S42. Measures to end crisis in scriptures ।। महर्षि मेंहीं वचनामृत ।। दि.17-01-1953ई. गया

महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर / 42

 प्रभु प्रेमियों ! सत्संग ध्यान के इस प्रवचन सीरीज में आपका स्वागत है। आइए आज जानते हैं-संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज के भारती (हिंदी) प्रवचन संग्रह "महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर" के प्रवचन नंबर 42वां, को । इसमें धर्मग्रंथों में संकट दूर करने के उपाय करता बताया गया है।

इसके साथ ही इस प्रवचन (उपदेश, अमृतवाणी, वचनामृत, सत्संग सुधा, संतवाणी, गुरु वचन, उपदेशामृत, ज्ञान कथा, भागवत वाणी, संतवचन, संतवचन-सुधा, संतवचनामृत, प्रवचन पीयूष )  में बताया गया है कि-  धर्म ग्रंथों में सभी दुखों से छूटने का उपाय ईश्वर-भक्ति बताया गया है। ईश्वर-भक्ति के लिए ईश्वर स्वरूप का निर्णय  कबीर साहब, गोस्वामी तुलसीदास जी, भक्त सूरदास जी और गुरु नानक साहब ने जो कहा है, उसे समझ कर रामायण में वर्णित नवधा-भक्ति के द्वारा ईश्वर-भक्ति करनी चाहिए। इसमें सदाचार का पालन करना आवश्यक है।  इत्यादि बातों के साथ-साथ निम्नलिखित प्रश्नों के भी कुछ-न-कुछ समाधान पायेंगे। जैसे कि- हिंदू धर्मग्रंथों का सार,हिन्दू धर्मग्रन्थ,दुखों से छूटने का उपाय, दुख दूर करने के उपाय, गरीबी दूर करने के रामबाण उपाय, जब मन दुखी हो तो क्या करना चाहिए, दुख में कोई साथ नहीं देता, बीमारी दूर करने के उपाय, जीवन में दुख का कारण, दुख दूर करने वाला, दुख का कारण क्या है, संकट दूर करने के उपाय, दुख का मूल कारण क्या है, दुख और विपत्तियों से छुटकारा पाने, संत बताते हैं दुखों से छूटने का उपाय,   इत्यादि बातें। इन बातों को जानने-समझने के पहले, आइए !  संत सदगुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज का दर्शन करें। 

इस प्रवचन के पहले वाले प्रवचन नंबर 41 को पढ़ने के लिए यहां दबाएं

नवधा भक्ति पर ब्याख्या करते सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज
सभी दुखों से छूटने का उपाय नवधा भक्ति

Measures to end crisis in scriptures

सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज कहते हैं कि- धर्मानुरागिनी प्यारी जनता ! मैं ईश्वर - भक्ति के बारे में इस समय कहूँगा और यही एक विषय है , जिसपर मैं बराबर कहता हूँ । .....इस तरह प्रारंभ करके गुरुदेव--The essence of Hindu scriptures, Hindu scriptures, ways to get rid of sorrows, remedies to alleviate suffering, panacea measures to alleviate poverty, what to do when the mind is unhappy, does not support anyone in sorrow, to remove sickness.The one who removes sorrow, what is the cause of sorrow, what is the solution to end the crisis, what is the root cause of sorrow, to get rid of sorrows and disasters, the saint explains the remedy to get rid of sorrow.,.....आदि बातों पर विशेष प्रकाश डालते हैं। इन बातों को अच्छी तरह समझने के लिए पढ़ें-

४२. ईश्वर - भक्ति की युक्ति

सभी दुखों से छूटने का उपाय नवधा भक्ति पर प्रवचन करते हुए गुरुदेव

धर्मानुरागिनी प्यारी जनता !

