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S131 (ख) नादानुसंधान और शिवनेत्र से ब्रह्माण्ड में सैर कर सकते हैं || Nadanusandhan and Shivnetra

महर्षि मेँहीँ  सत्संग सुधा सागर / 131 ख

     प्रभु प्रेमियों ! संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज के हिंदी प्रवचन संग्रह "महर्षि मेँहीँ सत्संग सुधा सागर" के प्रवचन नंबर 131ख में बताया गया है कि नादानुसंधान की महिमा, नादानुसंधान के बारे में, नादानुसंधान का महत्व, अन्तर्यात्रा में नादानुसंधान, नादानुसंधान या अनहद नाद क्या हैं, नादानुसंधान से आप क्या समझते हैं, नाद योग क्या होता है, जीव कहाँ रहता है? पृथ्वी पर अधिकांश जीव कहाँ रहते हैं? जीव क्या होता है? जीव का धर्म क्या है? गंगा नदी के बारे में, गंगा नदी का महत्व इत्यादि के बारे में।  आइये इस प्रवचन का पाठ करने के पहले गुरु महाराज का दर्शन करें-

नादानुसंधान एवं अन्य बातों की चर्चा करते गुरदेव,
नादानुसंधान एवं अन्य बातों की चर्चा करते गुरदेव

ब्रह्माण्ड में सैर कराने वाला नादानुसंधान और शिवनेत्र क्या है?

     प्रभु प्रेमियों ! इस प्रवचन (उपदेश, अमृतवाणी, वचनामृत, सत्संग सुधा, संतवाणी, गुरु वचन, उपदेशामृत, ज्ञान कथा, भागवत वाणी, संतवचन, संतवचन-सुधा, संतवचनामृत, प्रवचन पीयूष ) में आप पायेंगे कि- 1. द्वैतभाव कब मिटता है।   2. अध्यात्म-ज्ञान कहाँ रखना चाहिए?    3. अपरिमित तत्त्व कैसा है?   4. अद्वैत सिद्धान्त क्या है?    5.  ईश्वर की भक्ति करने की क्या आवश्यकता है?   6. मुनि बालक और राजा की कहानी क्या सिखलाती है?   7. ईश्वर को क्या चाहिए? ईश्वर की सेवा कैसे करें?   8. गंगा सेवन कैसे करते हैं?    9. नवधा भक्ति की पांच भक्तियों में क्या है?   10. दमशील किसे कहते हैं?  हमारी इंद्रियाँ कैसे काम करती हैं?  मन कहाँ रहता है?  शिवनेत्र कहाँ है?    11. जीव कहाँ- कहाँ रहता है?    12. आँख के ऊपर कैसे जातें हैं?  सूक्ष्म जगत में कैसे जाते हैं? ब्रह्मांड में कब विचरण कर सकते हैं?   13. बैठे-बठे कैसे चलते हैं ? दम का साधन क्या है?  नवधा भक्ति की छठी भक्ति क्या हैं?    14. सातवीं भक्ति कैसे करें?    15.  नादानुसंधान की महिमा, शम और सम में अंतर, नादानुसंधान से क्या होता है?    16.  अष्टमी और नवमी भक्ति क्या है?  निर्गुण नाम- भजन और सगुण नाम भजन क्या है? भक्ति करने के लिए हमें क्या-क्या करना चाहिए? इत्यादि बातें। उपरोक्त विषयों में आपको जिस बिषय में पढ़ना है उतने नंबर के पाराग्राफ  में उसकी चर्चा की गयी है। जिससे प्रवचन समझने में सरस हो जाय। आइये प्रवचन पढ़े ं- 

प्रवचन करते गुरुदेव और सुनते हुए भक्तगण,
प्रवचन करते गुरुदेव

प्यारे विद्वानवृन्द तथा छात्रवृन्द !


