Ad1

Ad2

S113, नवधा भक्ति का उपदेश ।। Paramaatma kee Bhakti kaise Karen ।। ६.६.१९५५ ई०अपराह्न

महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर / 113

प्रभु प्रेमियों ! सत्संग ध्यान के इस प्रवचन सीरीज में आपका स्वागत है। आइए आज जानते हैं-संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज के हिंदी प्रवचन संग्रह "महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर" के प्रवचन नंबर 113 के बारे में। इसमें बताया गया है कि  इन्द्रियों से उसे पहचान नहीं सकते । बाहर में इन्द्रियों का संग रहता है । अंदर में होने से शरीर - इन्द्रियों के ज्ञान से छूटता है । सब छूटकर जब केवल चेतन आत्मा रहती है , तब दर्शन होता है । इसलिए ईश्वर की भक्ति ऐसी होनी चाहिए , जो अन्तर्मुखी कर दे । 

इस प्रवचन के पहले वाले प्रवचन नंबर 112 को पढ़ने के लिए   यहां दवाएं 

ईश्वर की भक्ति और नवधा भक्ति पर प्रवचन करते सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज

परमात्मा की भक्ति कैसे करें? । What is shreeramgita


 इस प्रवचन (उपदेश, अमृतवाणी, वचनामृत, सत्संग सुधा, संतवाणी, गुरु वचन, उपदेशामृत, ज्ञान कथा, भागवत वाणी, संतवचन, संतवचन-सुधा, संतवचनामृत, प्रवचन पीयूष )  में  पायेंगे कि- ईश्वर- भक्ति की क्या आवश्यकता है ? दुख कलेश कैसे मिटता है? परमात्मा को कैसे पहचान सकते हैं? हमें माया क्यों दिखती है? परमात्मा सर्वव्यापक और सर्वपर कैसे हैं? परमात्मा को इंदिरातीत क्यों कहा जाता है? परमात्मा को इंद्रियों से क्यों नहीं देख सकते? इंद्रियों से ईश्वर के दर्शन कैसा माना जाता है? ईश्वर के संपूर्ण दर्शन का क्या मतलब है? परमात्मा दर्शन से क्या होता है? शबरी कौन थी ? वह गरीब और कुरूपा क्यों बनी ? नवधा भक्ति  क्या है? नवधा भक्ति किसे कहते हैं? वैष्णवी मुद्रा - शाम्भवी मुद्रा क्या है? तन्द्रावस्था में क्या होता है? इत्यादि बातों  के बारे में। इसके साथ-ही-साथ निम्नलिखित प्रश्नों के भी कुछ-न-कुछ समाधान इसमें मिलेगा। जैसे कि- क्या परमात्मा ने सारी चीजें मनुष्य को सौंप दी है? परमात्मा परमात्मा कौन है? परमात्मा की भक्ति कैसे करें? एक ही परमात्मा संसार में कैसे व्याप्त है? ईश्वर को अनादि और अनंत क्यों कहा गया है? ईश्वर का क्या अर्थ है? ईश्वर का रूप कौन सा है? ईश्वर में विश्वास के लेखक कौन है? सच्चा ईश्वर कौन और कहा है उसका नाम और पता क्या है? ईश्वर किसे कहते हैं? ईश्वर क्या है? ईश्वर का अस्तित्व, क्या ईश्वर सत्य है, वेदों के अनुसार ईश्वर कौन है, ईश्वर नाम का अर्थ, गीता के अनुसार ईश्वर की परिभाषा,  परमात्मा की पहचान, परमात्मा in हिंदी, परमात्मा का अर्थ, भक्ति से ही परमात्मा की प्राप्ति, परमात्मा को दयानिधि क्यों कहा गया है, ईश्वर प्राप्ति मंत्र, कबीर परमात्मा के विषय में क्या कहते हैं, इत्यादि बातें। इन बातों को जानने-समझने के पहले, आइए !  संत सदगुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज का दर्शन करें।

११३. नवधा भक्ति का उपदेश


परमात्मा की भक्ति कैसे करें पर प्रवचन करते सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज और उनके भक्तगण

धर्मानुरागिनी प्यारी जनता ! 

