S106, (क) ईश्वर के पास क्यों जाना चाहिए ।। Why do devotion ।। महर्षि 12-03-1955ई.०भागलपुर

महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर / 106

प्रभु प्रेमियों ! सत्संग ध्यान के इस प्रवचन सीरीज में आपका स्वागत है। आइए आज जानते हैं-संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज के हिंदी प्रवचन संग्रह "महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर" के प्रवचन नंबर 106 के बारे में। इसमें बताया गया है कि  
भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः । क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ॥ -महोपनिषद् 
अर्थात् परे से परे को ( परमात्मा को ) देखने पर हृदय की ग्रन्थि खुल जाती है , सभी संशय छिन्न हो जाते हैं और सभी कर्म नष्ट हो जाते हैं । यह प्रत्यक्ष हो जाता है कि यह जड़ है और यह चेतन है ।"

इस प्रवचन के पहले वाले प्रवचन नंबर 105 को पढ़ने के लिए   यहां दवाएं 

ईश्वर भक्ति की आवश्यकता पर चर्चा करते सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज और भक्त गण

भक्ति क्यों करते हैं ? Why do devotion

 इस प्रवचन (उपदेश, अमृतवाणी, वचनामृत, सत्संग सुधा, संतवाणी, गुरु वचन, उपदेशामृत, ज्ञान कथा, भागवत वाणी, संतवचन, संतवचन-सुधा, संतवचनामृत, प्रवचन पीयूष )  में  पायेंगे कि-  ईश्वर-भक्ति के लिए किन बातों की जानकारी होना आवश्यक है? हम लोगों की इंद्रियां कैसी है? इंद्रियों में ज्ञान करने की क्षमता कैसी है? सभी विषयों को कौन-सी इंद्रीय जानती है? अविगत, अपार किसे कहते हैं? परमात्मा दर्शन कैसा होता है? परमात्मा दर्शन के लिए दो शर्त क्या है? आप कौन हैं? आपका स्वरूप कैसा है? परमात्मा की पहचान कैसे होती है? भक्ति क्यों करते हैं ? परमात्मा दर्शन कैसे होता है? क्या राम, कृष्ण और विराट रूप का दर्शन माया का दर्शन है? ईश्वर का असली स्वरूप कैसा है? गोस्वामी तुलसीदास जी ईश्वर को कैसा बताते हैं? प्रकृति किसे कहते हैं? सगुण और निर्गुण क्या है? जीव और ईश्वर में क्या अंतर है? कबीर साहब और बाबा नानक साहब ईश्वर के संबंध में क्या कहते हैं? ईश्वर सर्वव्यापक है फिर ईश्वर के पास क्यों जाना? इत्यादि बातों के बारे में। इसके साथ-ही-साथ निम्नलिखित प्रश्नों के भी कुछ-न-कुछ समाधान इसमें मिलेगा। जैसे किEeshvar aur maaya kya hai? eeshvar bhakti kee khoj kaise huee?  svaroop kise kahate hain? bhakti kyon karate hain? bhagavaan ke sagun roop ka darshan, eeshvar ke paas kyon jaana chaahie? Ham eeshvar kee pooja kyon karate hain,ham pooja kyon karate hain,pooja kyon kiya jaata hai,pooja kyon karana chaahie, bhakti karane ke phaayade,bhakti karane ka tareeka,bhakti karane ke tareeke, bhakti kya hai,bhakt kise kahate hain, andh bhakt kise kahate hain, bhagavaan kee bhakti kaise karen, bhagavaan ko kyon maanate hain,What is God and Maya?  How was devotion discovered? What is Swaroop?  Why do devotion?  Why should one go to God to see the manifold form of God?, इत्यादि बातें। इन बातों को जानने-समझने के पहले, आइए !  संत सदगुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज का दर्शन करें।

१०६. ईश्वर के पास क्यों जाना चाहिए ? 


