महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर / 106
प्रभु प्रेमियों ! सत्संग ध्यान के इस प्रवचन सीरीज में आपका स्वागत है। आइए आज जानते हैं-संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज के हिंदी प्रवचन संग्रह "महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर" के प्रवचन नंबर १०६वां, के बारे में। इसमें बताया गया है कि भक्ति का सुख कैसा होता है?
इसके साथ ही आप इस प्रवचन (उपदेश, अमृतवाणी, वचनामृत, सत्संग सुधा, संतवाणी, गुरु वचन, उपदेशामृत, ज्ञान कथा, भागवत वाणी, संतवचन, संतवचन-सुधा, संतवचनामृत, प्रवचन पीयूष ) में पायेंगे कि- Indriyon se kaise alag hote hain? eeshvar ko pahachaanate kyon nahin hai? eeshvar ka sagun saakaar darshan aur nirgun niraakaar darshan ke phaayade? eeshvar darshan kaise hoga? shareer mein chetan dhaara ko samajhie? eeshvar bhakti ka sukh kaisa hota hai? eeshvar bhakti ke sukh ka namoona? sangati ka prabhaav, raamakrshn aur naanak saahab ka bhakti-bhaav, guru bhakti kee mahima, navadha bhakti ka varnan, इत्यादि बातों के बारे में। इसके साथ-ही-साथ निम्नलिखित प्रश्नों के भी कुछ-न-कुछ समाधान इसमें मिलेगा। जैसे कि- Navadha bhakti katha, navadha bhakti jain,navadha bhakti kya hota hai, navadha bhakti bhaagavat, navadha bhakti raamaayan chaupaee, bhakti ke bhed, pratham bhagati santan kar sanga,bhakti suvichaar, eeshvar bhakt hona, bhagavaan par suvichaar, eeshvar bhakt hona ka arth, bhagavaan par suvichaar, eeshvar suvichaar, praarthana par suvichaar, bhagavaan ka suvichaar, paramaatma suvichaar, eeshvar, anamol vachan, bhagavaan anamol vachan, bhaktimay suvichaar, bhagavaan par vishvaas karane vaala, paramaatma par suvichaar, bhagavaan ke anamol vachan, इत्यादि बातें। इन बातों को जानने-समझने के पहले, आइए ! संत सदगुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज का दर्शन करें।
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ईश्वर-भक्ति से होने वाले शुभ का वर्णन करते गुरुदेव |
सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज कहते हैं कि- .... ईश्वर दर्शन के लिए नवधा भक्ति है। ईश्वर-भक्ति से होने वाले सुख का नमूना से पता चलेगा, ईश्वर-भक्ति का सुख कैसा होता है? ईश्वर भक्ति क्यों करना चाहिए? .....इस तरह प्रारंभ करके गुरुदेव----How are senses different? Why don't you recognize God? The benefits of the God-given true vision and the virtuous formless philosophy? How will God see? Understand the conscious stream in the body? What is the pleasure of devotion to God? Sample of the joy of godliness? Effect of association, devotion of Ramakrishna and Nanak sahib, glory of Guru Bhakti, description of Navadha Bhakti,.....आदि बातों पर विशेष प्रकाश डालते हैं। इन बातों को अच्छी तरह समझने के लिए पढ़ें-
१०६. ईश्वर भक्ति से होने वाले सुख का नमूना
पिछले प्रवचन का शेष भाग
