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S62, Svapn, Sushupti aur Tureey Avastha ।। गुरु महाराज का प्रवचन ।। 27-02-1954ई. मिरजानहाट

महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर / 62

प्रभु प्रेमियों ! सत्संग ध्यान के इस प्रवचन सीरीज में आपका स्वागत है। आइए आज जानते हैं-संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज के हिंदी प्रवचन संग्रह "महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर" के प्रवचन नंबर ६२वां, के बारे में। इसमें बताया गया है कि  संतों का सोना, जगना और ईश्वर दर्शन कैसे होता है? स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय अवस्था क्या है? संत लोग ईश्वर दर्शन कैसे करते हैं?

इसके साथ ही आप इस प्रवचन (उपदेश, अमृतवाणी, वचनामृत, सत्संग सुधा, संतवाणी, गुरु वचन, उपदेशामृत, ज्ञान कथा, भागवत वाणी, संतवचन, संतवचन-सुधा, संतवचनामृत, प्रवचन पीयूष )  में  पायेंगे कि-  सत्संग किसे कहते हैं? संतों का सबसे बड़ा धन क्या है? संतों का उपदेश क्या है? संतों का सम्मान कैसे करें? कबीर साहब क्या कहते हैं? सोना जागना कैसे होता है? तुरिया अवस्था में कैसे जाते हैं? मोह किसे कहते हैं? योगी कैसे जगते हैं ? योगी कौन है? ईश्वर कहां है? अखंड भंडार क्या है? नव द्वार किसे कहते हैं?  गोस्वामी जी को ईश्वर दर्शन कैसे हुआ? पवित्रता कैसे आती है?     इत्यादि बातों  के बारे में। इसके साथ-ही-साथ निम्नलिखित प्रश्नों के भी कुछ-न-कुछ समाधान इसमें मिलेगा। जैसे कि- सुषुप्ति अवस्था क्या है? तुरिया अवस्था क्या है? सुषुप्ति का अर्थ, आत्म स्फूर्ति की अवस्था क्या है? नव द्वार, तुर्यावस्था, सुषुप्त अवस्था, तुरीयातीत अवस्था, जागृत अवस्था, तुरीय meaning, आत्मा की अवस्थाएं, तुरीय अवस्था हिंदी, तुर्या अर्थ, तुरीय का अर्थ, जागृत अवस्था, सुषुप्त का अर्थ, तुर्या अवस्था,   इत्यादि बातें। इन बातों को जानने-समझने के पहले, आइए !  संत सदगुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज का दर्शन करें।  

इस प्रवचन के पहले वाले प्रवचन नंबर 61 को पढ़ने के लिए   यहां दवाएं।

सोना, जगना और तुर्या अवस्था क्या है ? पर प्रवचन करते गुरुदेव
जाग्रत स्वप्न और  तुरिया अवस्था क्या है? 

Svapn, Sushupti aur Tureey Avastha

सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज कहते हैं कि- धर्मानुरागिनी प्यारी जनता ! मेरे कहने का विषय आज का यह होगा कि ईश्वर को लोग सर्वव्यापी और इन्द्रियातीत क्यों मानते हैं ? फिर उस तक पहुँचने के लिए जो भक्ति है , वह किस तरह की जानी जाती है।   .....इस तरह प्रारंभ करके गुरुदेव----What is a satsang? What is the greatest wealth of saints? What is the sermon of saints? How to honor saints? What does Kabir Sahib say? How to wake up to sleep? How do you get into turiya state? Who is fascination? How do Yogis awaken? Who is a yogi? Where is god What is a monolithic store? What is the new door called? How did Goswami Ji see God? How does purity come?.....आदि बातों पर विशेष प्रकाश डालते हैं। इन बातों को अच्छी तरह समझने के लिए पढ़ें-

६२. परमातम गुरु निकट विराजै

संतों का सोना, जगना और सत्संग क्या है? इस संबंध में  प्रवचन करते सद्गुरु महर्षि मेंहीं

धर्मानुरागिनी प्यारी जनता !