     मैं ईश्वर - भक्ति के बारे में इस समय कहूँगा और यही एक विषय है , जिसपर मैं बराबर कहता हूँ । संसार में लोग सुख पाने के लिए चाहते हैं , परन्तु सांसारिक वस्तुओं से सुखी नहीं होते हैं , यह प्रत्यक्ष है । यहाँ जो अल्प सुख मालूम होता है , इससे तृप्ति नहीं होती । जिस सुख से तृप्ति होती है , वह अलौकिक है और वह सुख ईश्वर की प्राप्ति में है । सद्ग्रन्थों (धर्म ग्रंथों) से ऐसा ही विदित होता है । ईश्वर की भक्ति से सब दुःखों का अन्त हो जाता है , और किसी दूसरे उपाय से उसका अन्त नहीं हो सकता है । राकापति षोडस उअहिं , तारागन समुदाय । सकल गिरिन्ह दब लाइय , बिनु रवि राति न जाय ॥ ऐसेहि बिनुहरि भजन खगेसा । मिटहिंनजीवन केर कलेसा ॥

    अर्थात् - पूर्णिमा के सोलह चन्द्रमा अथवा सोलह कलाओं से युक्त चन्द्रमा ) उगें , तारेगणों के सब झुण्ड भी उगें, सब पर्वतों में आग लगा दी जाय ; परन्तु बिना सूर्य के रात नहीं जाती । हे गरुड़जी ! इसी प्रकार बिना हरि - भजन किए जीवों का क्लेश नहीं मिटता । 

     ईश्वर - भक्ति करने के लिए ईश्वर - स्वरूप का ज्ञान होना चाहिए । स्वरूप - निर्णय हुए बिना उसकी भक्ति कैसे की जाय , विदित नहीं हो सकती है । ईश्वर के लिए कोई उसे साकार कहते हैं , कोई निराकार कहते हैं और कोई कहते हैं , साकार - निराकार दोनों हैं । सर्वव्यापी होने के कारण सब रूपों में वे रहते हैं , इसलिए वे सर्वरूपी हैं । अतएव रूप - सहित साकार हैं । कोई रूप स्थूल साधारण दृष्टि से और कोई रूप सूक्ष्म दिव्य दृष्टि से दर्शित है , किन्तु रूप और रूप में बसनेवाले में भेद है , जैसे क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ में भेद है । क्षेत्ररूप इन्द्रिय - गोचर होने के कारण लोग पहचानते हैं , किंतु क्षेत्रज्ञ इन्द्रिय - गोचर नहीं रहने के कारण लोग नहीं पहचानते हैं । ईश्वर - स्वरूप - निर्णय के लिए सन्तों की वाणियाँ हैं श्रूप अखण्डित व्यापी चैतन्यश्चैतन्य । ऊँचे नीचे आगे पीछे दाहिन बायँ अनन्य ।। बड़ातें बड़ा छोट तें छोटा मीही तें सब लेखा । सबके मध्य निरन्तर साईं दृष्टि दृष्टि सों देखा । चाम चश्म सों नजरिन आवै खोजु रूह के नैना । चून चगून वजूद न मानु तैं सुभा नमूना ऐना ।। जैसे ऐना सब दरसावै जो कुछ वेश बनावै । ज्यों अनुमान करै साहब को त्यों साहब दरसावै ॥ जाहि रूह अल्लाह के भीतर तेहि भीतर के ठाईं । रूप अरूप हमारि आस है हम दूनहुँ के साईं ।। जो कोउ रूह आपनी देखा सो साहब को पेखा । कहै कबीर स्वरूप हमारा साहब को दिल देखा ।। -कबीर साहब 

अलख अपार अगम अगोचरि ना तिसुकाल न करमा । जाति  अजाति अजोनी संभउ ना तिसु भाउ न भरमा । साचे सचिआर विटहु कुरबाणु । नातिसु रूप बरनु नर्हि रेखिआ , साचे सबदि नीसाणु । ना तिसुमात पिता सुत बंधप , ना तिसु काम न नारी । अकुल निरंजन अपर परंपरु , सगली जोति तुमारी । घट - घट अन्तरि ब्रह्म लुकाइआ , घटि - घटि जोति सबाई । बजर कपाट मुकते गुरमती , निरभै ताड़ी लाई ॥ जंत उपाइ कालु सिरिजंता , बस गति जुगति सबाई । सतिगुर सेवि पदारथु पावहि , छूटहि सबदु कमाई ॥ सूचै भाडै साचु समावै , बिरले सूचाचारी । ततै कउ परम तंतुमिलाइआ , नानक सरणि तुमारी ॥ -गुरुनानक साहब