परमात्मा भक्ति की महिमा को समझाते हुए सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज और भक्त गण

बंदौं गुरु पद कंज, कृपा  सिंधु  नर  रूप  हरि । 
महा मोह तम पुंज, जासु बचन रबि कर निकर।।

धर्मानुरागिनी प्यारी जनता ! 

      मैं ईश्वर-भक्ति का प्रचार सत्संग के द्वारा किया करता हूँ । ईश्वर - स्वरूप जाने बिना उसकी भक्ति कैसे की जाय ?  निर्णय नहीं हो सकता । ईश्वर - स्वरूप के विषय में कहा जाता है कि आप इन्द्रियों से जो जानते हैं , वह माया है । आँख से देखते हैं,  माया है , कान से सुनते हैं माया है , बुद्धि से पहचानते हैं, वह भी माया है परमात्मा मायातीत है , उसकी भक्ति मायामय इन्द्रियों के द्वारा हो संभव नहीं । 

     मनुष्य इन्द्रियों को छोड़कर कुछ काम करे असंभव प्रतीत होता है । एक - एक इन्द्री को एक - एक वस्तु का ज्ञान होता है । एक ही इन्द्री को  सब विषयों का ज्ञान नहीं होता । रूप आँख को व्यक्त है , तो कान को अव्यक्त है । शब्द कान को व्यक्त है तो और इन्द्रियों को अव्यक्त है । इसी प्रकार ऐसी कोई एक इन्द्रिय नहीं है , जिसके लिए सब विषय व्यक्त हो । मन सब विषयों को जानता है , परंतु बाहर की इन्द्रियों द्वारा । बाहर की इन्द्रियों से हीन कर दो तो मन कुछ नहीं जान सकेगा । जो मन - बुद्धि से परे पदार्थ है , वह बाहर की तो सब इन्द्रियों से परे है ही , उसकी भक्ति हम कैसे करें ? इसके लिए सरल मार्ग होना चाहिए । इसकी खोज है -

राम स्वरूप तुम्हार , वचन अगोचर बुद्धि पर । अविगत कथ अपार , नेति नेति नित निगम कह ॥ 

     स्वरूप अर्थात् निजरूप - आत्मरूपअविगत अर्थात् कहीं से भी खाली नहीं , सर्वव्यापकअपार अर्थात् स्वरूपतः ससीम नहीं । इति उसकी होती नहीं । यह जो परमात्मा का स्वरूप है , उसका ग्रहण हम कैसे करें ?

 ' गो गोचर जहँ लगि मन जाई । सो सब माया जानहु भाई ।। '

ईश्वर - स्वरूप का दर्शन हुआ , यह कैसे माना जाय ? 

भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः । क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ॥ -महोपनिषद् 

     अर्थात् परे से परे को ( परमात्मा को ) देखने पर हृदय की ग्रन्थि खुल जाती है , सभी संशय छिन्न हो जाते हैं और सभी कर्म नष्ट हो जाते हैं । यह प्रत्यक्ष हो जाता है कि यह जड़ है और यह चेतन है । तब प्रत्यक्ष होता है -

 ' जड़ चेतनहिं ग्रंथि पड़ि गई । जदपि मृषा छूटत कठिनई ।। ' 

     अभी तो यह है कि यह जड़ है और चेतन प्रत्यक्ष नहीं है , चेतन का कार्य जानते हैं । चेतन प्रत्यक्ष हो जाय , जैसे दूध से मक्खन अलग देखा जाता है । उसी तरह जड़ से अलग होकर चेतन देखा जाय । ऐसा दर्शन हो तब परमात्म - दर्शन उस चेतन से हुआ । परमात्म - दर्शन के लिए दो बातों को याद रखिए । 
पहली बात 

गोगोचर जहँ लगि मन जाई । सो सब माया जानहु भाई ।। -रामचरितमानस 

और दूसरी बात उपनिषद् का 

भियते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः । क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ।। 

