S41, Development of the country through ethics ।। महर्षि मेंहीं अमृतवाणी ।। दि.13-1-1953ई. सासाराम, रोहतास,
महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर / 41
प्रभु प्रेमियों ! सत्संग ध्यान के इस प्रवचन सीरीज में आपका स्वागत है। आइए आज जानते हैं-संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज के भारती (हिंदी) प्रवचन संग्रह "महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर" के प्रवचन नंबर 41वां, को । इसमें सदाचार पालन से देश-समाज और परिवार का विकास होता है। ऐसा बताया गया है।
इसके साथ ही इस प्रवचन (उपदेश, अमृतवाणी, वचनामृत, सत्संग सुधा, संतवाणी, गुरु वचन, उपदेशामृत, ज्ञान कथा, भागवत वाणी, संतवचन, संतवचन-सुधा, संतवचनामृत, प्रवचन पीयूष ) में बताया गया है कि- संतो से नम्रता का व्यवहार, भिक्षु गोपीचंद की भिक्षा की कथा, सत्संग की विशेषता, स्वादिष्ट भोजन, मुलायम सैया, सुख-दुख की परिभाषा, संतुष्टि दायक सुख, ईश्वर का स्वरूप, ईश्वर भक्ति, सदाचार, त्रैकाल संध्या, बिंदु ध्यान और नाद ध्यान की महिमा, देश और समाज का विकास, इत्यादि बातों के साथ-साथ निम्नलिखित प्रश्नों के भी कुछ-न-कुछ समाधान पायेंगे। जैसे कि- भारतीय खाना, स्वादिष्ट अर्थ, स्वादिष्ट व्यंजन, स्वादिष्ट भोजन पर कहानी, सदाचार के नियम, सदाचार के गुण, सदाचार की परिभाषा, सदाचार in हिन्दी, सदाचार के 5 नियम, सदाचार क्या है? सदाचार की बातें, सदाचार पर छोटा निबंध, सदाचार का अर्थ एवं महत्व, सदाचार पाठ का अर्थ, सदाचार पालन से देश का विकास, इत्यादि बातें। इन बातों को जानने-समझने के पहले, आइए ! संत सदगुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज का दर्शन करें।
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देश और समाज के विकास का मूल मंत्र है सदाचार |
Development of the country through ethics
सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज कहते हैं कि- पूज्य संतजन ! आपको मैं बारंबार प्रणाम करता हूँ । आपको कुछ सुनाकर आनन्दित करूँ , मैं इस योग्य नहीं ; क्योंकि आप मुझसे विशेष हैं .....इस तरह प्रारंभ करके गुरुदेव--Indian food, delicious meanings, delicious dishes, story on delicious food, rules of virtue, virtue virtues, definition of virtue, virtue in hindi, 5 rules of virtue, what is virtue? Speak of virtue, short essay on virtue, meaning and importance of virtue, meaning of virtue lesson, development of country through virtue practice,.....आदि बातों पर विशेष प्रकाश डालते हैं। इन बातों को अच्छी तरह समझने के लिए पढ़ें-४१. जहाँ रहो , सत्संग करो
पूज्य संतजन !
