महर्षि मेँहीँ सत्संग सुधा सागर / 118 ग
अंत:करण की शुद्धि कैसे होती है ?
शेष प्रवचन --
जैसे दवाई की मात्रा के अनुसार दवाई - सेवन करते हैं , इसी तरह संसार में रहने के लिए दवाई के रूप में विषयों का उपभोग कीजिए , उसमें आसक्त नहीं होइए।
20. संत लोग जो कहते हैं , उनके अनुकूल चलना चाहिए । यदि भला भी होना चाहो और बुराई भी करो तो कैसे हो सकता है । इत्रदान में गोबरवाली अंगुलि देना ठीक नहीं ।
ईश्वर का भजन करना चाहते हो, तो अपने अंत:करण को शुद्ध करो । अंत:करण को शुद्ध करने के लिए अपने को पापों से बचाओ । पापों से बचने के लिए झूठ छोड़ो । झूठ ऐसा झोला है , जिसमें सब पाप छिपा रहता है ।
कोई पाप चुराकर करो तो वह प्रकट हो जाएगा । रामकृष्ण परमहंसजी ने कहा है कि पाप और पारा को कोई हजम नहीं कर सकता है । जैसे कोई छिपकर पारा खा ले तो वह शरीर को फोड़कर निकल जाता है । उसी तरह से छिपकर किया हुआ पाप भी कभी-न-कभी प्रगट हो ही जाता है । चोरी , नशा , हिंसा , व्यभिचार मत करो ।
21. स्त्री - पुरुष का अनैतिक संबंध जोड़ना व्यभिचार है । वैवाहिक मर्यादा को तोड़कर अनैतिक संबंध जोड़ने- वाली नारी व्यभिचारिणी है और अनैतिक संबंध जोड़नेवाला पुरुष व्यभिचारी है ।
भाँग तम्बाकू छूतरा, अफयूँ और शराब । कह कबीर इनको तजै , तब पावै दीदार ।।
इतना ही नशा नहीं है ।
झूठ को तुरत छोड़ो । ऐसा नहीं कि आज पाँच झूठ बालते हैं , तो कल चार झूठ बोलेंगे ।
23. हिंसाओं से बचो । अष्टघातक मनुजी ने बताए हैं-
अर्थात् १. पशुवध की आज्ञा प्रदान करनेवाला , २. शस्त्र से मांस काटनेवाला , ३. मारनेवाला , ४ . बेचनेवाला , ५. मोल लेनेवाला , ६. मांस पकानेवाला , ७. परोसने के लिए लानेवाला , ८. खानेवाला ; ये आठो घातक हिंसा करनेवाले ही कहलाते हैं । हिंसा के सिलसिले में मत्स्य-मांस नहीं खाओ । दूसरी बात यह है कि आपका शरीर पवित्र है और पशु- पक्षी का शरीर अपवित्र है । पवित्र शरीर में अपवित्र जीव-जन्तुओं का मांस लेना ठीक नहीं । संसार में इतने मीठे-मीठे फल हैं, मिठाइयाँ हैं कि मनुष्य उतने खा नहीं सकते ।
24. हिंसा दो तरह की है - वार्य और दूसरा अनिवार्य । वार्य हिंसा से बचा जा सकता है । अनिवार्य हिंसा से कोई बच नहीं सकता । कृषि कर्म में जो हिंसा होती है , वह अनिवार्य है । कृषि द्वारा यदि अन्न का उत्पादन नहीं हो, तो लोग भूखों मर जायें । लोग कहा करते हैं कि बिना मत्स्य-मांस खाए शरीर स्वस्थ नहीं रहता ; लेकिन इस विचार को महात्मा गांधी ने नहीं माना ।
