महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर / 61
प्रभु प्रेमियों ! सत्संग ध्यान के इस प्रवचन सीरीज में आपका स्वागत है। आइए आज जानते हैं-संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज के हिंदी प्रवचन संग्रह "महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर" के प्रवचन नंबर ६1वां, के बारे में। इसमें बताया गया है कि गुरु सेवा कौन कर सकता है? वृद्ध कितने प्रकार के होते हैं? गुरु किसे कहते हैं?
इसके साथ ही आप इस प्रवचन (उपदेश, अमृतवाणी, वचनामृत, सत्संग सुधा, संतवाणी, गुरु वचन, उपदेशामृत, ज्ञान कथा, भागवत वाणी, संतवचन, संतवचन-सुधा, संतवचनामृत, प्रवचन पीयूष ) में पायेंगे कि- Sadaachaaree kee mahima, eeshvar kya hai? bhakti kise kahate hain? navadha bhakti kya hai? guru seva kaun kar sakata hai? vrddh kitane prakaar ke hote hain? guru kise kahate hain? naam bhajan kitane prakaar ka hota hai? karm aur karm phal, sajjanon ka dharm kya hai? sam dam kya hai? hamaare dukh ka kaaran kya hai? इत्यादि बातों के बारे में। इसके साथ-ही-साथ निम्नलिखित प्रश्नों के भी कुछ-न-कुछ समाधान इसमें मिलेगा। जैसे कि- Guru seva, guru seva kaun kar sakata hai ? guru seva ka mahatv, guru seva te bhagati kamaee, guru seva kashee karaavee, guru seva kee mahima, guru seva bhajan, Guru Seva Glory, इत्यादि बातें। इन बातों को जानने-समझने के पहले, आइए ! संत सदगुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज का दर्शन करें।
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Who can do Guru Seva
सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज कहते हैं कि- धर्मानुरागिनी प्यारी जनता ! मेरे कहने का विषय आज का यह होगा कि ईश्वर को लोग सर्वव्यापी और इन्द्रियातीत क्यों मानते हैं ? फिर उस तक पहुँचने के लिए जो भक्ति है , वह किस तरह की जानी जाती है। .....इस तरह प्रारंभ करके गुरुदेव----Glory to virtue, what is God? What is Bhakti? What is Navadha Bhakti? Who can do Guru Seva? What are the types of old people? What is a teacher? What type of name is Bhajan? Karma and karma fruits, what is the religion of gentlemen? What is equal What is the reason for our suffering?.....आदि बातों पर विशेष प्रकाश डालते हैं। इन बातों को अच्छी तरह समझने के लिए पढ़ें-
S61, (ख) ईश्वर और गुरु की सेवा क्या है?
.....वह अपरम्पार वचन में आने योग्य नहीं । इन्द्रियों से बाहर वह परमात्मा है । आप याद रखें , तो संतवाणी और बुद्धि - विचार से इसी निर्णय पर पहुँचते हैं कि ईश्वर को इन्द्रियों से पकड़ा नहीं जा सकता ।
सदाचार का पालन करो । सदाचारी ईश्वर का भक्त बनता है । भक्त बनने से उसके सब दुःख हो जाते हैं । ईश्वर की भक्ति करो तो मुक्ति मिलेगी । विद्वान बनो और सदाचारी होकर ईश्वर की भक्ति करो , तो संसार में ऊँचापद प्राप्त करोगे और मुक्ति भी प्राप्त करोगे । लोग कहते हैं कि विद्या की क्या आवश्यकता ? कितने संत हुए , जो पढ़े - लिखे नहीं थे । तो जानना चाहिए कि केवल स्कूल - कॉलेज जाने से ही पढ़ना - लिखना नहीं होता है । पहले मौखिक विद्या ही थी । हाल में स्वामी दयानंद सरस्वती के गुरु विरजानन्द स्वामी थे । ये जन्मान्ध थे । वे कैसे विद्वान हुए ? यह कहना नहीं पड़ेगा कि भक्ति में विद्या की आवश्यकता नहीं । संतों में जो पढ़े लिखे नहीं हुए , उन्होंने संतों के पास जाकर सुना , समझा और ध्यानाभ्यास किया ।
