महर्षि मेँहीँ सत्संग सुधा सागर / 01 (ख)
प्रभु प्रेमियों ! संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज के भारती (हिंदीं) प्रवचन संग्रह "महर्षि मेँहीँ सत्संग सुधा सागर" के प्रवचन नंबर S01, के प्रथम भाग को हमलोग पढ़ चुके हैं। इस दूसरे भाग में हमलोग जानेंगे-- 7. ईश्वर कैसा है? 8. ईश्वर को कैसे प्राप्त किया जा सकता है? 9. ईश्वर प्राप्ति के लिए ध्यानाभ्यास कैसे करते हैं? 10. आत्ममुखी मन और शरीर मुखी मन क्या है? 11. केवल पुस्तकों को पढ़कर और प्रवचन सुनकर ही ध्यान करने लगना कितना उचित है? इत्यादि बातों के बारे में। इन बातों को जानने के पहले, आइए ! संत सदगुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज का दर्शन करें।इस प्रवचन के पहले भाग को पढ़ने के लिए 👉 यहां दबाएं।
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संतमत में ईश्वर की स्थिति
शेष प्रवचन
अविगत गति कछु कहत न आवै ।
ज्यो गूंगहि मीठे फल को रस, अन्तरगत ही भावै ॥
परम स्वाद सबही जु निरन्तर, अमित तोष उपजावै ॥
मन बानी को अगम अगोचर, सो जानै जो पावै ॥
-भक्त सूरदासजी
ज्यो गूंगहि मीठे फल को रस, अन्तरगत ही भावै ॥
परम स्वाद सबही जु निरन्तर, अमित तोष उपजावै ॥
मन बानी को अगम अगोचर, सो जानै जो पावै ॥
-भक्त सूरदासजी
नैना बैन अगोचरी , श्रवणा करनी सार ।
बोलन के सुख कारने , कहिये सिरजनहार ॥
बोलन के सुख कारने , कहिये सिरजनहार ॥
आदि अन्त ताहि नहिं मधे ।
कय्यौ न जाई आहि अकये ।।
अपरंपार उपजै नहिं विनसै ।
जुगति न जानिय कथये कैसे ॥
जस कथिये तस होत नहिं , जस है तैसा सोइ ।
कहत सुनत सुख ऊपजै , अरु परमारथ होइ ।।
--कबीर साहब
8. शरीर , इन्द्रियों और मायिक जड़ - आवरण से चैतन्य आत्मा को अलग कर परमात्मा को पाना केवल ध्यान - साधना से ही हो सकता है । इड़ा अर्थात् बायीं ओर की धारा में तामसी वृत्ति रहती है । पिंगला अर्थात् दायीं ओर की धारा में राजसी वृत्ति रहती है और सुषुम्ना अर्थात् मध्य की धारा में सात्त्विकी वृत्ति रहती है । ध्यान - साधना सुषुम्ना में करने की विधि है ।
गुरु महाराज से जैसा सुना , आपलोगों को वैसा सुना दिया । वैज्ञानिक लोग ऑक्सीजन और हाइड्रोजन - दो वाष्पों द्वारा पानी बनाकर दिखला देते हैं । वैसे ही ध्यान अभ्यास के प्रयोग द्वारा परमात्मा की प्रत्यक्षता होती है ; परन्तु यह आधिभौतिक वैज्ञानिक का बाहरी प्रयोग नहीं है । वह प्रयोग अपने अन्दर में करने का है । ध्यान योग का साधक संशय में नहीं रहता है । वह ध्यानाभ्यास के प्रयोग से जो कुछ पाता है , उसको सत्य मानता है और त्रुटि - विहीन ध्यान - अभ्यास के प्रयोग में जो नहीं पाया जाता है , उसको असत्य मानता है । उसको संशय कैसा ?