25. एक बार कस्तूरबा गांधी बीमार हो गई थी । उनको इतनी कमजोरी आ गई थी कि जिसके लिए डॉक्टर ने गोश्त का शिरवा खाने के लिए कहा था । गांधीजी ने कहा ' कस्तूरबा स्वतंत्र है , वे अपनी जीवनरक्षा के लिए गोश्त का शिरवा लेना चाहें , ले सकती हैं । ' लेकिन जब महात्मा गांधी ने उनसे पूछा तो कस्तूरबा गांधी ने कहा - ' मैं आपकी गोद में मर जाऊँगी , लेकिन गोश्त का शिरवा नहीं खा सकती । ' गांधीजी ने स्वयं कस्तूरबा का प्राकृतिक इलाज किया , जिससे वे बहुतांश में स्वस्थ हो गई । लेकिन भोजन में नमक का छोड़ना आवश्यक था । कस्तूरबा गांधी छोड़ने में असमर्थ थी । महात्मा गांधी ने कहा ' अब मैं भी नमक नहीं खाऊँगा । ' उन्होंने स्वयं नमक खाना छोड़ दिया । लाचार होकर कस्तूरबा ने भी नमक खाना छोड़ दिया । फिर वे पूर्ण स्वस्थ हो गई ।
मांस-मछली खाने से बलवान होंगे , यह बात मानने योग्य नहीं । मथुरा के चौबे मत्स्य - मांस नहीं खाते । उनका थप्पड़ किसी को कान में लग जाय , तो बहरा ही बना देगा । मारवाड़ी लोग आपके यहाँ हैं । वे मत्स्य - मांस नहीं खाते , कितने अच्छे - अच्छे शरीरवाले हैं । बिना मत्स्य - मांस के ही उनके रोगों का इलाज होता है ।
26. किसी के घर में चोर - डाकू आवे तो उससे लड़ना चाहिए । देश के काम के लिए हमारे योग्य बलवाले उस दुष्ट को रोकें । जिस हिंसा की मनाही है , वह वार्य हिंसा के लिए है , अनिवार्य हिंसा से बचने के लिए नहीं । शौक से हिंसा मत करो । बकरे मारनेवाले को देखा कि मरने के छह महीने पूर्व उनको ऐसा भ्रम होने लगा कि बकरी सींग से मारने आती है । एक शौकीन हिंसा करनेवाले के लिए दो लाख रुपये खर्च किए गए , लेकिन वे बचे नहीं । कर्मफल अमिट है । संत कबीर साहब ने यह कहा है --
कहता हूँ कहि जात हूँ, कहा जो मान हमार । जाका गर तू काटिहौ , सो फिर काट तोहार ॥ मांस मछरिया खात है , सुरा पान से हेत । सो नर जड़ से जाहिंगे , ज्यों मूरी की खेत ॥ यह कूकर को खान है, मानुष देह क्यों खाय । मुख में आमिख मेलता , नरक पड़े सो जाय ॥
27. किसी की चीज बिना उसके दिए मत लो । चोरी-डकैती मत करो। पंच पापों से यदि बचकर रहो , तो देश में चैन हो जाय ।पाप करने के कारण ही देश में चैन नहीं है। चोरी डकैती व्यभिचार आदि पाप करते रहने से कैसे चैन हो सकता है ? भारत में पहले घर में ताला नहीं लगाया जाता था । आज क्या हो गया है ? स्वराज्य हुआ , लेकिन सुराज नहीं हुआ है । पंच पापों को छोड़िए और ईश्वर - भजन कीजिए । तभी कल्याण होगा ।
28. संतों ने सबके उपकार के लिए कहा है । पसंद पड़े तो कीजिए , नहीं पसंद हो तो नहीं कीजिए । उसका जो फल होगा , वह भोगिए । मेरा कोई बल नहीं है कि जबर्दस्ती कहेंगे कि कीजिए ही । ∆
(यह प्रवचन पुरैनियाँ जिलान्तर्गत महर्षि मेँहीँ नगर, कुशहा तेलियारी ग्राम में दिनांक २८.६.१९५५ ई ० को अपराह्नकालीन सत्संग में हुआ था । )
नोट- इस प्रवचन में निम्नलिखित रंगानुसार और विषयानुसार ही प्रवचन के लेख को रंगा गया या सजाया गया है। जैसे- हेडलाइन की चर्चा, सत्संग, ध्यान, सद्गगुरु, ईश्वर, अध्यात्मिक विचार एवं अन्य विचार ।
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