Ad1

Ad2

S110, ईश्वर को जानने के लिए सत्संग है ।। Aatma Paramaatma ka Bhed ।। ६.४.१६५५ ई०

महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर / 110

प्रभु प्रेमियों ! सत्संग ध्यान के इस प्रवचन सीरीज में आपका स्वागत है। आइए आज जानते हैं-संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज के हिंदी प्रवचन संग्रह "महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर" के प्रवचन नंबर 110 के बारे में। इसमें बताया गया है कि  जीव और परमात्मा में क्या अंतर है? जीव और आत्मा में क्या भेद है? आत्मा जीवात्मा और परमात्मा में क्या अंतर है? आत्मा परमात्मा में क्या भेद है? जीवात्मा क्या है, ईश्वर और आत्मा में क्या अंतर है, आत्मा और परमात्मा में क्या अंतर है, 

इस प्रवचन के पहले वाले प्रवचन नंबर 109 को पढ़ने के लिए   यहां दवाएं। 

जीवात्मा और परमात्मा में अंतर पर चर्चा करते गुरुदेव महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज

आत्मा परमात्मा में क्या भेद है? What is the difference between the divine soul?

 इस प्रवचन (उपदेश, अमृतवाणी, वचनामृत, सत्संग सुधा, संतवाणी, गुरु वचन, उपदेशामृत, ज्ञान कथा, भागवत वाणी, संतवचन, संतवचन-सुधा, संतवचनामृत, प्रवचन पीयूष )  में  पायेंगे कि-  सत्संग किसे कहते हैं? संतों का दर्शन कैसे कर सकते हैं? पहुंचे हुए संत कहां मिलेंगे? संतवाणी का क्या महत्व है? संतो के चिट्ठियां किसे कहते हैं? उपनिषद में ईश्वर के लिए किन-किन शब्दों का प्रयोग हुआ है? जीवात्मा और परमात्मा में क्या भेद है? संसार के पदार्थों की क्या स्थिति है? क्षणभंगुर पदार्थ किसे कहते हैं? माया किसे कहते हैं? अलख किसे कहते हैं? अंजन और निरंजन किसे कहते हैं? व्यक्त पदार्थों के कितनी श्रेणियां हैं? अचर और चर किसे कहते हैं? ईश्वर स्वरूपतः क्या है ? उपनिषद में परमात्मा-प्राप्ति की रास्ता छुरे की धार जैसा क्यों बदलाया गया है? इत्यादि बातों  के बारे में। इसके साथ-ही-साथ निम्नलिखित प्रश्नों के भी कुछ-न-कुछ समाधान इसमें मिलेगा। जैसे कि- जीव और परमात्मा में क्या अंतर है? जीव और आत्मा में क्या भेद है? आत्मा जीवात्मा और परमात्मा में क्या अंतर है? आत्मा परमात्मा में क्या भेद है? जीवात्मा क्या है, ईश्वर और आत्मा में क्या अंतर है, आत्मा और परमात्मा में क्या अंतर है, जीवात्मा का अर्थ, आत्मा और प्राण में क्या अंतर है, जीव क्या है, आत्मा और मन क्या है, आत्मा और परमात्मा के बीच का अंतर, आत्मा और परमात्मा का दर्शन, आत्मा क्या है, गीता को परमात्मा की वाणी क्यों कहा गया है, कबीर परमात्मा के विषय में क्या कहते हैं, क्षणभंगुर मीनिंग इन हिंदी, क्षणभंगुर का वाक्य, क्षणभंगुरता का अर्थ, क्षणभंगुर जीवन की कलिका, क्षणिक का अर्थ,ईश्वर क्या है, सच्चा ईश्वर कौन और कहा है उसका नाम और पता क्या है, ईश्वर का स्वरूप क्या है, स्वरूप का अर्थ क्या है, वेदों के अनुसार ईश्वर कौन है, धर्म का स्वरूप क्या है, ईश्वर नाम का अर्थ, सत्संग का लाभ, संतवाणी चैनल लाइव, सत्संग प्रवचन कथा, इत्यादि बातें। इन बातों को जानने-समझने के पहले, आइए !  संत सदगुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज का दर्शन करें।

११०. ईश्वर को जानने के लिए सत्संग है


जीवात्मा और परमात्मा को समझाते हुए सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज और भक्तों का

प्यारे लोगो !  

