महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर / 112
वैज्ञानिक विधि और ईश्वरीय ज्ञान । Scientific method and theology
११२. एक को जानने से शांति मिलेगी
मनुष्य बहुत कुछ पहचानता है । कोई थोड़ा पहचानता है , कोई उससे ज्यादे, तो कोई उससे भी ज्यादे पहचानता है। आजकल के वैज्ञानिकों ने बहुत चीजों को पहचाना है और बहुत चीजों का आविष्कार किया है , जिन्हें देखकर आश्चर्य होता है । किंतु इसे जानने से ऐसा नहीं हुआ कि और कुछ जानने को बाकी नहीं । वैज्ञानिकों ने संसार में बहुत तत्त्वों को जाना है , किंतु वे कहते हैं कि अभी कितना जानना बाकी है , ठिकाना नहीं । अभी तो समुद्र के किनारे के बालूकण ही देख रहे हैं , समुद्र भरा पड़ा है ।
संतलोग कहते हैं - ' एक को जानो तो सब को जान जाओगे । ' उस एक को जानने से शान्ति मिलेगी । संतों ने उस एक परमात्मा को जाना और उन्हें शान्ति मिली । संत लोग उसी ईश्वर को जानने कहते हैं । जानने के लिए केवल बौद्धिक ज्ञान से नहीं , बल्कि उसे पहचानकर जानो । केवल परोक्ष ज्ञान ही नहीं , उसको अपरोक्ष ज्ञान से भी जानो । अपरोक्ष ज्ञान के लिए बहुत साधन और प्रयास करना पड़ता है । पहले श्रवण - मनन करना पड़ता है । इसमें भी समय लगता है और प्रयास करना पड़ता है । श्रवण , मनन के बाद मनुष्य को पहचानकर जानने के लिए निदिध्यासन करना चाहिए ।
श्रवण से तत्त्व का कुछ बोध जानने में आता है । किंतु स्वरूपतः वह क्या है ? उसे पहचानता नहीं है । इसलिए वह बहुत अधूरा ज्ञान है । संसार को देखने के लिए आँखों और कानों को खोलते हैं । उसी तरह परमात्मा को जानने के लिए आँख और कान की शक्तियों को बढ़ाओ । बाहर की ओर नहीं , अंतर की ओर देखने और सुनने का प्रयास करो । बाहर में देखने - सुनने से जैसे कोई बाहर का पदार्थ पहचानता है , वैसे ही अंतर में देखने - सुनने से तुम परमात्मा को पहचानोगे । बाहर की ओर इन्द्रियों में रहते हुए स्थूलता में फँसा रहता है - स्थूल बुद्धि होती है । यदि कहो कि वैज्ञानिक यंत्रों के द्वारा बहुत छोटे - छोटे पदार्थों को देखता है , अणु को भी चीर सकता है , तो भी यह स्थूल ही है । इसको स्थूल के अतिरिक्त सूक्ष्म नहीं कह सकते हैं । सूक्ष्म तत्त्व वह है , जो स्थूल इन्द्रियों से नहीं जाना जाता । स्थूल इन्द्रियों से जो जाना जाता है , उससे स्थूल ज्ञान ही होता है । अपने अन्दर देखने के ढंग से यदि देख सको तो सूक्ष्मातिसूक्ष्म प्रकट हो जाता है । बाहरी इन्द्रियों में जो शक्तियाँ हैं , वे जब उधर से फिरती हैं तो अन्दर में प्रवेश करती हैं , वे ही सूक्ष्म हैं । इन सूक्ष्म धाराओं से काम लो, तो जो काम होगा , वह सूक्ष्म काम है । इसको जानो ।
संतों ने कहा कि अपने अंदर देखो , अपने अंदर सुनो । अपने अन्दर देखने - सुनने से अंत में पता लगेगा कि यही ईश्वर है । फिर तुमको कुछ जानने के लिए बाकी नहीं रहेगा । आवागमन से छूट जाओगे । सभी दुःखों से छूट जाओगे।
ईश्वर - स्वरूप के लिए कहा गया है कि वह मन से ग्रहण नहीं हो सकता । वह इन्द्रिय - गोचर पदार्थों में से कुछ नहीं है । इन्द्रियों को जो कुछ प्रत्यक्ष है , वह माया है । गोस्वामी तुलसीदासजी ने रामचरितमानस में लिखा है कि श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा
गो गोचर जहँ लगि मन जाई । सो सब माया जानहु भाई ।।