आपको मैं बारंबार प्रणाम करता हूँ । आपको कुछ सुनाकर आनन्दित करूँ , मैं इस योग्य नहीं ; क्योंकि आप मुझसे विशेष हैं । सज्जनवृन्द जो उपस्थित हैं , संभवत : ये सबके सब कई दिनों से मेरे कथन को सुन रहे हैं । इनसे भी कुछ विशेष कहना नहीं है । केवल कही हुई बातों को पुनः कहकर इन्हें स्मरण दिलाना है । मेरे पूज्य गुरुदेव ने मुझे आज्ञा दी थी कि ' जहाँ रहो , सत्संग करो । '
सत्संग की विशेषता पर अपने देश में घटित प्राचीन काल की एक कथा है- गोपीचन्द एक राजा थे । उनकी माता बहुत बुद्धिमती और योग की ओर जानेवाली साधिका थी । वे योग जानती थीं और करती भी थीं । उनके हृदय में ज्ञान , योग और भक्ति भरी थी । गोपीचन्द वैरागी हो गए थे । गुरु ने कहा -'अपनी माता से भिक्षा ले आओ । ' वे माता से भिक्षा लेने गए माताजी बोलीं - ' भिक्षा क्या हूँ ? थोड़ा - सा उपदेश लेकर जाओ । वह यह है - बहुत मजबूत किले ( गढ़ ) के अंदर रहो । बहुत स्वादिष्ट भोजन करो और मुलायम शय्या पर सोओ । यही भिक्षा है जाओ । ' गोपीचन्द बोले - ' आपकी ये बातें मेरे लिए पूर्णतः विरुद्ध हैं । ' माताजी बोलीं - ' पुत्र ! तुमने समझा नहीं । मजबूत गढ़ सत्संग है । इससे दूसरा और कोई मजबूत गढ़ नहीं है । जिस गढ़ में रहकर काम - क्रोधादिक विकार सताते हैं , जिससे मनुष्य मनुष्य नहीं रह जाता और वह पशु एवं निशाचर की तरह हो जाता है , वह गढ़ किस काम का ? संतों का संग ही ऐसा गढ़ है , जिसमें रहकर विकारों का आक्रमण रोका जाता है और उनका दमन करते - करते नाश किया जाता है । ' फिर सुस्वादु भोजन तथा मुलायम शय्या के लिए माता बोलीं - ' कैसा ही सुंदर स्वादिष्ट भोजन क्यों न हो , भूख नहीं रहने से वह स्वादिष्ट नहीं लगेगा । इसलिए खूब भूख लगने पर खाओ । मुलायम बिछावन वह है कि जब तुमको खूब नींद आवे , तब तुम कठोर वा कोमल जिस किसी भी बिछौने पर सोओगे , वही तुम्हें मुलायम मालूम पड़ेगा । ' यह शिक्षा सबको धारण करने योग्य है । गुरु महाराज कहते थे - ' जहाँ रहो , सत्संग करो । स्वयं सीखो और जहाँ तक हो सके , दूसरों को भी सिखाओ , जिससे उनको भी लाभ हो । '
लोगों की इच्छा ऐसी है कि दुःख भागे और सुख - ही - सुख मिले । साधारणतः जो मन और इन्द्रियों को सुहाता है , उसे सुख और जो नहीं सुहाता , उसे दुःख कहते हैं । मन और इन्द्रियों को सुहानेवाले पंच विषय हैं । लोग इन पंच विषयों को भोगते हैं , किंतु संतुष्ट नहीं होते हैं । संतों ने कहा है कि विषय - भोग में सुख नहीं है । तुम स्वयं सुख - स्वरूप हो । मन - बुद्धि आदि इन्द्रियों से अगम्य , केवल आत्मगम्य - परमात्मा नित्य सुख का समुद्र है । विषय - सुख क्षणिक और अनित्य है । परमात्मा नित्य है । उसको प्राप्त करने से नित्य सुख मिलेगा , इसलिए उसकी भक्ति करो । भक्ति का अर्थ भजन- सेवा है । जिसकी भक्ति करेंगे , वह पदार्थ रूप में कैसा है ? यह नहीं जानने से उसकी सेवा - भक्ति नहीं की जा सकती । परमात्म - स्वरूप क्या है ? इस विषय पर कई दिन कह चुका हूँ । फिर भी समास रूप में कहता हूँ – ‘ इन्द्रियों के द्वारा नहीं , जिसको आप स्वयं ( चेतन - आत्मा ) पहचानें , वह परमात्मा है । आप शरीर और इन्द्रिय नहीं हैं । शरीर और इन्द्रियाँ आपकी हैं । इनका संग छोड़कर अकेले हो जाइए , तब जो पहचानेंगे , वह परमात्मा है । उस परमात्मा की भक्ति कैसे हो ? जैसे गंगाजी स्नान करने अथवा किसी विशेष देवालय में लोग जाते हैं , तो यह जाना गंगा तथा देवालय के देवता की भक्ति है । वैसे ही अपने को जब आप शरीर और इन्द्रियों से छुड़ा सकेंगे , तभी परमात्मा को पाएँगे , यही भक्ति है । इसके लिए गमन करना होता है । शरीर और इन्द्रियों से ऊपर उठना , यही गमन है - जाना है ।