9. अब ध्यान - अभ्यास के विषय पर कुछ प्रकाश पाने के लिए सन्त दादू दयालजी महाराज के वचन सुनिये-
सब काहू को होत है , तन मन पसरै जाइ ।ऐसा कोई एक है , उलटा माहिं समाइ ॥१ ॥क्यों करि उल्टा आणिये , पसरि गया मन फेरि ।दादू डोरी सहज की , यौं आणे घेरि घेरि ॥२ ॥साध सबद सौं मिलि रहै, मन राखै बिलमाइ ।साध सबद बिन क्यों रहै , तबहीं बीखरि जाइ ॥३ ॥तन में मन आवै नहीं , निसदिन बाहरि जाइ ।दादू मेरा जिव दुखी , रहै नहीं ल्यौ लाइ ॥४ ॥कोटि जतन करि करि मुए, यहुमन दह दिसि जाइ ।राम नाम रोक्या रहै , नाहीं आन उपाइ ॥५ ॥मन ही सन्मुख नूर है , मन ही सन्मुख तेज ।मन ही सन्मुख जोति है , मन ही सन्मुख सेज ॥६ ॥मन ही सौं मन थिर भया, मनहीं सौं मन लाइ ।मन ही सौ मिली रह्या , दादू अनत न जाइ ॥७ ॥सबर्दै बन्ध्या सब रहै , सबर्दै सबही जाइ ।सबर्दै ही सब ऊपजै , सबर्दै सबै समाइ ॥८ ॥सबर्दै ही सूषिम भया , सबर्दै सहज समान।सबर्दै ही निर्गुण मिलै , सबर्दै निर्मल ज्ञान ॥९ ॥एक सबद कुछ किया , ऐसा समरथ सोइ ।आगे पीछे तौ करै , जे बलहीणा होइ ॥१० ॥यन्त्र बजाया साजि करि , कारीगर करतार ।पंचों कारज नाद है , दादू बोलणहार ॥११ ॥पंच ऊपना सबद थैं , सबद पंच सौ होई ।साई मेरे सब किया , बूझै बिरला कोइ ॥१२ ॥सबद जरै सो मिली रहै , एकै रस पूरा ।काइर भाजे जीव ले , पग माँडै सूरा ॥१३ ॥
दादूदयालजी कहते हैं कि सर्वसाधारण का मन शरीर में पसरा हुआ रहता है ; परन्तु ऐसा कोई बिरला है , जिसका मन उलटकर ( बहिर्मुख से ) अन्तर्मुख होकर अन्दर में समाता है । ( मन का स्थान तो शरीर के अन्दर है ही , फिर अन्दर में समाने का तात्पर्य यह कि जाग्रत् , स्वप्न और सुषुप्ति अवस्थाओं में जिस - जिस स्थान पर मन रहता है , उन तीनों स्थानों से विशेष अन्तर में मन प्रवेश कर जाय । ये तीनों स्थान शरीर के अन्दर के स्थूल तल पर ही हैं । इन तीनों से छूटकर मन सूक्ष्म तल पर आरूढ़ हो , मन के अन्दर समाने का भाव यही है ) ॥१ ॥ मन को किस तरह उलटाकर ( अंदर में ) लावें ? यह फिर पसर गया , हे दादू ! संग - संग उत्पन्न होनेवाली स्वाभाविक डोरी ( धारा ) पकड़ और मन को घेर - घेरकर अन्दर में ला ( सृष्टि - निर्माण के आदि में कम्प अवश्य होता है और कम्प का सहचर शब्द अनिवार्य रूप से होता है । स्थूल , सूक्ष्म , कारण , महाकारण और कैवल्य ( जड़ - विहीन चेतन ) , स्थूल , सूक्ष्म और सूक्ष्मातिसूक्ष्म भेदों से सृष्टि के ये पाँच मण्डल जानने में आते हैं । इन सबके केन्द्रों एवं उनसे उत्थित कम्पों के सहित शब्द के उदय से ही सम्पूर्ण सृष्टि का विकास तथा पूर्णतया निर्माण हुआ है । कथित केन्द्रीय शब्द को ही ' सहज डोरी ' कहा गया है । अपने केन्द्र में आकृष्ट करने का गुण शब्द में है , इसलिए इस शब्द - रूप सहज डोरी को ग्रहण करके मन बहिर्मुख से अन्तर्मुख खिंचकर रहेगा ) ।।२ ।। साधु शब्द से मिलकर रहे और मन को ठहराकर रहे । साधु शब्द के बिना क्यों रहता है तभी तो ( शब्द - विहीन रहते हुए साधु का मन ) बिखर जाता है ।।३ ।। मन ( उलटकर ) शरीर में नहीं आता है , दिन - रात बाहर - बाहर जाता है । ( इसलिए ) दादूदयालजी कहते हैं कि मेरा मन दुःखी है ; क्योंकि साधन में मन लगकर नहीं रहता है । ।।४ ।। लोग मन रोकने के करोड़ों उपाय करके मर जाते हैं , परन्तु मन रुकता नहीं , दसो दिशाओं में जाता रहता है , यह रामनाम ( रामनाम के ग्रहण ) से रुका रहता है । दूसरा उपाय नहीं है ।। ५ ।। ( यहाँ पर राम - नाम से तात्पर्य सर्वव्यापिनी अनाहत ध्वनि से है । इस ध्वनि को नाम इसलिए कहते हैं कि इसके द्वारा चैतन्य आत्मा को आदि मूलतत्त्व अक्षर पुरुषोत्तम परमात्मा की पहचान हो जाती है-
