S46 (क) दिव्य दृष्टि प्राप्त करने का असली सच्ची विधि || The true method of attaining spiritual insight

महर्षि मेँहीँ सत्संग सुधा सागर / 46

     प्रभु प्रेमियों ! संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज के हिंदी प्रवचन संग्रह "महर्षि मेँहीँ सत्संग सुधा सागर" का यह प्रवचन मनुष्य जीवन के सभी दुखों से कैसे छूट सकता है, दिव्य दृष्टि को एक्टिवेट कैसे करें? दिव्य दृष्टि पाने के लिए क्या करें? खोई हुई दृष्टि कैसे प्राप्त करें? दिव्य मंत्र क्या होता है? आदि बातों  के  बारे में है। इन बातों को जानने-समझने के पहले, आइए !  संत सदगुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज का दर्शन करें। 

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महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा सागर प्रवचन नंबर 46,
महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा सागर प्रवचन नंबर 46

दिव्य दृष्टि प्राप्त करने का असली सच्ची विधि

     प्रभु प्रेमियों ! इस प्रवचन (उपदेश, अमृतवाणी, वचनामृत, सत्संग सुधा, संतवाणी, गुरु वचन, उपदेशामृत, ज्ञान कथा, भागवत वाणी, संत वचन, प्रवचन पीयूष )  में बताया गया है कि- 1. हमलोग क्या चाहते हैं?   2. ईश्वर प्राप्ति का रास्ता कहाँ है? कैसा है?    3. ईश्वर परमात्मा को कौन पहचान सकता है?   4. सद्गुरु क्या करते हैं?   5. हमलोग ( जीव ) कहाँ रहतें हैं?   6. आज्ञाचक्र और शिवनेत्र क्या है?   7. शाम्भवी या वैष्णवी मुद्रा किसे कहते हैं?   8.  दृष्टिसाधन का अभ्यास कबतक करना चाहिए?   9. दृष्टियोग का अभ्यास कैसे करें?   10.  ध्यान में विंदु प्राप्त करने के बाद क्या करना चाहिए?    11. सदाचार का पालन नहीं करने से क्या होता है?   इत्यादि बातें। इन बातों को अच्छी तरह समझने के लिए निम्नलिखित प्रवचन को मनोयोग पूर्वक बार-बार पढ़ें-


४६. सूक्ष्म मार्ग का अवलम्ब

ऋषि-मुनियों की प्राचीन खोज पर चर्चा करते सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज और भगत
महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा सागर प्रवचन नंबर 46

 प्यारे लोगो !

     सब लोग दुःखों से छूटने के लिए उत्सुक हैं; वैसे ही वे सुख की प्राप्ति के लिए भी उत्सुक हैं। लोग जितना सुख पाते हैं , उससे वे संतुष्ट नहीं होते । साधारणतया लोग जो सुख जानते हैं , वह विषय सुख है , जिसे इन्द्रियों के द्वारा भोगते हैं । इन विषय सुखों से कोई संतुष्ट नहीं हुए और न होते हैं । इसके लिए ज्ञानियों ने कहा है कि तुम जो संतोषप्रद नित्य सुख चाहते हो , वह इन्द्रियों के सुख में नहीं है । उसको पाने का रास्ता दूसरा है वह सांसारिक सुख नहीं है , ब्रह्म सुख है । उस ओर चलो , यही उनका आदेश है ।

ईश्वर तक जाने का रास्ता, ईश्वर तक जाने का कालपनिक रास्ता
ईश्वर तक जाने का रास्ता
    ईश्वर की ओर चलने से उनका तात्पर्य है । यद्यपि ईश्वर सर्वव्यापी हैं , परंतु उसको पहचान नहीं सकते । इसलिए उनकी पहचान और मिलन से जो प्राप्त होना चाहिए नहीं होता है । संसार को पहचानते हैं, उससे जो प्राप्त होता है ;  उससे संतुष्टि नहीं होती । परमात्मा को पहचानने चलो । किंतु उसकी पहचान के लिए चलने में आपका शरीर नहीं जाएगा । वह रास्ता शरीर के चलने का नहीं है , जिसके लिए कबीर साहब ने कहा है -