इस प्रवचन के पहले भाग को पढ़ने के लिए 👉यहाँ दवाएं। 


प्रवचन नंबर 131 का शेषांश-


......गांधीजी तथा रामानुजाचार्यजी ने भी बताया है । इससे विपरीत अर्थ कोई करे, तो मानने योग्य नहीं है । आजादी - स्वतंत्रता तभी पूरी होती है, जब विषय-भोगों से हृदय को छुड़ाकर रखा जाता है। विषय-भोगों में आसक्त रहने से हानि ही होती है। आप सांसारिक कामों को भी करें, किंतु अनासक्त होकर, तो यही हमारे यहाँ की सांस्कृतिक शिक्षा है।

     1. परमात्मा जीवात्मा से कभी नहीं बिछुड़ता । कबीर साहब को इसका पूरा ज्ञान था । इसलिए वे कहते - 

'न पल बिछुड़ें पिया हमसे, न हम बिछुड़ें पियारे से ।' 

     अंत में उन्होंने कहा कि ईश्वर और अपने में से दूई का भाव मिटाओ। यह केवल विचार द्वारा नहीं होता है, प्रत्यक्षता से होता है । 'जानत तुम्हहिं तुम्हइ होइ जाई ।' 

     समष्टि रूप में परमात्मा और व्यष्टि रूप में जीवात्मा है। दोनों मिले ही रहते, किंतु जीव को यह ज्ञान नहीं होता। जब वह ध्यान करता है, तब उसकी प्रत्यक्षता होती है और द्वैत भाव मिटता है ।

आशीर्वाद मुद्रा में गुरुदेव,
आशीर्वाद मुद्रा में गुरुदेव

    2. आपकी परिषद् सदा कायम रहे और आध्यात्मिक पुस्तकालय भी हो। यों तो आपके महाविद्यालय में पुस्तकालय होगा ही । पुस्तकों के द्वारा तो ज्ञानार्जन होगा ही, साथ ही इसको अपने मस्तिष्क में भी रखें। हमारे प्यारे विद्यार्थीगण भी अध्यात्म-ज्ञान को अपने मस्तिष्क में रखें।

     3. आपस में जो पदार्थ उलटे - उलटे होते हैं तो उनके गुण भी उलटे - उलटे होते हैं । अपरिमित तत्त्व एक ही हो सकता है, दो नहीं । जहाँ दो ससीम मिलेंगे, वहीं दोनों ससीम हो जाएँगे। यदि कहें कि एक दूसरे में व्यापक है तो यह भी ठीक नहीं । क्योंकि यदि वह जिसमें व्यापक है, उसके कण- कण में भी व्यापक है, तब कहेंगे कि परमाणु भी उसी तत्व से निर्मित है। यदि आप कहें कि परमाणु छोड़कर व्यापक है, तब कहेंगे कि वहाँ पर असीम व्यापक कहाँ हुआ। वहीं ससीम हो जाएगा। अद्वैतवाद पर भी ऐसा प्रश्न है कि जिसका उत्तर चुप्पी है। 

     4. श्रीराम और वशिष्ठजी का संवाद 'योगवाशिष्ठ' में पढ़कर देखिए। वहाँ श्रीराम प्रश्न करते हैं तो वशिष्ठजी कुछ उत्तर नहीं देते हैं, चुप रहते हैं । श्रीराम पूछते हैं कि गुरुदेव ! आप रुष्ट तो नहीं हो गए हैं? वशिष्ठजी कहते हैं - इसका उत्तर ही चुप है । यथार्थतः व्यवहार में अद्वैत कभी सिद्ध नहीं हो सकता, सिद्धान्त में अद्वैत रहता है। शरीर ज्ञान में अद्वैत नहीं होता, आत्म-ज्ञान में अद्वैत होता है। सिद्धान्त सुनाने के लिए अद्वैत होता है

     5. ससीम जगत में रहते हुए किसी को कल्याण नहीं है। इसका उलटा असीम है। उसका गुण कल्याणमय होना चाहिए । इसलिए ईश्वर की भक्ति करनी चाहिए । ईश्वर की भक्ति करने की क्या आवश्यकता है?
मुनि बालक और शिकारी राजा, कहानी, छोटी कहानी,
मुनि बालक और शिकारी राजा

     6. एक कहानी है कि राजा जंगल शिकार खेलने गया। उन्होंने एक मुनि बालक को देखा, जो बहुत सुन्दर था। राजा ने उस बालक से कहा कि तुम मेरे साथ चलो। तुम वहाँ अच्छा-अच्छा खाना, अच्छा पहनना और अच्छे महल मे रहना । वह मुनि बालक बड़ा ज्ञानी था। उसने कहा- मुझे अच्छे-अच्छे खाना खिलाओ, तुम मत खाओ, मुझे अच्छे-अच्छे कपड़े पहनाओ तुम मत पहनो और मैं सोऊँगा, तुम जगकर मेरी पहरा करो। राजा ने कहा- ऐसा नहीं होगा। मैं जैसा खाना खाऊँगा, तुमको भी वैसा खिलाऊँगा, मैं सोऊँगा तो मेरी रक्षा पहरेदार करेगा, वैसे ही तुम सोओगे तो तुम्हारी रक्षा पहरेदार करेगा । मुनि - 'मुझे ऐसा मालिक नहीं चाहिए । बालक ने कहा- ' मेरा मालिक ऐसा है कि मुझे खिलाता है, स्वयं बिना खाए रहता है । मुझे कपड़ा पहनाता है, स्वयं कुछ नहीं पहनता, मैं सोता हूँ और वह जगकर पहरा करता है। ऐसे मालिक को छोड़कर तुम्हारे साथ में क्यों जाऊँ ।'

