S45, The oldest discovery of Santmat Darshan । गुरु महाराज का प्रवचन । 27-02-1953 ई. रामगंज, मुंगेर, बिहार
महर्षि मेंही सत्संग सुधा सागर / 45
प्रभु प्रेमियों ! संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज के हिंदी प्रवचन संग्रह "महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर" का यह प्रवचन भारत ही नहीं बल्कि विश्व की सबसे प्राचीन खोजों में अत्यंत महत्वपूर्ण मनुष्य के सभी दुखों से छुटकारा पाने के बारे में है।इस प्रवचन (उपदेश, अमृतवाणी, वचनामृत, सत्संग सुधा, संतवाणी, गुरु वचन, उपदेशामृत, ज्ञान कथा, भागवत वाणी, संत वचन, प्रवचन पीयूष ) में बताया गया है कि- मानव सभ्यता की सबसे प्राचीन खोज है- "पिण्ड में जो सारतत्त्व व्यापक है, वही ब्रह्माण्ड में भी व्यापक है।" इस खोज का ही परिणाम है कि मनुष्य के सभी दुःख छूट जाते हैं, फिर नीचे गिरना नहीं होता है । हमारे यहाँ ऐसे विचार - ज्ञान को ही वेदान्त - दर्शन कहते हैं । इनके छहो आचार्यों ने क्या-क्या कहा है? इन बातों की जानकारी के साथ-साथ निम्नलिखित प्रश्नों के भी कुछ-न-कुछ समाधान पायेंगे। जैसे कि- विश्व की सबसे पुरानी सभ्यता कौन सी है,विश्व की सबसे प्राचीन सभ्यता कौन सी है,भारत की सबसे प्राचीन सभ्यता कौन सी है,विश्व की प्राचीन खोज,प्राचीन भारतीय इतिहास,एक नवीन प्राचीन खोज,भारत की प्राचीन खोज,प्राचीन भारतीय इतिहास के खोज, आदि बातें। इन बातों को जानने के पहले, आइए ! संत सदगुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज का दर्शन करें।
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विश्व की महत्वपूर्ण खोज के बारे में चर्चा करते गुरुदेव |
The oldest discovery of Santmat Darshan
सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज कहते हैं कि- प्यारे लोगो ! जिसको अपने तई का ज्ञान नहीं है , उसको दूसरे का भी ज्ञान नहीं होता । जैसे गहरी नींद में सोए को अपने तईं का ज्ञान नहीं है , तो उसे दूसरे का भी ज्ञान नहीं होता ।.....इस तरह प्रारंभ करके गुरुदेव-- Which is the oldest civilization of the world, what is the oldest civilization of the world, which is the oldest civilization of India, ancient discovery of the world, ancient Indian history, a new ancient discovery, ancient discovery of India,...... आदि बातों पर विशेष प्रकाश डालते हैं। इन बातों को अच्छी तरह समझने के लिए इस प्रवचन को पढ़ें-
४५. पिण्ड - ब्रह्माण्ड की खोज
प्यारे लोगो !