अर्थात् जो सब शरीरों में रहता है , वह शरीरों से निर्लेप रहता है । सब पदार्थों में भी जो रहते हुए अथवा सब आकारों में रहते हुए सबसे निर्लेप और निराकार है , वही आत्मा है । इसको पहचानो , यही ईश्वर है । आत्मा कहने से आत्मा परमात्मा दोनों को जानना चाहिए । जैसे आकाश कहने से बाहर के आकाश का और भीतर घर के आकाश का भी ज्ञान होता है । उपनिषदों में आत्मा शब्द का विशेष प्रयोग किया गया है । जबकि यह पृथक किया जाय , तो पिण्ड में व्यापक वह आत्मा , ब्रह्माण्ड में व्यापक वह आत्मा और प्रकृति में व्यापक आत्मा सब एक ही है । सब पिण्डों , ब्रह्माण्डों , सारे प्रकृति मण्डल में व्यापक तथा इन सबको भर कर फिर इन सबके जो परे है , वह है परमात्मा । और शरीरस्थ आत्मा का ज्ञान केवल आत्मा कहने से होता है । सबमें रहता हुआ सबके गुणों से जो निर्लेप है , वह आत्मा ही परमात्मा है , वही ईश्वर है । उससे बाहर कुछ नहीं है । उसको पहचानने से फिर कुछ पहचानने के लिए बाकी नहीं रहेगा । उसको पहचानने के लिए संसार में कहीं जाना , शरीरों में फंसा रहना है ।
शरीर एक ही नहीं है । हमलोग चार जड़ शरीरों में पड़े हुए हैं । जैसे मूंज होती है । मूूंज के अन्दर सींकी होती है । सींकी के ऊपर मूंज के कई खोल होते हैं । एक - एक कर सभी खोलों को उतारने पर सीकी निकलती है । केले में भी कई परतें होती हैं । उन परतों को एक - एक कर उतारने पर केले का थम्भ निकलता है । इसी तरह चेतन आत्मा इस शरीर में है । एक ही शरीर में नहीं , चार जड़ शरीरों - स्थूल , सूक्ष्म , कारण और महाकारण में है । ऊपर से एक स्थूल शरीर देखने में आता है । साधारणतः एक स्थूल शरीर की मृत्यु होती है , बाकी और तीनों की मृत्यु हो जाती तो बड़ा कुशल होता । जब परमात्मा की पहचान होती है , तब ये तीनों भी झड़ जाते हैं ।
परमात्मा की पहचान तबतक नहीं हो सकती , जबतक मायिक सभी आवरणों , पापों से छूट नहीं जाएँ । कबीर साहब ने कहा
राम निरंजन न्यारा रे । अंजन सकल पसारा रे ॥ अंजन उतपति वो ऊँकार । अंजन मांड्या सब बिस्तार ॥ अंजन ब्रह्मा शंकर इन्द । अंजन गोपी संगि गोव्यंद ॥ अंजन वाणी अंजन वेद । अंजन किया नाना भेद । अंजन विद्या पाठपुरान । अंजन फोकट कथहि गियान ॥ अंजन पाती अंजन देव । अंजन की करै अंजन सेव ।। अंजन नाचै अंजनगावै । अंजन भेष अनंत दिखावै ॥ अंजन कहाँ कहाँ लगि केता । दान पुंनि तप तीरथ जेता ॥ कहै कबीर कोइ विरला जागे , अंजन छाडिनिरंजन लागै ॥
सब माया ही माया है तीर्थ , दान , व्रत सब माया है । इसके अच्छे - अच्छे फल तुम पा सकते हो , स्वर्ग - वैकुण्ठ पाओगे , फिर यहाँ आना होगा । किंतु परमात्मा का दर्शन इससे नहीं होता । मनुष्य शुभ कर्मों को करे । पवित्र जल को ही तीर्थ कहते हैं । इसमें स्नान करो , किंतु यह मत समझो कि इसी से सब कुछ हो गया । परमात्मा का दर्शन या आवागमन छूटना इससे नहीं हो सकता । इसके लिए अपने अन्दर में चलना होगा । अंदर में चलने से माया से छूटोगे । बाहर में चलने से माया में ही रहोगे । गुरु नानकदेव ने कहा कि वह परमात्मा अलख , अगम , अगोचर है । उसका बाहर में कोई चिह्न नहीं है । उसका यदि कोई चिह्न है तो ओ३म् , प्रणव ध्वनि , सत्शब्द है ।