     7. ईश्वर को न कुछ खाने की, न पहनने की, न कोई ऐसी चीज की आवश्यकता है। तब उसकी सेवा कैसे कीजिएगा ? तब कहेंगे कि भगवान ने कहा है कि भक्तों के जल, पत्र, फूल को मैं ग्रहण करता हूँ, क्या इसको आप नहीं मानते ? मैं मानता हूँ, किंतु वह चीज उन्हीं की है और उन्हीं को देते हैं, जिसकी उनको कोई आवश्यकता नहीं है। हम गौ पालन करते हैं, घी, दूध, मालपूआ भगवान को चढ़ाते हैं और कहते हैं कि हम चढ़ाते हैं । सब किया हुआ भगवान का है। उपर्युक्त बाह्य पूजा का सार यह है कि उसके द्वारा भक्त अपना भाव भगवान को अर्पण करता है। इसके अतिरिक्त और प्रकार भक्ति है, भक्त को भगवन्त के दर्शन की जरूरत है, कुछ लेना-देना नहीं | भक्त पूजा करता है, ध्यान करता है और उसको पहचानता है, तो कहता है कि भगवान सदा से हमको अपनाए हुए हैं। किंतु भक्त जब नहीं भी जानता है, तब भी भगवान उसको अपनाए हुए रहते हैं, भगवान से बाहर कोई जा कहाँ सकता है ? 
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गंगा सेवन

     8. गंगा सेवन करने में लोग गंगाजल पान करते हैं, गंगा किनारे में टहलते हैं और कहते हैं कि गंगा सेवन करते हैं । औषधि सेवन करते हैं और रोगमुक्त होते हैं । औषधि और गंगा के सेवन की जरूरत आपको ही है, किंतु उनको आपके सेवन की जरूरत नहीं । उसी तरह ईश्वर को अपनी भक्ति करवाने की कोई आवश्यकता नहीं, भक्त अपने लिए करता है । ईश्वर इन्द्रियगम्य नहीं, आत्मगम्य है । इसलिए ऐसा यत्न हो कि इन्द्रियों से छूटना हो सके । इन्द्रियों से छूटने के लिए यत्न करते हुए जो अंतर- अंतर चलता है, वह ईश्वर की भक्ति करता है । जैसे कोई गंगा- स्नान के लिए जैसे-जैसे पैर आगे बढ़ाता है, वैसे-वैसे गंगा की भक्ति होती है। गंगा किनारे पहुँचकर गंगाजी का दर्शन कर, उसके वायु मण्डल में रह उसका जल पान कर, उसमें स्नान करके गंगाजी की पूरी सेवा होती है, उसी तरह ईश्वर की ओर चलते-चलते ईश्वर का दर्शन करके उसके प्रभाव और उसमें रहकर भक्ति पूरी होती है। रामचरितमानस में नवधा भक्ति बतलाई गयी है-

प्रथम भगति सन्तन्ह कर संगा। दूसरि रति मम कथा प्रसंगा ।।
    गुरुपद    पंकज    सेवा,   तीसरि भगति अमान । 
    चौथी भगति मम गुन गन, करइ कपट तजि गान ॥
मंत्र जाप  मम  दृढ़  विश्वासा । पंचम भजन सो वेद प्रकासा ।।

     9. वर्णित भक्तियों में मन लगाना ही प्रधान है। मन नहीं लगाने से भक्ति नहीं होती है । पाँचवीं भक्ति तक सरल है, उसके बाद छठी भक्ति है- 