     रामचरितमानस का पाठ सुनकर आपलोगों को मालूम हुआ होगा कि आज का क्या विषय है ? इस सत्संग में सदा जनाया जाता है कि ' ईश्वर की भक्ति करो । ' ईश्वर - स्वरूप को जानने के पहले जानना चाहिए कि ईश्वर- भक्ति की क्या आवश्यकता है ?

     सबलोग माया की सेवा में लगे हुए हैं । फल यह होता है कि उससे शान्तिदायक सुख का लाभ नहीं करते हैं - संसार से नहीं छूटते हैं । इसकी बड़ी आवश्यकता है कि संसार से छूटा जाय , सदा का सुख पाया जाय और संतुष्टि - शान्ति प्राप्त की जाय ।

     एक ईश्वर ही ऐसा है , जिसको पा लेने पर और कुछ पाने को बाकी नहीं रहता । उस संतुष्टि के बाद और कोई इच्छा नहीं रहती । ईश्वर - भक्ति ही आपको सदा के लिए सुखी कर सकती है । गोस्वामी तुलसीदासजी ने लिखा है 

राकापति षोडस उअहिं , तारागण समुदाय । सकल गिरिन्ह दव लाइअ , बिनु रवि राति न जाय ॥ ऐसेहि बिनु हरि भजन खगेसा । मिटइन जीवन केर कलेसा ।। -रामचरितमानस 

     अर्थात् चन्द्रमा सोलहों कलाओं के साथ उग जाय , सारे तारेगण भी निकल आवें और संसार के सभी पहाड़ों में आग लगा दी जाय , फिर भी बिना सूर्योदय के रात्रि नहीं जाती । उसी तरह बिना ईश्वर - भक्ति किए किन्हीं के जीवन का दुःख - क्लेश नहीं मिट सकता । इसी तरह सभी अच्छे - अच्छे कर्म करो और ईश्वर - भजन नहीं करो, तो उसी तरह है , जैसे कि बिना सूर्य के रात नहीं जाती , सुख - रूप दिन नहीं आता और दुःख - रूप रात नहीं जाती । पहले ईश्वर स्वरूप का निर्णय जानना चाहिए । बिना स्वरूप निर्णय के ईश्वर की भक्ति नहीं हो सकती । उसका स्वरूप मन - बुद्धि से परे है । गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा 

राम स्वरूप तुम्हार , वचन अगोचर बुद्धि पर । अविगत अकथ अपार , नेति नेति नित निगम कह । -रामचरितमानस 

     जबतक स्वरूप - निर्णय नहीं हो , तबतक उसकी भक्ति नहीं हो सकती । लोगों के मन में होगा कि जब परमात्मा को इन्द्रियों से प्राप्त नहीं कर सकते , तब किससे प्राप्त किया जाय ? तो पहले अपने को जानो । इसमें भीतर से ज्ञान आता है । बाहर में केवल अंग हो और भीतर से ज्ञान नहीं आवे , तो यह जड़वत् है । जैसे लोहे को आग में देने से लाल हो जाता है और आग से निकालने से काला का काला रह जाता है । उसी तरह इस शरीर में चेतनमय - ज्ञानमय पदार्थ है । किन्तु शरीर जड़ है । इसमें ज्ञान नहीं होगा । शरीर का अन्त होने पर शरीर सदा के लिए जड़ ही रह जाता है । इसकेेे सड़ने से रोग उत्पन्न होगा , इसके लिए इसको जला देेेेते हैं । शरीर के साथ इन्द्रियाँ हैं । अन्त : करण की इन्द्रियाँ जलती नहीं हैं । बाहर की सब इन्द्रियाँ शरीर के साथ लगी हैं । ये सभी जल जाती हैं । अंत : करण सूक्ष्म शरीर में रहते हुए जीव के अपने कर्मवश उसके संग जाता है । 