     परमात्मा वह है , जिसके दर्शन से हृदय की ग्रंथि खुल जाय सभी संशय छिन्न हो जायँ और सभी कर्म नष्ट हो जायँ । फिर एक बात कि जैसे रूप विषय क्या है ? इसके लिए ठीक - ठीक उत्तर यही है कि जो आप आँख से ग्रहण करते हैं । इसी तरह और इन्द्रियों के विषय में भी जानना चाहिए । परमात्म - विषय क्या है ? परमात्म - विषय वह है जिसको आप अपने से पहचान जायँ , बिना सहारे किसी इन्द्री के । 

     आप स्वयं भी इन्द्रियों के विषय नहीं हैं । अपने शरीर को देखकर आप कहते हैं मैं हूँ । लेकिन विचारने पर कहते हैं मैं शरीर नहीं हूँ । निज स्वरूप क्या है , पहचान नहीं है । सद्ग्रंथों में है महात्माजन कहते हैं और जो इस विषय में लगे रहते हैं, वे कहते हैं जैसे आँख को आँख से ही देख सकते हो , यदि बिना आइने के सहारे नहीं तो भी आइने में चेहरे को देखते हो , आँख को आँख से देखते हो । आँख से ही कान , नाक , मुँह को भी देखते हो । इस उपमा से जानना चाहिए आँख से आँख को देखते हो तो उसी तरह अपने को अपने से देखोगे और अपने से ही बिना किसी इन्द्री के सहारे केवल अपने से अपने को पहचान सकोगे । उसी तरह परमात्मा को भी अपने से पहचानोगे । उसको पहचानने के लिए दूसरा कोई उपाय नहीं है । 

सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज

     भक्ति ऐसी होनी चाहिए कि निज चेतन द्वारा परमात्मा की प्राप्ति हो । भक्ति इसलिए की जाती है कि जिसके लिए भक्ति करते हैं , वह हमको मिल जाय । इसके लिए नहीं कि जिसकी भक्ति की जाय , वह कभी मिले ही नहीं । भक्ति तो वह है कि परमात्मा मिल जाय । जिसके हृदय में यह उत्कण्ठा नहीं हुई कि वह हमको मिल जाय वह विरही नहीं है । अपने को शरीर , इन्द्रियों से छुड़ाकर अकेलेपन की हालत में आ जाओ । इन्द्रियों का ज्याद सहारा लेना बिल्कुल छूट जाय । यह जिस तरह हो उस तरह करो , ईश्वर की भक्ति है । क्योंकि ऐसा होने पर ही ईश्वर का दर्शन होगा । कितने मुझसे कहते हैं कि यह क्या कहते हो ? तुम सुगम को  दुर्गम बताते हो ।

      क्या प्रह्लाद को दर्शन नहीं हुआ नहीं था ? क्या ध्रुव को दर्शन नहीं हुआ था ? क्या शवरी को श्रीराम का दर्शन नहीं हुआ था ? इन लोगों को तो आँख से ही दर्शन हुआ था । तब मैं कहता हूँ कि भगवान का कौन रूप असल है - गोपी ने जिस रूप को देखा था , वह रूप या अर्जुन ने जिस दोहरे - तेहरे ( दोभुजी , चतुर्भुजी और बहुभुजी विराट ) रूप का दर्शन किया था, वह या ध्रुव जिस रूप को देखा था या वह प्रह्लाद जिस रूप को देखा था वह ? तो किसी को कम - विशेष नहीं , सब असल - ही असल , कोई नकल नहीं । यदि ऐसा कहो तो क्या वह अनेक रूप होते हुए अनेक हैं ? तब लोगों को यह मंजूर नहीं । वे कहेंगे अनेक रूप होते हुए वह एक हैं । मैं कहूँगा कि ठीक है , जो ठीक नहीं कहे तो उसके दिमाग में क्या हो गया , कहा नहीं जा सकता । सब रूपों में भगवान है ।

'अचर चर रूप हरि सर्वगत सर्वदा, बसत इति वासना धूप दीजै । ' 

