महर्षि मेँहीँ सत्संग सुधा सागर / 01
संतों के अनुसार ईश्वर स्वरूप और अन्य आवश्यक बातें--
प्रवचन करते गुरुदेव |
1. संतमत में ईश्वर की स्थिति का बहुत दृढ़ता के साथ विश्वास है ; परन्तु उस ईश्वर को इन्द्रियों से जानने योग्य नहीं बताया गया है । वह स्वरूपतः अनादि और अनंत है , जैसा कि संत सुन्दरदासजी ने कहा है-
आदि न अन्त सुमध्य कहाँ है ।
2. किसी अनादि और अनंत पदार्थ का होना बुद्धि - संगत प्रतीत होता है । मूल आदि तत्त्व कुछ अवश्य है । वह मूल और आदि तत्त्व परिमित हो ससीम हो , तो सहज ही यह प्रश्न होगा कि उसके पार में क्या है ? ससीम को आदि तत्त्व मानना और असीम को आदि तत्त्व न मानना हास्यास्पद होगा ।
अखिल अमोघ सक्ति भगवन्ता ॥
अगुन अदभ्र गिरा गोतीता ।
सब दरसी अनवय अजीता ।
निर्मल निराकार निर्मोहा ।
नित्य निरंजन सुख संदोहा ॥
प्रकृति पार प्रभु सब उरवासी ।
ब्रह्म निरीह विरज अविनासी ॥
उपर्युक्त चौपाइयों में मूल आदि तत्त्व का वर्णन गोस्वामी तुलसीदासजी ने किया है । संतों ने उसे ही परमात्मा माना है । गुरु नानकदेवजी ने कहा है-
संतों का यह विचार है कि जो सबसे महान है , जो सीमाबद्ध नहीं है , उससे कोई विशेष व्यापक हो , सम्भव नहीं है । जो व्यापक - व्याप्य को भर कर उससे बाहर इतना विशेष है कि जिसका पारावार नहीं है , वही सबसे विशेष व्यापक तथा सबसे सूक्ष्म होगा । यहाँ सूक्ष्म का अर्थ ' छोटा टुकड़ा ' नहीं है , बल्कि ' आकाशवत् सूक्ष्म ' है । जो सूक्ष्मातिसूक्ष्म है , उसको स्थूल या सूक्ष्म इन्द्रियों से जानना असम्भव है ।
4.जो जितना विशेष व्यापक होता है , वह उतना ही सूक्ष्म होता है । परमात्मा अपनी सर्वव्यापकता के कारण सबसे विशेष सूक्ष्म है । स्थूल यंत्र से सूक्ष्म तत्त्व का ग्रहण नहीं हो सकता है । एक बहुत छोटी घड़ी के महीन कील - काँटों को बढ़ई और लोहार की सँड़सी , पेचकश आदि मोटे - मोटे यंत्रों से घड़ी में बिठाने और निकालने के काम नहीं हो सकते उसके लिए यंत्र भी महीन ही होते हैं ।
5. हमारी भीतरी और बाहरी सब इन्द्रियाँ - नेत्र , कर्ण , नासिका , जिह्वा , त्वचा , मुख , हाथ , पैर , गुदा और लिंग - बाहर की इन्द्रियाँ तथा मन , बुद्धि , चित्त और अहंकार - अन्तर की इन्द्रियाँ ; सब - की - सब उस दर्जे की सूक्ष्म नहीं हैं जो परमात्म - स्वरूप को ग्रहण कर सकें । ये तो परमात्मा की सूक्ष्मता के सम्मुख स्थूल हैं । भला ये उसको कैसे ग्रहण कर सकती हैं ।
परीणसं कृणुते तिग्म शृंगो दिवा हरिर्ददृशे नक्तमृतः ॥
( सा ० , अ ०८ , मं ०३ )
इस मन्त्र के द्वारा वेद भगवान उपदेश करते हैं कि हे मनुष्यो ! हाथ , पैर गुदा , लिंग , रसना , कान , त्वचा , आँख , नाक और मन - बुद्धि आदि इन्द्रियों के द्वारा ईश्वर को प्रत्यक्ष करने की चेष्टा करना झूठ ही एक खेल करना है ; क्योंकि इनसे वह नहीं जाना जा सकता है । वह तो इन्द्रियातीत है ।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ॥
-कनोपनिषद् ( खण्ड १ , श्लोक ५ )
अर्थात् जो मन से मनन नहीं किया जाता , बल्कि जिससे मन मनन किया हुआ कहा जाता है , उसी को तू ब्रह्म जान । जिस इस ( देशाकालाविच्छिन्न वस्तु ) की लोक उपासना करते हैं , वह ब्रह्म नहीं है ।
नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन । यमेवैषवृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुतेतर्नूस्वाम् ॥ -कठोपनिषद् अ ० १ , वल्ली २ , श्लोक २३ )
6. अब यह साफ तरह से जना देता हूँ कि अनादि आदि परम तत्त्व परमात्मा केवल चैतन्य आत्मा से ही ग्रहण होने , पहचाने जाने योग्य है जबतक शरीर और इन्द्रियों के सहित चैतन्य आत्मा रहेगी , तबतक परमात्मा को नहीं पहचान सकेगी । आँख पर पट्टी बँधी हो , तो आँख में देखने की शक्ति रहने पर भी बाहरी दृश्य नहीं देखा जाता और आँख पर रंगीन चश्मा लगा रहने पर बाहर का यथार्थ रंग नहीं देखने में आता है , चश्मे के रंग के अनुरूप ही रंग बाहर में देखने में आता है । आँख पर से पट्टी और चश्मा उतार दो , बाहर के यथार्थ रंग देखने में आएंगे । शरीर और इन्द्रियों के आवरण से छूटते ही या यों कहो कि चैतन्य आत्मा पर से शरीर और इन्द्रियों की पट्टी और चश्मे उतरते ही चैतन्य आत्मा को परमात्म - स्वरूप की पहचान हो जाएगी । शरीर , इन्द्रिय और स्थूल , सूक्ष्म आदि मायिक सब आवरणों के उतर जाने पर , जो इस पिण्ड में बच जाता है , वही चेतन - आत्मा है और इनसे जो पहचाना जाता है , वही अनादि आदि तत्त्व परमात्मा है ।
7. मैं तो इस अनादि आदि परमतत्त्व को परमात्मा कहता हूँ और कहता हूँ कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी - अपनी रुचि के अनुसार इस मूल अनादि परमतत्त्व को जिस नाम से पुकारना चाहे , पुकारे । परन्तु यथार्थ में यह अवर्णनीय अनिर्वचनीय है ।
अविगत अकय अपार , नेति नेति नित निगमकह ॥
-गोस्वामी तुलसीदासजी ।
ज्यो गूंगहि मीठे फल को रस, अन्तरगत ही भावै ॥
परम स्वाद सबही जु निरन्तर, अमित तोष उपजावै ॥
मन बानी को अगम अगोचर, सो जानै जो पावै ॥
-भक्त सूरदासजी
संतमत में ईश्वर की स्थिति प्रवचन चित्र एक |
महर्षि मेँहीँ सत्संग-सुधा सागर |
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