MS18 महर्षि मेँहीँ सत्संग सुधा-सागर
प्रभु प्रेमियों ! 'महर्षि मेँहीँ सत्संग सुधा-सागर' Santamat-satsang ke prachaaraarth bhaarat aur nepaal ke shaharon sthanon mein deeye gaye pravachanon ka sankalan hai. MS18 . महर्षि मेँहीँ सत्संग - सुधा सागर भाग 1 - इसका प्रथम प्रकाशन वर्ष 2004 ई0 है. इसमें गुरु महाराज के 323 प्रवचनों का संकलन है। इन प्रवचनों का पाठ करके ईश्वर, जीव ब्रह्म, साधना आदि आध्यात्मिक विषयों का ज्ञान हो जाता है।
'महर्षि मेँहीँ साहित्य सीरीज' की सतरहवीं पुस्तक "MS17 महर्षि मेँहीँ - वचनामृत , प्रथम खंड || 16 प्रवचनों में ध्यानाभ्यास, सदाचार, सद्गुरु इत्यादि व्यवहारिक ज्ञान भी है।" के बारे में जानने के लिए 👉 यहां दवाएं.
महर्षि मेँहीँ सत्संग सुधा-सागर की महत्वपूर्ण बातें
प्रभु प्रेमियों ! ' संतों के हृदय में पायी जाती हैं - ' लोककल्याण की कामना । ' इसीलिए संत का लक्षण बतलाते हुए गोस्वामी तुलसीदासजी को कहना पड़ा- ' विश्व उपकारहित व्यग्रचित सर्वदा ' और ' पर उपकार वचन मन काया ' । संतों की सिद्धावस्था के बाद का जीवन ' सत्य धर्म की संस्थापना के द्वारा लोककल्याण ' के लिए पूर्णत : समर्पित हो जाता है । इसी सार्वभौमिक सिद्धान्त के साकार रूप थे- सद्गुरु महर्षि में ही परमहंस जी महाराज | अध्यात्म विज्ञान पर गंभीर प्रयोग कर उन्होंने ईश्वर प्राप्ति का जो शुद्ध , सत्य , संक्षिप्त और निरापद मार्ग उद्घाटित किया , उसे जन - जन तक पहुँचाने के लिए उन्होंने गंभीर कष्ट सहा । जाड़ा , गर्मी और बरसात का विकट मौसम , देहात की ऊँची - नीची कच्ची सड़कें , बैलगाड़ी की सवारी , कभी पैदल यात्रा , रहने को टूटी - फूटी झोपड़ी , पीने को नदी का जल तथा खाने को रूखा - सूखा भोजन ; फिर भी चेहरे पर गहरा संतोष और बाल सुलभ आनन्द , यह थी सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज की परोपकार रत भावना का प्रत्यक्ष प्रमाण।
संत साकार ब्रह्म होने के कारण उनकी वाणी को ब्रह्मवाणी कहना अयुक्त नहीं है । महर्षि में ही सत्संग - सुधा - सागर उन्हीं ब्रह्मवाणी का संकलन है । वह ब्रह्मवाणी क्या है ? अमरता प्रदान करनेवाला अमृत ही है , जो महर्षि में हीँ परमहंसजी महाराज के श्रीमुख से प्रवचन के क्रम में निःसृत हुआ करता था । जो व्यक्ति इस ज्ञानामृत का प्रसाद ग्रहण करेंगे , वे अंधकार से प्रकाश में , असत् से सत् में और मृत्यु से अमृत में प्रतिष्ठित होकर सर्वसुख-शांति के भागी होंगे ।
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महर्षि साहित्य सीरीज की अगली पुस्तक है- MS19
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प्रभु प्रेमियों ! ' संतों के हृदय में पायी जाती हैं - ' लोककल्याण की कामना । ' इसीलिए संत का लक्षण बतलाते हुए गोस्वामी तुलसीदासजी को कहना पड़ा- ' विश्व उपकारहित व्यग्रचित सर्वदा ' और ' पर उपकार वचन मन काया ' । संतों की सिद्धावस्था के बाद का जीवन ' सत्य धर्म की संस्थापना के द्वारा लोककल्याण ' के लिए पूर्णत : समर्पित हो जाता है । इसी सार्वभौमिक सिद्धान्त के साकार रूप थे- सद्गुरु महर्षि में ही परमहंस जी महाराज | अध्यात्म विज्ञान पर गंभीर प्रयोग कर उन्होंने ईश्वर प्राप्ति का जो शुद्ध , सत्य , संक्षिप्त और निरापद मार्ग उद्घाटित किया , उसे जन - जन तक पहुँचाने के लिए उन्होंने गंभीर कष्ट सहा । जाड़ा , गर्मी और बरसात का विकट मौसम , देहात की ऊँची - नीची कच्ची सड़कें , बैलगाड़ी की सवारी , कभी पैदल यात्रा , रहने को टूटी - फूटी झोपड़ी , पीने को नदी का जल तथा खाने को रूखा - सूखा भोजन ; फिर भी चेहरे पर गहरा संतोष और बाल सुलभ आनन्द , यह थी सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज की परोपकार रत भावना का प्रत्यक्ष प्रमाण।
संत साकार ब्रह्म होने के कारण उनकी वाणी को ब्रह्मवाणी कहना अयुक्त नहीं है । महर्षि में ही सत्संग - सुधा - सागर उन्हीं ब्रह्मवाणी का संकलन है । वह ब्रह्मवाणी क्या है ? अमरता प्रदान करनेवाला अमृत ही है , जो महर्षि में हीँ परमहंसजी महाराज के श्रीमुख से प्रवचन के क्रम में निःसृत हुआ करता था । जो व्यक्ति इस ज्ञानामृत का प्रसाद ग्रहण करेंगे , वे अंधकार से प्रकाश में , असत् से सत् में और मृत्यु से अमृत में प्रतिष्ठित होकर सर्वसुख-शांति के भागी होंगे ।
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Reviewed by सत्संग ध्यान
on
12/25/2025
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