छठ दम सील विरति बहु कर्मा । निरत निरंतर सज्जन धर्मा ।। 

शिवनेत्र, त्रिकुटी, दशम द्वार, आज्ञाचक्र,
शिवनेत्र

     10. दमशील कहते हैं इन्द्रिय - निग्रह के स्वभाववाले को । जानना चाहिए कि इन्द्रियाँ चलायमान कैसे होती हैं ? जाग्रत में विषयों की ओर इन्द्रियाँ चलती हैं, स्वप्न में बाह्य प्रत्यक्ष विषयों की ओर नहीं चलतीं । मन की धारा इन्द्रियों तक रहने से इन्द्रियाँ विषयों की ओर होती हैं । स्वप्न में बाह्य इन्द्रियों से मन की धारा सिमटती है । तब इन्द्रियाँ बाह्य विषयों में नहीं जातीं। इन्द्रियों में मन की धारा जाती है। इसका केन्द्र कहाँ है? आज्ञाचक्र में हैं । आज्ञाचक्र के नीचे पाँच चक्र और हैं । आज्ञाचक्र छठा चक्र है । इसके मध्य में शिवनेत्र है शिवनेत्र में मन का बासा है। ब्रह्मोपनिषद् में लिखा है-     

        नेत्रस्थं जागरितं विद्यात्कण्ठे स्वप्नं समाविशेत् । 
        सुषुप्तं   हृदयस्थं  तु तुरीयं    मूर्ध्निसंस्थितम् ।। 

     11. अर्थात् जीव का वासा जाग्रत में नेत्र में, स्वप्न में कण्ठ में, सुषुप्ति में हृदय में और तुरीयावस्था में मस्तक में होता है। यदि आँख में वासा नहीं रहे तो हम कुछ नहीं देख सकते। आँख से देखते भी हैं और इन्द्रियों से काम भी करते हैं । तन्द्रावस्था में शक्ति भीतर में सिमटती है और धीरे-धीरे स्वप्न में चली है। बाहर की इन्द्रियाँ निश्चेष्ट हो जाती हैं । स्वप्न में कभी-कभी मुँह से भी बोल देते हैं, किंतु उसका ज्ञान आपको नहीं होता । स्वर आप बोल सकते हैं, किंतु व्यंजन बिना स्वर के नहीं बोले जा सकते। कण्ठ स्वर का स्थान है। इसलिए स्वप्न में कण्ठ में रहते हैं। उसके बाद सुषुप्ति में हृदय में चले जाते हैं, वहाँ स्वर नहीं है, व्यंजन है । इसलिए वहाँ कुछ बोल नहीं सकते। यहाँ द्वादश दल कमल का होना बताया जाता है। कण्ठ में षोडस दल कमल है। एक-एक अक्षर के स्थान को कमल का एक-एक दल कहते हैं । जाग्रत में आँख में, स्वप्न में कण्ठ में और सुषुप्ति में हृदय में वासा होता है। तुरीय में मूर्द्धा में वासा होता है।  

जीव का निवास कहाँ होता है, किस अवस्था में जीव कहाँ रहता है
जीव का निवास

     12इन्द्रियों को काबू में लाने के लिए आपको क्या करना चाहिए ? आँख से नीचे रोज उतरते हैं, किंतु इन्द्रियाँ काबू नहीं होतीं । इसलिए इसके उलटे अर्थात् आँख के ऊपर जाइए । ख्याल से आँख के ऊपर जाना नहीं होगा। इसके लिए युक्ति है। युक्ति से अपने को आज्ञाचक्र में स्थिर रखिए। जब आप गुरु के द्वारा बतायी गयी युक्ति से विन्दुविशेष पर दृष्टिधारों को समेट लेंगे, तब मन का पूरा सिमटाव हो जाएगा। जब मन का पूरा सिमटाव हो जाएगा तो अनिवार्य रूप से उसकी ऊर्ध्वगति होगी । ऊपर होने से आप मूर्द्धा में होंगे। तब आपको बाह्य इन्द्रियों के ज्ञान से छुट्टी मिलेगी। जैसे स्थूल शरीर में रहते हुए आप बाहर संसार के स्थूल जगत पर विचरते हैं, उसी तरह पिण्डस्थ सूक्ष्म शरीर में रहकर आप सूक्ष्म जगत में विचरिएगा। यह है ब्रह्माण्ड में प्रवेश करना। इसका विशेष अभ्यास करने पर इन्द्रियों पर काबू होगा। आप तो अंतर में रहेंगे, बाहर की इन्द्रियाँ निश्चेष्ट रहेंगी। इसी को कहा है कि अपने अंदर में स्थिर होने पर गति होती है।