बिन पावन की राह  है ,  बिन बस्ती का देश । 
बिना पिण्ड का पुरुष है , कहै कबीर सन्देश ॥

    उसपर पहले आपका मन चलेगा । क्योंकि मन भी सूक्ष्म है और वह रास्ता भी सूक्ष्म है । मन स्वयं जड़ है , यह अपने से कुछ करता हो , संभव  नहीं । इसके अंदर चेतन - धारा है । मन और चेतन इस प्रकार मिला है जैसे दूध में घी । दूध से घी को अलग कर सकते हैं , उसी प्रकार चेतन को मन से अलग कर सकते हैं । मन और चेतन अलग - अलग हो जाय , इसके लिए सूक्ष्ममार्ग का अवलम्बन करना होगा । सूक्ष्ममार्ग पर मन चलते - चलते कुछ दूर जाएगा , फिर आगे नहीं जा सकेगा । तब केवल चेतन ही अकेला चलेगा । 

सहस कमल दल पार में मन बुद्धि हेराना हो । 
प्राण पुरुष आगे चले सोइ करत बखाना हो ।। 
                                                  -तुलसी साहब , हाथरस

    बाहर की दश इन्द्रियों और भीतर की चार इन्द्रियों को शक्ति नहीं कि परमात्मा को पहचाने । परमात्मा को पहचानने के लिए चेतन - आत्मा ही योग्य है । किंतु चेतन - आत्मा अभी इसलिए नहीं पहचान रही है कि यह जड़ के संग - संग है । इसलिए इसको जड़ से फुटाओ । जड़ से फुटाने के लिए उपनिषद्कार कहता है- 

 ( निद्राभय सरीसृपं हिंसादितरंग तृष्णावर्तं दारपंक संसारवार्धि तर्तुं सूक्ष्ममार्गमवलम्ब्य सत्त्वादिगुणानतिक्रम्य तारकम वलोकयेत् । भ्रूमध्ये सच्चिदानन्दतेजः कूटरूपं तारक ब्रह्म । -ब्राह्मणोपनिषद् , ब्राह्मण १

गुरुदेव बिन जीव की कल्पना ना मिटै, 
                            गुरुदेव बिन जीव का भला नाहीं । 
गुरुदेव बिन जीव का तिमिर नासे नहीं , 
                            समुझि  विचारि   ले  मने   माहिं ।। 
राह बारीक गुरुदेव तें पाइए , 
                             जन्म  अनेक  की  अटक  खोले । 
कहै कबीर गुरुदेव पूरन मिले , 
                              जीव और  सीव तब एक तोले ।। 
                                                             -कबीर साहब ) 

     सूक्ष्ममार्ग का अवलंबन करो ।  मार्ग वह है-  जिसका कहीं पर न ओर है और न कहीं पर छोर है;  बीच में कुछ फासला है , जिस पर चला जा सकता है । जो जहाँ बैठा रहता है , वह वहीं से चलता है । शरीर में मन का बैठक या इसका केन्द्रीय रूप जहाँ है , वहीं से चलेगा । जाग्रत अवस्था में नेत्र में वासा है । 

( नेत्रस्थं जागरितं विद्यात्कण्ठे स्वप्नं समाविशेत । सुषुप्तं हृदयस्थं तु तुरीयं मूर्ध्निं संस्थितम् ।।  -ब्रह्मोपनिषद् 

नैनों माही मन बसै, निकसि जाय नौ ठौर । 
गुरु गम भेद बताइया सब संतन शिरमौर ।।  -कबीर साहब

जानिले जानिले सत्तपहचानि ले , सुरत साँची बसै दीददाना । खोलो कपाट यह बाट सहजै मिले , पलक परवीन दिव दृष्टि ताना ।।- दरिया साहब , बिहारी