प्रभु सर्वव्यापी हैं , किंतु यहाँ उन्हें पहचान नहीं सकते । यहाँ पहचान हो जाती , तो कहीं जाना नहीं पड़ता । यहाँ हम इन्द्रियों के संग रहते हैं , इसलिए पहचान नहीं सकते आँख पर रंगीन चश्मा लगाने से संसार के पदार्थ उसी रंग के मालूम होते हैं , जिस रंग का वह चश्मा है । या आँख पर पट्टी लगाने से कुछ भी नहीं देख सकते । हमारे ऊपर जड़ का आवरण है । इसके रहने से कुछ सूझता ही नहीं है । इन्द्रियरूपी चश्मा लगा है । गोस्वामी तुलसीदासजी के वचनानुकूल गो गोचर जहँ लगि मन जाई । सो सब माया जानहु भाई ।।
हरे , पीले जो देखने में आते हैं , सभी माया है । परमात्मा को पहचानने की शक्ति उस चश्मे में नहीं है । इस चश्मे को उतारकर देखो । जिस प्रकार रज्जु में सर्प का भ्रम होता है , उसी प्रकार ब्रह्म में जगत का भ्रम होता है । यह शंकर स्वामी के ज्ञान के अनुकूल है तथा गोस्वामी तुलसीदासजी ने उसी के अनुकूल कहा है रजत सीप महँ भास जिमि , जया भानु कर वारि । यद्यपि मृषा तिहुँ काल सो , भ्रम नसकै कोउ टारि ।। यहि विधिजगहरि आश्रित रहई । यदपि असत्यदेतदुख अहई ।।
जबतक पूर्व कथित पट्टी और चश्मे नहीं उतरेंगे , तबतक उपर्युक्त भ्रम दूर नहीं होगा । इन पट्टी और चश्मे से ऊपर होना है । हम पर चश्मा और पट्टी नहीं रहे ; हम अकेले रहें । ईश्वर अंश जीव अविनाशी । चेतन अमल सहज सुखरासी ।। केवल यही रहे । सो माया वस भयेउ गुसाई । बंधेउ कीरमर्कट की नाई ।
चेतन - आत्मा पर यह वश्यता नहीं रहे , तब वह परमात्म - स्वरूप को पहचान सकती है । इन आवरणों से छूटने के लिए चेतन - आत्मा को जहाँ जाना होगा , वहाँ उसे जाना चाहिए । संतों ने कहा - बाहर में जहाँ जाओगे , शरीर और इन्द्रियों के साथ जाओगे । अपने अंदर जाने से शरीर और इन्द्रियों से छूटते हुए जाओगे और अंत में पूर्ण रूपेण इनसे छूट जाओगे । इसके लिए जाग्रत और स्वप्न की स्थिति पर विचार करो । जाग्रत में पर बाहर संसार के कामों को करते हैं । स्वप्न में बाहर की कोई इन्द्रिय बाहर में कुछ काम नहीं करती । मुँह में मीठा डालने पर भी स्वाद मालूम नहीं होता । जग जाओ तब मीठा लगेगा । इसका यह कारण है कि जाग्रत में चेतन - धारा इन्द्रियों के घाटों पर रहती हुई काम करती है और स्वप्न में बाहरी इन्द्रियों के घाटों से सिमटकर अंतर्मुख हो मनोमय कोष में रहती है और वहीं काम करती है । फिर जाग्रत अवस्था में स्वाभाविक ही वह बाह्य इन्द्रियों के घाटों पर आ जाती है । अंदर में चेतनवृत्ति के प्रवेश करने पर बाहर की इन्द्रियों से छुट्टी मिलती है , यह इसका नमूना है । अन्न का थोड़ा नमूना दिखाकर लाखों मन का दाम करके बेचते हैं । उसी प्रकार संत लोग नमूना दिखाते हैं । जाग्रत से स्वप्न में जाने से तुम बाह्य इन्द्रियों से छूट जाते हो । यदि और अंदर धंसो और अंतर के अंत तक पहुँचो तो कहना ही क्या है ? स्थूल और सूक्ष्म , सब इन्द्रियों से छूट जाओगे । इसी अंतर्गमन के विषय में तुलसी साहब ने कहा है हिय नैन सैन सुचैन सुंदरि साजि मुति पिउ पै चली । गिरिगवन गोह गुहारिमारग चढ़त गढ़ गगना गली ।। जहँ ताल तट पट पार प्रीतम परसि पद आगे अली । घट घोर सोरसिहार सुनिकै सिंध सलिता जस मिली ।।