 'बैठे ने रास्ता काटा, चलते ने बाट न पायी ।' 

     13. यही छठी भक्ति है । यह 'दम' का साधन है। योगशास्त्र में 'दम' और 'शम' का बहुत महत्त्व है । योगशास्त्र के असली पदार्थ ये दो ही हैं। 'दम' के साधन में मन और इन्द्रियों का साधन संग-संग होता है और 'शम' के साधन में केवल मन का । अपने को नयनाकाश के तल पर दृष्टि के प्रयोग से स्थिर करना होगा । दृष्टि के साथ-साथ इन्द्रियों की सभी धारें मिली-जुली हैं । जैसे दोनों हाथों से किसी चीज को पकड़ने से समूचे शरीर का बल उस ओर फिर जाता है, उसी तरह दोनों दृष्टियाँ जहाँ दृढ़तापूर्वक स्थिर होकर रहेंगी, समूचे शरीर की चेतनधारा उधर उलट और सिमट जाएगी। मेसमेराइजर लोग दृष्टि का प्रभाव डालकर काम करते हैं । अजगर साँप दृष्टि से दृष्टि लगाकर ही खींचता है। बिजली गिरते देखने से शरीर की चेतना - शक्ति खिंच जाती है और वह मर जाता है। इसलिए दृष्टि का साधन अच्छी तरह होना चाहिए ।

     14. सातवीं भक्ति के लिए आंतरिक नाद का अभ्यास करो। वह ब्रह्मध्वनि है। वहाँ केवल मन ही लगता है और जाता है। बाहरी इन्द्रियाँ न लगती हैं और न जाती हैं। नाद साधन में बड़ी शान्ति आती है और चंचलता दूर होती है।   

नास्ति नादात्परो मंत्रो न देवः स्वात्मनः परः ।
नानुसंधेः परा पूजा न हि तृप्तेः परं सुखम् ।। 

     अर्थात् नाद से बढ़कर कोई मंत्र नहीं है, अपनी आत्मा से बढ़कर कोई देवता नहीं है, (नाद वा ब्रह्म की) अनुसन्धि (अन्वेषण वा खोज) से बढ़कर कोई पूजा नहीं है तथा तृप्ति से बढ़कर कोई सुख नहीं है - 'ननाद सदृशो लयः । ' - शिव संहिता 

नादविन्दूपनिषद् में है—

मनोमत्त   गजेन्द्रस्य   विषयोद्यानचारिणः । 
       नियामन समर्थोऽयं निनादो निशितांकुशः ।।
नादोऽन्तरंग   सारंग   बन्धने  वागुरायते । 
                 अन्तरंग समुद्रस्य रोधे   वेलायतेऽपि   वा ।। 

    अर्थात् नाद मदान्ध हाथीरूप चित्त को, जो विषयों की आनंदवाटिका में विचरण करता है, रोकने के लिए तीव्र अंकुश का काम करता है। मृगरूपी चित्त को बाँधने के लिए यह (नाद) जाल का काम करता है । समुद्र तरंग रूपी चित्त के लिए यह (नाद) तट का काम करता है ।

नवधा भक्ति, शवरी और श्री राम की भक्ति, नौ भक्ति का वर्णन
नवधा भक्ति

      15. नाद की बड़ी तारीफ है। संतों ने नाद- साधन पर बड़ा जोर दिया है, किंतु नाद-साधन तब किया जाता है, जब भीतर में प्रवेश करने का अभ्यास कुछ-न-कुछ हो । नाद - साधन को शब्द-साधन भी कहते हैं। इसमें केवल वृत्ति लगाकर रहते हैं, यही 'शम' का साधन है। कितने कहते हैं कि नवधा भक्ति में 'शम' नहीं है, 'सम' है। 'सम' का अर्थ 'समता' होता है। बिना 'शम' साधन के किए समता नहीं हो सकती है। समत्व को योग कहते हैं । समत्व समाधि में प्राप्त होता है, गीता में कहा है। जहाँ मनोनिग्रह नहीं है, वहाँ समत्व कैसे हो सकता है। नादानुसन्धान से मन का पूरा सिमटाव होगा। इतना सिमटाव होगा कि मन, मन ही नहीं रहेगा, केवल निर्मल सुरत रहेगी। वही उस नाद को सुनेगी । उस शब्द को पकड़ने से या उससे पकड़ा जाने पर वह उस ओर खिंच जाएगा। जैसे लोहा, जो चुम्बक से पकड़ा जाता है, चुम्बक के केन्द्र में खिंच जाता है। चुम्बक से लोहे को छुड़ाया भी जा सकता है, किंतु उस नाद से चेतन आत्मा के पकड़े जाने पर उसको कोई छुड़ा नहीं सकता। वज्राघात होने पर भी नहीं छूट सकता। इसीलिए कहा है-