संपूर्ण रूप ध्यान करने के लिए गुरु महाराज का संपूर्ण अंग का चित्र
संपूर्ण रूप ध्यान
    नेत्र कहने से तीसरी आँख जाननी चाहिए , जहाँ से इन दोनों आँखों में धारा आती है । जिसे शिवनेत्र कहते हैं , इसे आज्ञाचक्र का केन्द्र भी कहते हैं । आज्ञाचक्र के दो भाग हैं ; एक भाग को अंधकार और दूसरे भाग को प्रकाशमय बतलाया है । आज्ञाचक्र का जो केन्द्र है , वहीं मन की बैठक है , किंतु बाह्य इन्द्रियों से संबंधित रहने के कारण उसका रुख बिल्कुल अंधकार और बाह्य विषयों की ओर है । इसलिए जब पहले वह अपने अंदर में देखता है , तब उसे अंधकार मालूम होता है । इन्द्रियों में जो मानस - धारा है , वह नीचे की ओर है । यदि इसकी धारा इन्द्रियों से हटे तो इन्द्रियाँ सचेष्ट हो नहीं सकेंगी । जो कोई लेटा पड़ा है , उसके दोनों हाथ दो तरफ और पैर तीसरे तरफ है , यदि वह उठना चाहे तो हाथ - पैर समेटकर उठना होगा । उसी प्रकार चेतन की धारा जो संपूर्ण शरीर में फैली हुई है , जबतक केन्द्र में केन्द्रित न हो , तबतक मन और चेतन की ऊर्ध्वगति नहीं हो सकती। चेतनधारा केन्द्र में केन्द्रित हो, तब वह उस मार्ग पर चलेगी । वहाँ स्थूल देह का कोई अंश नहीं है । वह लकीर या मार्ग सूक्ष्म है , जिसपर सुरत चलेगी ।  चेतनमय मानस - धारा इन्द्रियों के घाटों से छूटते ही और केन्द्र में केन्द्रित होते ही मन का रुख नीचे की ओर से ऊपर की ओर उलट जाएगा । रुख फिरते ही उसे प्रकाश मालूम होगा । सूक्ष्म - मार्ग ज्योति - मार्ग है । इसी सूक्ष्म - मार्ग पर चलना है ।

    इस  विषय को यदि कोई सिर्फ पढ़े और सुने , किंतु उस मार्ग पर चलने के लिए नहीं जाने , तो वह लाभ नहीं होगा जो होना चाहिए। सूक्ष्म - मार्ग ज्योति - मार्ग है , किन्तु वह ज्योति भूमण्डल की ज्योति नहीं है , वह ब्रह्मज्योति है । उस पथ पर पहले मन सहित चेतन जाएगा , फिर मन को छोड़कर केवल चेतन जाएगा । इसके वास्ते बाहर - बाहर यत्न करने पर पता नहीं लग सकता । यह यत्न अंदर - अंदर करने का है । अपनी वृत्तियों को समेटकर अंदर कीजिए । इस सिमटाव के लिए शाम्भवी या वैष्णवी मुद्रा का अभ्यास कीजिए । देखने के किसी विशेष ढंग को शाम्भवी और वैष्णवी मुद्रा कहते हैं । देखने के लिए उपनिषदों में तीन दृष्टियों ( तद्दर्शने तिम्रो मूर्तयः अमापतिपत्पूर्णिमा चेति । निमीलितदर्शनममादृष्टिः अर्धोन्मीलितं प्रतिपत् । सर्वोन्मीलनं पूर्णिमा भवति ।... तल्लक्ष्यं नासाग्रम् । .... तदभ्यासान्मनः स्थैर्यम् । ततोवायु स्थैर्यम् । -मण्डल ब्राह्मणोपनिषद् , ब्राह्मण २

