S60, What are the real benefits of satsang ।। गुरु महाराज का प्रवचन ।। 26-02-1954ई. गोड्डा,

महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर / 60

प्रभु प्रेमियों ! सत्संग ध्यान के इस प्रवचन सीरीज में आपका स्वागत है। आइए आज जानते हैं-संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज के हिंदी प्रवचन संग्रह "महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर" के प्रवचन नंबर ६०वां, के बारे में। इसमें बताया गया है कि सत्संग का महत्त्वपूर्ण प्रसाद, संतवाणी का सार, क्षेत्र क्षेत्रज्ञ क्या है?

इसके साथ ही आप इस प्रवचन (उपदेश, अमृतवाणी, वचनामृत, सत्संग सुधा, संतवाणी, गुरु वचन, उपदेशामृत, ज्ञान कथा, भागवत वाणी, संतवचन, संतवचन-सुधा, संतवचनामृत, प्रवचन पीयूष )  में  पायेंगे कि-  Satsang ka mahattvapoorn prasaad, santavaanee ka saar, kshetr kshetragy ke kya hai? prakrti kya hai? asalee eeshvar ka darshan kahaan hota hai? teerth snaan se kya hota hai? svapn mein hamaaree sthiti kaisee hotee hai? shareer kitane hain? shaanti aur trpti daayak sukh kahaan milega? bhakti kaun kar sakata hai?      इत्यादि बातों  के बारे में। इसके साथ-ही-साथ निम्नलिखित प्रश्नों के भी कुछ-न-कुछ समाधान इसमें मिलेगा। जैसे कि- Satsang satsang, satsang bhajan, satsang pravachhan, satsang in hindi, satsang sunaiyai, satsang vidaio maiin, satsang kuppaghat, satsang daioghar, satsang kath, ai satsang, satsang vidaio song, satsang kee mahim, satsang kya hai, santamat satsang, satsang teevee, anamol vachan,   इत्यादि बातें। इन बातों को जानने-समझने के पहले, आइए !  संत सदगुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज का दर्शन करें। 

इस प्रवचन के पहले वाले प्रवचन नंबर 59 को पढ़ने के लिए   यहां दबाएं।


सत्संग का सार क्या है? समझाते हुए सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज
सत्संग की महिमा बताते हुए गुरुदेव

What are the real benefits of satsang

सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज कहते हैं कि- प्यारे सज्जनो ! जिस तरह ठाकुरबाड़ी में प्रसाद बँटता है , ठीक उसी तरह सत्संग में भी बँटता है सत्संग में संतों की वाणियों का प्रसाद बँटता है अभी छह संतों के वचनों के पाठ हुए । .....इस तरह प्रारंभ करके गुरुदेव----What is the important prasad of satsang, the essence of santwani, the field expert? What is nature Where is the vision of the real God? What happens with a pilgrim bath? What is our situation in a dream? How much is the body? Where can I find happiness in peace and fulfillment? Who can do devotion?.....आदि बातों पर विशेष प्रकाश डालते हैं। इन बातों को अच्छी तरह समझने के लिए पढ़ें- 

६०. राम भगति जहँ सुरसरि धारा 


सत्संग की महिमा पर प्रवचन करते सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी

प्यारे सज्जनो ! 

     जिस तरह ठाकुरबाड़ी में प्रसाद बँटता है , ठीक उसी तरह सत्संग में भी बँटता है सत्संग में संतों की वाणियों का प्रसाद बँटता है अभी छह संतों के वचनों के पाठ हुए । उनको आपलोग प्रसाद के रूप में स्वीकार करें । समास रूप में इन सबका खुलासा यह है कि अपने अन्दर में अपने को ले चलो । चलते - चलते अपने अन्दर वहाँ चलो , जहाँ तक चलना हो सकता है । फिर देखोगे कि न अपने तई के लिए और न परमात्मा के लिए अनजान रहोगे । अपने शरीर को लोग पहचानते हैं ; लेकिन अपनी आत्मा और अपने को नहीं पहचानते । यह पहचान बाहर में कहीं नहीं हो  सकती । जंगल , पहाड़ , नदी , समुद्र कहीं जाओ, न अपनी पहचान होगी और न परमात्मा की । तुम अपने को और परमात्मा को इन्द्रियों के द्वारा नहीं पकड़ सकते । कभी मत विश्वास करो कि ईश्वर को इस आँख से देख लोगे । यदि कहो कि इसी आँख से श्रीराम , श्रीकृष्ण , श्रीदेवीजी , श्रीशिवजी का दर्शन होता है , तो हमको क्यों नहीं होगा ? यदि आप श्रीराम और श्रीकृष्ण के विचार को समझने लगेंगे , तो कहेंगे कि बाहर में जो दर्शन हुआ , वह माया का दर्शन हुआ । माया में जो निर्माया है , उसका दर्शन नहीं हुआ । भगवान श्रीराम ने कहा गो गोचर जहँ लगि मन जाई । सो सब माया जानहु भाई । -रामचरितमानस 

