S43, Vindu meditation by definition ।। महर्षि में हीं अमृतवाणी ।। दि.20-02-1953ई. मनिहारी

महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर / 43

 प्रभु प्रेमियों ! सत्संग ध्यान के इस प्रवचन सीरीज में आपका स्वागत है। आइए आज जानते हैं-संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज के भारती (हिंदी) प्रवचन संग्रह "महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर" के प्रवचन नंबर 43वां, को । इसमें परिभाषा के अनुसार विंदु ध्यान कैसे करें और इससे क्या-क्या लाभ होते हैं?

इसके साथ ही इस प्रवचन (उपदेश, अमृतवाणी, वचनामृत, सत्संग सुधा, संतवाणी, गुरु वचन, उपदेशामृत, ज्ञान कथा, भागवत वाणी, संतवचन, संतवचन-सुधा, संतवचनामृत, प्रवचन पीयूष ) में बताया गया है कि- गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज और भक्त सूरदास जी महाराज की वाणी का पाठ। पाठ में आए परिभाषा के अनुसार असली बिंदु की जानकारी। बिंदु स्वरूप से ईश्वर की जानकारी। समस्त मनोकामना को पूर्ण करने वाला ईश्वर-भक्ति विंदू ध्यान से शुरू करके शब्द-साधन द्वारा समाप्ति । दृष्टि साधन में अनुभूत होने वाले दृश्यों की चर्चा और। इत्यादि बातों के साथ-साथ निम्नलिखित प्रश्नों के भी कुछ-न-कुछ समाधान पायेंगे। जैसे कि- दृष्टियोग में क्या-क्या दिखाई पड़ता है? आंख अभ्यास, नासाग्र दृष्टि,' देव ज्योतिमुद्रा योग , योग की प्रासंगिकता, बिंदु बिंदु, बिंदु विकिपीडिया, बिंदु की परिभाषा, बिंदु का अर्थ, सहस्रार चक्र कहां होता है,बिंदु कितने प्रकार के होते हैं, बिंदु किसे कहते हैं, बिंदु ध्यान क्या है? परिभाषा के अनुसार विंदु ध्यान, इत्यादि बातें। इन बातों को जानने-समझने के पहले, आइए ! संत सदगुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज का दर्शन करें।  

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परिभाषा के अनुसार बिंदु ध्यान पर प्रवचन करते सद्गुरु महर्षि मेंही
बिंदु ध्यान की महिमा पर प्रवचन

Vindu meditation by definition

सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज कहते हैं कि- प्यारे लोगो ! रघुपति भगति करत कठिनाई । कहत सुगम करनी अपार , जानइ सो जेहि बनि आई । .....इस तरह प्रारंभ करके गुरुदेव--What is visible in visualization? Eye exercises, nasal vision, 'dev jyotimudra yoga, relevance of yoga, point to point, point wikipedia, definition of point, meaning of point, sahasrara Where is Sahasrara Chakra, what are the types of dots, what is dots, what is dhyana meditation? Vindu meditation, by definition,.....आदि बातों पर विशेष प्रकाश डालते हैं। इन बातों को अच्छी तरह समझने के लिए पढ़ें-


४३. दृष्टिसाधन की महिमा 

बिंदु ध्यान पर प्रवचन करते सद्गुरु महर्षि मेंही

प्यारे लोगो !

     रघुपति भगति करत कठिनाई । कहत सुगम करनी अपार , जानइ सो जेहि बनि आई ।। जो जेहि कला कुसल ता कहँ , सो सुलभ सदा सुखकारी । सफरी सनमुख जल प्रवाह , सुरसरी बहइ गज भारी ।। ज्यों सर्करा मिलइ सिकता महँ , बल तें नहिं बिलगावै । अति रसज्ञ सूछम पिपीलिका , बिनु प्रयास ही पावै ॥ सकल दृस्य निज उदर मेलि , सोवइ निद्रा तजि जोगी । सोइ हरि - पद अनुभवइ परम सुख , अतिसय द्वैत वियोगी ।। सोक मोह भय हरष दिवस निसि , देस काल तहँ नाहीं । तुलसिदास एहि दसा - हीन , संसय निर्मूल न जाहीं ।। - गोस्वामी तुलसीदासजी