द्वादशांगुल पर्यन्ते नासाग्रे विमलेऽम्बरे । संविदृशिप्रशाम्यन्त्यांप्राणस्पन्दो निरुध्यते ॥ भूमध्ये तारकालोक शान्तावन्तमुपागते । चेतनैक तने बद्धे प्राणस्पन्दो निरुध्यते । चिरकालं हृदेकान्तव्योमसंवेदनान्मुने । अवासनमनोध्यानात्प्राणस्पन्दा निरुध्यते ॥ -शाण्डिल्योपनिषद् , अध्याय १ ) का वर्णन है ।
प्रसंन्न मुद्रा का ध्यान, प्रसन्न मुद्रा का मानस ध्यान किया जाता है
प्रसंन्न मुद्रा का ध्यान

    अमावस्या , प्रतिपदा और पूर्णिमा । आँख बंदकर देखना अमादृष्टि है , आधी आँख खोलकर देखना प्रतिपदा है और पूरी आँख खोलकर देखना पूर्णिमा है । उसका लक्ष्य नासाग्र होना चाहिए । प्रतिपदा और पूर्णिमा में आँखों में कष्ट होता है , किन्तु अमावस्या की दृष्टि में कोई कष्ट नहीं होता। दृष्टि - आँख , डीम और पुतली को नहीं कहते , देखने की शक्ति को दृष्टि कहते हैं । दृष्टि और मन एक ओर रखते हैं , तो मस्तिष्क में कुछ परिश्रम मालूम होता है । इसलिए संतों ने कहा - जबतक तुमको भार मालूम नहीं हो , तबतक करो , भार मालूम हो तो छोड़ दो । किसी गम्भीर विषय को सोचने से मस्तिष्क पर बल पड़ता है , मस्तिष्क थका - सा मालूम होता है , तब छोड़ दीजिए । रेचक , पूरक और कुम्भक के लिए कुछ कहा नहीं गया केवल दृष्टिसाधन करने को कहा । प्राणायाम करने के लिए नहीं कहा । जो ध्यानाभ्यास करता है , उसको प्राणायाम आप - ही - आप हो जाता है। मन से जब आप चंचल काम करते हैं , तो स्वाँस की गति तीव्र हो जाती है और जब उससे कोई अचंचलता का काम करते हैं , तो स्वास - प्रस्वास की गति धीमी पड़ जाती है ।

    श्रीमद्भगवद्गीता के छठे अध्याय में भगवान श्री कृष्ण ने बैठने के स्थान और आसनियों के नाम बतलाकर उसपर शरीर को बैठाकर रखने का ढंग बतलाया है । परंतु प्राणायाम के लिए उस सम्पूर्ण अध्याय में नहीं कहा है केवल ध्यानयोग का ही वर्णन किया है । और अंत में चलकर इसी से परमगति की प्राप्ति को निश्चय कर दिया है । ( प्रयत्नायत मानस्तु योगी संशुद्ध किल्विषः । अनेक जन्म संसिद्धस्ततो यान्ति परां गतिम् ।। ॥ – श्रीमद्भगवद्गीता , अध्याय ६/४५ ) 

    बिना प्राणायाम किए हुए भी ध्यानाभ्यास द्वारा श्वाँस की गति रुकती है । इसके लिए दृष्टियोग बहुत आवश्यक है । किंतु दृष्टियोग के पहले कुछ मोटा अभ्यास करना पड़ता है । क्योंकि जो जिस मण्डल में रहता है , वह पहले उसी मण्डल का अवलम्ब ले सकता है । इसीलिए दृष्टियोग के पहले मानस जप और मानस ध्यान की विधि है । श्रीमद्भागवत के ग्यारहवें स्कन्ध में भी इसी क्रम से अभ्यास करने का आशय विदित होता है । ( इन्द्रियाणिीन्द्रियार्थेभ्यो मनसाऽऽकृष्य तन्मनः । बुद्धया सारथिना धीरः प्रणयेन्मयि सर्वतः ॥ तत्सर्वव्यापकं चित्तमाकृष्यैकत्र धारयेत् । नान्यानि चिन्तयेद्भूयः सुस्मितं भावयेन्मुखम् ॥ तत्र लब्ध पदं चित्तमाकृष्य व्योम्नि धारयेत् । तच्च त्यक्त्वा मदारोहो न किंचिदपि चिन्तयेत् ॥ )