     आपलोग जानते ही होंगे कि संतों के संग का नाम सत्संग है । जिस समय में कोई संत होते हैं, उनकी पहचान किन्हीं को होती है कि नहीं , कहा नहीं जा सकता । किंतु जो बीत गए हैं , जो अभी नहीं हैं , उनके प्रति श्रद्धा लोगों में होती है । वे तो अब मिल नहीं सकते , किंतु उनकी वाणियाँ हैं । आजकल विद्वान लोग उनकी वाणियों को खोज - खोजकर प्रकाशित करते हैं । हमलोगों के सत्संग में संतों की वाणी की ही मुख्यता है । हमलोगों की श्रद्धा ऐसी है कि संतों के वचनों को ही उनका दर्शन समझते हैं।

     चिट्ठी आधी मुलाकात है । संतों की वाणियाँ उनकी चिट्ठीयाँ हैं । यदि संतों का पूरा दर्शन नहीं, तो आधी मुलाकात ही क्या कम है ? संतों की वाणी में असल बात ब्रह्म - ज्ञान , ईश्वर - दर्शन , आत्म - ज्ञान है । तीनों एक ही बात हैं । ईश्वर की प्राप्ति के यत्न और उनके स्वरूप को जानना चाहिए

      उपनिषद् में ईश्वर का प्रयोग ब्रह्म , आत्मा , परमात्मा कहकर किया गया है । आत्मा वह पदार्थ है जो अनादि - अनंत है । उसी को परमात्मा कहते हैं । जैसे आकाश कहने से घटाकाश और महदाकाश दोनों का ज्ञान होता है , उसी तरह आत्मा कहने से परमात्मा और जीवात्मा दोनों का ज्ञान होता है । जो सर्वव्यापी , सर्वव्यापकता के परे है और जो पिण्डस्थ है , उनका भी ज्ञान होता है । जीवात्मा और परमात्मा का भेद करने में पिण्डस्थ को जीवात्मा और सर्वव्यापक तथा सर्वव्यापकता के परे को परमात्मा कहते हैं । परमात्मा सर्वव्यापक है । उनके लिए कहा गया है कि वे मन से पकड़े नहीं जा सकते । मन जिनके सहारे है , मन की स्थिति नहीं रह सकती , यदि उसके आधार परमात्मा न हो । मन जिनको ग्रहण नहीं कर सकता , जिनसे मन ग्रहण होता है , वे परमात्मा हैं । 

     संसार में दो तरह के पदार्थ हैं । एक व्यक्त और दूसरा अव्यक्त । इन्द्रियों से जो ग्रहण हो , वह व्यक्त है और जो इन्द्रियों के ग्रहण में नहीं है , वह अव्यक्त है । उस अव्यक्त तत्त्व के लिए कहा गया है कि जिससे मन मनन किया हुआ कहा जाता है , उसको मन मनन नहीं कर सकता है , वह अव्यक्त है । व्यक्त पदार्थ जो इन्द्रियों से ग्रहण होता है , वह एक समान सदा नहीं रहता है । वह उपजता है , ठहरता है , बदलते - बदलते नाश की ओर जाता है और बाद में प्रत्यक्ष नहीं रहता है । इनमें से कोई पदार्थ ऐसा नहीं , जो उपजा नहीं हो और जिसका विनाश नहीं हो । ऐसे पदार्थ को कहा गया है क्षणभंगुरउपनिषदों में इसे माया कहा गया है । संतवाणियों में भी इसे माया कहा है । जो इन्द्रियों के ज्ञान से परे है , वह अव्यक्त है - निर्माया है । जो उपजा हो , कुछ काल रहे , फिर नाश की ओर जाय , वह नाशवान होगा । वह परमात्मा नहीं हो सकता । परमात्मा समय के पहले से है । समय और स्थान की मौजूदगी नहीं थी , तब से परमात्मा है । जब माया नहीं थी , तब से परमात्मा है । बल्कि माया परमात्मा से उत्पन्न हुई है । परमात्मा का ज्ञान है कि वे अभी उपजे नहीं हैं । गुरु नानकदेव के वचन में है 

अलख अपार अगम अगोचरि , नातिसुकाल न करमा । जाति अजाति अजोनी संभउ , नातिसुभाउन भरमा । साचे सचिआरबिटहु कुरवाणु । ना तिसु रूप बरनु नहिंरेखिआसाचे सबदिनीसाणु ॥ 

     अलख - आँख के ज्ञान से परे , दृष्टि के परे जिनके स्वरूप की सीमा नहीं , इसलिए अपार , जो किसी से पार होने योग्य नहीं है , उसको समाप्त नहीं किया जा सकता । उनके लिए समय नहीं समय और पदार्थ में माया के सब पदार्थ अँटते हैंैै। देश और काल से जो परे पदार्थ है , वही परमात्मा है । सभी संतों की वाणी में ऐसा वर्णन है । परमात्मा कभी हुए हैं , ऐसा नहीं , वे हई हैं । परमात्मा के ज्ञान के लिए कबीर साहब ने कहा 

