका पता मिल जायगा। वे बाबू दादू दयाल जी के आश्रम पहुँचे। पीछे दादू दयाल जी भी वहाँ पहुँचकर जब अपने सिंहासन पर पधारे, तो वे बाबू बहुत घबरा गये और मन में सोचने लगे कि मैंने इन्हीं के माथे पर कोड़ा लगाया था। दादू दयाल जी ने कहा कि घबड़ाइये नहीं, चिन्ता की कोई बात नहीं है। अरे ! देहात की जब माई-दाई मिट्टी का वर्त्तन खरीदने जाती हैं तो वे कितनी ठोकरें मारकर लेती है कि वत्तंन पका है या नहीं। उसी तरह तुमने मेरे सिर पर ठोकर मारकर जाँच कर ली, तो क्या हर्ज है?"
कबीर साहब , गुरु नानक साहब की बातों में बहुत इतिहास है। । लेकिन सबका सार यही है कि सबका ईश्वर एक है। ईश्वर को जानने के लिये ज्ञान जानो। आत्मज्ञान को जानो ।
हमारे गुरु महाराज कहते थे कि Self- supporter (स्वावलम्बी) बनो। अपनी कमाई से खाओ। उनको अपनी कमाई का अपना कुछ था भी। एकबार उनके सिरहाने से एक बिच्छू निकला। साधु-सन्तों की बड़ी बात है। हम राजनीति में कभी पड़े नहीं। जहाँ सदाचार का पालन होगा, वहाँ राजनीति आप ही अच्छी हो जायगी।
सन्तमत में राजनीति को कोई ठोकर नहीं लगती। बड़े आदमी, छोटे आदमी सबका आदर सन्तमत में है। जो लिखे पढ़े नहीं हैं, वे भी सत्संग करते-करते सीखें। जो पढ़े-लिखे हैं, वे भी समझें
मोटा ध्यान करो। बारीक ध्यान करो। मोटे ध्यान में इष्ट के रूप का ध्यान करो, और वारीक ध्यान में ज्योतिर्मय बिन्दु का ध्यान करो ।
तेजोबिन्दुः परं ध्यानं विश्वात्महृदि संस्थितम् ।
अर्थात् - हृदय-स्थित विश्वात्म तेजस् स्वरूप विन्दु का ध्यान परम ध्यान है।
इन्हीं सव वातों को लेकर अपने-अपने घर को जाइये। जो कुछ सुने हैं, उसको याद करते रहिये । जो साधन जानते हैं, उसको करते रहिये। जो साधन नहीं जानते हैं, तो वे किसी जानकार से जानकर साधना कीजिये। यह संस्कार मन पर पड़ा रहेगा, जन्म-जन्मान्तर में इसके संस्कार के परिणामस्वरूप पहले जीवन्मुक्ति और फिर विदेहमुक्ति होगी। •
( प्रातःस्मरणीय अनन्त श्री विभूषित परम पूज्य सद्गुरु महषि महीं परमहंस जी महाराज की ९७ वीं जयन्ती के उपलक्ष्य में २९ अप्रैल १९८० ई० को कुप्पाघाट आश्रम के सत्तंन-हॉल में सत्संग का आयोजन किया गया था। पूज्यपाद महर्षि जी का यह प्रवचन उसी अवसर पर हुआ था ।)
नोट- इस प्रवचन में निम्नलिखित रंगानुसार और विषयानुसार ही प्रवचन के लेख को रंगा गया या सजाया गया है। जैसे- हेडलाइन की चर्चा, सत्संग, ध्यान, सद्गगुरु, ईश्वर, अध्यात्मिक विचार एवं अन्य विचार ।
वैर से वैर नहीं शान्त होता
भगवान् बुद्ध
दो स्त्रियाँ सौतिया डाह के कारण मरकर अनेक जन्मों से प्रस्पर बदला लेती हुई बुद्धकाल में यक्षिणी और कुलकन्या होकर श्रावस्ती में उत्पन्न हुई थीं। कन्या सयानी होकर पति के घर गई। जब-जब उसे बच्चा होता, तव-तव यक्षिणी आकर उसे खा जाती। तीसरी बार उसने अपनी माँ के घर आकर प्रसव किया और जब बच्चा सयाना हो गया, तव अपने पति * के साथ पुनः पति-गृह जाने के लिये प्रस्थान किया। मार्ग में जेतवन महाविहार के पास बैठकर बच्चे को दूध पिलाती हुई, उस यक्षिणी को आते देख, डर के मारे भागती हुई भगवान् के पास गई और अपने नन्हें-से पुत्र को भगवान् के पाद-पंक ों पर रखती हुई कहा- "भन्ते ! इसे जीवन-दान दीजिये ।"
यक्षिणी को सुमन देवता ने जेतवन के द्वार पर ही रोक रखा था। भगवान् ने आनन्द को भेजकर उसे बुलाया और आंकर खड़ा होने पर- "तू ऐसा क्यों कर रही है? यदि तुम दोनों मेरे सम्मुख न आती, तो तुम्हारी शत्रुता कल्पों बनी रहती। क्यों वैर के प्रति वैर करती हो ? वैर अ-वैर से शान्त होता है, न कि वैर से।" कहकर इस गाथा को कहा --
नहि बेरेन वेरानि सम्मन्तीध कुदाचनं ।
अबेरेन च सम्मन्ति एस धम्मो सनन्तनो ।।
इस संसार में वैर से वैर कभी शान्त नहीं होता, अ-वैर (मैत्री) से ही शान्त होता है यही सदा का नियम है।•
[गाथा के समाप्त होने पर यक्षिणी स्रोतापन्न हो गई। भगवान् के कहने पर उसे -- वह स्त्री घर ले गई और तब से उसकी अग्र खाद्य भोज्य से पूजा करने लगी। लोग सम्प्रति गे उस काली यक्षिणी को पूजते हैं। (धम्मपद कथाओं के साथ) ]
प्रभु प्रेमियों ! गुरु महाराज के इस प्रवचन का पाठ करके आपलोगों ने जाना कि वैर व शत्रुता नाश के अचूक उपाय।। गुरु जयंती पर विशेष कार्यक्रमगुरु की महिमा क्या है? शिवाजी ने गुरु की महिमा को किन शब्दों में व्यक्त किया है? शिवाजी की गुरु महिमा? अनंत है गुरु की महिमा, समर्थ रामदास जी का चरित्र, शिवाजी के गुरु भक्ति, दादू दयाल के चरित्र। इतनी जानकारी के बाद भी अगर आपके मन में किसी प्रकार का शंका या कोई प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस प्रवचन के बारे में अपने इष्ट मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने। इससे आपको आने वाले प्रवचन या पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहेगी।
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S496 संतमत में अनंत है गुरु की महिमा || वैर व शत्रुता नाश के अचूक उपाय Anant hai guru kee mahima
Reviewed by सत्संग ध्यान
on
9/02/2018
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