राम स्वरूप तुम्हार , वचन अगोचर बुद्धि पर । अविगत अकय अपार , नेति नेति नित निगम कह ।। व्यापकव्याप्य अखण्डअनन्ता । अखिल अमोधसक्ति भगवन्ता ।। अगुन अदभ्रगिरा गोतीता । सब दरसी अनवद्य अजीता ।। निर्मल निराकार निर्मोहा । नित्य निरंजन सुख सन्दोहा ।। प्रकृति पारप्रभु सबउरबासी । ब्रह्म निरीह बिरज अविनासी ।। अगुन अखण्ड अलख अजजोई । भगत प्रेम बस सगुन सो होई ।। भगत हेतु भगवान प्रभु , राम धरेउ तनु भूप । किये चरित पावन परम , प्राकृत नर अनुरूप ॥ यथा अनेकन वेष धरि , नृत्य करै नट कोइ । सोइ सोइ भाव दिखावइ , आपुन होइ न सोइ ॥ -गोस्वामी तुलसीदासजी

अविगत गति कछु कहत न आवै । ज्यों गूंगहि मीठे फल को रस , अन्तर्गत ही भावै ॥ परम स्वाद सब ही जू निरन्तर , अमित तोष उपजावै । मन वाणी को अगम अगोचर , सो जानै जो पावै ॥ रूपरेख गुण जाति जुगुति बिनु , निरालम्ब मन चक्रित धावै । सब विधि अगम विचारहिं तातें , सूर सगुण लीला पद गावै ॥ -संत सूरदासजी

    मुक्तिकोपनिषद् में श्रीरामजी का अपने स्वरूप के विषय में श्रीहनुमानजी से ऐसा ही कथन है , ( अशब्दमस्पर्शमरूपमव्ययं तथाऽरसं नित्यमगन्धवच्च यत् । अनामगोत्रं मम रूपमीदृशं भजस्व नित्यं पवनात्मजार्तिहन् ।।

    जो सन्तवाणी से मिलता है । जिसकी सीमा नहीं है , ऐसा एक तत्त्व अवश्य है , ऐसा बुद्धि को जंचता है । सबको सान्त - सान्त कहने से प्रश्न होगा कि सब सान्तों के पार में क्या है ? सारे सान्तों के पार में अनन्त कहे बिना प्रश्न हल नहीं होता । इसी अनन्त को सन्तों ने परमात्म - स्वरूप माना है । जो अनन्त है , वह सबसे विशेष झीना है । विशेष झीना होने के कारण वह सबमें व्यापक है और सबसे बाहर भी है । ' है सबमें सब ही तें न्यारा । जीव जन्तु जल थल सब ही में , सबद वियापत बोलनहारा ।। ' -कबीर साहब ।

    इन्द्रियगोचर रूप को आँख से देख सकते हैं , इसलिए ठाकुरवाड़ी में चित्र रखते हैं , दर्शन करते हैं । कितने को सगुण का दर्शन हुआ ; किन्तु दर्शन होने पर जब उन देवों ने कहा - यह करो और वह करो तब जानना चाहिए कि यदि रूप - दर्शन से ही काम समाप्त हो जाता , तब फिर और काम करने की आज्ञा श्रीराम या श्रीकृष्ण क्यों देते ? श्रीकृष्ण ने अर्जुन को दिव्यदृष्टि दी , जिससे अर्जुन ने उनके दिव्य - रूप का दर्शन किया । इन्द्रियों से दर्शन होने योग्य रूप से दिव्य - दर्शन श्रेष्ठ है ; किन्तु इससे भी परे और कोई स्वरूप है , जिसे दिव्य दृष्टि से भी नहीं देख सकेंगे , आत्मदृष्टि से देख सकेंगे ।

     जाग्रत् की दृष्टि , स्वप्न की दृष्टि , मानस दृष्टि और दिव्यदृष्टि के बाद पाँचवीं दृष्टि वह है , जहाँ स्थूल , सूक्ष्म , कारण , महाकारण - कोई जड़ शरीर नहीं रहता । अर्जुन को दिव्यदृष्टि मिलने पर भी वह देह के साथ था । मामूली दृष्टि नहीं रही , दिव्यदृष्टि हुई । भगवान के तेज के कारण से अर्जुन को भय हो रहा था । भगवान की कृपा से वह उस दर्शन को  कर पाता था । 