यह भेद की बात है और अंदर में चलने के विषय का वर्णन किया गया है । बाहर में खूब पूजा करें - आरती उतारें , किंतु इससे भीतर में प्रवेश नहीं कर सकते नैवेद्य , पुष्प , धूप , दीप लेकर मन को उपास्यदेव की ओर , एकओर करते हैं यदि कोई दूसरा ख्याल नहीं रहे तो मन अवश्य एकओर होता है । स्तुति करने में भी एकओर होता है । जप में भी यही बात होती है । बल्कि स्तुति से जप में विशेष सिमटाव होता है । कारण यह है कि स्तुति करने में बहुत शब्द उच्चारण करने पड़ते हैं । जप में केवल एक ही शब्द को जपते हैं । पूजा कोटि समं स्तोत्रं स्तोत्र कोटि समंजपः । जाप कोटि समंध्यानं ध्यान कोटि समो लयः ॥
पूर्ण सिमटाव होने से स्थूल सूक्ष्मादि आवरणों का छेदन होता है । महाकारण रूप आवरण के छूटने से जड़ के सभी आवरण उतर जाते हैं । अब अपनी और अपने प्रभु की पहचान होती है । तब प्रभु हेराया हुआ नहीं रहेगा । इसी का प्रचार हमारे गुरु महाराज करते थे और मैं भी इसी का करता हूँ । और इसी विषय को जहाँ जाता हूँ , सुनाता हूँ , समझाता हूँ । किंतु यदि किसी तरफ जाना चाहे और पीछे को पिछड़ता रहे , तो निर्दिष्ट स्थान तक कोई कैसे पहुँच सकता है ? बाबा नानक ने कहा सूचै भाडै साचु समावै विरले सूचाचारी ।
चलना चाहे पवित्रता में और पिछड़े अपवित्रता की ओर , तब उस ओर कैसे बढ़ सकते हैं ? इसलिए सदाचारी बनो - पवित्र बनो यानी व्यभिचार , चोरी , नशा , हिंसा और झूठ ; इन पाँचों पापों को मत करो । यह संयम है । सतगुरु वैद्य वचन विस्वासा । संयम यह न विषय के आसा ।। -गोस्वामी तुलसीदास
एक ईश्वर पर अचल विश्वास और पूर्ण भरोसा करो । ऐसा नहीं कि मोर दास कहाइ नर आसा । करइ तो कहौ कहा विस्वासा ।।
प्रभु अपने अंदर में पहले मिलेंगे , फिर सर्वत्र । एक बार प्रत्यक्ष मिलने पर फिर वह मिलन कभी नहीं छूटेगा । अन्य सभी पदार्थ मिलकर छूटते हैं , किंतु यह कभी छूटता नहीं । यह साक्षात्कार बराबर बना रहता है । कबीर साहब को वह प्राप्त था । वे कहते हैं- न पल बिछुड़े पिया हमसे , न हम बिछुड़ें पियारे से ।
ध्यानाभ्यास करो । त्रयकाल संध्या प्रसिद्ध है । ब्राह्ममुहूर्त में उठकर भजन करो । दिन में स्नान के बाद करो । स्नान करने से मस्तिष्क ठण्ढा रहता है । इस ठण्ढे मस्तिष्क में भजन अच्छा बनेगा । फिर सायंकाल पैर - हाथ धोकर भजन करो , फिर दूसरा काम करो । रात में सोते समय दो मिनट भी भजन करके उसमें मन लगाते हुए सो जाओ , तो बुरा स्वप्न नहीं होगा । इसके अतिरिक्त सब कामों को करते हुए भजन में मन लगाते रहो । ' तन काम में मन राम में । '
संत पलटू साहब ने कहा है कमठ दृष्टि जो लावई , सोध्यानी परमान । सोध्यानी परमान , सुरत से अण्डा सेवै । आप रहे जल माहिं , सूखे में अण्डा देवै ॥ जस पनिहारी कलस भरे , मारग में आवै । कर छोडै मुख वचन , चित्त कलसा में लावै ॥ फणि मणिधेरै उतार , आपु चरने को जावै । वह गाफिल ना पड़े , सुरत मणि माहि रहावै ॥ पलटू कारज सब करै , सुरत रहै अलगान । कमठ दृष्टि जो लावइ , सो ध्यानी परमान ॥