     भीतर की चार इन्द्रियाँ - मन , बुद्धि , चित्त , अहंकार भी जड़ हैं । बाहर स्थूल शरीर से यह सूक्ष्म मन जड़ है । जब आप निट्ठाह नींद में सो गए , तब बुद्धि का विचार सब समाप्त हो गया । ' मैं हूँ ' का ज्ञान भी समाप्त हो जाता है । इसमें गति होने का जो चेतन का स्वभाव है , वह बन्द नहीं होता । चेतन का काम बन्द हो गया तो श्वास नहीं लिया जा सकता । चेतन कभी जड़ नहीं होगा । जड़ से बनी हुई बाहर और भीतर की इन्द्रियों से ईश्वर की पहचान नहीं हो सकती । आपको जिस रंग का चश्मा पहना दिया जाय , बाहर में उसी रंग के अनुरूप चीज को देखिएगा । चेतन आत्मा पर मायिक चश्मा लगा हुआ है । इस चश्मे से केवल माया - ही माया दीखती हैपरमात्मा को इस मायिक चश्मे से कोई नहीं पहचान सकता है ।

     परमात्मा सबका आदि है । और स्वयं वह अनादि है । सबसे पहले जो है वह आदि है । सबका आदि यदि ससीम हो , एकदेशी हो, तो ऐसा कहते बनता नहीं । क्योंकि प्रश्न होगा कि उस ससीम और एकदेशी के बाद और क्या है ? यदि इसके तब वह सबका आदि नहीं होगा । परमात्मा सबका आदि और अनादि होते हुए सर्वव्यापक और सर्वपर है । प्रकृति में जो व्यापक है , वह सर्वव्यापक है । और प्रकृति के परे और कितना बाकी है , जिसका ठिकाना नहीं । इसलिए सर्वव्यापकता के भी परे है । गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा 

प्रकृति पारप्रभुसब उरबासी। ब्रह्म निरीह बिरज अबिनासी ॥ 

     पहले कुछ  जो एक अनादि - अनंत है , उसके सामने दूसरा असीम नहीं हो सकता । क्योंकि अनंत दो नहीं हो सकते । जो असीम है , वह एक ही होगा । जो जितना अधिक व्यापक होता है , वह उतना अधिक सूक्ष्म होता है । उस अणु वा त्रसरेणु को मैं झीना नहीं कहता । बल्कि जो आकाशवत् सूक्ष्म है । एक सेर बर्फ का फैलाव जितना होगा , उससे अधिक फैलाव सूक्ष्म एक सेर पानी का होगा । उससे भी अधिक फैलाव एक सेर पानी के वाष्प का होगा । वह वाष्प बर्फ और पानी से अधिक व्यापक और सूक्ष्म होगा । जो जितना अधिक सूक्ष्म होता है , वह उतना विशेष व्यापक होता है । कठिन से तरल और तरल से वाष्पीय विशेष व्यापक होता है । अनादि- असीम से व्यापक विशेष कुछ नहीं हो सकता । इसलिए वह विशेष सूक्ष्म है । वह तो सबसे विशेष सूक्ष्म और आपकी इन्द्रियाँ अत्यन्त स्थूल । तो स्थूल यंत्र से सूक्ष्म तत्त्व ग्रहण हो सकता है ? इसलिए वेद और उपनिषद् में परमात्मा को इन्द्रियातीत कहा गया है । 

     परमात्मा सबसे पहले से है । परमात्मा से प्रकृति , प्रकृति से बुद्धि , बुद्धि से अहंकार , अहंकार से सेन्द्रिय और निरेन्द्रिय दो प्रकार की सृष्टि होती है । इस प्रकार भी परमात्मा से बहुत पीछे बने मन , बुद्धि आदि । यह परमात्मा के समक्ष स्थूल है । इससे वह ग्रहण नहीं हो सकता । एक - एक इन्द्रिय से एक - एक काम होता है । मन - बुद्धि से , शरीर से जो काम करते हैं , सो आप जानते हैं । और इनके संग से अलग होकर अकेले होकर अपने से क्या करते हैं ? सो आप नहीं जानते । आँखों से केवल देखते हैं मन से केवल संकल्प - विकल्प होता हैै, यह जानते हैं । किन्तु आप अपने से स्वयं क्या करते हैं , यह नहीं जान सकते । 