      शरीर को क्षेत्र और उसके जाननेवाले को क्षेत्रज्ञ कहते हैं - ऐसा भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है । श्रीमद्भगवद्गीता के तेरहवें अध्याय में लिखा है महाभूतान्यहंकारो बुद्धिरव्यक्तमेव च । इन्द्रियाणि दशैकं च पंच चेन्द्रियगोचराः ।। इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं संघातश्चेतना धृतिः । एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम् ॥

     महाभूत , अहंता , बुद्धि , प्रकृति , दस इन्द्रियाँ , एक मन , पाँच विषय , इच्छा , द्वेष , दुःख , संघात , चेतन शक्ति , धृति - यह अपने विकारों सहित क्षेत्र संक्षेप में कहा है । पाँच स्थूल तत्त्व - पृथ्वी , जल , अग्नि , वायु और आकाश ; पाँच सूक्ष्म तत्त्व - रूप , रस , गंध , स्पर्श और शब्द ; पाँच कर्मेन्द्रियाँ - हाथ , पैर , लिंग , गुदा और मुँह ; पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ आँख , कान , नाक , त्वचा और जीभ ; मन , बुद्धि , अहंकार , चेतना , धृति , संघात , इच्छा , द्वेष , सुख , दुःख और प्रकृति – इन इकतीस तत्त्वों के समुदाय को सविकार क्षेत्र कहते हैं । इन इकतीस तत्त्वों में एक प्रकृति भी है । प्रकृति उस मसाले को कहते हैं , जिस तत्त्व से सारा विश्व बनता है । जिस प्रकार मिट्टी से कुम्हार बर्तन बनाते हैं , उसी प्रकार प्रकृति से सारा विश्व बनता है । प्रकृति कहते हैं - उत्पादक , पालक और विनाशक शक्ति को । तीन गुणों के सम्मिश्रण रूप को प्रकृति कहते हैं । उसी प्रकृति से समस्त जगत , पिण्ड और ब्रह्माण्ड बनते हैं । इसलिए समस्त संसार में जहाँ देखो , इन्हीं तीन गुणों के खेल हैं । किसी बड़े - से - बड़े देवता के रूप में देखो कि ये इकतीस हैं या नहीं ? इन इकतीस के अतिरिक्त जो इनसे भिन्न तत्त्व है , वह है क्षेत्रज्ञ । कितने ही तेज से तेज रूप का दर्शन हो , किन्तु क्षेत्रज्ञ या आत्मतत्त्व का दर्शन बाकी रहता है । जबतक क्षेत्रज्ञ वा आत्मतत्त्व का दर्शन न हो , तबतक जो होना चाहिए , सो नहीं होता है । योगशिखोपनिषद् में लिखा है भियते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः । क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ॥ 

      अर्थात् परे - से - परे को ( परमात्मा को ) देखने पर हृदय की ग्रंथि खुल जाती है । सभी संशय छिन्न हो जाते हैं और सभी कर्म नष्ट हो जाते हैं । जिस किसी भी दर्शन से ऐसा हो जाय , तो समझो कि परमात्मा का दर्शन हुआ । किन्तु आत्मतत्त्व के सिवाय और किसी के दर्शन से ऐसा नहीं हो सकता । सम्पूर्ण शरीर को आँख से देखते हो और आँख को देखना चाहो , तो आँख से ही देख सकते हो । उसी तरह आत्मा को चेतन आत्मा से ही देख सकेंगे । जो देखेंगे , उनको किसी से और कुछ पूछना बाकी नहीं रह जाएगा । किसी भी लोक लोकान्तर में ऐसा दर्शन नहीं होता , चाहे वे क्षीर समुद्र , ब्रह्मा का धाम , शिव का धाम , इन्द्रलोक आदि किसी भी लोक के निवासी क्यों न हो । वहाँ जञ्जाल लगा ही रहता है क्षीर समुद्र में भी लड़ाई - झगड़ा होता है । जहाँ कहीं भी शरीर है , वहाँ कुछ - न - कुछ विकार अवश्य होगा ; किन्तु जहाँ आत्मतत्त्व का दर्शन होता है , वहाँ विकार उत्पन्न नहीं हो सकता । 