"बंगाल में बाउल नाम के एक सम्प्रदाय के साधु होते हैं । वे एक हाथ से तंबूरा और दूसरे हाथ से करताल बजाते हैं और मुंह से गाना भी गाते हैं । इसी तरह ऐ संसारी जीव ! तुम भी दोनों हाथों से संसार के सब काम करते जाओ और मुख से भगवान का नाम जपा करो ; चुको मत ।'' -रामकृष्ण परमहंस
मतलब यह कि काम करते और चलते फिरते भी किसी न किसी तरह जप या मानस ध्यान द्वारा उस ओर आपका ख्याल लगा रहे । जो कहते हैं कि भजन करने के लिए मुझको समय नहीं है , यह बहुत गलत बात है । गप - शप करने के लिए समय है , सिनेमा देखने के लिए समय है और भजन करने के लिए समय नहीं है । यह बहुत गलत बात है । फिर सबकी जड़ है , गुरु की सेवा करो । ' आज्ञा सम न सुसाहिब सेवा । '
एक सर्वेश्वर पर ही अचल विश्वास , पूर्ण भरोसा तथा अपने अंदर में ही उनकी प्राप्ति का दृढ़ निश्चय रखो और नित्य सत्संग करो । इन पाँचों को करो और पहले के कहे पाँच पापों को छोड़ो । यदि भूल से पाँच पापों में से कोई हो जाय तो झूरो - पछताओ । ईश्वर से प्रार्थना करो कि फिर ऐसा कर्म मुझसे नहीं बने । स्वयं सचेत रहो और पापों से बचने के लिए शक्ति लगाओ । मन पवित्र करो । क्योंकि पवित्र मनवाले को ही समाधि लगती है । ' सहज विमल मन लागि समाधी । ' चंचलता में दुःख होता है , स्थिरता में सुख है । ध्यान में स्थिरता होती है , इसमें सुख मिलता है । इसी स्थिरता में सुख पाते हुए अपने अंतर में प्रवेश होता है । अपने भीतर में जाने के लिए खुलाशा यह है कि मन को एक ओर करो । जप - ध्यान से मन एकओर होता है । स्तुति से विशेष जप में , जप से विशेष ध्यान में मन की एकओरता होती है । ध्यान पहले रूप का , फिर अरूप का होता है ।
इष्ट - मूर्ति का ध्यान करो , इसमें मन को लगाओ । इसके आगे बढ़ो , सूक्ष्म - ध्यान करो । सबसे सूक्ष्म रूप कौन है ? एक तस्वीर बनाओ , पहले क्या हुआ ? पेन्सिल रखते ही एक छोटा चिह्न हुआ । उसी चिह्न को इधर - उधर करने से रूप बना । तो वह प्रथम चिह्न अर्थात् विन्दु ही सब रूपों का बीज हुआ । किन्तु यह तो माना हुआ विन्दु है । परिमाण - रहित यथार्थ विन्दु वह है , जिसका वर्णन ध्यानविन्दूपनिषद् के इस श्लोक में है बीजाक्षरं परं विन्दुंनादं तस्योपरिस्थितम् । सशब्दं चाक्षरे क्षीणे निशब्दं परमं पदम् ।।
जिसे परम विन्दु कहा गया है , उसे पेन्सिल से नहीं लिख सकते । हाँ , दृष्टि की पेन्सिल से लिख सकते हैं । जहाँ दृष्टि का पसार खतम हो जाएगा , उसकी धारा का जहाँ अटकाव हो जाएगा , वहीं परमात्मा का अणोरणीयाम् रूप उदय हो जाएगा । जबतक यह नहीं होता है तबतक मन को सँभालने में बड़ी कठिनाई मालूम होती है । दृष्टि सँभालकर रखनी चाहिए , तब ज्योतिर्विन्दु का उदय होगा , ऐसा ध्यान करो । यह सूक्ष्म रूप - ध्यान हुआ । इतना ही नहीं , उसके बाद रूपातीत ध्यान अर्थात् नाद - ध्यान करना होगा । जिसको विन्दु प्राप्त हो जाएगा , उसके लिए यह अंतर्नाद खुल जाएगा । उस नाद को ग्रहण कर परमात्मा तक पहुँचना होगा । नाद परमात्मा से स्फुटित है और उनसे लगा हुआ है । इस प्रकार ध्यान करना चाहिए । बहुत लोग केवल गाने और बजाने में ही परमात्मा की प्राप्ति और मुक्ति मानते हैं , परंतु केवल गाने - बजाने से ही मुक्ति नहीं होती है । मुक्ति न होवै नाचे गाये । मुक्ति न होवै मृदंग बजाये ।। मुक्तिन होवै साखी पदबोले । मुक्ति न होवैतीख डोले ।। गुप्त जाप जानै जो कोई । कहै कबीर मुक्त भल सोई ।।