    सीताजी की खोज में श्रीराम - लक्ष्मण ; दोनों भाई जाते हैं । अगस्त्य मुनि के आश्रम में आते हैं , मुनिजी ने श्रीराम से कहा - ' शिवजी की उपासना करो । पाशुपत अस्त्र मिलेगा , तब रावण मारा जाएगा । श्रीराम ने तप किया , शिवजी के विराट - रूप का दर्शन हुआ । लक्ष्मण बेहोश हो गए और श्रीराम ठेहुने के बल बैठ गए । ( शिव - गीता पढ़िए ) । यह आपस की लीला उनलोगों ने की थी । अर्जुन श्रीकृष्ण के विराट - रूप का दर्शन करता है और विनती भी करता है , जो अवयव - युक्त पदार्थ है , उसको देखता है । अनेक रूप होकर व्यापक होना पूर्ण सर्वव्यापकता नहीं है । अनेक में एक - दो की गिनती तब होगी , जब उनके बीच में कुछ अवकाश हो । ऐसी अवस्था में बीच के अवकाश में वह व्यापक नहीं होता है । किन्तु जो एक ही तत्त्व अत्यन्त सघनता से ऐसा फैला हो कि एक - दो की गिनती नहीं हो सकती , उसे दिव्यदृष्टि से भी नहीं देख सकते । चेतन - आत्मा ही उसका दर्शन कर सकती । कठोपनिषद् पढ़कर देखिए- ' यह आत्मा वेदाध्ययन द्वारा प्राप्त होने योग्य नहीं है और न धारणा - शक्ति अथवा अधिक श्रवण से ही प्राप्त हो सकता है । यह ( साधक ) जिस आत्मा का वरण करता है , उस ( आत्मा ) से ही यह प्राप्त किया जा सकता है । उसके प्रति यह आत्मा अपने स्वरूप को अभिव्यक्त कर देता है । ' ( नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधयानबहुना श्रुतेन । यमेवैषवृणुतेतेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुतेत स्वाम् ।। -कठोपनिषद् , द्वितीय वल्ली , अध्याय १ ) 

    उस सर्वव्यापी का दर्शन करनेवाली चेतन आत्मा जड़ शरीरवाली नहीं होगी , सब जड़ शरीरों से छूटी हुई होगी । इस दर्शन का जिसको ज्ञान हो  जाता है , वह जानता है कि शरीर में रहते हुए शरीर - सम्बन्धी दर्शन होता है । परन्तु जबतक चेतन - आत्मा स्वयं शरीर में लिप्त तबतक अलिप्त सर्वव्यापी का दर्शन वह नहीं पा सकती है । भक्ति - साधन के आरम्भ में ही यह दर्शन होने योग्य नहीं है । स्थूल में रहता हुआ स्थूल पदार्थ को ही ग्रहण कर सकता है । इसलिए ईश्वर - भक्ति में पहले स्थूल - उपासना है । श्रीराम ने नवधा भक्ति बतलायी है प्रथम भगति सन्तन्ह कर संगा । दूसरिरति मम कथा प्रसंगा । गुरुपद पंकज सेवा , तीसरि भगति अमान । चौथी भगति मम गुन गन , करइ कपट तजि गान ।। मंत्र जाप मम दृढ़ विस्वासा । पंचम भजन सो वेद प्रकासा ।। छठ दम सील विरति बहु कर्मा । निरत निरंतर सज्जन धर्मा ।। सातव॑सममोहिमय जगदेखा । मोतॆसन्त अधिककरिलेखा ।। आठ यथा लाभ सन्तोषा । सपनहुँ नहिं देखइ पर दोषा ।। नवम सरल सबसनछलहीना । मम भरोसहिय हरषनदीना ।। 