     इसी का प्रचार सभी संतों ने किया और उनके पहले ऋषि , मुनियों ने भी इसी का प्रचार किया । बाबा देवी साहब इसी का उपदेश देते थे और कहते थे कि इसी का प्रचार करो । तीर्थस्नान करने से उतना लाभ नहीं होता । किसी भी तीर्थस्नान में ऐसा नहीं होता कि काम , क्रोधादिक विकार मिटते हैं । बहुत यज्ञ करे । बहुतों को खिलावे इससे आपका मन पवित्र नहीं हो सकता । आत्मदर्शन में विकारों का छूटना और अंतर में धंसना ; ये दोनों होते हैं ।

      जागने से स्वप्न में जब जाते हो , बिस्तर पर आप पड़े रहते हो । यदि आपके चारों ओर विषय हो तो आप उन्हें ग्रहण नहीं कर सकते । उस समय हाथ , पैर आदि कोई इन्द्रिय कुछ काम नहीं करती । स्वप्न काल में मुँह में मिसरी रहने पर भी उसका स्वाद मालूम नहीं होता । स्वप्न में बाहर की इन्द्रियों से हम काम नहीं ले सकते । अन्दर की ओर जो चलता है , विषयों से छूटता है । जो कोई अपने अंदर प्रवेश करते हैं , उनकी इन्द्रियाँ विषयों में नहीं जातीं । संतों ने इस सत्संग को गंगा , यमुना और सरस्वती का संगम - त्रिवेणी बतलाया हैराम भगति जहँ सुरसरिधारा । सरसइब्रह्म विचारप्रचारा ।। विधिनिषेधमय कलिमयहरनी । करम कथारविनंदिनीबरनी ॥ 

     अपने अंदर की त्रिवेणी में आप जाइए , तो कोई विकार आपको डिगा नहीं सकता । अपने अंदर चलनेवाले सभी शरीरों के आवरणों से मुक्त हो जाते हैं । शरीर पाँच हैं - स्थूल , सूक्ष्म , कारण , महाकारण और कैवल्य । संत दादू दयालजी ने पाँचों शरीरों को धोने के लिए कहा है । ऐसा जो कोई करते हैं , उनके लिए यह सम्प्रदाय और वह सम्प्रदाय नहीं रहता । जबतक संसार को चीन्हते थे , तो संसार में दुःख - ही - दुःख उठाते थे । यहाँ कभी सुख कभी शान्ति नहीं , तृप्ति नहीं । किन्तु अपने अन्दर प्रवेश करके देखो , तब जो आनन्द मिलेगा , वह आनन्द वह सुख मिलेगा , जो आनन्द जो विषयों में नहीं हुआ । इसलिए कबीर साहब ने कहा - ' भजन में होत आनन्द आनन्द । ' 

     इसमें यह वर्ण और वह वर्ण , धनी या निर्धन आदि कोई भी बाधा नहीं करता विद्वान , अविद्वान ऊँच पद या नीच पद , हमारा देश या अन्य देश सभी तरह के लोग , सभी देश के लोग इसको कर सकते हैं । सभी देश के लोग एक हो जायें । मुँह में , आँख में , कान में , नाक में जो छिद्र हैं , सब देशों के लोगों को बराबर - बराबर छिद्र हैं जो सुख - दुःख सबको होता है , वही सुख - दु : ख हमको भी होता है । आपको जानने में आवे कि जैसे और देश के लोगों की जितनी इन्द्रियाँ हैं , उतनी हमारे देश के लोगों को हैं । इस तरह सारे संसार के लिए एक ही समान इन्द्रियाँ हैं सबका क्षेत्रज्ञ एक ही है । उस क्षेत्रज्ञ को जानो । आपस में सब मेल से रहो ।०  


इस प्रवचन के बाद वाले प्रवचन नंबर 61 को पढ़ने के लिए   यहां दबाएं।


प्रभु प्रेमियों ! गुरु महाराज के इस प्रवचन का पाठ करके आपलोगों ने जाना कि Satsang se vaastavik laabh kya hai? santavaanee ka saar, kshetr kshetragy ke kya hai? prakrti kya hai? asalee eeshvar ka darshan kahaan hota hai? इतनी जानकारी के बाद भी अगर कोई संका या प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस प्रवचन के बारे में अपने इष्ट मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने इससे आपको आने वाले प्रवचन या पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहेगी। उपर्युक्त प्रवचन का पाठ निम्न वीडियो में किया गया है।




सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज के विविध विषयों पर विभिन्न स्थानों में दिए गए प्रवचनों का संग्रहनीय ग्रंथ महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा सागर
महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा सागर
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S60, What are the real benefits of satsang ।। गुरु महाराज का प्रवचन ।। 26-02-1954ई. गोड्डा, S60, What are the real benefits of satsang ।। गुरु महाराज का प्रवचन ।। 26-02-1954ई. गोड्डा, Reviewed by सत्संग ध्यान on 10/14/2020 Rating: 5

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