जिसको अपने तई का ज्ञान नहीं है , उसको दूसरे का भी ज्ञान नहीं होता । जैसे गहरी नींद में सोए को अपने तईं का ज्ञान नहीं है , तो उसे दूसरे का भी ज्ञान नहीं होता । बुद्धिमान पुरुष अपने को खोजकर पाता है तो उसे दूसरे की भी ठीक - ठीक खोज मिल जाती है । फिर दूसरी बात यह है कि यह जो जगत दिखाई पड़ता है , जो देहधारियों के रहने का स्थान मालूम होता है , यह क्या है ? इसमें कोई विशेष तत्त्व ऐसा भी है , जो इसके अंदर के अंत तल पर अन्दर - अन्दर है ।
उसको हम नहीं पहचान रहे हैं । बुद्धिमान इसका पता लगाना चाहते हैं और इसको यथार्थतः पहचान लेने को उत्सुक रहते हैं । अति प्राचीन काल में यह खोज और यह उत्सुकता मुनियों के हृदय में हुई और उन्होंने इसका पता लगाया , पहले विचार में , फिर इसकी प्रत्यक्षता की विधि में । इसका प्रत्यक्षानुभव हो जाने पर उन्होंने दृढ़तापूर्वक लोगों से कह दिया कि एक - एक पिण्ड में जो व्यापक सार - तत्त्व है , संसार में भी वही व्यापक है । अर्थात् पिण्ड में जो सारतत्त्व व्यापक है , वही ब्रह्माण्ड में भी व्यापक है । यह पता मनुष्य को ही लगा , दूसरे को नहीं ; क्योंकि मनुष्य ही यह पता लगाने के योग्य है । इसका पता लगने से क्या फल ? इसका पता जिनको नहीं लगा है , वे सांसारिक मायिक चीजों में संलग्न हैं । इस संलग्नता में संतुष्टि नहीं , शान्ति नहीं और सुख नहीं है । परंतु
जिनको पिण्ड - ब्रह्माण्ड में व्यापक उस एक सार - तत्त्व का पता लगा , उन्होंने कहा कि उस सार - तत्त्व का पता लगते ही सांसारिक - मायिक वस्तुओं की संलग्नता छूट जाती है और कथित सार - तत्त्व में उनकी संलग्नता हो जाती है । सब दुःख छूट जाते हैं , फिर नीचे गिरना नहीं होता है । इस संसार के दुःखों में वह कभी नहीं आता है ।
यह शरीर पिण्ड कहलाता है । बाहर विश्व ब्रह्माण्ड है । पिण्ड - ब्रह्माण्ड की खोज कोई पक्षी नहीं कर सकता या चार पैरवाला पशु नहीं कर सकता । जो स्थावर है ( जो अपने से कहीं नहीं जा सकता ) , वह तो यह खोज कर ही नहीं सकता । जो जंगम है , उसमें किसी को कम , किसी को विशेष ज्ञान है । स्थावर में इसके लिए ज्ञान है ही नहीं । जंगम प्राणी में भी मनुष्य के अतिरिक्त दूसरा कोई पिण्ड - ब्रह्माण्ड की खोज कर ही नहीं सकता । शरीर जब मृतक होता है , तब उसे जला देते हैं । उसमें जो सार था , वह कहीं चला गया । इस शरीर में जो अव्यक्त था , उसे नहीं देखा ; वह चला गया । इस संसार के अंदर भी सार है । जो इन्द्रियों के ज्ञान में नहीं आता , वह अव्यक्त है । शरीर में जो सार है और ब्रह्माण्ड में जो सार है ; इन दोनों में कुछ अंतर है कि नहीं ? कोई कहता है अंतर नहीं , एक ही है । यही शंकराचार्य का अद्वैत सिद्धांत है । दूसरा वह है , जो कहता है कि पिण्ड - ब्रह्माण्ड में व्यापक एक ही ईश्वर है , किंतु पिण्ड में ईश्वर के अतिरिक्त दूसरा और भी है , जिसे जीव कहते हैं ।