नीके राम कहतु है वपुरा ।
घर माहै घर निर्मल राखै , पंचौं धोवै काया कपरा ।। टेक ।। सहज समरपण सुमिरण सेवा , तिरवेणी तट संयम सपरा । सुन्दरि सन्मुख जागण लागी , तह मोहन मेरा मन पकरा ॥ विन रसना मोहन गुण गावै , नाना वाणी अनभै अपरा ।
दादू अनहद ऐसें कहिये , भगति तत यहु मारग सकरा ॥
सन्त दादूदयालजी के इस शब्द से विदित है कि रामनाम से उनका तात्पर्य अनाहत नाद से है । मन के सन्मुख ही प्रकाश है और आराम करने का स्थान - बिछावन है । ( जाग्रत् अवस्था में आज्ञाचक्र के केन्द्र में मन की बैठक है । उसके सम्मुख वृत्ति के सिमटाव और स्थिरता से प्रकाश और चैन का स्थान प्रत्यक्ष होता है ) ।६ ।।
10. मन से मन को लगाकर मन स्थिर हो गया , मन से मन मिलकर रहा , तब अन्यत्र नहीं जाता है । ( मन के केन्द्रीय रूप को निज मन - आत्ममुखी मन कहते हैं और उसकी किरणें वा धारा जो समस्त शरीर में फैली हुई है , उसे तन - मन या शरीर - मुखी मन कहते हैं । तन - मन को निज मन में समेटकर केन्द्रित करने को मन से मन को मिलाकर रखना है ) ।। ७ ।।
वर्णन हो चुका है कि शब्द से ही सारे विश्व का तथा उसके पंच मण्डलों का निर्माण और विकास हुआ है , इसीलिए शब्द के विषय में उपर्युक्त रीति से कहा गया है ।
11. ध्यान - साधना में ज्योति और शब्द के ग्रहण की विशेषता , मुख्यता और विशेष आग्रह है । युक्ति जानकर सब लोगों को इस ध्यान का अभ्यास करना चाहिये ; क्योंकि इसी साधना के द्वारा निर्वाणपद पर पहुँचना और अपना परम कल्याण बना लेना पूर्ण सम्भव है । परम प्रभु परमात्मा की दया सब लोगों पर हो ।∆
( यह प्रवचन ग्राम डोभाघाट (जिला पूर्णियाँ) अ० भा० सं० स० विशेषाधिवेशन के अवसर पर दिनांक ५.१२.१६४६ ई० के सत्संग में हुआ था । )
नोट- उपर्युक्त प्रवचन में हेडलाइन की चर्चा, सत्संग, ध्यान, सद्गगुरु, ईश्वर, अध्यात्मिक विचार एवं अन्य विचार से संबंधित बातें उपर्युक्त लेख में उपर्युक्त विषयों के रंगानुसार रंग में रंगे है।
"शांति-संदेश* तथा 'महर्षि मेँहीँ सत्संग-सुधा-सागर' ग्रंथ में प्रकाशित उपरोक्त प्रवचन निम्नलिखित प्रकार से है--
संतमत में ईश्वर की स्थिति प्रवचन चित्र 3 |
संतमत में ईश्वर की स्थिति प्रवचन चित्र 4 |
महर्षि मेँहीँ सत्संग-सुधा-सागर में प्रकाशित प्रवचन (प्रथम संसकरण)
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इस प्रवचन के बाद वाले प्रवचन नं S02, का पाठ करने के लिए यहां दबाएं।
प्रभु प्रेमियों ! गुरु महाराज के इस प्रवचन का पाठ करके आपलोगों ने जाना कि आत्मा का स्वरूप क्या है? आत्म कल्याण हेतु सर्वोत्कृष्ट साधन क्या है? संतमत में ईश्वर की स्थिति और साधना का स्वरूप क्या है ? संतमत में ईश्वर के स्वरूप के बारे में क्या कहा गया है ? ईश्वर कैसा है? उसे कैसे प्राप्त कर सकते हैं ? ईश्वर प्राप्ति का सही मार्ग क्या है ? क्या उसे साधना के द्वारा प्राप्त कर सकते हैं, तो वह साधना कौन सा है? इतनी जानकारी के बाद भी अगर आपके मन में किसी प्रकार का शंका या कोई प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस प्रवचन के बारे में अपने इष्ट मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने। इससे आपको आने वाले प्रवचन या पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहेगी। निम्न वीडियो में इस प्रवचन का पाठ किया गया है।
महर्षि मेँहीँ सत्संग-सुधा सागर |
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S01 (ख) मेडिटेशन करने का सही तरीका क्या है || What is the right way to do meditation
Reviewed by सत्संग ध्यान
on
5/09/2018
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