हमलोग मुँह से जो ओ३म् , सतनाम उच्चारण करते हैं , सतशब्द नहीं है । गहरे ध्यान में जाने से वह ग्रहण होता है । परमात्मा जैसे अव्यक्त है , उसकी प्रतिमा भी अव्यक्त है । वह हई है । कहीं से वह आवेगा सो नहीं । वह सब जगह है । तुम पहचानते नहीं हो । पहचानने की योग्यता ध्यान से होगी । इसलिए ध्यान करो । सब शरीरों में ब्रह्म छिपा हुआ है । उसकी ज्योति सब शरीरों में है । जो निडर ध्यान लगाता है , वह उसको प्राप्त करता है ।
पवित्र बर्तन में सत्य अँटता है । अंत करण रूप बर्तन को पवित्र करो , तब ईश्वर को पाओगे । सत्य आचरण करनेवाले बहुत कम होते हैं । सत्य आचरण करनेवाले की संसार में भी प्रतिष्ठा होती । प्रतिष्ठा - युक्त होने का जीवन पवित्र आचरण से होता है । भ्रष्ट आचरण से नहीं होता । अपवित्रता का जीवन तो मरे हुए के समान है । तुम अपना जीवन पवित्र रखो । इससे बुरे - बुरे कर्मों को निकाल दो । बुरी - बुरी इच्छाओं को छोड़ दो । अच्छे - अच्छे कर्मों को अपने अन्दर लो ।
झूठ मत बोलो । चोरी मत करो । व्यभिचार मत करो । व्यभिचार दो तरह के होते हैं - एक तो बलात्कार , दूसरा व्यभिचार मन के मेल से होता है , दोनों से बचो । एक वकील ने मुझसे पूछा - ' मन के मेल से व्यभिचार करने में पाप भी है ? ' मैंने कहा ' पहले आप पाप - पुण्य को जानिए । जिस कर्म से आत्मोन्नति हो , वह पुण्य है और जिस कर्म से आत्मा का अध:पतन हो , वह पाप है । '
नशा मत खाओ , न पिओ । तम्बाकू तक नशा है । हिंसा मत करो । पंच पापों से बचो , तब अंत : करण पवित्र हो जाएगा । ईश्वर पाने का शौक हो और उसके लिए जो कर्म करना चाहिए , उससे गिरे रहो तो ईश्वर कैसे मिलेंगे । हिंसा तीन तरह की होती है मन से , वचन से , और कर्म से । और भी हिंसा के दो विभाग कर लो - वार्य और अनिवार्य । खेत जोतने में कितनी हिंसा होती है ? यदि खेती नहीं करो तो संसार के सब लोग समाप्त हो जाएँगे । भोजन नहीं मिले तो बिना एटम बम के ही सब लोग मर जाएँगे । हिटलर लड़ाई के सामानों को बनाने में लगा रहा और भोजन का प्रबंध नहीं किया , तो बिना भोजन के मारा गया । पानीपत की तीसरी लड़ाई में भोजन नहीं मिलने के कारण ही मराठे की हार हुई । कई लाख आदमी एक ही दिन - में समाप्त हो गए । मनुस्मृति में अष्टघातक का वर्णन आया है
अनुमन्ता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी । संस्कर्ता चोपहर्ता च खादकश्चेति घातकाः ॥ -अध्याय ५ श्लोक ५१
अर्थात् वध करने की आज्ञा करनेवाला , २.शस्त्र से मांस काटनेवाला , ३. मारनेवाला , ४. बेचने वाला ५. मोल लेनेवाला , ६. मांस को पकानेवाला , ७. परोसने के लिए लानेवाला , ८. खानेवाला ; ये आठो घातक हिंसा करनेवाला ) ही कहलाते हैं ।
वार्य हिंसा से बचो और अनिवार्य हिंसा के लिए प्रायश्चित करने कहा गया है चोर - डकैत के आने पर लड़ने - भिड़ने में , एक राष्ट्र की दूसरे राष्ट्र की चढ़ाई को रोकने में लड़ाई हो तो यह अनिवार्य है । इसमें लड़ो , वीरता के साथ लड़ो । अन्नोपार्जन जो हो , उसमें से दान दो । यह प्रायश्चित है । सबसे मूल है , ईश्वर का भजन करो ।
भगवान बुद्ध ने कहा - ' अंधकार में पड़े हुए तुम प्रकाश को क्यों नहीं खोजते । ' ध्यानाभ्यास करो , प्रकाश प्रत्यक्ष होगा ।∆
( यह प्रवचन खगड़िया जिलान्तर्गत ग्राम - मानसी में दिनांक ६.६.१६५५ ई० को प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था । )
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