सोवत-जागत   उठत-बैठत,    टुक    विहीन    नहिं   तारा। 
झिन - झिन जंतर निशि दिन बाजै, जम जालिम पचिहारा ।। 

     16. यही भक्ति है। उसके बाद आठवीं और नवमी भक्ति तो उसके गुण हो जाते हैं । साधन तो नादानुसंधान तक है। निर्गुण नाम- भजन से ही वहाँ तक पहुँचा जाता है। मुँह, कान और मन सगुण है, इनसे निर्गुण नाद ग्रहण नहीं हो सकता। पहले सगुण नाम को जपते हैं, फिर निर्गुण नाद को ग्रहण करते हैं । आप जप कीजिए, पूजा कीजिए, किंतु मन उसी ओर रहे। पूजा पाठ मन को एकओर करने के लिए है। बाहरी पूजा, जप भी ऐसी चीज नहीं है कि आध्यात्मिकता में उसकी कोई आवश्यकता नहीं । जप, प्रार्थना, स्तुति, प्रेयर (Prayer) सब कुछ कीजिए, मन की एकाग्रता के लिए कीजिए । मन की एकाग्रता के लिए प्राणायाम की भी उपादेयता मानी जाती है और यह बिना प्राणायाम के भी हो सकती है। प्राणायाम में कुछ विघ्न भी है, उसको छोड़कर केवल ध्यान कीजिए तो कोई हानि नहीं । कबीर साहब ने कहा है- पासहिं बसत हजूर तू चढ़त खजूर है ।

     संस्कृति अच्छी होनी चाहिए। अच्छी संस्कृति के लिए झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार नहीं करो।

     प्यारे विद्यार्थियो ! विद्या सीखो, पास या परीक्षोत्तीर्ण होना क्या है ? जो विद्या पढ़ेगा, पास उसका गुलाम है। कितने लोग साधु के पास जाते हैं कि पास करा दो। यदि आपकी योग्यता पास की नहीं है, तो साधु भी तो इन्साफ करता है, वह कैसे आपको पास करावेगा । इसलिए मन से पढ़िए, अच्छे मन से पढ़िए। आपके अच्छे मकसद पूरे हों, यही मैं चाहता हूँ। n


प्रवचन नंबर 132 को पढ़ने के लिए 👉  यहाँ दवाएं। 


नोट-  इस प्रवचन में निम्नलिखित रंगानुसार और विषयानुसार ही  प्रवचन के लेख को रंगा गया या सजाया गया है। जैसे-  हेडलाइन की चर्चा,   सत्संग,   ध्यान,   सद्गगुरु  ईश्वर,   अध्यात्मिक विचार   एवं   अन्य विचार   । 


इसी प्रवचन को "महर्षि मेँहीँ सत्संग सुधा सागर"  में प्रकाशित रूप में पढ़ें- 

S131 पेज नंबर5
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S131 पेज नंबर7
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S131 पेज नंबर8
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     प्रभु प्रेमियों ! गुरु महाराज के इस प्रवचन का पाठ करके आपलोगों ने जाना कि योगीजन जगते हैं - नादानुसंधान की महिमा, नादानुसंधान के बारे में, नादानुसंधान का महत्व, अन्तर्यात्रा में नादानुसंधान, नादानुसंधान या अनहद नाद क्या हैं, नादानुसंधान से आप क्या समझते हैं, नाद योग क्या होता है, जीव कहाँ रहता है? पृथ्वी पर अधिकांश जीव कहाँ रहते हैं? जीव क्या होता है? जीव का धर्म क्या है? गंगा नदी के बारे में, गंगा नदी का महत्व   इत्यादि बातें।  इतनी जानकारी के बाद भी अगर कोई संका या प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस प्रवचन के बारे में अपने इष्ट मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने इससे आपको आने वाले प्रवचन या पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहेगी। उपर्युक्त प्रवचन का पाठ निम्न वीडियो में किया गया है। जय गुरु महाराज!!!! 




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