     जबतक दूध से घी को अलग नहीं किया जाय , तबतक नहीं जान सकते कि घी से क्या होता है ? उसी तरह शरीर - इन्द्रिय , अंत : करण से अलग हुए बिना नहीं जान सकते कि हम स्वयं क्या कर सकते हैंवेद - उपनिषद् में आया है कि केवल चेतन आत्मा से परमात्मा का दर्शन होता है । कितने कहते हैं कि इसी आँख से श्रीराम का , विष्णु भगवान का दर्शन हुआ । इतने बखेड़े में कौन पड़े कि शरीर , इन्द्रियों , मन , बुद्धि को छोड़ो , तब दर्शन होगा तो विचारो श्रीराम या विष्णु भगवान का क्या देखा ? उनके रूप को देखा । किंतु कितने को दर्शन होने पर भी पहचान नहीं हो सकी । तुलसीदासजी को घोड़े पर राम , लक्ष्मण जाते हुए दिखाई पड़े । किंतु पहचान न सके । फिर हनुमान से तुलसीदासजी ने निवेदन किया , तब दूसरे दिन जब तुलसीदासजी के सामने भगवान श्रीराम प्रकट हुए और उन्होंने बालक रूप में तुलसीदास से कहा ' बाबा ! हमें चन्दन दो । ' हनुमानजी ने सोचा- कहीं इस बार भी ये धोखा न खा जाएँ , इसलिए उन्होंने तोते का रूप धारण करके यह दोहा कहा 

चित्रकूट के घाट पर , भइ सन्तन की भीर । तुलसिदास चंदन घिसें , तिलकदेत रघुवीर । 

गोस्वामी तुलसीदासजी ने विनय - पत्रिका में बड़ा ही अच्छा लिखा है 

एहि तें मैं हरि ज्ञान गँवायो । परिहरि हृदय कमल रघुनाथहिं , बाहर फिरत विकल भय धायो । ज्यों कुरंग निज अंग रुचिरमद , अति मति हीन मरम नहिं पायो । खोजत गिरितरु लता भूमि बिल , परम सुगंध कहाँ ते आयो ।। ज्यों सर विमल वारि परिपूरन , ऊपर कछु सेंवार तृन छायो । जारत हियोताहि तजिहौं सठ , चाहत यहि विधि तृषा बुझायो ।। व्यापित त्रिविध ताप तन दारुण , तापर दुसह दरिद सतायो । अपने धाम नाम सुरतरु तजि , विषय बबूर बाग मन लायो ।। तुम्ह सम ज्ञान निधान मोहि सम , मूढ़न आन पुरानन्हि गायो । तुलसिदास प्रभु यह विचारि जिय , कीजै नाथ उचित मन भायो ।। 

     इसमें मूल बात यह है कि बाहर में उन्होंने नहीं पहचाना , अंदर में ही पहचाना । मृग और सरोवर का मिशाल देकर बताया कि ईश्वर अपने अंदर है , अंदर में पहचानोगे । प्रश्न होगा कि अंदर में दर्शन क्यों होगा ? और बाहर में क्यों नहीं होगा ? इसका उत्तर पहले हो गया कि इन्द्रियों से उसे पहचान नहीं सकते । बाहर में इन्द्रियों का संग रहता है । अंदर में होने से शरीर - इन्द्रियों के ज्ञान से छूटता है । सब छूटकर जब केवल चेतन आत्मा रहती है , तब दर्शन होता है । इसलिए ईश्वर की भक्ति ऐसी होनी चाहिए , जो अन्तर्मुखी कर दे मन की चंचलता में बहिर्मुखता होती है और मन की स्थिरता में अन्तर्मुखता होती है । मन का जो सिमटाव होता है , यही अन्तर्मुखी करता है । इसलिए भक्ति के साधन में मन के सिमटाव की बातें हैं । 