      हम सबलोग सत्संग के लिए यहाँ एकत्र हैं । मैं जानता हूँ कि संतों के संग का नाम सत्संग है । मैं नहीं कहता हूँ कि मैं संत हूँ और न मैं पहचानता हूँ कि यहाँ जो एकत्र हैं , कौन संत हैं इसलिए संतों के संग से सत्संग में संशय रह जाता है । संत का गृहत्यागी और वैरागी वेश में रहना ऐसा समझना भूल है । संत गृहस्थ वेश में और वैरागी वेश में भी रहते हैं । मैंने पढ़ा था - ' मत कोइ करै गुमान , संत एक - से - एक हैं । जानत है भगवान , कोइ गुप्त कोइ प्रगट हैं । ' 

     संत कबीर साहब ने कहा कबीर संगति साधु की, ज्यो गन्धी का वास । जो कुछ गन्धी दे नहीं , तो भी वास सुवास ।। 

     इसी प्रकार कोई गुप्त संत रहते हैं , तो उनकी आभा आती है, वे अपनी आभा को रोक नहीं सकते हैं । हम सब लोग एकत्र हुए हैं, कि सत्संग हो , तो सत्संग का एक और जरिया है , उसी के सहारे हमलोग सत्संग करते हैं । लोग जानते हैं कि चिट्ठी आधी मुलाकात होती है । दूर - दूर में रहकर पत्र द्वारा एक - दूसरे के ख्यालों को जानते हैं । उससे प्रभावित भी होते हैं । इसी तरह यह जरिया है कि संतलोग जो हो चुके हैं या अभी जिनपर लोगों का विश्वास है , वे यहाँ वर्तमान नहीं हों , फिर भी उनकी पुस्तक हो या कोई जबानी गावे , तो उनके वचन से हम प्रभावित होते हैं ; किस दिशा में चलना चाहिए मालूम होता है । इसलिए संतवचन अवश्य पढ़ना चाहिए । संतों के वचन से उन संतों की आधी मुलाकात होती है । किंतु मैं तो कहता हूँ कि यदि संतों का रत्ती रवा भी संग हो तो अहोभाग्य है । 

     अभी आपलोगों ने संत कबीर साहब , गुरु नानक साहब , संत पलटू साहब , गोस्वामी तुलसीदासजी , संत सूरदासजी और संत तुलसी साहब के वचन सुने । संत लोगों के पास सबसे बडा धन - अनमोल पदार्थ यदि है तो वह है ईश्वर या परमात्मा । संत लोग ईश्वर की खोज में चले और मुझको विश्वास है कि जिन संतों के वचन आपको सुनाए गए , वे ईश्वर को प्राप्त किए हुए थे । मैं जोर नहीं देता हूँ कि आप भी विश्वास कीजिए । जो मानते हैं , वे तो मानते ही हैं , किन्तु जो इस पर विश्वास नहीं करते हैं कि वे संत थे , उनसे भी घृणा नहीं । उन संतों के वचनों को पढ़िये , विचारिए और यदि अँच जाय , तो उनपर विश्वास कीजिए । संतों ने कहा ईश्वर - ईश्वर बचपन से कहते चले आ रहे हो, चाहे किसी भाषा में ; किन्तु इसका निर्णय आज तक जाने हो कि ईश्वर कहाँ है ? यदि जाने हो तो वहाँ जाकर उसे ठीक - ठीक पहचानो । यदि नहीं जानते हो तो संतों के वचनों को सुनो । 

     आपने पहले संत कबीर साहब का वचन सुना । आपके मन में होता होगा कि मैं कबीर सम्प्रदाय का हूँ । तो मैं कभी कबीर सम्प्रदाय का नहीं हूँ । और न मेरा वेश उस तरह का है । मैं कबीर साहब के वचनों से प्रभावित हूँ । किन्तु कबीर साहब पहले आते हैं । सब संत एक समय में प्रकट नहीं हुए थे । पहले कबीर साहब प्रगट हुए थे । हाँ , यह अवश्य है कि कबीर साहब और नानक साहब दोनों समकालीन थे ; किंतु दोनों के वचन एक साथ कैसे कहे जायें ? इसलिए पहले कबीर साहब के वचन , कबीर साहब के वचन , फिर गुरु नानक साहब के 
वचन का पाठ आपलोगों ने सुना । इसी तरह गोस्वामी तुलसीदासजी और सूरदासजी के वचन सुने । उसके बाद आपलोगों ने संत पलटू साहब और संत तुलसी साहब के वचन सुने । पहले पीछे नाम कहने का यह मतलब नहीं कि मैं किन्हीं को विशेष और किन्हीं को कम मानता हूँ ; बल्कि जो जैसे प्रकट हुए , उनका नाम वैसे ही लेकर भजन गाए गए

