संतमत और बेदमत एक है, कैसे? अवश्य जाने
संतवाणी अध्ययनरत गुरुदेव |
सद्गुरु महर्षि मेंहीं की दृष्टि में वेद दर्शन योग
जम्बूद्वीपान्तर्गत भरतखण्ड - निवासी आर्यों के धर्मग्रन्थ का नाम वेद है । यह ग्रन्थ इतना प्राचीन है कि संसार का कोई भी ग्रंथ इसको प्राचीनता को • बराबरी का नहीं सुना जाता है । भारत का यह अति • प्रतिष्ठित धर्मग्रन्थ चार नामों से विख्यात है - ऋग्वेद , सामवेद , यजुर्वेद और अथर्ववेद ; ये ही चार वेद कहकर प्रसिद्ध हैं । जो पवित्र भावात्मक विचार इन चारों में वा इनमें से किसी एक में भी नहीं मिले भारतीय आर्य उसे धर्ममय नहीं मानते । वेदों के ज्ञाता पहले भी कम थे और अब भी कम हैं । ये चारों वेद संहिताएं बहुत भव्य और अति विशाल वाङ्मय हैं । पुस्तक रूप में इनका दर्शन भी बहुत लोगों को पहले भी अति दुर्लभ था और अब भी उनको अति दुर्लभ नहीं तो दुर्लभ अवश्य है ।
लड़कपन में ही मेरी रुचि भगवद्भक्ति , ज्ञान और ध्यान की ओर हो गई थी । हो सकता है कि यह मेरे पूर्व जन्म के संस्कार के कारण हो , क्योंकि लड़क पन में मुझे उस प्रकार का संग नहीं था । मैं उपयुक्त विषयों का खोजी विद्याध्ययनकाल से ही था । विद्यालय छोड़कर वैरागी भेष धर मेंने कथित विषयों का विशेष खोजी बना ।
जहाँ - तहां स्वल्प भ्रमण कर अन्वेषण करने पर कुछ लोगों से विदित हुआ कि कबीर साहब और गुरु नानक साहब और विहारी दरिया साहब आदि सन्तों का धर्मज्ञान - विचार वेदज्ञान से ऊँचा है और इन सन्तों के अनुयायियों के अतिरिक्त दूसरे वेद विद्यावाले महाशयों से विदित हुआ कि उपयुक्त संतों का ज्ञान वेदानुकूल नहीं है और श्रद्धा - योग्य नहीं है ।
मैं सन्तों के ज्ञान को अपना चुका था और चाहता था कि वेदों का भारती भाषा में अनुवाद सहित मूलग्रन्थ भी मिले तो निज से पढ़कर जानें कि विदित किये गये दोनों पक्षों में से किस पक्ष का कहना यथार्थ है । मैं सन्तों को वाणी में उनके ज्ञान की उत्कृष्टता का बोध करता और सोचता कि यह परमोत्कृष्ट ज्ञान , क्या वेद में नहीं है ? क्या वेद इस ज्ञान से हीन है ? और यह परमोत्कृष्ट ज्ञान श्रद्धा करने योग्य क्यों नहीं हे ? अपने इन प्रश्नों के उत्तर के लिये मैं यही बोध करता कि मुझको चाहिये कि में स्वयं वेदों का दर्शन करू और उनके अर्थों को ।
पहले मुझको लोक मान्य बालगंगाधर तिलक महोदय जी का गीता रहस्य पढ़ने को मिला , जिसमें लिखा पाया- " सारे मोक्षधर्म के मूलभूत अध्यात्म - ज्ञान की परम्परा हमारे यहाँ उपनिषदों से लगाकर ज्ञानेश्वर , तुकाराम , राम दास , कबीरदास , सूरदास , तुलसीदास इत्यादि आधु निक- साधु पुरुषों तक अव्याहत चली आ रही है " ( पू ० २५० ) | यह पढ़कर में बड़ा प्रसन्न और सन्तुष्ट हुआ । फिर मेरे परम प्रेमी और पूर्ण विश्वासपात्र स्वामी आत्मारामजी ( पूर्वनाम पंडित वैदेहीशरण दूबे जी ) ने कुछ मंत्रों को भाषा अर्थ सहित ' वैदिक विहङ्गम योग ' के नाम से छपवाया । इस छोटी अच्छो पुस्तिका को मैंने पढ़ा । मेरे एक मित्र ने मुझे ३२ उपनिषदों के अंग्रेजी अनुवाद का एक ग्रन्थ दिया । कठ , केन आदि कई उपनिषदों का एक संकलन बंगला अनुवाद सहित मिला ।