     परमात्मा का दर्शन जो चेतन आत्मा से होता है , उसके लिए क्या करना चाहिए ? शिव बाबा , श्रीराम आदि का जो दर्शन होता है , उसमें उनके शरीर की पहचान होती है , शरीरी की नहीं आत्म - तत्त्व का दर्शन नहीं हुआ उनके शरीर को देखने से । रूप का दर्शन करो और रूप में अरूप का दर्शन करो , तब पूरा है । और गोस्वामी तुलसीदासजी का यह वचन याद रखें- 

गो गोचर जहँ लगि मन जाई । सो सब माया जानहु भाई ।।

और उपनिषद् का यह वाक्य 

भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छियन्ते सर्वसंशयाः । क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ॥ 

     अर्थात् उस परे - से - परे परमात्मा के दर्शन से हृदय की गाँठ टूट जाती है , सारे संशयों का नाश हो जाता है और सब कर्म नष्ट हो जाते हैं । 

     जिस दर्शन से ऐसा हो , उसको परमात्मा का ठीक - ठीक दर्शन समझो । जो शरीर इन्द्रियों के साथ दर्शन हो , वह मायिक दर्शन है । असली दर्शन चेतन आत्मा से होता है । इसके लिए क्या करो ? बहुत सरल है । 

     अभी आपलोगों ने नवधा भक्ति का वर्णन सुना । शवरी का पहला जन्म खिखिरनी का था । ऋषि - मुनि की कृपा से वह दूसरे जन्म में रानी हो गई । राजा के राजमहल में उसको साधु - संतों का सत्संग नहीं मिलता था । राजा ने राजमहल में सत्संग - मन्दिर बनवा दिया । संयोग से एक पहुंचे हुए संत उनके यहाँ पहुँच गए । रानी ने बहुत आदरपूर्वक उनकी सेवा की । महात्माजी ने प्रसन्न होकर कहा - ' माँगो , तुम क्या वरदान माँगती हो । ' रानी ने कहा - ' मैं शीघ्र मर जाऊँ । दूसरे जन्म में मैं कुरूपा होऊँ और साधारण कुल में मेरा जन्म हो । ' महात्माजी के आशीर्वाद से वैसा ही हुआ । उसका जन्म भील के घर हुआ । देखने में भी कुरूपा थी । जब उसकी शादी हुई , उसका पति साथ लेकर जब जाने लगा , तो रास्ते में उसने सोचा , यदि इसको अपने साथ घर ले जाता हूँ तो बच्चे डरेंगे और लोग कहेंगे कि कहाँ से चुडैल ले आया है । ऐसा सोचते हुए वह शवरी को छोड़कर तेजी से निकल भागा । शवरी भी यही चाहती थी , उन्होंने भी सोचा - भले हुआ संसार के बंधन से मैं बच गई । वह मतंग ऋषि के आश्रम में रहने लगी । जब मतंग ऋषि संसार से प्रयाण करने लगे तो शवरी से उन्होंने कहा – ' तुम धैर्य धारण करके यहाँ रहो । भगवान श्रीराम का दर्शन तुमको यहीं मिलेगा । ' गुरु - वचन पर विश्वास करके भजन साधन करती रही । एक दिन ऐसा समय आया कि भगवान राम शवरी के आश्रम पधारे और नवधा भक्ति का उपदेश किया ।