     इसमें श्रीकृष्ण भगवान ने उद्धव से पहले संपूर्ण शरीर का , फिर चेहरे का और फिर शून्य में ध्यान करने को कहा । ध्यानाभ्यास के आरंभ में कुछ - न - कुछ स्थूल अवलम्बन लेना ही होगा । परन्तु ऐसा नहीं कि उसी को जीवनभर पकड़े रह जाइए । आर्य संन्यासी श्रेष्ठ श्रीनारायण स्वामी ने चित्र बनाकर बताया है - पहले एक बड़ा गोलाकार , फिर उससे छोटा , फिर उससे भी छोटा एवम् प्रकार से बड़े से छोटा गोलाकार बनाते - बनाते विन्दु के मोताविक चिह्न बनाकर उसपर ध्यान करते जाने को कहा है । यह क्या हुआ ? स्थूल अवलम्ब हुआ । ऐसा जिद्द नहीं होना चाहिए कि जो अवलम्ब एक ले दूसरा भी उसी को ले । कितने ईश्वर के नाम को लिखकर ध्यान करते हैं । मुसलमान फकीरों में भी ऐसी बात है । इसपर ठीक हो जाने से सूक्ष्म ध्यान कीजिए । भागवत की यह बात अच्छी तरह जंचती है - समस्त रूप का ध्यान करके चेहरे का , फिर शून्य में ध्यान । इस प्रकार फैलाव से सिमटाव की ओर आता है । किसी चित्र वा रूप का मूल एक विन्दु है । सबसे सूक्ष्मरूप विन्दु है , इसकी बड़ी तारीफ है । उपनिषद् में ब्रह्मरूप को ' अणोरणीयाम् महतो महीयान् ' कहा है तथा श्रीमद्भगवद्गीता में भी अणोरणीयाम् कहो या विन्दु कहो एक ही बात है । विन्दु मन से नहीं बनाया जा सकता है । देखने के ढंग से देखिए । दृष्टि को जितना समेट सकें , समेटिए । 

कहै कबीर चरण चित राखो , ज्यों सूई में डोरारे । 
                                                         -कबीर साहब