ईश्वर अनादि - अनन्त है , सर्वव्यापक है । वह अत्यन्त झीना है । उसको इन इन्द्रियों से पकड़ नहीं सकते । सब इन्द्रियों में जो चेतन तत्त्व है , उसी से उसे पकड़ सकते हैं । जैसे रूप आँख का विषय है , उसी तरह चेतन आत्मा का निज विषय परमात्मा है । कोई कहे कि शब्द क्या होता है ? तो कहा जाएगा - जो कान से सुनते हैं । उसी तरह ईश्वर क्या है ? तो कहिए , जो चेतन आत्मा से पकड़ा जाय । चेतन आत्मा अभी शरीर और इन्द्रियों में बंधी हुई है , इसलिए ईश्वर का दर्शन नहीं होता है । शरीर और इन्द्रियों से अपने को ऊपर उठाना यही भक्ति है ।
सीताजी का हरण हुआ था श्रीराम उसे खोजते - खोजते शवरी के आश्रम गए । वहाँ उनको नौ प्रकार की भक्ति बताई । नवो को पूर्ण करो तब भक्ति पूर्ण होगी ।
ईश्वर के सम्बन्ध में , मोक्ष के सम्बन्ध में सत्संग में बातचीत होती है । इसलिए पहले संतों का संग करो । यह पहली भक्ति है सत्संग सुनो , तो मन लगाकर सुनो - यह दूसरी भक्ति है । तीसरी भक्ति है - मान - रहित होकर गुरु - पद - पंकज की सेवा करनी । गुरु - सेवा में अपनी मान - मर्यादा को खोना पड़ता है । मान - प्रतिष्ठा खोओ , तो गुरु सेवा होगी । सेवा में सेवक को तन - सुख और मन सुख खोना पड़ता है । जो स्वयं अपना तन - सुख और मन - सुख चाहता है , वह दूसरे की सेवा नहीं कर सकता । बड़े के सामने में नवो । बड़े घराने में भी लोग नवते हैं । बड़े भाई , चाचा आदि - सबकी सेवा करो । वृद्ध चार प्रकार के होते हैं - वयोवृद्ध , सम्बन्धवृद्ध , पदवृद्ध और ज्ञानवृद्ध । ज्ञानवृद्ध सबसे बड़े होते हैं । इन सब गुरुजनों की सेवा करो । जो अपने तन - मन के सुख में डूबा हुआ है , जो अपनी मान - प्रतिष्ठा खोजता है , उससे सेवा नहीं हो सकती । इसलिए अमानी होकर गुरु - पद की सेवा करो । ऐसा नहीं होना चाहिए कि अहं अग्नि हिरदे जरै , गुरु से चाहै मान । तिनको जम न्योता दिया , हो हमरे मेहमान ।।
चौथी भक्ति है - ईश्वर का यशोगान करो । पाँचवीं भक्ति है - मंत्र जाप करो , जो गुरु बता दे । किन्तु गुरु हो गोरू नहीं हो । ज्ञानवान को गुरु कहते हैं । गुरु नाम है ज्ञान का , शिष्य सीख ले सोय । ज्ञान मरजाद जाने बिना , गुरु अरू शिष्य न कोय ।।
ज्ञानवान और चरित्रवान हो , तो वह गुरु है । ज्ञानवान हो और चरित्रवान नहीं हो, तो उस गुरु को छोड़ देना चाहिए ; क्योंकि वह झूठा गुरु है झूठे गुरु के पच्छ को , तजत न कीजै बार । बार न पावै शब्द का , भटकै बारम्बार ॥ साँचे गुरु के पच्छ में , मन को देय ठहराय । चंचल ते निःचल भया , नहिं आवै नहिं जाय ।
एकाग्र मन से जपो । लोग कहते हैं भाव कुभाव अलख आलसहू । नाम जपत मंगल दिसि दसहू ।।