राम निरंजन न्यारा रे । अंजन सकल पसारा रे ॥ 

     अंजन का अर्थ माया और निरंजन का अर्थ माया - रहित । परमात्मा या राम मायिक पदार्थ से परे है । जो कुछ आँख से देखते हैं , यह पसार माया का पसार है । जो किसी भी इन्द्रियों के ग्रहण में आता है , वह माया है । जो व्यक्त है , वह तुम्हारे पास है । व्यक्त में पाँच पदार्थ हैं - रूप , रस , स्पर्श , गंध और शब्द । तमाम संसार में , इस लोक या परलोक पर जहाँ विचारिए , वहाँ पंच विषय हैं । जहाँ जो कोई रहते हैं , उनके चारो ओर पंच विषय रहते हैं । नजदीक की चीज को ' इस ' और दूर की चीज को ' उस ' कहते हैं परमात्मा ' इस ' श्रेणी के नहीं है । जो कोई इस पदार्थ की उपासना करते हैं , वह ब्रह्म की उपासना नहीं । हाँ , सबमें व्यापक ब्रह्म है । इस प्रकार मानने में उपनिषद् और संतवाणी में कोई हर्ज नहीं । रूप , रस , गंध , स्पर्श और शब्द - ये ब्रह्मस्वरूप नहीं हैं । यह उपनिषदों ने बताया है और संतों की वाणियों में भी यही बात है । गोस्वामी तुलसीदाजी ने कहा है 

अचर चर रूप हरि सर्वगत सर्वदा , वसत इति वासना धूप दीजै । 

     अचर माने वृक्ष , पहाड़ आदि , जो अपने से कहीं आ - जा नहीं सके । जो अपने से चल - फिर सकता है , वह चर है । जैसे आपके शरीर का स्वरूप आपका रूप है , किंतु आप वह नहीं हैं । जैसे जो वस्त्र आप धारण करते हैं , वह वस्त्र आपका है , न कि आप वस्त्र हैं । परमात्मा अचर- चर रूप सब धारण किए हैं , इसलिए सब रूप परमात्मा के हैं , किंतु वे रूप परमात्मा नहीं हैं । बल्कि उन रूपों को परमात्मा ने धारण किया है । जैसे किसी धातु का जेवर बनाया जाता है , उसी तरह यह शरीर एक नक्शा है । परमात्मा चर - अचर रूप में व्यापक हैं । उपनिषद् के वर्णन में आपने 

वायुर्यथैको भुवनं प्रविष्टो रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव । एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा रूपंरूपंप्रतिरूपो बहिश्च ।। 

     अर्थात् वायु प्रत्येक वस्तु में रहते हुए उसी अकार का है , किंतु वह वही नहीं हो जाता । जैसे गिलास में वायु रहने से गिलास के आकार का मालूम होता है , किंतु वायु वस्तुतः वैसा नहीं है । वह तो गिलास में भी है और उसके बाहर भी है । उसी तरह परमात्मा अचर - चर में रहते हुए सबसे बाहर भी है । कहीं हटनेवाले नहीं , सदा रहते ही हैं । संतों की वाणियों में जैसा बताया गया है , उसी को परमात्म - स्वरूप के विषय में जानना चाहिए । आप इन्द्रियों से जो रूप देखते हैं , वह ईश्वर नहीं है । ईश्वर स्वरूपतः क्या है? उनकी भक्ति कैसे की जाय , उसको जानने के लिए यह सत्संग है । 

     ईश्वर के लिए अभी के सत्संग में ज्ञान दिया गया कि ईश्वर कभी हुए नहीं , वे सदा से हैं ही । उनके होने का यदि कोई समय बतावे तो यह गलत है । परमात्मा इन्द्रियों से ग्रहण होने योग्य नहीं । उनको आप अपने से ग्रहण करेंगे । शरीर और इन्द्रियों में रहते हुए जो आप हैं , उस अकेले ज्ञान में जो आवे , वे ही परमात्मा , ईश्वर , ब्रह्म हैं । उपनिषद् में भी आया है कि 

नाविरतो दुश्चरितान्नाशन्तो ना समाहितः । नाशान्तोमानसोवापिप्रज्ञानेनैनमाप्नुयात् ॥ -कठोपनिषद् , अध्याय १ वल्ली २ 

