महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर / 110
आत्मा परमात्मा में क्या भेद है? What is the difference between the divine soul?
११०. ईश्वर को जानने के लिए सत्संग है
प्यारे लोगो !
आपलोग जानते ही होंगे कि संतों के संग का नाम सत्संग है । जिस समय में कोई संत होते हैं, उनकी पहचान किन्हीं को होती है कि नहीं , कहा नहीं जा सकता । किंतु जो बीत गए हैं , जो अभी नहीं हैं , उनके प्रति श्रद्धा लोगों में होती है । वे तो अब मिल नहीं सकते , किंतु उनकी वाणियाँ हैं । आजकल विद्वान लोग उनकी वाणियों को खोज - खोजकर प्रकाशित करते हैं । हमलोगों के सत्संग में संतों की वाणी की ही मुख्यता है । हमलोगों की श्रद्धा ऐसी है कि संतों के वचनों को ही उनका दर्शन समझते हैं।
चिट्ठी आधी मुलाकात है । संतों की वाणियाँ उनकी चिट्ठीयाँ हैं । यदि संतों का पूरा दर्शन नहीं, तो आधी मुलाकात ही क्या कम है ? संतों की वाणी में असल बात ब्रह्म - ज्ञान , ईश्वर - दर्शन , आत्म - ज्ञान है । तीनों एक ही बात हैं । ईश्वर की प्राप्ति के यत्न और उनके स्वरूप को जानना चाहिए ।
उपनिषद् में ईश्वर का प्रयोग ब्रह्म , आत्मा , परमात्मा कहकर किया गया है । आत्मा वह पदार्थ है जो अनादि - अनंत है । उसी को परमात्मा कहते हैं । जैसे आकाश कहने से घटाकाश और महदाकाश दोनों का ज्ञान होता है , उसी तरह आत्मा कहने से परमात्मा और जीवात्मा दोनों का ज्ञान होता है । जो सर्वव्यापी , सर्वव्यापकता के परे है और जो पिण्डस्थ है , उनका भी ज्ञान होता है । जीवात्मा और परमात्मा का भेद करने में पिण्डस्थ को जीवात्मा और सर्वव्यापक तथा सर्वव्यापकता के परे को परमात्मा कहते हैं । परमात्मा सर्वव्यापक है । उनके लिए कहा गया है कि वे मन से पकड़े नहीं जा सकते । मन जिनके सहारे है , मन की स्थिति नहीं रह सकती , यदि उसके आधार परमात्मा न हो । मन जिनको ग्रहण नहीं कर सकता , जिनसे मन ग्रहण होता है , वे परमात्मा हैं ।
संसार में दो तरह के पदार्थ हैं । एक व्यक्त और दूसरा अव्यक्त । इन्द्रियों से जो ग्रहण हो , वह व्यक्त है और जो इन्द्रियों के ग्रहण में नहीं है , वह अव्यक्त है । उस अव्यक्त तत्त्व के लिए कहा गया है कि जिससे मन मनन किया हुआ कहा जाता है , उसको मन मनन नहीं कर सकता है , वह अव्यक्त है । व्यक्त पदार्थ जो इन्द्रियों से ग्रहण होता है , वह एक समान सदा नहीं रहता है । वह उपजता है , ठहरता है , बदलते - बदलते नाश की ओर जाता है और बाद में प्रत्यक्ष नहीं रहता है । इनमें से कोई पदार्थ ऐसा नहीं , जो उपजा नहीं हो और जिसका विनाश नहीं हो । ऐसे पदार्थ को कहा गया है क्षणभंगुर । उपनिषदों में इसे माया कहा गया है । संतवाणियों में भी इसे माया कहा है । जो इन्द्रियों के ज्ञान से परे है , वह अव्यक्त है - निर्माया है । जो उपजा हो , कुछ काल रहे , फिर नाश की ओर जाय , वह नाशवान होगा । वह परमात्मा नहीं हो सकता । परमात्मा समय के पहले से है । समय और स्थान की मौजूदगी नहीं थी , तब से परमात्मा है । जब माया नहीं थी , तब से परमात्मा है । बल्कि माया परमात्मा से उत्पन्न हुई है । परमात्मा का ज्ञान है कि वे अभी उपजे नहीं हैं । गुरु नानकदेव के वचन में है
अलख अपार अगम अगोचरि , नातिसुकाल न करमा । जाति अजाति अजोनी संभउ , नातिसुभाउन भरमा । साचे सचिआरबिटहु कुरवाणु । ना तिसु रूप बरनु नहिंरेखिआसाचे सबदिनीसाणु ॥
अलख - आँख के ज्ञान से परे , दृष्टि के परे जिनके स्वरूप की सीमा नहीं , इसलिए अपार , जो किसी से पार होने योग्य नहीं है , उसको समाप्त नहीं किया जा सकता । उनके लिए समय नहीं समय और पदार्थ में माया के सब पदार्थ अँटते हैंैै। देश और काल से जो परे पदार्थ है , वही परमात्मा है । सभी संतों की वाणी में ऐसा वर्णन है । परमात्मा कभी हुए हैं , ऐसा नहीं , वे हई हैं । परमात्मा के ज्ञान के लिए कबीर साहब ने कहा
राम निरंजन न्यारा रे । अंजन सकल पसारा रे ॥