....वहीं उसका दर्शन हो जाएगा । दूध को मथकर मक्खन अलग कर लेने पर जो काम दूध से होगा , वह काम घी से नहीं होगा और जो काम घी से होगा , वह दूध से नहीं होगा । दूध से खीर बना सकते हैं , पूड़ी नहीं छान सकते । घी से पूड़ी बना सकते हैं , खीर नहीं बना सकते । उसी तरह इन्द्रियों के संग में रहकर जो काम होता है , इन्द्रियों से छूटने पर वह काम नहीं होगा । और इन्द्रियों से छूटने पर जो काम होगा , वह इन्द्रियों के संग में रहने से नहीं । इसीलिए ईश्वर के पास संत लोग जाने कहते हैं । कितने कहते हैं , उसको यहाँ बुला लो । फिर होता है कि उसको बुलाओ तो कहाँ ? वह तो सर्वत्र है । किंतु फिर वही बात होती है कि सर्वत्र है तो फिर यहाँ क्यों नहीं पहचानते हैं ? जैसे आँख पर पट्टी और रंगीन चश्मा लगा रहने से बाहर की चीज देखी नहीं जा सकती और जो देखी जाती है , वह चश्मा के रंग के अनुरूप रंग में । इसलिए ऐसी भक्ति हो जिससे शरीररूप पट्टी और इन्द्रियरूप चश्मा उतर जाय । मनु - शतरूपा को दर्शन हुआ, जिस रूप को उन्होंने पाने की इच्छा की थी । किंतु उस रूप में रहनेवाले का दर्शन नहीं हुआ । उनका साधन केवल तप था । शारीरिक कष्ट से ' हृदय जवनिका बहुविधि लागी ' नहीं टूट सकती । यह वर्णन भी नहीं आया कि उनके हृदय की जवनिका टूट गई थी । उन्होंने इसी आँख से देखा था । माया के दर्शन से मायिक - मोहित बुद्धि रह गई । मनु - शतरूपा के लिए इस तरह कहना मेरी ढिठाई है । उन्होंने भगवान के ऐसा पुत्र माँगा । पुत्र के लिए क्या - क्या हुआ , सो रामायण में पढ़ लीजिए । राजा दशरथ हुए , निरपराधी श्रवण को मारकर शाप लिया । उतनी तपस्या फिर शिकार खेलने का इतना चश्का कि दिन में शिकार खेलते खेलते नहीं थकते, तो रात में शिकार खेलते ।
पहले तो मेरे मन में था कि रूप - दर्शन करो , किंतु अब समझता हूँ कि रूप - दर्शन से संतुष्ट मत होओ । रूप में कौन है , उसको पहचान कर जानो । नहीं तो केवल रूप - माया में भरमाता है । कितने कहते हैं कि भगवान मेरे पास आएँगे । मैं कहता हूँ नहीं , भगवान के पास मैं जाऊँगा । जो भगवान को बुलाते हैं तो भगवान कहते हैं तुम इस आँख से मुझे नहीं देख सकते हो । इस आँख से देखना चाहते हो तो लो मेरे मायारूप को देखो । किंतु मैं तो उस रूप में रहनेवाले का दर्शन करना चाहता हूँ और आपलोगों को भी मैं उसी को पाने की लालच देता हूँ । सूरदासजी कहते हैं अविगत गति कछु कहत न आवै । ज्यों गूंगहिं मीठे फल को रस , अन्तरगत ही भावै ॥ परम स्वाद सबही जू निरन्तर , अमित तोष उपजावै । मन वाणी को अगम अगोचर , सो जानै जो पावै ।।
परम स्वाद है , वह स्वाद कैसा है तो सूरदासजी ही जाने । किंतु यह स्वाद ऐसा है कि पूरी संतुष्टि होती है , माँग - चाँग समाप्त । सूरदासजी भी भगवान के माया रूप के लिए बहुत लट्टू थे । किंतु चलते - चलते वे अविगत गति तक चले जाते हैं । वे कहते हैं जौ लौ सत्य स्वरूप न सूझत । तौं लौं मनु मणि कंठ विसारे फिरत सकल वन बूझत ।। अपनो ही मुख मलिन मंद मति देखत दर्पन माह । ता कालिमा मेटिबे कारण पचत पखारत छाँह ।। तेल तूल पावक पूट भरि धरि बनै न दिया प्रकाशत । कहत बनाय दीप की बातें कैसे हो तम नाशत ।। सूरदास जब यह मति आई वे दिन गये अलेखे । कह जाने दिनकर की महिमा अन्ध नयन बिनु देखे ।।
यह बुद्धि जबतक नहीं हुई थी , तबतक के दिन उनके बेहिसाब के ही चले गए । वह सत्य अव्यक्त परमात्म - स्वरूप है अवश्य; उसको छिपाकर रखना और उसकी प्राप्ति के यत्नों को नहीं जानना , जीवों के अमंगल का हेतु है । ऐसा सुन्दर रूप कि जिससे सुन्दर कुछ न हो । यदि उसका सब गहना जेवर उतार लो, तो वह कैसा लगेगा ? वह रूप कैसा जिसमें गहना - जेवर देने से चमक - दमक बढ़ जाय , वह पूर्णरूप कहाँ है ? पूर्णरूप तो वह है जिसका गहना - जेवर उतारते जाओ तो और चमक बढ़ता जाय । शरीर को लंगटा करने नहीं कहा । शरीर के ऊपर से शरीर को उतारो , जैसे - जैसे लगटा होओगे , वैसी - ही - वैसी खूबसूरती बढ़ेगी । चारो जड़ शरीरों को उतार दो , तो पूर्ण लंगटा हो जाओगे । तब पूर्ण चमक खिल उठेगी । इसी को सुन्दरदासजी ने कहा है व्योम को व्योम अनंत अखंडित आदिन अंत सुमध्य कहाँ है । को परमान करै परिपूरन द्वैत अद्वैत कछू न जहाँ है ।। कारण कारज भेद नहीं कछु, आप में आपहिं आप तहाँ है । सुन्दर दीसत सुन्दर माहिं सु, सुन्दरता कहि कौन उहाँ है ।।