गुप्त जप के लिए ऐसा कहा गया है जाप अजपा हो सहज धुन परख गुरु गम धारिये । होत ध्वनि रसना बिना करमाल बिनु निरवारिये ।। -कबीर साहब
मुख कर की मेहनत मिटी , सतगुरु करी सहाय । घट में नाम प्रगट भया , बक - बक मरै बलाय ॥ सहजे ही धुन होत है , हरदम घट के माहिं । सुरत शब्द मेला भया , बिछुड़त कबहुँ नाहिं ।। -कबीर साहब
संतों का अजपा जप है । स्वामी शंकराचार्य ने भी कहा है भेरीमृदंगशंखायाहत नादे मनः क्षणं रमते । पुनरनाहतेऽस्मिन्मधुमधुरेऽखण्डिते स्वच्छ ।। -प्रबोध सुधाकर-नादानुसंधान
मन तो भेरी , मृदंग और शंख आदि के आघातजन्य नादों में भी एक क्षण के लिए मग्न हो जाता है , फिर इस मधुवत् मधुर , अखंडित और स्वच्छ अनाहत नाद की तो बात ही क्या है ? नादानुसंधान से बढ़कर कोई साधन नहीं है । यह ऐसा सहारा है कि हम नहीं पकड़ेंगे , शब्द ही हमको पकड़ लेगा । जैसे चुम्बक से लोहा पकड़ा जाता है । चुम्बक से लोहे को लोग अलग भी कर सकते हैं , किंतु इस शब्द से पकड़े जाने पर शब्द से सुरत को कोई छुड़ा नहीं सकता , चाहे उसको बाघ पकड़े या उसपर बमगोला बरसे । शब्द निरन्तरसे मन लागा , मलिन वासना भागी । ऊठत बैठत कबहुँ न छूटे , ऐसी ताड़ी लागी ।। सोवत जागत ऊठत बैठत टुक विहीन नहिं तारा । झिनझिन जंतर निस दिन बाजै जम जालिम पचिहारा ॥ -दरिया साहब , बिहारी
यदि कहा जाय कि साधन एक शरीर में समाप्त नहीं होगा , तो साधन का कष्ट व्यर्थ ही किया जाएगा । तो इसके उत्तर में कहा है कि एक देह में किए गए साधन का संस्कार दूसरी देह में पुन : जागृत होता है । इसलिए एक देह में साधन समाप्त नहीं होगा तो दूसरी वा तीसरी देह में , कभी न कभी अवश्य समाप्त हो जाएगा ।
साधना में सफल होने के लिए कितने लोग कृपा माँगा करते हैं । किंतु कृपा केवल माँगने से नहीं होगी । कृपापात्र बनना चाहिए , तब बिना माँगे ही कृपा मिलती रहेगी । टीले पर पानी बरसने से भी गहरे में जाकर पानी जमा होता है । इसलिए अपने को पात्र बनाओ । इसके लिए घर छोड़ने की जरूरत नहीं । कबीर साहब के बताए अनुकूल चलो । अवधूभूले को घर लावै , सोजन हमको भावै।।टेक ।। घर में जोग भोग घर ही में , घर तजि वन नहिं जावै । वन के गए कलपना उपजै , तब धौं कहाँ समावै ॥ घर में जुक्ति मुक्ति घर ही में , जो गुरु अलख लखावै । सहज सुन्न में रहै समाना , सहज समाधि लगावै ।। उनमुनी रहै ब्रह्म को चीन्है , परम तत्त को ध्यावै । सुरत निरत सों मेला करिके , अनहद नाद बजावै ॥ घर में बसत वस्तु भी घर है , घर ही वस्तु मिलावै । कहै कबीर सुनो हो अवधू , ज्यों का त्यों ठहरावै ॥
संसार में कैसे रहोगे ? अब यह भी सुनो संसार में महात्मा गाँधीजी के समान रहो अर्थात् संसार के भी सब कामों को करो और परमार्थ के साधन को भी निभाते जाओ । इसीलिए महात्माजी के निधन होने पर सब राष्ट्रों ने अपना - अपना झण्डा झुकाया । अमेरिका , इंगलैण्ड तथा रूस आदि सभी राष्ट्रों ने झण्डा झुकाया ।