दशो दिशाओं में मंगल - शुभ होगा दसो दिशाएँ माया में हैं , इसलिए माया में शुभ होगा । इससे मुक्ति नहीं होगी । उस नाम को भी जानो । नाम दो प्रकार के होते हैं - वर्णात्मक और ध्वन्यात्मक । जप वर्णात्मक नाम का होता है और ध्यान ध्वन्यात्मक शब्द का होता है । छठी भक्ति है - इन्द्रियों को रोकने का स्वाभाववाला बनना । इन्द्रियों का सूत मन के साथ है । मन इन्द्रियों को चलाता रहता है । इन्द्रियों के साथ मन भी साधा जाता है । मन का जो सूत इन्द्रियों से लगा है , उसको उस स्थान में समेटो , जहाँ से यह बिखरा है । दमशीलता के साधन में इन्द्रियों के साथ - साथ मन का भी साधन होता है । ध्यान की क्रिया से मन के सूतों को समेट सकते हैं । समेटने से ही इन्द्रियों की धार मन में आकर एकत्रित होती है । इस सिमटाव में एक विचित्र मौज मिलती है । ऐसे साधक का मन विषयों से अलग हो जाता है । श्रीराम कहते हैं - ' एहि तन कर फल विषय न भाई । '
इन्द्रियों में से चेतनधारों को समेटकर केन्द्र में केन्द्रित करो । केन्द्र में केन्द्रित करने से उसमें जो आनन्द है , वह मिलेगा । यहाँ एक पल के लिए भी यदि ठहरेगा , तो उसका मन बारम्बार उस ओर होता रहेगा । तब विषयों की ओर से उसका मुँह मुड़ने लगेगा और परमात्मा की ओर होने लगेगा । और बहुत से कर्मों को छोड़कर सज्जनों के अनुकूल चलो । भक्त हानि - लाभ के दुःख - सुख से विरक्त रहता हुआ काम करता है । काम कुछ - न - कुछ अवश्य करेगा । कर्म त्याग नहीं हो सकता । कर्म फल का त्याग हो सकता है । समाधिस्थ होने पर कर्मफल त्याग होता है । शरीर में रहने पर कुछ न कुछ काम अवश्य करेगा ; किन्तु कर्म की सफलता विफलता में आसक्त नहीं होगा । सज्जनों के धर्म में बरतना छठी भक्ति है । झूठ , चोरी , नशा , हिंसा और व्यभिचार नहीं करे - यह सज्जनों का धर्म है ।
एक ईश्वर पर भरोसा करो । ईश्वर की प्राप्ति अपने अंदर होगी , इसका दृढ़ निश्चय रखो । सत्संग करो । ध्यान करो और गुरु - सेवा करो । इन पंच विधि कर्मों को करना और पाँच निषेध कर्मों को नहीं करना सज्जनों का धर्म है ।
सातवीं भक्ति है 'सातव सम मोहिमय जगदेखा । मोते संत अधिक करि लेखा ।।' सातवीं भक्ति में मन का साधन होता है। यह ऊँचे दर्जे का साधन है । शम ' के साधन के लिए मनोलय होना चाहिए । शिवसंहिता में लिखा है - न नाद सदृशो लयः । इसलिए नादसाधन करने के लिए कहा । मन और दृष्टि का बहुत संबंध है । जहाँ आप देखेंगे , मन वहीं रहेगा , इसलिए दृष्टिसाधन से मन सधता है । दृष्टिसाधन आँख से होता है । इसलिए इन्द्रियों के साथ मन का साधन ' दम ' कहलाता है और केवल मन का साधन ' शम ' कहलाता है । दृष्टिसाधन के बाद नाद अभ्यास है । नाद खोजने के लिए बाहर जाना नहीं पड़ता । वह आपके अंदर है । वह परमात्मा की ध्वनि है । उस ध्वनि को जो प्राप्त करता है , शमशील हो जाता है , फिर वह समता प्राप्त कर लेता है। समता प्राप्त करने पर वह दूसरों के दुःख - सुख को अपने समान मानता है । वह दूसरों का दोष नहीं देखता । इस प्रकार जानकर सबको चाहिए कि ईश्वर की भक्ति करें ।