वहाँ हाथ - पैर कुछ नहीं रहता । अब कुछ सुगम कहकर दुर्गम की ओर ले जाऊँगा और तब सत्संग समाप्त कर दूंगा । आपलोग नित्य प्रति सोते हैं । सोते समय जाग्रत से स्वप्न में जाते समय , शक्ति भीतर को खींचती है हाथ - पैर कमजोर होने लगते हैं । बाहर शरीर कहाँ कुछ पता नहीं । मुँह में मिश्री रहने पर भी उसका स्वाद नहीं । देह तो मर नहीं गयी , श्वाँस तो चलती ही रहती है । देह के अंदर ही रहे और बाहरी ज्ञान शून्य गए । बाहरी वस्तु का ज्ञान नहीं रहा । बाहरी विषय उसके पास धर दीजिए , किंतु उसको उसका ज्ञान नहीं होता । वह भीतर चला गया है । मानसिक धार -चेतन धार असली चीज है , उसी से सब इन्दियाँ सचेष्ट हैं । वह धारा इन्द्रियों की घाट से सिमट गई , स्वाभाविक ही सिमट गई । हमारे आपके करने से नहीं । जिस समय अंतर्मुख होता है , उस समय बड़ा सरूर वा चैन मालूम होता है । कोई इन्द्री अपने विषय में नहीं , फिर भी चैन । जिस वक्त उस ओर सरकाव होता है , शरीर ढीला होता - जाता है । उस समय कोई खटखुट कर दे , नींद टूट जाय तो बहुत दुःख होता है । एक विचित्र चैन तन्द्रा में मालूम होता है । खाने - पीने की कोई चीज नहीं , फिर भी आनंद । सोते समय अन्तर्मुखी होते हैं , जब आप सोने लगते हैं , तब संकल्प - ख्याल छूटते जाते हैं । छूटते छूटते सब छूट गए और आप गहरी नींद में चले गए । इससे जानने में आता है कि भीतर जाने के लिए ख्यालों को छोड़ना पड़ेगा । भीतर जाने के लिए बाहरी इन्द्रियों का संग छोड़ना होता है । स्थूल ज्ञान नहीं रहता । यह कैसे होगा ? ख्यालों को छोड़िए । कैसे ख्याल छोड़ा जाय ? इसके सहारे के लिए तुलसीकृत रामायण में नवधा भक्ति का वर्णन पढ़िए और उसकी प्रत्येक विधि से भक्ति कीजिए । प्रथम विधि है संतों का संग कीजिए , जो बातें हों, उनमें रत हो जाइए और गोस्वामी तुलसीदासजी की यह बात भी याद रखिए नित प्रति दरसन साधु के , औ साधुन के संग। तुलसी काहि वियोगतें , नहिं लागा हरिरंग ।
क्योंकि कबीर साहब कहते हैं - ' कबीर संगति साध की ज्यों गंधी को वास । जो कुछ गंधी दे नहीं , तौभी वास सुवास ।। '
इसी में गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं - ' नित प्रति दरशन साधु के , फिर हरि - रंग क्यों नहीं लगा ? उस दूकान पर गंधी का गंध ही नहीं लगा । तो गोस्वामी तुलसीदासजी उत्तर देते हैं मन तो रमे संसार में , तन साधुन के संग । तुलसी याहि वियोगतें , नहिं लागा हरिरंग ॥
साधु के संग में चुपचाप बैठो । साधु की ओर ख्याल लगाकर रखो तो साधु का प्रभाव पड़ेगा । रामकृष्ण परमहंसजी गीत गाते थे और रानी रासमणि मन - ही - मन मुकदमा का ख्याल करने लगी । परमहंसजी ने उसको एक थप्पड़ लगायी , बोले - मुझे गीत गाने कहती है और तुम मुकदमा की बात सोचती है । नानक साहब को मुसलमानों ने कहा कि तुम नमाज नहीं पढ़ते हो , नमाज पढ़ने चलो । गुरु नानकजी मस्जिद में गए । सब कोई नमाज पढ़ने लगे और ये बैठे रहे । कोई उलटकर देखता था , कोई मन ही मन कहता था वह नमाज नहीं पढ़ता है , काफिर है । और जो नबाब था , वह मन - ही - मन काबुल में घोड़े का मोल करता था । नमाज समाप्त होने पर उन लोगों ने कहा - तुमने नमाज नहीं पढ़ी । तो गुरु नानक ने कहा - तुमलोगों ने नमाज नहीं पढ़ी , तो मैंने भी नहीं पढ़ी । उनलोगों ने कहा - हमलोगों ने तो नमाज पढ़ी , तुम कैसे कहते हो कि हमलोगों ने नमाज नहीं पढ़ी । गुरु नानक ने कहा - तुमने नमाज कहाँ पढ़ी ? तुम मन ही मन कहते थे कि वह काफिर बैठा है , नमाज नहीं पढ़ता है । और तुम्हारा नबाब काबुल में घोड़ा खरीद रहा था । पूछो , मैं सच कहता हूँ या झूठ ? यह सुनकर उनलोगों ने कहा - छोड़ दो इनको , यह रोशन जमीर है ।