सिमटी दृष्टि का नमूना, द्रोणाचार्य और अर्जुन का अभ्यास
सिमटी दृष्टि का नमूना

    एक बार आचार्य द्रोण कौरवों तथा पाण्डवों को संग लेकर जंगल की ओर टहलने गए । वृक्ष पर बैठे हुए एक पक्षी की ओर संकेत कर गुरु द्रोण ने प्रत्येक को एक - एक करके निशाना करने को कहा । निशाना करने पर सबसे पूछते जाते थे कि कहो , क्या देख रहे हो ? किसी ने कहा - वृक्ष , उसकी डालियाँ तथा पत्तों के सहित पक्षी को देख रहा हूँ । किसी ने वृक्ष की डालियाँ एवं पत्तियों के सहित पक्षी को देखने की बात कही , किसी ने डाली सहित पक्षी को देखा । अंत में अर्जुन के निशाना करने पर आचार्य ने पूछा - कहो , क्या देख रहे हो ? अर्जुन ने उत्तर दिया - केवल पक्षी देख रहा हूँ । इसमें दृष्टि का कितना सँभाल है ? स्वयं द्रोण ऐसे थे कि सींकी के पेंदे को सींकी से छेदकर कुएँ से गेन्द निकाले थे । द्रोण की दृष्टि बाहर में कितनी सिमटी थी । विन्दु के लिए और भी दृष्टि को समेटना पड़ेगा । बहिर्मुख होकर नहीं देखो , अंतर्मुख होकर देखो ; फैली दृष्टि से नहीं , सिमटी दृष्टि से देखो पेन्सिल की नोंक जहाँ पड़ेगी , वहीं विन्दु होता है ; उसी प्रकार दृष्टि की नोंक जहाँ टिकेगी , वहीं विन्दु उदय होगा । यहीं से सूक्ष्ममार्ग का आरम्भ होता है । कबीर साहब ने कहा - ' मुर्शिद नैनों बीच नबी है । स्याह सुफेद तिलों बिच तारा अविगत अलख रवी है ।। ' पहले काला चिह्न होगा , फिर सफेद हो जाएगा । अंदर सुषुम्ना में सिमटी दृष्टि का अवलोकन दृढ़ रहने से इन्द्रियों की धार सिमटकर उस केन्द्र में केन्द्रित हो जाएगी । इससे ऊर्ध्वगति होगी । जो चीज जितना सूक्ष्म है , उसमें उतना ही अधिक सिमटाव होगा और सिमटाव के अधिकाधिक मान के अनुकूल ही अधिकाधिक उसकी गति उतनी ही ऊर्ध्व होगी इसलिए अंधकार मण्डल में समेटने से उसकी ऊर्ध्वगति होने के कारण प्रकाश में जाएगा । इसका अभ्यास अमादृष्टि से करना आसान है । यही सूक्ष्ममार्ग का अवलम्ब है । दृश्यमण्डल में का यह अवलम्ब है । यह स्थूल ज्योति नहीं , सूक्ष्म ज्योति है । किन्तु यह निर्मायिक नहीं मायिक ही है । किन्तु यह विद्या माया है । दृश्य समाप्त होता है अदृश्य में । जहाँ ज्योति काम नहीं करती , वहाँ दृष्टि भी समाप्त है । जहाँ ज्योति नहीं है , वहाँ शब्द से रास्ता मिलता है । मनुष्य को कौन कहे , पशु भी शब्द सुनकर आता है । अँधेरी रात हो , पुकारिए , वह आपके पास पहुँच जाएगा । शब्द अपने उद्गम स्थान पर आकृष्ट करता है । शब्द वह है जो अंधकार और प्रकाश दोनों में भरपूर है ।  फिर इन दोनों के परे भी है और वहाँ ' निःशब्दम् परमं पदम् ' हो जाता है , परमात्मा से मिला देता है। 

बीजाक्षरं परं विन्दु नादं तस्योपरि स्थितम् । 
सशब्दं चाक्षरे क्षीणे निःशब्दं परमं पदम् ॥ -ध्यानविन्दूपनिषद् 

    प्रकाश के शब्द को पकड़ने के लिए संतों ने कहा , यही सूक्ष्ममार्ग है । इसपर अच्छी तरह विचार करना चाहिए । और विचार में जंचे , योग्य हो तो श्रद्धा करनी चाहिए । गुरुवाक्य है , उसपर हमलोगों को तो बड़ा विश्वास है । गुरु महाराज तो कहते थे , जाँचकर देख लो ।

      इसके लिए सदाचार का पालन करो । जो सदाचार का पालन नहीं करते उनका मन विषयों में आसक्त रहता है , वह इस ओर बढ़ नहीं सकता । इस हेतु सदाचार का पाल अवश्य करो । ∆


( यह प्रवचन मुंगेर जिलान्तर्गत ग्राम खगड़िया में दिनांक २८.२.१९५३ ई० को अपराह्नकालीन सत्संग में हुआ था। ) 

नोट-  इस प्रवचन में निम्नलिखित रंगानुसार और विषयानुसार ही  प्रवचन के लेख को रंगा गया या सजाया गया है। जैसे-  हेडलाइन की चर्चा,   सत्संग,   ध्यान,   सद्गगुरु  ईश्वर,   अध्यात्मिक विचार   एवं   अन्य विचार   । 


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महर्षि मेँहीँ सत्संग सुधा सागर में प्रकाशित प्रवचन-


महर्षि मेँहीँ सत्संग सुधा सागर, हर्षि मेँहीँ सत्संग सुधा सागर 46

हर्षि मेँहीँ सत्संग सुधा सागर 46 ख
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S46 (क) दिव्य दृष्टि प्राप्त करने का असली सच्ची विधि || The true method of attaining spiritual insight S46  (क) दिव्य दृष्टि प्राप्त करने का असली सच्ची विधि  ||  The true method of attaining spiritual insight Reviewed by सत्संग ध्यान on 9/15/2020 Rating: 5

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