     पहली भक्ति में संतों का संग , दूसरी भक्ति कथा - प्रसंग जहाँ हो , वहाँ जाकर सुनो । ३. गुरु की सेवा मान - अहंकार छोड़कर करो । ४. परमात्मा का गुणगान करो । ५. मंत्र जाप करो । ६. इन्द्रिय- दमनशील बनो । ७. शम का साधन करो और मुझसे बढ़कर संत को मानो । ८. यथा लाभ में संतोष करो , दूसरे का दोष मत देखो । ९ . सबसे छलहीन होओ । मुझ पर भरोसा रखो , हृदय में हर्ष और दीनता नहीं लाओ । सबमें मनोनिग्रह की बड़ी आवश्यकता है । गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है-

नित प्रति दरसन साधु के , औ साधुन के संग । तुलसी काहि वियोगते , नहिं लागाहरिरंग ॥

तो उत्तर में पुनः कहा 

मन तो रमे संसार में , तन साधुन के संग । तुलसी याहि वियोगते , नहिं लागा हरिरंग ॥

     चार भक्ति तक मन - लगाव , मन - लगाव ही है । मंत्र जपो और मन कहीं फिरे , तो यह जप नहीं है । कबीर साहब की वाणी में है 

माला तो कर में फिरै , जीभ फिरै मुख माहिं । मनुवाँ तो दहु दिसि फिरै , यह तो सुमिरन नाहिं । तन थिर मन थिर वचन थिर , सुरत निरत थिर होय । कह कबीर इस पलक को , कलप न पावै कोय ।।

      केवल पाँच भक्ति तक में ही पूर्ण मनोनिग्रह नहीं होता है । इसके बाद की भक्ति को जानिए । इन्द्रियों को कौन चलायमान करता है ? बच्चे को खोञ्चावाले को देखकर उसकी चीजों को खाने की इच्छा होती है । वयस्क को इच्छा नहीं होती । इसमें क्या है ? मन की धार इन्द्रियों तक है । इन धारों को यदि समेट लीजिए तो इन्द्रियाँ सिमट जाएँगी । यह दृष्टियोग के साधन से होगा । यही वैष्णवी मुद्रा - शाम्भवी मुद्रा है । इसके बारम्बार अभ्यास से मन की धारा सिमट जाएगी । पहले विचार से भी कुछ रोको । किंतु केवल विचार से ही इन्द्रियों पर काबू नहीं होता । स्थिर विचार - स्थितप्रज्ञ संत हैं । श्रीमद्भगवद्गीता की यह सिद्धावस्था है ।

     मन की स्थिरता में स्थिरप्रज्ञता होती है । जबतक मन की धारा पसरी हुई है , तबतक स्थिरता नहीं होगी । ध्यान - अभ्यास विशेष करने से मन की चंचलता छूटती है । तभी विषयों के रस से मन छूटेगा । जब आप सोने लगते हैं , तो पहले तन्द्रा होती है । तन्द्रा में आपको ज्ञात होता है कि बाहर का भी कुछ ज्ञान होता है और हाथ - पैर कमजोर होते जाते हैं । शक्ति अंदर को खिंची जा रही है उस समय में कुछ न खाने को है , न सुनने को , न देखने को है । किंतु केवल अंतर्मुखी वृत्ति होती है । बड़ा चैन मालूम होता है । अंतर्मुखी होने से बहुत चैन मालूम होता है । इसीलिए कबीर साहब ने कहा है - ' भजन में होत आनन्द आनन्द । '

     यह ईश्वर - प्रदत्त है । यह एक नमूना है । ईश्वर बहुत दूर है । केवल थोड़ा - सा अन्तर्मुख होने में चैन होता हैै यदि और विशेष अंदर हो तो विशेष चैन मिलता है । विषयों से उसका मन हट जाता है । मन हट जाने से इन्द्रियों से उसके सूत हट जाते हैं । इन्द्रियाँ यों ही पड़ी रहती हैं । छठी भक्ति - इन्द्रियों के दमन का स्वभाववाला बनो और सज्जनों के धर्म के अनुकूल चलो । सज्जन पापों को नहीं करते । झूठ , चोरी , नशा , हिंसा और व्यभिचार आदि पापों से अलग रहते । इन्द्रियों और मन का साथ - साथ साधन होता है । यह ' दम ' का साधन है । पहले दम का साधन होता है , फिर शम का साधन होता है । ' शम का अर्थ है मनोनिग्रह । ' शम ' से ' सम ' होता है । बिना ' शम ' के ' सम ' नहीं हो सकता है । केवल मन का साधन अंतर्नाद के अभ्यास से होता है । शिवजी ने शिवसंहिता में कहा है - ' न नाद सदृशो लयः । ' 