    पहली से पाँचवीं भक्ति तक स्थूल भक्ति है । मन्त्र - जप स्थूल ज्ञान में होता है । इसके आगे छठी भक्ति में दमशील बनने कहते हैं , अर्थात् इन्द्रियों को रोकने का स्वभाववाला होने कहते हैं । जबतक नाम जपते थे , तबतक मन में था , ईश्वर का नाम जपते हैं । किन्तु अब छठी भक्ति से ईश्वर का क्या संबंध हुआ ? पहले जो जप करते थे , उससे विशेष काम हुआ । इन्द्रियों का दमन करने के स्वभाववाले होने के कारण विषय से निर्विषय की ओर जाते हैं । रूप , रस , गन्ध , स्पर्श और शब्द ; इन पाँच विषयों से चित्त हट जाएगा । कम - से - कम स्थूल विषय से सूक्ष्म विषय में तो अवश्य गति हो जाएगी । श्रीराम ने प्रजा को जो उपदेश दिया ' एहि तन कर फल विषय न भाई , ' सो विषय - त्याग दम के साधन से ही होने योग्य है । पहले स्थूल विषय छूटेगा , फिर सूक्ष्म विषय । इन्द्रियों के निग्रह के स्वभाववाले की वृत्ति निर्विषय की ओर हो जाती है , तब वह प्रभु की ओर विशेष लग जाता है । साधक के लिए अवश्य यह बात है । तर्कबुद्धि से भी यही बात जंचती है । जो स्थूल विषय से छूटता है , वह सूक्ष्म विषय को ग्रहण करता है । सूक्ष्म विषय क्या है ? ब्रह्म - तेज ही सूक्ष्म विषय है । जिस प्रकार दर्शक सूर्योदय होने के पहले सूर्य - किरण को देखता है , उसी प्रकार साधक ब्रह्म प्राप्त करने के पहले ब्रह्म - तेज को प्राप्त करता है । सूर्य की किरण को लेनेवाला अपना सीधा संबंध सूर्य से करता है , उसी प्रकार बह्म - तेज को पकड़नेवाला ब्रह्म से संबंध करता है । मन और इन्द्रियों का संग - संग साधन करने को दम कहते हैं । इसके बाद ' शम ' है । ' शम ' मनोनिग्रह को कहते हैं । केवल मन के साधन को ' शम ' कहते हैं । इन्द्रियों का संग छोड़कर केवल मन का साधन करना ' शम ' का साधन करना है । ' शम ' के साधन से हीन किसी तरह गिर भी सकता है , किन्तु ' शम ' में पूर्ण हो जानेवाला गिर नहीं सकता है । 

     ईश्वर के अंश जीवात्मा आप हैं । आपका शरीर जड़ है । शरीर में आपके रहने से आपका शरीर जीवित है । चारो अन्तःकरणों का संग जीवात्मा को ऐसा हो गया है , जैसे दूध के साथ घी का । इसके लिए यही अच्छी उपमा है । जबतक मन - चेतन संग - संग हैं , तबतक जहाँ मन है , वहाँ चेतन है । आप अपनी देह में भिन्न - भिन्न अवस्थाओं में भिन्न - भिन्न स्थानों में रहते हैं । जगने की हालत से स्वप्न में और स्वप्न से गहरी नींद में जाते हैं । इन तीनों अवस्थाओं में तीन स्थानों में रहते हैं । मन का केन्द्र जगने के समय नेत्र में है । प्रश्न होगा- बायें या दायें में ? तो कहेंगे बायें - दायें में उसकी धारें हैं , किन्तु केन्द्र तीसरी आँख ( शिवनेत्र ) में है । उससे नीचे उतरकर कण्ठ में जाते हैं । यह सोलह स्वरों का स्थान है । इसलिए स्वप्न में बोलते भी हैं । इसका चित्र बनानेवाले सोलह दलों का कमल बनाकर प्रत्येक दल में एक - एक स्वर लिख देते हैं । योगी लोग इसको षोड़श दल कमल कहते हैं । उससे नीचे उतरने पर हृदय में चले जाते हैं । यहाँ रहने पर श्वास की क्रिया होती है । यह द्वादश व्यंजनों का स्थान है , इसलिए इसको द्वादश दल कमल कहते हैं । बिना स्वर के व्यंजन बोल नहीं सकते , इसलिए यहाँ उच्चारण - ज्ञान जाता रहता है । फिर हृदय से ऊपर कण्ठ में और कण्ठ से ऊपर आँख में आकर जगते हैं । स्थान के बदलने से अवस्था - भेद होता है । इन तीन अवस्थाओं में रहने से स्थूल विषयों से नहीं छूट सकते । श्रवण - मनन जाग्रत में होते रहते हैं । इन तीनों अवस्थाओं से ऊपर उठने पर इन्द्रियों का निग्रह होगा और साधक दमशील होगा । यह भजन , विशेष भजन होगा । गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है तीन अवस्था तजहु भजहु भगवन्त । मन क्रमबचन अगोचर व्यापक व्याप्य अनन्त ।। -विनय - पत्रिका