हाँ तो साधु के संग में जाकर ख्यालों को छोड़िए । कथा प्रसंग में डूब जाओ। गुरुपद पंकज सेवा , तीसरि भगति अमान । चौथी भगति मम गुन गन , करइ कपट तजिगान ।।
जैसे छत्रपति शिवाजी समर्थ रामदासजी की सेवा करते थे । जैसे राय शालिग्राम बहादुर अपने गुरु की सेवा करते थे । ये यमुनाजी से नंगे पैर पानी लाते थे । रास्ते में कोई कह दिया कि मेरे घर में पानी नहीं है , तो कहते ले लो । उसे वह पानी देकर फिर यमुनाजी से पानी लेकर गुरु महाराज के पास आते थे । इसी प्रकार मान - प्रतिष्ठा छोड़कर गुरु की सेवा करो । बेमन सेवा करेगा तो जो सच्चा गुरु होगा , वह सेवा स्वीकार नहीं करेगा । इस तरह यहाँ भी मन लगाना है । किंतु गुरु के बारे में भी सचेत रहिए । बहुत लोग गुरु भक्ति के विषय में बहुत बात कहते हैं । वे कहते हैं गुरु - सेवा के कारण बहुत बड़े - बड़े अनर्थ हुए हैं ' जानना चाहिए कि तन मनताको दीजिये , जाके विषया नाहिं । आपा सब ही डारि के , राखे साहेब माहिं । -कबीर साहब
राधास्वामी साहब ने कहा सुरत शब्द बिन जो गुरु होई वाको छोड़ो पाप कटा ।
ईश्वर का गुणगान करो , किंतु दिखलावे के लिए नहीं । मन समेटकर करो । पाँचवीं भक्ति है - गुरु से जो मंत्र पाए हो , उसको जपो । किसी मंत्र में विशेषता नहीं है । विशेषता जपने में है । किंतु जपने में भी ख्याल रखो । ऐसा न हो कि माला तो कर में फिरै , जीभ फिरै मुख माहिं । मनुवाँ तो दह दिसि फिरै , यह तो सुमिरन नाहिं ।
तब जप कैसा होना चाहिए , तो कहते हैं तनथिर मन थिरवचन थिर , सुरत निरत थिर होय । कह कबीर इस पलक को , कलपन पावै कोय ॥
यदि कहो कि गोस्वामी तुलसीदासजी ने तो कहा है भाव कुभाव अलख आलसहू । नाम जपत मंगल दिसि दसहू ॥
तो जानना चाहिए कि जो प्रेम से नाम जपने से होगा , सो कुभाव से कहने नहीं होगा । अलख- ( परमात्मा का ) क्रोध से भी नाम लो , किंतु मन से नाम लो । सोकर उठने से आलस होता है तो उस समय तो कोई विशेष बात मन में नहीं रहती है , एकाग्रता से जपना है । नाम जपत स्थिर भया , ज्ञान कथत भया लीन । सुरति शब्द एकै भया , जल ही बैगा मीन । इस तरह ख्याल छोड़ने कहते हैं । तब छठी भक्ति पर आते हैं इन्द्रियों को काबू में रखने का स्वभाववाला बनो । बहुत से कर्मों से हटे रहो और ..... (शेष प्रवचन दूसरी पोस्ट में।)
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प्रभु प्रेमियों ! गुरु महाराज के इस प्रवचन का पाठ करके आपलोगों ने जाना कि Eeshvar darshan ke lie navadha bhakti hai. eeshvar-bhakti se hone vaale sukh ka namoona se pata chalega, eeshvar-bhakti ka sukh kaisa hota hai? eeshvar bhakti kyon karana chaahie? इतनी जानकारी के बाद भी अगर कोई संका या प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस प्रवचन के बारे में अपने इष्ट मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने। इससे आपको आने वाले प्रवचन या पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहेगी। उपर्युक्त प्रवचन का पाठ निम्न वीडियो में किया गया है।
महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा सागर |
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S106, (ख) Sample of happiness from godliness ।। महर्षि मेंहीं अमृतवाणी ।। 12-03-1955 ई.
Reviewed by सत्संग ध्यान
on
10/08/2020
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