     जैसे नमक घुलते - घुलते समुद्र ही हो गया , सोना गलते - गलते पानी हो गया ; वैसे ही मन गलते - गलते उसमें विलीन हो जाता है । प्रकृति मण्डल से छूटकर परमात्मा का दर्शन करता है । नवधा भक्ति में सात भक्ति तक साधन है । आठवीं और नवीं भक्ति उसका फल है । इस प्रकार नौ प्रकार की भक्ति का आप साधन कीजिए तो परमात्मा के जिस स्वरूप का वर्णन हुआ , उसको प्राप्त करेंगे ।  इन्द्रियों के दर्शन - स्पर्श से जो रूप मालूम होता है , वह माया है । इन सब प्रकारों की भक्ति को कीजिए और पापों से बचिए । पापों से बचने पर संसार में प्रतिष्ठा भी होगी और ईश्वर - प्राप्ति भी होगी । ∆ 


(यह प्रवचन खगड़िया जिलान्तर्गत ग्राम - मानसी में दिनांक ६.६.१९५५ ई० को अपराह्नकालीन सत्संग में हुआ था । )



नोट-  इस प्रवचन में निम्नलिखित रंगानुसार और विषयानुसार ही  प्रवचन के लेख को रंगा गया या सजाया गया है। जैसे-  हेडलाइन की चर्चा,   सत्संग,   ध्यान,   सद्गगुरु  ईश्वर,   अध्यात्मिक विचार   एवं   अन्य विचार   । 


इसी प्रवचन को "महर्षि मेंही सत्संग सुधा सागर"  में प्रकाशित रूप में पढ़ें-

Maharshi Mehi pravachan number 113

Maharshi Mehi pravachan number 113a

Maharshi Mehi pravachan number 113b

Maharshi Mehi pravachan number 113c


इसी प्रवचन को "शांति संदेश"  में प्रकाशित रूप में पढ़ें-

Guru maharaj ka pravachan number 113

Guru maharaj ka pravachan number 113a

Guru maharaj ka pravachan number 113b

Guru maharaj ka pravachan number 113c

Guru maharaj ka pravachan number 113d

Guru maharaj ka pravachan number 113e

इस प्रवचन के बाद वाले प्रवचन नंबर 114 को पढ़ने के लिए   यहां दबाएं।


प्रभु प्रेमियों ! गुरु महाराज के इस प्रवचन का पाठ करके आपलोगों ने जाना कि इन्द्रियों से उसे पहचान नहीं सकते । बाहर में इन्द्रियों का संग रहता है । अंदर में होने से शरीर - इन्द्रियों के ज्ञान से छूटता है । सब छूटकर जब केवल चेतन आत्मा रहती है , तब दर्शन होता है । इसलिए ईश्वर की भक्ति ऐसी होनी चाहिए , जो अन्तर्मुखी कर दे । इत्यादि बातें।  इतनी जानकारी के बाद भी अगर कोई संका या प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस प्रवचन के बारे में अपने इष्ट मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने इससे आपको आने वाले प्रवचन या पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहेगी। उपर्युक्त प्रवचन का पाठ निम्न वीडियो में किया गया है। जय गुरु महाराज। 





सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज के विविध विषयों पर विभिन्न स्थानों में दिए गए प्रवचनों का संग्रहनीय ग्रंथ महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा सागर
महर्षि मेंहीं सत्संग-...
अगर आप "महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा सागर"' पुस्तक से महान संत सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस  जी महाराज के  अन्य प्रवचनों के बारे में जानना चाहते हैं या इस पुस्तक के बारे में विशेष रूप से जानना चाहते हैं तो नििम्नलिखि लिंक पर जाकर पढ़िए -

सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज की पुस्तकें मुफ्त में पाने के लिए  शर्तों के बारे में जानने के लिए.  यहां दवाएं। 
S113, नवधा भक्ति का उपदेश ।। Paramaatma kee Bhakti kaise Karen ।। ६.६.१९५५ ई०अपराह्न S113,  नवधा भक्ति का उपदेश ।। Paramaatma kee Bhakti kaise Karen ।। ६.६.१९५५ ई०अपराह्न Reviewed by सत्संग ध्यान on 5/28/2021 Rating: 5

2 टिप्‍पणियां:

  1. जय माता दी
    परम पूज्य सद्गुरुदेव भगवान के चरणों में बारंबार नमन आजकल हम कथाओं में एवं टीवी पर आने वाली भागवत कथा इत्यादि में बारंबार सुन्नते है की "कलयुग केवल नाम अधारा सुमिर सुमिर नर उतरीं पारा" तथा "कलयुग जोग ना जगिना ज्ञाना एक आधार राम गुण गाना" इसके अलावा हम कई बार अजामिल इत्यादि की कथा भी सुनते हैं जिन्होंने ईश्वर का एक बार एवं नर को से मुक्ति पाई इन सब को सुनाने पर भजन में उत्साह तो बढ़ता है संशय भी आता है पुराणों में कई जगह पर ऐसा वर्णन है कि कर्मों का नाश नहीं हो सकता मनुष्य को अपने किए कर्मों का फल भोगना ही पड़ता है पर साथ ही साथ श्रीमद्भागवत पुराण श्री शिव पुराण श्री दुर्गा सप्तशती रामायण इत्यादि ग्रंथों में ऐसा वर्णन मिलता है कि ईश्वर के नाम स्मरण से कहीं दुरात्मा दैत्य मनुष्य इत्यादि ने परमात्मा पद को प्राप्त किया है कथाकार भी मुख्य रूप से अजामिल की कथा सुनाते हैं जिन्होंने व्यभिचार इत्यादि पाप करने पर भी संत के कहने पर अपने पुत्र का नाम नारायण रखा एवं अंत समय में भगवान नारायण को पुकारने पर उनकी मुक्ति हुई श्री दुर्गा सप्तशती में भी कई जगह पर ऐसा वर्णन आता है कि जो एक बार भी भगवती को जगदंबा ऐसा कह कर पुकारते हैं उन्हें narak को का मुंह नहीं देखना पड़ता उनकी उनकी मुक्ति का भार स्वयं जगदंबा भवन करती है तो इस प्रकार से भगवान के नाम स्मरण से मुक्ति किस प्रकार प्राप्त की जा सकती है एवं किस प्रकार से भगवान के जाप भगवान के नाम का स्मरण करना चाहिए जिससे मुक्ति मिल सके

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. जय गुरु महाराज आपके सभी प्रश्नों का उत्तर यह है कि भगवान श्री कृष्ण का दर्शन युधिष्ठिर जी को होता था वह बहुत से तीर्थों में गए थे फिर भी थोड़ा सा अर्ध झूठ बोलने के कारण से उनको नर्क देखना पड़ा, तो भगवान का नाम असली नाम सारशब्द का सुमिरन है आदिनाद का सिमरन है उस सिमरन को किए बिना सभी दुखों से छुट्टी नहीं मिल सकती है। इन सब कथाओं का आशय यही है कि भगवान का सिमरन रोचक हो और छोटा मोटा दुख से तो उधार हो ही जाता है लेकिन सभी दुखों से उधार नहीं होता है साधारण नाम जाप करने से

      हटाएं

प्रभु प्रेमियों! कृपया वही टिप्पणी करें जो सत्संग ध्यान कर रहे हो और उसमें कुछ जानकारी चाहते हो अन्यथा जवाब नहीं दिया जाएगा।

Ad

Blogger द्वारा संचालित.