      सब रूपों में स्वरूप जो है , उसकी पहचान कैसे होगी , सो बता दो । कभी श्रीराम धनुष लिए तो कभी श्रीकृष्ण वंशी लिए , कभी विराट रूप , कभी चतुर्भुजी रूप , कभी और रूप ; तो असली रूप कौन ? यदि कहो कि एक को पहचान लो तो हो गया , तो इसमें दो बातें हैं - एक तो सबको एक ही मानने कहते हो तो सबाल यह होगा कि सबमें वह एक कैसा है ? दूसरी बात यह है कि श्रीराम ने कहा कि 

गो गोचर जहँ लगि मन जाई । सो सब माया जानहु भाई ।।

     इससे तो यह बिल्कुल माया ही माया हो जाता है और उपनिषद् वाक्य है 

भियते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः । क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ॥ 

ऐसा बोलो कौन दर्शन से हुआ ? यह जानना चाहिए कि जितने रूपों का वर्णन है , उससे वह नहीं जाना जाता कि उस दर्शन से

"भियते हृदयग्रन्थिश्छियन्ते सर्वसंशयाः।क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ॥ ' 

हो गया । श्रीकृष्ण भगवान पाँचो भाई पाण्डवों के संग रहते थे । भगवान श्रीकृष्ण उनके सर्वस्व थे । जब उनलोगों ने सुना कि श्रीकृष्ण इस धरातल पर नहीं हैं, तो वे लोग भी सब कुछ छोड़कर इस को छोड़ दिए । किंतु ऐसा सिद्ध नहीं होता कि उनके दर्शन से उन पाण्डवों को 

' भिद्यते हृदयग्रन्थि श्छियन्ते सर्वसंशयाः।क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ।। ' 

ऐसा हो गया था । इसमें यह अवश्य कहना पड़ेगा कि वह जो है , उसका वयान सुनो । गोस्वामी तुलसीदासजी का सुनिये 

व्यापक व्याप्य अखण्ड अनन्ता । अखिल अमोघ सक्ति भगवन्ता ।। निर्मल निराकार निर्मोहा।नित्य निरंजन सुख सन्दोहा ।। प्रकृति पारप्रभुसब उरबासी।ब्रह्म निरीह बिरज अबिनासी ॥ इहाँमोहकर कारन नाहीं । रबिसन्मुख तमकबहुँकिजाहीं ॥ 

      यह कैसा है ? केवल इतना ही रहता कि हाथ , पैर , नाक , कान मुँहवाला है , तब तो कुछ बात ही नहीं । किंतु यहाँ तो

प्रकृति पारप्रभुसब उखासी।ब्रह्म निरीह बिरज अबिनासी

कह कर प्रकृति पार कहा गया है । प्रकृति सत , रज , तम ; तीनों का सम्मिश्रण रूप है । सत् , रज , तम ; तीनों से पार हो जाय अर्थात् त्रैगुणातीत हो जाय । त्रैगुणातीत निर्गुण हो गया । शरीर सगुण और शरीर धारण करनेवाला निर्गुण होता है । 

भगत हेतु भगवान प्रभु , राम धरेउ तनु भूप । किये चरित पावन परम , प्राकृत नर अनुरूप ।।

राम ने भूप का शरीर धारण किया , वह राम स्वयं कैसा ? 

जथा अनेकन वेषधरि , नृत्य करइ नट कोइ । सोइ सोइ भाव देखावइ , आपुन होइन सोइ ।।

आपुन होइ न सोइ ' यह कैसा ? इसके लिए आग्रह नहीं ? यह तो गोस्वामी तुलसीदासजी के कहने के सहारे और कबीर साहब , गुरु नानक साहब के लिए तो कहना ही क्या ? कबीर साहब कहते हैं -

श्रूप अखण्डित व्यापी चैतन्यश्चैतन्य । ऊँचे नीचे आगे पीछे दाहिन बायँ अनन्य ।। बड़ातें बड़ा छोट तें छोटा मीही ते सब लेखा । सब के मध्य निरन्तर साई दृष्टि दृष्टि सों देखा ॥ चाम चश्म सों नजरिन आवै खोजु रूह के नैना । चून चगून वजूद न मानु तें सुभानमूना ऐना ॥ 