हमारे यहाँ ऐसे विचार - ज्ञान को ही वेदान्त - दर्शन कहते हैं । इसके छह आचार्यों ने छह प्रकार के सिद्धांत बताए हैं - अद्वैत , द्वैत , विशिष्टाद्वैत , शुद्धाद्वैत , द्वैताद्वैत और चैत । ( १. –श्रीमदाद्य शंकाराचार्य का अद्वैत , २. श्रीमाधवाचार्य का द्वैत , ३. श्रीरामानुजाचार्य का विशिष्टाद्वैत , ४ . -वल्लभाचार्य का शुद्धाद्वैत , ५. श्रीनिम्बार्काचार्य का द्वैताद्वैत और ६. - श्रीदयानंद स्वामी का वैत ) ये छहो विचार आज आपस में लड़ते हैं , परंतु ये सब मिल - जुलकर एक सिद्धांत पर नहीं आए हैं । इनमें के एक - एक के दूसरे - दूसरे पर ऐसे - ऐसे प्रश्न हैं , जिनका पूर्ण समाधान कर देने के उत्तर नहीं मिलते हैं । एक कहता है कि माया देश - काल के ज्ञान से अनादि हैं , किंतु उपज ज्ञान से सादि हैं ; क्योंकि यह ब्रह्म से उपजी हुई है । जहाँ देश होगा , वहाँ समय जरूर होगा । माया कब से है , बता नहीं सकते , किंतु उसका अंत है , इसलिए उसे अनादि सांत कहते हैं । माया को भ्रम कहते हैं , चाहे इसकी स्थिति माने या न माने , किंतु दोनों माया के पार होने कहते हैं । ' प्रकृति पार प्रभु सब उरवासी । ब्रह्म निरीह बिरज अविनासी ।। ' अद्वैतवादी के ऊपर यह प्रश्न होता है कि यदि एक - ही - एक है , दूसरा कुछ नहीं है तो भ्रम किसको हुआ ? सर्प और रस्सी दोनों को देखता है , तब उसको धुंधली रोशनी में भ्रम होता है , किंतु जिसने कभी साँप को देखा नहीं है , उसको भ्रम क्यों होगा ? यहाँ अद्वैत सिद्धांत भी ठण्ढा पड़ जाता है । द्वैतवाले से प्रश्न होता है कि आप ब्रह्म को स्वरूप से अनादि मानते हैं कि देश - काल - ज्ञान से अनादि मानते हैं ? तो कहेंगे कि वह सब तरह से अनादि है । तत्त्वरूप से अनादि अनंत है तो फिर प्रश्न होगा कि अनादि अनंत एक ही हो सकता है कि दो ? तो कहना पड़ेगा कि अनंत एक ही हो सकता है । तत्त्वरूप में अनंत एक ही हो सकता है , जिसकी सीमा नहीं हो । असीम या अनन्त तत्त्व एक ही हो सकता है , दो नहीं । यदि दो मानो तो दोनों की सीमा जहाँ होगी , दोनों ससीम हो जाएँगे । दो पदार्थ तब मालूम होंगे , जहाँ सीमा मालूम होगी । असीम या अनंत एक ही होगा । तत्त्व में उससे दूसरा तत्त्व उसके अंदर मानो तो वह दूसरी चीज जो उसके अन्दर में होगी , उस पदार्थ से उसको फुटाने के लिए तो कुछ सीमा बतानी होगी जहाँ सीमा होगी , वहीं दो हो जाएँगे यदि कहो कि अनंत उसके परमाणु - परमाणु में व्यापक है तो परमाणु वह वस्तु है , जिसमें पोल नहीं होता , जो उसमें दूसरा कुछ घुसेगा । तब यह कहा जाएगा कि जो उसके परमाणु में भी व्यापक है , तब वह परमाणु भी उसी से बना हुआ है । मैं कहता हूँ , इन सब झगड़े से अलग रहो ।
द्वैत मत वाले अपने मत को जबर्दस्त और अद्वैत मत वाले अपने मत को जबर्दस्त बताते हैं । दोनों अपने - अपने मत पर अड़े हैं । किन्तु नम्रता से कहो कि एक परमात्मा ही सब तरह से अनादि - अनंत है तो इसको सब मानते हैं । इसकी खोज में चलो । खोजकर निर्णय हो जाएगा कि क्या है ? उसको प्राप्त करने से जिस सुख के लिए अभी ललचते हो , उसको प्राप्त कर लोगे , नित्य सुख मिलेगा । उसके पास जाओगे कैसे , इसको जानो । पहले यह जानो कि जिस ज्ञान से तुम संसार को पहचानते हो , यह जानते ही हो कि इससे तुम ईश्वर को नहीं पहचानते ।