    पहले ब्रह्म का दर्शन नहीं होता । पहले ब्रह्म - तेज का दर्शन होता है , जैसे सूर्य - दर्शन होने के पहले सूर्य के तेज का दर्शन होता है । इन्द्रिय - निग्रह को ईश्वर से क्या संबंध है , इसपर कहा । पहले अन्धकार में रहकर जप आदि स्थूल भजन किया जाता है । अन्धकार से पार होकर , प्रकाश में आकर अर्थात् तुरीय अवस्था में रहकर परा - भक्ति का दिव्य वा सूक्ष्म भेदवाला भजन किया जाता है । यह श्रेष्ठ भजन है । इसके आगे शम का साधन आता है । शम का साधन वहाँ होता है , जहाँ इन्द्रियों के संग से मन छूट जाता है और बाहर देखने - सुनने के सब यंत्रों से वह अलग हो जाता है । साधक प्रत्यक्ष अनुभूति में रहते हुए  कल्पित वस्तुओं से भी ऊपर उठ गया है ।

    दृश्य के ऊपर अदृश्य नाद है , वही नाम है । किन्तु यह नाम सगुण नहीं , निर्गुण है । जाके लगी अनहद तान हो , निर्वाण निर्गुण नाम की । जिकर करके शिखर हेरे , फिकर रारंकार की । -जगजीवन साहब 

बन्दौं राम नाम रघुवर को । हेतु कृसानु भानु हिमकर को ।। विधि हरिहरमय वेद प्रान सो । अगुन अनूपम गुननिधान सो ।। नामरूप दुइ ईस उपाधी । अकथ अनादि सुसामुझि साधी ॥ -गोस्वामी तुलसीदासजी

    नाद - उपासना ही ' शम ' का साधन है । नासनं सिद्ध सदृशं न कुम्भक सदृशं बलम् । नखेचरी समा मुद्रा न नाद सदृशो लयः ॥ -शिव - संहिता 

    अर्थात् - न सिद्धासन - सम आसन , न कुम्भक सम बल , न खेचरी के समान मुद्रा और न नाद के तुल्य लय है । सर्वचिन्तां परित्यज्य सावधानेन चेतसा । नाद एवानुसंधेयो योगसाम्राज्यमिच्छता ।। -वराहोपनिषद् , अध्याय २ 

    अर्थात्- योग - साम्राज्य की इच्छा करनेवाले मनुष्यों को सब चिन्ता त्यागकर सावधान होकर नाद की ही खोज करनी चाहिए ।

नाद ग्रहणतश्चित्तमन्तरंग भुजंगमः । विस्मृत्य विश्वमेकायः कुत्रचिन्नहि धावति ॥४३।। मनोमत्त गजेन्द्रस्य विषयोद्यानचारिणः । नियामन समर्थोऽयं निनादो निशितांकुशः ॥४४।। नादोऽन्तरंग सारंग बन्धने वागुरायते । अन्तरंग समुद्रस्य रोधे वेलायतेऽपि वा ।।४५।। -नादविन्दूपनिषद्

     अर्थात् - नागरूप चित्त नाद का अभ्यास करते - करते पूर्ण रूप से उसमें लीन हो जाता है और सभी विषयों को भूलकर नाद में अपने को  एकाग्र करता है ।। ४३ ।। नाद मदान्ध हाथीरूप चित्त को , जो विषयों की आनन्द - वाटिका में विचरण करता है , रोकने के लिए तीव्र अंकुश का काम करता है ।। ४४ ।। मृगरूपी चित्त को बाँधने के लिए यह ( नाद ) जाल का काम करता है । समुद्र - तरंगरूपी चित्त के लिए यह ( नाद ) तट का काम करता है ।। ४५ ॥ 