ईश्वर को जो प्राप्त नहीं करते , वे सदा दुःख में पड़े रहते हैं । संसार को चीन्हतें हो , तो दुःख - सुख लगा रहता है , मायाजाल में फंसे रहते हो , आवागमन में पड़े रहते हो । ईश्वर को प्राप्त करो , तो आवागमन से छूट जाओगे ; संसार के दुःखों से छूट जाओगे । जो पदार्थ आपस में उलटे - उलटे होते हैं , उनके गुण भी उलटे - उलटे होते हैं। संसार नाशवान है और परमात्मा अविनाशी है । संसार मायिक है तो परमात्मा निर्मायिक है । संसार को चीन्हते हो तो देखो तुम्हारी क्या हालत है ? ईश्वर को पहचानो , तो इसका बिल्कुल उलटा हो जाएगा । किंतु यह याद रखो कि ईश्वर का दर्शन इस आँख से नहीं होगा । यदि कहो कि प्रह्लाद को इसी आँख से दर्शन हुआ , तो वह माया का । गोस्वामीजी की यह पंक्ति याद रखो । गोगोचर जहँ लगि मन जाई । सो सब माया जानहु भाई ।
यह क्षेत्र दर्शन हुआ , क्षेत्रज्ञ का दर्शन नहीं हुआ । क्षेत्रज्ञ को मन - बुद्धि से भी पहचान नहीं सकते , फिर और इन्द्रियाँ उसके लिए काफी नहीं हैं । उसको तो आत्मा से पहचान सकते हो । नररूप , देवरूप , विराटरूप , नरसिंहरूप के दर्शन में माया के बहुत काम बनते हैं ; किंतु सब काम नहीं बनते । अर्जुन भगवान के साथ रहते थे भगवान के चले जाने पर उनके शरीर में बल ही नहीं रहा । युधिष्ठिर को भगवान के दर्शन कई बार हुए थे ; अपने भी वे बड़े धर्मात्मा थे , किंतु द्रोणाचार्य को मरवाने के लिए एक झूठ बोले थे , जिससे उनको कुछ काल के लिए नरक देखना पड़ा । तो इस प्रकार के दर्शनों से आप मुक्ति नहीं पा सकते । मुक्ति तो आत्मस्वरूप के दर्शन से ही होती है । इसलिए सभी संतों ने परमात्मा के स्वरूप को प्राप्त करने के लिए उपदेश दिया ।
ईश्वर - भक्ति में ऊँच - नीच , जाति - पाँति का विचार नहीं है । यदि आप भक्त होंगे , ईश्वर की भक्ति करेंगे , तो आप बड़े हो जाएँगे , लोग आपका आदर करेंगे । रविदासजी चमार थे ; किंतु उन्हें लोग आदर की दृष्टि से देखते हैं , पूजते हैं । आज आप राजा हैं । आपकी संतान राजकुमार है ; किंतु फिर भी दुःख - सुख भोगते हैं , इसलिए कि संतों के कहे अनुकूल चलते नहीं । यदि संतों के कहे अनुकूल चलें तो शिष्ट हो जाएँगे , किसी से लड़ाई - झगड़ा नहीं होगा । पुलिस जो पहरा देती , उसको भी काम से फुर्सत मिलेगी । आप सबलोग भक्ति करें और सदाचार का पालन करें , तो संसार और परलोक - दोनों जगह सुखपूर्वक रहेंगे ।०
इस प्रवचन के बाद वाले प्रवचन नंबर 62 को पढ़ने के लिए यहां दबाएं।
प्रभु प्रेमियों ! गुरु महाराज के इस प्रवचन का पाठ करके आपलोगों ने जाना कि सदाचारी की महिमा, ईश्वर क्या है? भक्ति किसे कहते हैं? नवधा भक्ति क्या है? गुरु सेवा कौन कर सकता है? वृद्ध कितने प्रकार के होते हैं? गुरु किसे कहते हैं? इतनी जानकारी के बाद भी अगर कोई संका या प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस प्रवचन के बारे में अपने इष्ट मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने। इससे आपको आने वाले प्रवचन या पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहेगी। उपर्युक्त प्रवचन का पाठ निम्न वीडियो में किया गया है।
महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा सागर |
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S61, (ख) Who can do Guru Seva ।। महर्षि मेंहीं अमृतवाणी ।। 26-02-1954ई. गोड्डा, अपराह्न,
Reviewed by सत्संग ध्यान
on
10/16/2020
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