महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर / 111
मृत्यु में क्या होता है? What happens in death?
१११. संसार में खीरा की तरह रहो
प्यारे लोगो !
इस सत्संग में कहा जाता है कि अपना उद्धार करो । इस संसार में पूर्णरूप से कोई सुखी नहीं होता है । यहाँ केवल कहलाने के लिए सुख है । दरअसल यह संसार सुख का स्थान नहीं है । इससे पार हो जाना चाहिए । जबतक आप देह में रहिएगा , तबतक संसार में रहना होगा । संसार का अर्थ केवल स्थूल जगत नहीं । जहाँ तक शरीर है , वहाँ तक संसार है । इस स्थूल शरीर के भीतर सूक्ष्म शरीर है ।
साधारण मृत्यु में केवल स्थूल शरीर चला जाता है - मर जाता है । जीवात्मा मरता नहीं है । सूक्ष्म , कारण , महाकारण शरीर नहीं मरते हैं । इसके साथ जीवात्मा रहता है । भजन करने से ही इन बचे शरीरों को मार सकते हैं । जिस तरह स्थूल शरीर से जीवात्मा निकल जाता है , तो स्थूल शरीर मर जाता है ; उसी तरह सूक्ष्म , कारण , महाकारण शरीर से जीवात्मा के निकल जाने पर इन शरीरों की मृत्यु होती है ।
किसी भी लोक में रहिए , किसी भी शरीर में रहिए , स्वर्गादि लोक में रहिए , ब्रह्म के लोक में रहिए ; सभी जगह कष्ट - ही कष्ट है । शिवलोक में शिव को भी कष्ट होता है । सभी लोकों में झगड़ा - तकरार , शापा - शापी होते हैं । गोलोक में भी ऐसा होता है । गर्ग - संहिता पढ़कर देखिए । कितनाहूँ सुन्दर - से - सुन्दर देहवाला हो , कितनाहूँ ऊँचा लोक हो , सबमें दुःख है । इसलिए अपने उद्धार के लिए सब शरीरों को छोड़ना होगा । जैसे कोई घर से बाहर जाना चाहे तो पहले घर - ही - घर चलना पड़ता है । उसी तरह शरीरों से निकलने के लिए शरीर - ही - शरीर निकलना होगा और सब शरीरों से निकलने पर परमात्मा की प्राप्ति होती है ।
अभी आपलोगों ने तुलसी साहब का पद ‘ जीव का निबेरा ' सुना । उसमें अन्तर्मार्ग का वर्णन है । संसार में जो कुछ देखने में आता है , वह अपने अंदर भी देख सकते हैं । सब शरीरों को छोड़ने का अपने अंदर में ही यत्न होना चाहिए । परमात्मा के दर्शन का यत्न अपने शरीर में ही होना चाहिए । बाहर में जो दर्शन होता है , वह माया का दर्शन होता है । गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है-
गो गोचर जहँ लगि मन जाई सो सब माया जानहु भाई ।।
अपने अन्दर जो चलता है , तो उसको देव - रूपों का दर्शन होता है और अन्त में परमात्मा का भी दर्शन होता है । इसका यत्न है - अपने घर में रहो , सत्संग भजन करो और यह ख्याल रखो कि यह शरीर छोड़ना होगा । घर बढ़िया बढ़िया हो , उसमें अपने आराम किया हो , तो उस सोने के महल में भी कोई नहीं रखता , जब इस शरीर से प्राण निकल जाता है । गुरु नानकदेवजी ने कहा है-
एक घड़ी कोऊ नहिं राखत , घरतें देत निकार ।
इसमें आसक्त होने से ठीक नहीं । कोई भी संसार में सदा नहीं रह सकता । संत चरणदासजी की शिष्या सहजोबाई ने बड़ा अच्छा कहा है-
चलना है रहना नहीं , चलना विश्वाबीस । सहजो तनिक सुहाग पर , कहा गुथावै शीश ॥
कोई कितनाहूँ प्यारा हो , सबको छोड़कर जाना होगा । इसलिए संसार में खीरा बनकर रहो । खीरा ऊपर से एक और भीतर से फटा हुआ होता है । इस तरह संसार में रहने से कल्याण होगा । न तो बाल - बच्चों को छोड़ो , न इनमें फँसो । फँसाव को छोड़कर अपने अन्दर साधन - भजन करो । जप करो और ध्यान करो । इसके लिए चाल चलन अच्छी बनाओ ।
झूठ एकदम छोड़ दो । जो झूठ बोलेगा , उसी से सब पाप होगा । जो झूठ छोड़ देगा , उससे कोई पाप नहीं होगा । चोरी मत करो । व्यभिचार मत करो । नशा मत खाओ , पिओ । नशा खाने से मस्तिष्क ठीक नहीं रहता । भाँग , तम्बाकू , गाँजा सबको छोड़ दो । हिंसा मत करो जीवों को दुःख मत दो । मत्स्य मांस मत खाओ । मत्स्य - मांस खाने से जलचर , थलचर , नभचर के जो स्वभाव हैं - तासीर हैं , उस स्वभाव को , खानेवाले अपने अन्दर लेते हैं । अपने शरीर पर विचारिए और उन जानवरों के शरीर पर विचारिए ।
मनुष्य का शरीर तो देवताओं के शरीर से उत्तम है । फिर इतने पवित्र शरीर में अपवित्र मांस को देना ठीक नहीं ।
हिंसा दो तरह की होती हैं - एक वार्य और दूसरी अनिवार्य । वार्य हिंसा बच सकते हैं । जिह्वा स्वाद के लिए नाहक जीवों को मारना वार्य हिंसा है । इससे बचना चाहिए । कृषि कर्म में जो हिंसा होती है , वह अनिवार्य है । अनिवार्य हिंसा से कोई बच नहीं सकता वार्य हिंसा से बचो । मांस - मछली नहीं खाने से सात्त्विक मन होगा । तब भजन बनेगा । ∆
( यह प्रवचन खगड़िया जिला के श्रीसंतमत सत्संग मंदिर रामगंज में दिनांक २६.५.१६५५ ई० को अपराह्नकालीन सत्संग में हुआ था । )
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