     संत कबीर साहब कहते हैं कि तुम्हारे निकट परमात्मा विराज रहे हैं ; किन्तु तुम सोए हुए हो- ' परमातम गुरु निकट विराज , जाग जाग मन मेरे ।

     जन्म लेते हो , तब सोते हो , मरते हो तब सोते हो , स्वर्ग जाते हो , तब सोते हो , तुम सभी अवस्थाओं में सोए रहते हो । जगने के लिए संत कबीर साहब कहते हैं और इसके लिए कहते हैं ' गुरु के निकट जाकर ज्ञान प्राप्त करो । 

     ' सुनना , समझना और विचारना जबतक होता रहता है , तबतक परमेश्वर याद रहते हैं ; सचेतता रहती है , किन्तु तुरन्त ही भूल जाते हैं और अचेतता आ जाती है । केवल समझने में ही नींद नहीं टूटती । आप भी जगे हैं , कुछ देर पूर्व आप सोए थे , तो आपको स्वप्न भी हुआ होगा और सुषुप्ति भी हुई होगी । यह सोना जागना कैसे होता है? इसको समझिए । इस शरीर में आपके रहने का एक केन्द्रीय स्थान है । जाग्रत में एक स्थान में , स्वप्न में दूसरे स्थान में और सुषुप्ति में तीसरे स्थान में होता है । स्थान - भेद से ज्ञान - भेद होता है । स्वप्न में अचेतता रहती है । अभी जो हमलोग जगे हैं , यह भी संत कबीर साहब के ख्याल में सोना ही है । मेरा जाना हुआ है कि जिस तरह जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति के तीन स्थान हैं , उसी तरह एक चौथी अवस्था और स्थान भी है , जिसमें संसार की ओर से सोया रहता है और अंतर में जगता रहता है ; लेकिन वह स्वप्न अवस्था नहीं है । उसमें जो रहता है , उसको वह बड़ा विचित्र मालूम पड़ता है । 

     स्वप्न में बाह्य विषय की ओर जैसे मन रहता है , उस समय वैसा नहीं होता । उस समय में वह कुछ आन्तरिक रस पाता रहता है , जिसको कह सकते हैं। ईश्वर संबंधी विशेष वस्तु , जिसको पाते रहने पर ईश्वर की ओर रहता है , विषय की ओर नहीं । उस अवस्था को तुरीय अवस्था कहते हैं । इस अवस्था में जो जगता है , वह ईश्वर की ओर जाता है । जाग्रत में हमलोग संसार की ओर जगते हैं । माया मुख जागे सभै , सो सूता कर जान । दरिया जागेब्रह्म दिसि , सो जागा परमान ।। संत दरिया साहब ने कहा है ।

      और गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है सपने होय भिखारी नृप , रंक नाकपति होय । जागे लाभ नहानि कछु , तिमि प्रपंच जिय जोय ।। 

     इस सारे संसार को उन्होंने स्वप्न कहा । किन्तु हमलोग तो देखते हैं कि संसार है फिर वे खुलासा करते हैं मोह निसा सब सोवनहारा देखिय सपन अनेक प्रकारा ।। यहि जग जामिनि जागहिं जोगी । परमारथीप्रपंच वियोगी ।। 