अंजन का अर्थ माया और निरंजन का अर्थ माया - रहित । परमात्मा या राम मायिक पदार्थ से परे है । जो कुछ आँख से देखते हैं , यह पसार माया का पसार है । जो किसी भी इन्द्रियों के ग्रहण में आता है , वह माया है । जो व्यक्त है , वह तुम्हारे पास है । व्यक्त में पाँच पदार्थ हैं - रूप , रस , स्पर्श , गंध और शब्द । तमाम संसार में , इस लोक या परलोक पर जहाँ विचारिए , वहाँ पंच विषय हैं । जहाँ जो कोई रहते हैं , उनके चारो ओर पंच विषय रहते हैं । नजदीक की चीज को ' इस ' और दूर की चीज को ' उस ' कहते हैं परमात्मा ' इस ' श्रेणी के नहीं है । जो कोई इस पदार्थ की उपासना करते हैं , वह ब्रह्म की उपासना नहीं । हाँ , सबमें व्यापक ब्रह्म है । इस प्रकार मानने में उपनिषद् और संतवाणी में कोई हर्ज नहीं । रूप , रस , गंध , स्पर्श और शब्द - ये ब्रह्मस्वरूप नहीं हैं । यह उपनिषदों ने बताया है और संतों की वाणियों में भी यही बात है । गोस्वामी तुलसीदाजी ने कहा है
अचर चर रूप हरि सर्वगत सर्वदा , वसत इति वासना धूप दीजै ।
अचर माने वृक्ष , पहाड़ आदि , जो अपने से कहीं आ - जा नहीं सके । जो अपने से चल - फिर सकता है , वह चर है । जैसे आपके शरीर का स्वरूप आपका रूप है , किंतु आप वह नहीं हैं । जैसे जो वस्त्र आप धारण करते हैं , वह वस्त्र आपका है , न कि आप वस्त्र हैं । परमात्मा अचर- चर रूप सब धारण किए हैं , इसलिए सब रूप परमात्मा के हैं , किंतु वे रूप परमात्मा नहीं हैं । बल्कि उन रूपों को परमात्मा ने धारण किया है । जैसे किसी धातु का जेवर बनाया जाता है , उसी तरह यह शरीर एक नक्शा है । परमात्मा चर - अचर रूप में व्यापक हैं । उपनिषद् के वर्णन में आपने
वायुर्यथैको भुवनं प्रविष्टो रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव । एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा रूपंरूपंप्रतिरूपो बहिश्च ।।
अर्थात् वायु प्रत्येक वस्तु में रहते हुए उसी अकार का है , किंतु वह वही नहीं हो जाता । जैसे गिलास में वायु रहने से गिलास के आकार का मालूम होता है , किंतु वायु वस्तुतः वैसा नहीं है । वह तो गिलास में भी है और उसके बाहर भी है । उसी तरह परमात्मा अचर - चर में रहते हुए सबसे बाहर भी है । कहीं हटनेवाले नहीं , सदा रहते ही हैं । संतों की वाणियों में जैसा बताया गया है , उसी को परमात्म - स्वरूप के विषय में जानना चाहिए । आप इन्द्रियों से जो रूप देखते हैं , वह ईश्वर नहीं है । ईश्वर स्वरूपतः क्या है? उनकी भक्ति कैसे की जाय , उसको जानने के लिए यह सत्संग है ।
ईश्वर के लिए अभी के सत्संग में ज्ञान दिया गया कि ईश्वर कभी हुए नहीं , वे सदा से हैं ही । उनके होने का यदि कोई समय बतावे तो यह गलत है । परमात्मा इन्द्रियों से ग्रहण होने योग्य नहीं । उनको आप अपने से ग्रहण करेंगे । शरीर और इन्द्रियों में रहते हुए जो आप हैं , उस अकेले ज्ञान में जो आवे , वे ही परमात्मा , ईश्वर , ब्रह्म हैं । उपनिषद् में भी आया है कि
नाविरतो दुश्चरितान्नाशन्तो ना समाहितः । नाशान्तोमानसोवापिप्रज्ञानेनैनमाप्नुयात् ॥ -कठोपनिषद् , अध्याय १ वल्ली २
अर्थात् जो पाप कर्मों से बचा हुआ नहीं है , वह ईश्वर को प्राप्त नहीं कर सकता । इसलिए सबको चाहिए कि पापकर्मों से बचें । पापकर्मों से बचने पर केवल ईश्वर ही नहीं मिलते , बल्कि पाप कर्मों से बचनेवाले अपने अंदर में शान्ति से रहते हैं । संसार में पूज्य होते हैं । देवता के समान लोग उनकी वन्दना करते हैं । वे स्वयं भी शान्त रहते हैं और शान्ति - स्वरूप परमात्मा को भी पाते हैं । दुश्चरित्र को इन्द्रियों में आसक्ति रहती है , वह इन्द्रियों में बंधा रहता है । इन्द्रियों से ऊपर नहीं उठ सकता । ईश्वर को पाने का रास्ता कैसा है , इसके लिए उपनिषद् में कहा है
क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्ग पथस्तत्कवयो वदन्ति ।
अर्थात् वह रास्ता क्षुरे की धार के समान दुर्गम है । यदि रास्ता दुर्गम है और तीक्ष्ण है तो उस पर चलनेवाला कट नहीं सकता , उस रास्ते पर चेतन - सहित मन चलेगा । किंतु संयम से रहो , पापों सोनैली में से बचो और संभलकर उस पर चलो । गुरु नानकदेव ने कहा है-
खनिअहु तीखी बालहु नीकी एतु मारगि जाणा । '
कितनाहूँ सूक्ष्म और तेज रास्ता हो तो मन और चेतन भी बहुत सूक्ष्म है , वह उसपर चलने से कटेगा नहीं । संयम से रहिए और उस सूक्ष्म मार्ग पर चलने के लिए जानिए । ∆
(यह प्रवचन कटिहार जिलान्तर्गत ग्राम सोनैली में दिनांक ६.४.१६५५ ई० को प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था । )
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