भारती भाषा में अनुवाद सहित छान्दोग्यादि कई उपनिषद् मेरे परम प्यारे श्री बाबू बुद्ध कुंवर जो सत्संगी अध्यापक महाशय ने दों ओर ११२ उपनिषदों का एक समुच्चय केवल मूल संस्कृत में , मैंने मुरादाबाद निवासी पूज्य पण्डित ज्वालादत जी षट्शास्त्री महोदय जी के परामर्शानुसार हरिद्वार में खरीद लिया । इन सबको मैंने पढ़ डाला और इन सबमें से उत्तमोत्तम ज्ञान - ध्यान की बातें संकलन कर उन्हें ' सत्संग - योग ' नाम की पुस्तक में छपवा दिया , जिसका प्रथम प्रकाशन सन् १९४० ई ० में हुआ ।
कबीर - पंथ के एक विद्वान् महन्त महोदय जो का लेख ' कल्याण पत्र के विक्रम संवत् १९९३ के विशेषाङ्क ' वेदान्ताङ्क ' में निकला , जो निम्नलिखित है - ( लेखक - महन्त श्री रामस्वरूप दास जी , गुरु शान्ति साहब ) – " महात्मा कबीरदास एक बहुत बड़े लोकशिक्षक थे । उन्होंने मनुष्य समाज को सत्य धर्म की शिक्षा देने की जीवन भर चेष्टा की । ओर सत्य . धर्म वेदान्त ही है , इसमें कोई सन्देह नहीं । फिर भी कबीर साहित्य से अनभिज्ञ कितने ही लोगों का मह कहना है कि कबीर साहब ने वेद और वेदान्त को नहीं माना है । परन्तु ऐसा कहना अपनी मनभिज्ञता का परिचय देने के सिवा और कुछ नहीं । कबीर साहब एक . स्थल में कहते हैं-
" वेद पुरान कहो किन झूठा , झूठा जो न विचारा । "
इन सबको पढ़कर में इस विश्वास पर पहुंचा कि कथित सन्तगप्प का ज्ञान वेदबाह्य और और अश्रद्धा करने योग्य नहीं है । इन सन्तों ने वेदों से भी ऊंचे ज्ञान का कथन कर संसार में प्रचार किया ' है ' - यह बात विशेष अनुसन्धान नहीं करने के कारण ही कही गई है । यथार्थ में सन्तों का ज्ञान वेदों में है -ही ।
वेद-दर्शन-योग |
इस परिणाम पर आने पर भी मैं उत्सुक था कि में चारों वेदों का भारती भाषा में अनुवाद सहित दर्शन करू और उन्हें पढ्ं। अन्त में उपर्युक्त अपने परम प्रिय स्वामी आत्माराम जी के कहने पर मैंने अजमेर निवासी आयं पण्डित जयदेवजी शर्मा , विद्यालङ्कार मीमांसातीर्थ महोदय के पास से उन्हीं के द्वारा चारों वेदसंहिताओं के किये हुए भाषा - भाष्य को मूल सहित मँगाया । ये चौदह जिल्दों में हैं । में इन सबको पढ़ गया और इनमें से जो संग्रह किया , वही वेद - दर्शन - योग ' के नाम से प्रकाशित किया गया है ।
सांप्रदायिक एकता पर लेख |
महर्षि मेंहीं सत्संग-... |
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