तुम इन्द्रिय - ज्ञान से संसार को जानते - पहचानते हो , इस इन्द्रिय - ज्ञान से ईश्वर को नहीं पहचानोगे । इन्द्रियों से युक्त होकर जो ज्ञान होना चाहिए , वह तुम जानते हो । इन्द्रियों से अलग होकर जो ज्ञान होना चाहिए , वह ज्ञान तुमको नहीं है । इसलिए इन्द्रियों से अलग होकर केवल आत्मा से देखो । संसार के रूप - ज्ञान के लिए नेत्र है । घ्राण को ग्रहण करने के लिए नाक है । जिसकी घ्राण शक्ति खराब हो गई है , वह नेत्र से गन्ध ग्रहण नहीं कर सकता । एक - एक विषय के लिए एक एक इन्द्रिय है । उसी प्रकार तुम्हारे निज के लिए अर्थात् आत्मा के लिए भी कोई विषय है । सब इन्द्रियों को छोड़कर , मन - बुद्धि को छोड़कर केवल तुम्हारा विषय परमात्मा है ।
वह परमात्मा आत्मगम्य है । आत्मा से उन्हें तब पहचानोगे , जब इन्द्रियों से छूट जाओगे । इन्द्रियों से छूटने का उपाय सीखो बाहर पर्वत पर जाओ या मक्का जाओ या पवित्र स्थान में जाओ या जगन्नाथजी जाओ ; कहीं जाओ इन्द्रियाँ साथ रहेंगी । अपने अंदर चलो । पहले मोटी इन्द्रियों से फिर सूक्ष्म इन्द्रियों से छूटोगे । जाग्रत में बाहर के इन्द्रियों के संग रहते हो । स्वप्न में बाहर की इन्द्रियाँ छूट जाती हैं । नाक से इत्र का फूहा रहने पर भी स्वप्न में उसकी सुगंध नहीं मालूम होती । अपने अंदर में प्रवेश करो । श्रीमद्भगवद्गीता में क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ विचार दिया है । क्षेत्र मानी खेत और क्षेत्रज्ञ मानी खेत को जाननेवाला । आकाश , हवा अग्नि , जल , मिट्टी , अहंकार , बुद्धि अव्यक्त ; पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ तथा पाँच कर्मेन्द्रियाँ , मन , रूप , रस , गंध , स्पर्श और शब्द ; इच्छा , द्वेष , दुःख , सुख , संघात , चेतना और धृति ; इन इकतीस तत्त्वों के समुदाय को क्षेत्र ( महाभूतान्यऽहंकारो बुद्धिरव्यक्तमेव च । इन्द्रियाणि दशैकं च पंचचेन्द्रिय गोचराः ।। इच्छा द्वेष सुखं संघातश्चेतना धृतिः । एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम् ।। ) कहते हैं । बत्तीसवाँ क्षेत्रज्ञ है । आप क्षेत्र नहीं हैं , क्षेत्रज्ञ हैं । क्षेत्र के सब तत्त्वों से जीवात्मा या क्षेत्रज्ञ अलग हो जाय तो आप अकेले हो जाओगे । अब अकेले में जो पहचान हो , वही परमात्मा है । इसके लिए बाहर में कहीं जाने से क्षेत्र से नहीं छूट सकते । स्वप्न में जाने से स्थूल शरीर और स्थूल इन्द्रियाँ छूट जाती हैं ।
यह थोड़ा - सा नमूना है कि अंतर्मुख होने से स्थूल शरीर और इन्द्रियों से छूटते हो । इस प्रकार अंदर - ही - अंदर चलने से तुम सब शरीरों और इन्द्रियों से छूटकर अकेले होकर रहोगे , तब तुम अपने को और परमात्मा को पहचान सकोगे । देह के सब अंगों को आँख से देखते हो , किंतु आँख को देखने के लिए आँख ही है । वैसे ही परमात्मा को आत्मा से ही पहचानोगे । बाहर से भीतर जाने में सब ख्यालों को छोड़ना होगा । इसके लिए अनेक पीढ़ियों के संस्कार की , दीर्घोद्योग की तथा दृढ़ ध्यानाभ्यास की अत्यंत आवश्यकता है । इसी शरीर में जैसा संस्कार बैठाओगे , वैसा ही शरीर मिलेगा । मानवीय संस्कार मन में बैठाओगे तो मनुष्य - शरीर मिलेगा । भजन में पूर्ण हो जाने से ईश्वर को प्राप्त कर लोगे । पूरा भजन नहीं होने से फिर मनुष्य का शरीर मिलेगा ; क्योंकि भजन - संस्कार को बढ़ानेवाला दूसरा शरीर नहीं है । यदि पाशविक ख्याल का संस्कार हृदय में रखोगे तो पशु शरीर हो जाएगा । जैसे राजा भरत को हुआ था । ( राजा भरत जंगल में तप करते थे । उनको हरिण के बच्चे प्रेम हो गया था । इसी ख्याल में उनका शरीर छूट गया तो हरिण का ही शरीर