अविगत गति कछु कहत न आवै । ज्यों गूंगहिं मीठे फल को रस , अन्तरगत ही भावै ।। परम स्वाद सबही जू निरन्तर , अमित तोष उपजावै । मन वाणी को अगम अगोचर , सो जानै जो पावै ।। रूपरेख गुन जाति जुगुति बिनु , निरालंब मन चकृतधावै । सब विधिअगमविचारहि तातें , ' सूर सगुन लीला पदगावै ।। भक्त सूरदासजी 

    स्थूल मण्डल में जहाँ तक स्थान है , वहाँ तक लम्बाई , चौड़ाई , ऊँचाई , गहराई और मोटाई होती है । स्थान हो और इन पाँचो में से एक भी नहीं हो , असम्भव । स्थान में ये पाँचो होते ही हैं । इसलिये लम्बाई , चौड़ाई , ऊँचाई , गहराई और मोटाई जहाँ है , वहाँ स्थान है । विन्दु में स्थान है , किन्तु उसका परिमाण नहीं है । रेखा में लम्बाई है , चौड़ाई नहीं ; किन्तु परिभाषा के अनुकूल बाहर में विन्दु या लकीर नहीं बन सकती । दृष्टिसाधन से विन्दु देखने में आता है । जहाँ स्थान है , वहाँ समय है । देश है , समय नहीं और समय है , देश नहीं ; ऐसा नहीं हो सकता । जहाँ देश - काल नहीं है , वहाँ लम्बाई , चौड़ाई , ऊँचाई और गहराई कुछ नहीं है । परमात्मा देशकालातीत है तथा सर्वव्यापी है । समय और स्थान माया में है , माया ऊपर समय और स्थान नहीं हो सकते । परमात्मा में लम्बाई , चौड़ाई , मोटाई , गहराई और ऊँचाई मानने से वह माया - रूप हो जायगा । जिसमें विस्तृतत्व या फैलाव नहीं है , वह कैसा है ? बुद्धि में नहीं आ सकता । इसलिये वह बुद्धि के परे है । परमात्मा निर्विकार है । वह विस्तृतत्व - रूप नहीं है । सब फैलावों में रहते हुए वह उन सबसे बचकर है । इसी परमात्म - स्वरूप को गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने ' देस काल तहँ नाहीं ' कहा है । 

    लोग कहते हैं कि श्रीसूरदासजी भगवान श्रीकृष्ण के भक्त थे । वे कहते हैं - ' अविगत गति कछु कहत न आवै । ' अ = नहीं । विगत = खाली । अविगत अर्थात् सर्वव्यापी । सर्वव्यापी की महिमा को कुछ कह नहीं सकते । इसका मतलब यह नहीं कि वह है ही नहीं । बल्कि वह ऐसा है कि उसके विषय में कहने में कुछ नहीं आता । प्राप्त होने पर भी उसका कोई वर्णन नहीं कर सकता । जैसे गूंगा किसी मीठे फल के स्वाद का वर्णन नहीं कर सकता , उसी प्रकार अविगत की प्राप्ति तो होती है , किन्तु उसका वर्णन करने के लिये जिह्वा में शक्ति नहीं है , भीतर - ही - भीतर अच्छा लगता है , कहने में नहीं आता । उसे पा लेने से क्या होता ? तो कहा - परम स्वाद । जो उसको पाता है , उसको सर्वोत्कृष्ट स्वाद मिलता है । सब स्वादों से जो बढ़कर स्वाद है , वह उसको मिलता है । जब कोई उसको पाता है , तबसे उसका स्वाद उसे बराबर लगा ही रहता है । एक पल - क्षण भी नहीं छूटता । वह अमित सन्तुष्टि को पाता है । उसको पा लेने पर इच्छा ही नहीं रहेगी । इच्छा में रहकर ही मन चंचल होता है । उसको सन्तुष्टि नहीं कहते कि भूख लगी , खा लिया , फिर पच गया तो भूख लगी । वह सन्तुष्टि ऐसी है कि फिर और कुछ पाने की इच्छा ही नहीं रहती । मन और वचन की पहुँच बाहर है । यदि मन - वचन के बाहर नहीं होता , तो मन जानता और वचन से वर्णन होता । किन्तु वह वैसा नहीं , मन - वचन से परे है । उसे वही जानता है , जो उसे पाता है । रूप नहीं है , रेखा नहीं है और गुण भी नहीं , त्रिगुणातीत है । किसी किस्म का नहीं है , कहने के लिए युक्ति नहीं है । इसलिए परमात्म - स्वरूप के विषय में केवल माया तक की गतिवाला मन ( गो गोचर जहँ लगि मन जाई । सो सब माया जानहु भाई ।।- रामचरितमानस ) बिना अवलम्ब के चक्कर खाता रहता है । इसी कारण से श्रीसूरदास जी ने सगुण - लीला के अनेक पद्यों को गाया है ।