हमलोगों को स्वराज्य मिला है , किंतु सुराज्य नहीं । यहाँ चोरी , घूसखोरी और नैतिक पतन आदि वर्तमान हैं , जिनसे जनता में दुःख फैला हुआ है । इनसे बचने के लिए संतमत उपदेश करता है । कानून से नैतिक पतन छूट नहीं सकता । कानून चलता ही है और घूस - फूस चलते ही हैं । जहाँ झूठ नहीं , वहाँ घूस कहाँ से आवे ? इसलिए सदाचार का पालन करो । सदाचार के पालन से स्वराज्य में सुराज्य हो जाएगा । हमारा देश द्रव्य के लिए महाकंगाल है । लाचारी है , कमाओ , जमा करो ; किंतु सच्ची कमाई करो ।
हम देखते हैं कि शब्द के लिए भी हम कंगाल हो गए हैं । अपनी भाषा से अपनी भावों को प्रकट नहीं कर सकते । अपने शब्द को भूल गए । हमलोग हिन्दू नहीं , हमारी भाषा हिन्दी नहीं और हमारा देश हिन्दुस्तान नहीं । हिन्दू , हिन्दी और हिन्दुस्तान ; ये तीनों शब्द हमारे देश की भाषा के शब्द नहीं हैं । दूसरी बात है कि अपनी भाषा में दूसरे की भाषा को फेंटकर नहीं बोलो । आजकल ऐसा हो गया है कि जो एक अक्षर भी अंग्रेजी लिखना - पढ़ना नहीं जानता है , वह भी अपनी भाषा में अंग्रेजी शब्दों को मिला - मिलाकर बोलता है । यहाँ तक कि घर की माई - दाई भी समय के स्थान पर टाइम बोलती हैं । टाइम नहीं बोल सकती है , तो टेम बोलती हैं । यह बात अच्छी नहीं । सब कोई सदाचार का पालन करो , सब दुःख भाग जाएँगे ।
हमारे गुरु महाराजजी ने १ ९ ० ९ ई ० में कहा था - पहले आध्यात्मिकता का पद है , तब सदाचार , फिर सामाजिक नीति और अंत में राजनीति का पद है । तात्पर्य यह है कि आध्यात्मिकता की ओर चलने से सदाचार का पालन करना अवश्य होगा । समाज के लोग सदाचारी बन जाएँगे , तो सामाजिक नीति अच्छी हो जाएगी और सामाजिक नीति जब अच्छी होगी , तो राजनीति कभी बुरी नहीं हो सकेगी । वह आप - ही - आप सुधर जाएगी । अपने देश तथा सारे संसार को गुरु महाराज के उपर्युक्त उपदेश को मानना और पालन करना बहुत आवश्यक है । नहीं तो स्वराज्य में सुराज्य नहीं आ सकता , यह बात सब लोग दृढ़ता से जान लें । ०
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प्रभु प्रेमियों ! गुरु महाराज के इस प्रवचन का पाठ करके आपलोगों ने जाना कि उन्नति का मूल मंत्र सदाचार पालन है, इससे स्वादिष्ट भोजन, मुलायम सैया, संतुष्टि दायक सुख की प्राप्ति होती है। ईश्वर भजन त्रैकाल संध्या, बिंदु ध्यान और नाद ध्यान द्वारा किया जाता है । इतनी जानकारी के बाद भी अगर कोई संका या प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस प्रवचन के बारे में अपने इष्ट मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने। इससे आपको आने वाले प्रवचन या पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहेगी। उपर्युक्त प्रवचन का पाठ निम्न वीडियो में किया गया है।
महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा सागर |
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S41, Development of the country through ethics ।। महर्षि मेंहीं अमृतवाणी ।। दि.13-1-1953ई. सासाराम, रोहतास,
Reviewed by सत्संग ध्यान
on
9/22/2020
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