     बड़ा - से - बड़ा वही हो सकता है जो अनादि अनंत है - असीम है , ईश्वर वह है , जिसकी परिधि कहीं नहीं , सभी जगह केन्द्र - ही - केन्द्र है । जीव वह है , जिसमें केन्द्र सहित परिधि है । चामचश्म चर्मदृष्टि से नहीं , आत्मदृष्टि से खोजने कहा । 

     बाबा नानक के पास जाएँ और उनसे पूछे कि ईश्वर के विषय में कहिए तो वे कहते हैं 

अलख अपार अगम अगोचरि , ना तिसु काल न करमा ।। जाति अजाति अजोनी संभउ , ना तिसु भाउन भरमा ।। साचे सचिआर बिटहु कुरवाणु । नातिसु रूप बरनु नहि रेखिआ साचे सबदि नीसाणु ।। ना तिसु मात पिता सुत बंधप ना तिसु काम न नारी ।। अकुल निरंजन अपर परंपरु सगली जाति तुमारी ।। घट घट अंतरि ब्रह्म लुकाइआ घटि घटि जोति सबाई । बजर कपाट मुकते गुरमती निरभै ताड़ी लाई । 

जैसे कबीर साहब ने कहा - '

चाम चश्म सों नजरि न आवै खोज रूह के नैना । ' वैसे ही गुरु नानक साहब ने कहा- ' बजर कपाट मुकते गुरमती निरभै ताड़ी लाई ।। ' श्रीराम , श्रीकृष्ण , विराटरूप , शिवरूप , देवी रूप ; सब रूपों को दण्डवत् करता हूँ । किंतु प्रश्न रह जाता है कि उन रूपों में रहनेवाला कौन है ? तथा उसके बिना उपनिषद् की यह सार्थकता रह ही जाती है कि 

भियते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः । क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ॥ 

     जैसे भागलपुर जाना है तो कहलगाँव को छोड़ना होगा । उसी तरह ईश्वर के पास जाना है, तो इन्द्रियग्राम को छोड़ो । यह कहने की कोई आवश्यकता नहीं है कि ईश्वर का केन्द्रीय रूप एक जगह है और व्यापक रूप किरणों से है । यह भी एक प्रश्न का उत्तर है कि ईश्वर के पास क्यों जाना चाहिए ? ईश्वर तो सर्वत्र है । उसके उत्तर में है कि ईश्वर केन्द्रीय रूप से एक जगह है और किरण रूप से सर्वव्यापक है तो यह उत्तर भी गलत हो जाता है ; क्योंकि केन्द्र और उसकी किरण होने से ससीम हो जाता है । वह एक रस व्यापक नहीं हो सकता । किरण वहाँ फैल कर जाती है , जहाँ वह स्वरूपतः नहीं है । इसलिए एक रस व्यापक नहीं हो सकता । सूर्य कितना बड़ा हो फिर भी उसकी किरण ससीम ही होगी । क्योंकि ससीम पदार्थ की किरणें भी ससीम होती हैं । ऐसा क्यों न कहो कि सर्वत्र एक समान एक रस व्यापक । किंतु हमें पहचानने की शक्ति नहीं है । पहचानने की शक्ति यहाँ इसलिए नहीं है कि वह इन्द्रियगम्य नहीं है और हम इन्द्रियों के संग - संग हैं । इसलिए जहाँ इन्द्रियों और शरीरों का संग छूटा........। इसमें इतना ही शेष प्रवचन अगले पोस्ट में।


नोट-  इस प्रवचन में निम्नलिखित रंगानुसार और विषयानुसार ही  प्रवचन के लेख को रंगा गया या सजाया गया है। जैसे-  हेडलाइन की चर्चा,   सत्संग,   ध्यान,   सद्गगुरु  ईश्वर,   अध्यात्मिक विचार   एवं   अन्य विचार   । 


इसी प्रवचन भाग को "महर्षि मेंही सत्संग सुधा सागर"  में प्रकाशित रूप में पढ़ें- 

Guru maharaj ka pravachan number 106 a

Guru maharaj ka pravachan number 106 b

गुरु महाराज का प्रवचन नंबर 106b

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