    वहाँ जाने के लिये , उसका कुछ प्रकाश देखने के लिए श्रीसूरदासजी महाराज कहते हैं नैन नासिका अग्र है , तहाँ ब्रह्म को वास । अविनासी बिनसै नहीं , होसहज जोति परकास ।। 

    ऐसा देखने का ढंग जानो और करो , तो प्रकाश देखोगे । सूर्योदय के पहले जैसे थोड़ा प्रकाश मालूम होता है , फिर लालिमा देखते - देखते सूर्य देखते हैं , उसी प्रकार ब्रह्म को देखने के पहले ब्रह्म का प्रकाश देखने में आता है , फिर ब्रह्म को देखते हैं । देखने के लिए दृष्टिसाधन करो । परन्तु यह न समझो कि दृष्टिसाधन करके देख सकने पर भी वह देशकालातीत परमात्मा प्राप्त हो जायगा । स्थूल  वा सूक्ष्म दृश्य , सब ब्रह्म के रूप हैं । वह परमात्मा ब्रह्मतत्त्व ऐसा है कि केवल चेतन - आत्मा ही कैवल्य दशा में रहती हुई उसको प्रत्यक्ष पा सकती है । दृष्टिसाधन से प्राप्त दिव्य दृष्टि केवल सूक्ष्म माया तक ही रह जाती है । वह अन्तःकरण के परे की दृष्टि नहीं है । अन्त : करण और मूल प्रकृति से परे हो जाने पर ही चैतन्य आत्मा कैवल्य दशा प्राप्त करती है , तब उससे अभिन्न चेतनमय दृष्टि से ही उस देशकालातीत परमात्मा ब्रह्म की अपरोक्षता होती है । इसी अपरोक्षानुभूति में देशकालातीत  भाव का बोध होता है । परन्तु इस सर्वोच्च पद तक आने के लिए दृष्टियोग अभ्यास इसलिए परमावश्यक है कि चैतन्य आत्मा स्थूलावरण से निकलकर ब्रह्म - ज्योति मण्डल में अपने को रख सके और उससे भी आगे बढ़ जाने के लिए सूक्ष्म अनहद नादों को ग्रहण करते हुए अन्त में स्फोट प्रणव ध्वनि - आदिनाम - सत्यनाम सारशब्द - राम नाम को ग्रहण करके बचे हुए सारे मायिक आवरणों को पार कर अपने को कैवल्य दशा में ला परमात्मा का दर्शन करे । ०


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प्रभु प्रेमियों ! गुरु महाराज के इस प्रवचन का पाठ करके आपलोगों ने जाना कि समस्त मनोकामना को पूर्ण करने वाला ईश्वर-भक्ति विंदू ध्यान से शुरू करके शब्द-साधन द्वारा समाप्ति । दृष्टि साधन में अनुभूत होने वाले दृश्यों की चर्चा औरं। इतनी जानकारी के बाद भी अगर आपके मन में किसी प्रकार का संका या कोई प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस प्रवचन के बारे में अपने इष्ट मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने  इससे आपको आने वाले प्रवचन या पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहेगी। उपर्युक्त प्रवचन का पाठ निम्न वीडियो में किया गया है।




सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज के विविध विषयों पर विभिन्न स्थानों में दिए गए प्रवचनों का संग्रहनीय ग्रंथ महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा सागर
महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा सागर
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S43, Vindu meditation by definition ।। महर्षि में हीं अमृतवाणी ।। दि.20-02-1953ई. मनिहारी S43, Vindu meditation by definition ।। महर्षि में हीं अमृतवाणी ।। दि.20-02-1953ई. मनिहारी Reviewed by सत्संग ध्यान on 9/20/2020 Rating: 5

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