मिला । पूर्व जन्म के तप के कारण उनका ज्ञान नष्ट नहीं हुआ था इस शरीर को पाकर वे बहुत पश्चात्ताप करते थे उनका वह हरिण का शरीर छूटने पर ब्राह्मण कुल में जन्म हुआ और उनका नाम जड़भरत पड़ा । ) ईश्वर का भजन करो , सदाचार का जीवन बिताओ । भजन में अपूर्ण रहने से दूसरे जन्म में मनुष्य होना ध्रुव है । मन को एकाग्र कर भजन करो , पूजा पाठ के द्वारा मन को एकाग्र करते हैं , जप के द्वारा एकाग्र करते हैं । एकाग्रता एकविन्दुता तक है । जबतक एकविन्दुता नहीं होगी , पूर्ण सिमटाव नहीं होगा , पूर्ण सिमटाव के लिए एकविन्दुता प्राप्त करो । एकविन्दुता में पूर्ण सिमटाव होगा , ऐसे सिमटाववाले की ऊर्ध्वगति हो जाएगी । तुलसी साहब के पद्य में है कि सुरत शिरोमणि घाट गुमठ मठ मृदंग बजे रे ।
नव दरवाजा शिरोमणि घाट नहीं , दसवाँ दरवाजा शिरोमणि घाट है । यहाँ पर सिमटाव होने से मृदंग बजेगा । तुलसी साहब के वचन पर विश्वास करो तथा ध्यानविन्दूपनिषद् में पढ़ो बीजाक्षरं परम विन्दुं नादं तस्योपरि स्थितम् । सशब्दं चाक्षरे क्षीणे निःशब्दं परमं पदम् ॥ -ध्यानविन्दूपनिषद््
योगशिखोपनिषद् में लिखा है विन्दुपीठं विनिर्भिय नादलिंगमुपस्थितम् । यही संतमत है । मुझे किसी सम्प्रदाय - द्वैत , अद्वैत , विशिष्टाद्वैत , शुद्धाद्वैत , द्वैताद्वैती , चैत आदि यह से झगड़ा नहीं , मैं किसी का खण्डन नहीं करता मैं कहता हूँ , परमात्मा को पहचानने के लिए चलो । चलने के लिए बाहर जाना छोड़कर अन्दर में चलो । अन्दर में चलने के लिए कोट - कमीज तथा कुर्तेरूप शरीरों को उतारो । शरीर - रहित जीवात्मा को परमात्मा का साक्षात्कार होगा । इसलिए जिस युक्ति से सब शरीरों से रहित होओगे , वह यत्न करो । सदाचार का पालन करो सबके लिए हित की बात है । बहुत प्राचीन काल में केवल यज्ञ था । पीछे कुछ देव - उपासना का ख्याल हुआ और पीछे चलकर अध्यात्म -ज्ञान हुआ । अध्यात्म - ज्ञान से निर्णीत पद पर आरूढ़ करा देने के लिए योग शास्त्र बना ।०
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प्रभु प्रेमियों ! गुरु महाराज के इस प्रवचन का पाठ करके आपलोगों ने जाना कि The most ancient discovery of human civilization - "The essence which is widespread in the body, is also widespread in the universe." The result of this discovery is that all the miseries of man are left, then do not fall down. our इतनी जानकारी के बाद भी अगर आपके मन में किसी प्रकार का शंका या कोई प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस प्रवचन के बारे में अपने इष्ट मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने। इससे आपको आने वाले प्रवचन या पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहेगी। निम्न वीडियो में इस प्रवचन का पाठ किया गया है।
महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा सागर |
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S45, The oldest discovery of Santmat Darshan । गुरु महाराज का प्रवचन । 27-02-1953 ई. रामगंज, मुंगेर, बिहार
Reviewed by सत्संग ध्यान
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9/02/2020
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