     अर्थात् जो पाप कर्मों से बचा हुआ नहीं है , वह ईश्वर को प्राप्त नहीं कर सकता । इसलिए सबको चाहिए कि पापकर्मों से बचें । पापकर्मों से बचने पर केवल ईश्वर ही नहीं मिलते , बल्कि पाप कर्मों से बचनेवाले अपने अंदर में शान्ति से रहते हैं । संसार में पूज्य होते हैं । देवता के समान लोग उनकी वन्दना करते हैं । वे स्वयं भी शान्त रहते हैं और शान्ति - स्वरूप परमात्मा को भी पाते हैं । दुश्चरित्र को इन्द्रियों में आसक्ति रहती है , वह इन्द्रियों में बंधा रहता है । इन्द्रियों से ऊपर नहीं उठ सकता । ईश्वर को पाने का रास्ता कैसा है , इसके लिए उपनिषद् में कहा है 

क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्ग पथस्तत्कवयो वदन्ति । 

     अर्थात् वह रास्ता क्षुरे की धार के समान दुर्गम है । यदि रास्ता दुर्गम है और तीक्ष्ण है तो उस पर चलनेवाला कट नहीं सकता , उस रास्ते पर चेतन - सहित मन चलेगा । किंतु संयम से रहो , पापों सोनैली में से बचो और संभलकर उस पर चलो । गुरु नानकदेव ने कहा है- 

खनिअहु तीखी बालहु नीकी एतु मारगि जाणा । '

     कितनाहूँ सूक्ष्म और तेज रास्ता हो तो मन और चेतन भी बहुत सूक्ष्म है , वह उसपर चलने से कटेगा नहीं । संयम से रहिए और उस सूक्ष्म मार्ग पर चलने के लिए जानिए । ∆


(यह प्रवचन कटिहार जिलान्तर्गत ग्राम सोनैली में दिनांक ६.४.१६५५ ई० को प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था । )


नोट-  इस प्रवचन में निम्नलिखित रंगानुसार और विषयानुसार ही  प्रवचन के लेख को रंगा गया या सजाया गया है। जैसे-  हेडलाइन की चर्चा,   सत्संग,   ध्यान,   सद्गगुरु  ईश्वर,   अध्यात्मिक विचार   एवं   अन्य विचार   । 


इसी प्रवचन को "महर्षि मेंही सत्संग सुधा सागर"  में प्रकाशित रूप में पढ़ें- 

Guru maharaj ka pravachan number 110

Guru maharaj ka pravachan number 110 a


इस प्रवचन के बाद वाले प्रवचन नंबर 111 को पढ़ने के लिए   यहां दबाएं।


प्रभु प्रेमियों ! गुरु महाराज के इस प्रवचन का पाठ करके आपलोगों ने जाना कि जीव और परमात्मा में क्या अंतर है? जीव और आत्मा में क्या भेद है? आत्मा जीवात्मा और परमात्मा में क्या अंतर है? आत्मा परमात्मा में क्या भेद है? जीवात्मा क्या है, ईश्वर और आत्मा में क्या अंतर है, आत्मा और परमात्मा में क्या अंतर है,   इत्यादि बातें।  इतनी जानकारी के बाद भी अगर कोई संका या प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस प्रवचन के बारे में अपने इष्ट मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने इससे आपको आने वाले प्रवचन या पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहेगी। उपर्युक्त प्रवचन का पाठ निम्न वीडियो में किया गया है। जय गुरु महाराज।
 



सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज के विविध विषयों पर विभिन्न स्थानों में दिए गए प्रवचनों का संग्रहनीय ग्रंथ महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा सागर
महर्षि मेंहीं सत्संग-...
अगर आप "महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा सागर"' पुस्तक से महान संत सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस  जी महाराज के  अन्य प्रवचनों के बारे में जानना चाहते हैं या इस पुस्तक के बारे में विशेष रूप से जानना चाहते हैं तो नििम्नलिखि लिंक पर जाकर पढ़िए -

सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज की पुस्तकें मुफ्त में पाने के लिए  शर्तों के बारे में जानने के लिए.  यहां दवाएं
S110, ईश्वर को जानने के लिए सत्संग है ।। Aatma Paramaatma ka Bhed ।। ६.४.१६५५ ई० S110,  ईश्वर को जानने के लिए सत्संग है ।।  Aatma Paramaatma ka Bhed ।। ६.४.१६५५ ई० Reviewed by सत्संग ध्यान on 5/29/2021 Rating: 5

कोई टिप्पणी नहीं:

प्रभु प्रेमियों! कृपया वही टिप्पणी करें जो सत्संग ध्यान कर रहे हो और उसमें कुछ जानकारी चाहते हो अन्यथा जवाब नहीं दिया जाएगा।

Ad

Blogger द्वारा संचालित.