     साँप बाहर में टेढ़ा - मेढ़ा चलता है ; किन्तु बिल में जाने के समय सीधा जाता है । उसी प्रकार यह मन टेढ़ा है , नाद में प्रवेश करने पर सीधा हो जाता है । तात्पर्य यह कि नाद - उपासना में शम ( मनोनिग्रह ) का साधन पूर्ण होने पर नवधा भक्ति की सातवीं भक्ति पूरी हो जाएगी । इसके पूर्ण होने से परमात्म - राम के स्वरूप की प्राप्ति हो जाएगी ; क्योंकि शब्द में अपने उद्गम स्थान पर आकर्षण करने का गुण होने के कारण उपासक उससे ब्रह्म तक खिंच जाएगा । शरीर और इन्द्रियों से रहित होकर वह अपने को प्रत्यक्ष परमात्मा की शरण में अर्पित कर देगा । यह बड़ी ऊँची भक्ति है । ऐसी सेवकु सेवा करै । जिसका जीउ तिसुआगेधरै ।

     गुरु नानकदेवजी के इस आदेश का वह ठीक - ठीक पालन करेगा । यही असली शरणागत होना है , यही आत्म - निवेदन है । किसी के सम्मुख अपने शरीर को गिरा देने से अथावा मन को भी अर्पित कर देने से आत्म - निवेदन नहीं कहा जा सकता है । श्रीमद्भगवद्गीता के १८ वें अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा , ' सब धर्मों को छोड़कर मेरी शरण में आ जा । ' ( सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज । -गीता अ ०१८।६६ )

     भगवान तो अर्जुन के सब प्रकार से अवलम्ब थे ही और अर्जुन भी भगवान् की शरण में तन - मन से थे ही , फिर भगवान ने ऐसा क्यों कहा ? केवल मानसिक निवेदन पूर्ण निवेदन नहीं है । मानसिक और बौद्धिक निवेदन तक ही निवेदन का भाव पूर्णरूपेण परिपुष्ट और ध्रुव - दृढ़ नहीं होता है । अतएव ऐसा भक्त नीचे भी गिर सकता है । किन्तु जिसने बाह्याभ्यन्तर इन्द्रियों से ऊपर उठकर कैवल्य दशा को प्राप्त कर आत्मनिवेदन किया है , वह कदापि गिर नहीं सकता है । ऐसा होकर शरण में आना अर्जुन के लिए भगवान का उक्त आदेश जानने में आता है । इस प्रकार भक्ति का साधन करते हुए आप किसी इष्ट को मानिए , राम , कृष्ण , शिव - सब एक ही हैं ; क्योंकि पृथक - पृथक रूपों में पृथक - पृथक आत्मा नहीं बल्कि एक ही आत्मा है । भक्त उस आत्मा का आत्म - निवेदन करके भक्ति का साधन समाप्त करता है और परम गति को प्राप्त करके सारे क्लेशों से छूट जाता है । भक्ति - साधन में  तन - मन की पवित्रता अत्यन्त अपेक्षित है । इस हेतु पंच पापों ( व्यभिचार , चोरी , नशा , हिंसा और झूठ ) से बचिए । सदाचार का पालन कीजिए । सदाचार का पालन किए बिना भक्ति - पथ पर कोई एक डेग भी नहीं चल सकता है । सदाचार को ध्यान का बल है और ध्यान को सदाचार का बल है । एक के बिना दूसरा नहीं बढ़ सकता । दोनों में बड़ा मेल है । बढ़ते - बढ़ते जहाँ तक बढ़ना चाहिए , दोनों बढ़ जाते हैं । दोनों का साधन संग - संग होता है । पूजा - पाठ कीजिए ; त्रयकाल संध्या कीजिए । भक्ति का साधन धीरे - धीरे बढ़ते - बढ़ते बढ़ेगा । इसके लिए घर छोड़ने की जरूरत नहीं कोई उपासक बनिए , साम्प्रदायिकता के फेर में नहीं आइए ।०


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