     मोह मानी अज्ञानता । असत् ज्ञान में जबतक रहते हैं , तबतक सोए रहते हैं । यह मेरी चीज है , वह उसकी चीज है , यह ज्ञान स्वप्न का ज्ञान है । अनेक प्रकार में जो विविधता देखते हैं वा शत्रु - मित्र का जो ज्ञान होता है , वह मोह - निशा में सोते सोते होता है । इसमें जगते हैं कौन ? यहि जग जामिनि जागहिं जोगी । परमारथी प्रपंच वियोगी ।।

      गोस्वामी तुलसीदासजी के ख्याल में योगी जगते हैं । योगी कैसे जगते हैं ? तो वे कहते हैं सकल दृश्य निज उदर मेलि , सोवइ निद्रा तजि योगी । सोइ हरिपद अनुभवइ परमसुख , अतिशयद्वैत वियोगी । 

     योगी वह है जो अन्तर्मुख होता है अंदर में रहते हुए जो सारे ब्रह्माण्ड का दर्शन करता है , वही ईश्वर के परमपद को जानता है । जो अपने अंदर ठहरे , वह योगी है । अन्दर में ठहरने के लिए तीन अवस्थाओं और तीन स्थानों के अतिरिक्त कोई चौथा स्थान और चौथी अवस्था होनी चाहिए । उसी को संतों ने तुरीय अवस्था कहा है । इस चौथी अवस्था में आना जगना है केवल विचार विचार का जगना , भाव ही भाव में मोह होना यह जगना नहीं है । प्रत्यक्ष जगने के लिए चौथे स्थान में जाना होगा । 

     ईश्वर सबके अन्दर है । उसको आप तब पाएँगे , जब आप जगियेगा और जगिएगा तब , जब आप चौथी अवस्था में जाइएगा । लड़कपन से ही हमलोग राम - राम , शिव - शिव , वाह - गुरु आदि कहते हैं। अपने अन्दर में ईश्वर है - ऐसा जाननेवाले लोग बहुत हैं , किन्तु कितने तो ऐसे हैं , जिनको मालूम नहीं कि ईश्वर अपने अन्दर है । संतों ने बताया कि तीसरे स्थानों से चौथे स्थान में जाओ , तब जानोगे ईश्वर को प्रत्यक्ष पाना चाहो , तो अपने अन्दर चलो । गुरु नानकदेवजी के वचन में अभी आपलोगों ने सुना इस गुफा महि अखुट भंडारा । तिसु विचि बसै हरि अलख अपारा ।। आपे गुपुतु परगट है आपे। गुर सबदि आप वंयांवणिआ ।। 

     इस शरीररूप गुफा में ऐसा भण्डार है कि खर्च करते जाओ , किन्तु वह भरा ही रहेगा । उसके अन्दर हरि है , जो इस आँख से नहीं देखा जाता । जिसका वार - पार नहीं , वह स्वरूपतः अपार है । सारे विश्व को अपने से भरपूर करता है , किन्तु स्वयं कहीं समाप्त नहीं होता । 

     गुरु नानकदेवजी कहते हैं - तुम नौ द्वारों में यानी आँख के दो , नाक के दो , कान के दो , मुँह का एक और मल - मूत्र विसर्जन के दो द्वारों में ठहरे हुए हो , तो तुम संसार में दौड़ते रहते हो । दसवें द्वार में पहुँचो , जिसको शिवनेत्र कहते हैं । नौ द्वारों से सिमटकर दसवें द्वार में जाओ , तब ईश्वर की कुछ खबर मिलेगी ।

      बचपन में सुना था कि गोस्वामी तुलसीदासजी को पहले प्रेत से दर्शन हुआ था । फिर हनुमानजी से और फिर भगवान के स्थूल रूप का दर्शन हुआ था । जब गोस्वामीजी को अन्दर में दर्शन हुआ , तब उन्होंने ऐसा कहा एहि तें मैं हरि ज्ञान गँवायो । परिहरि हृदय कमल रघुनाथहिं , बाहरफिरत विकल भयधायो ।। ज्याकुरंगनिज अंगरुचिरमद , अति मतिहीन मरम नहिं पायो । खोजत गिरितरु लता भूमि बिल , परम सुगंध कहाँते आयो ।। ज्यों सर विमल वारिपरिपूरन , ऊपर कछु सेंवार तृन छायो । जारतहियोताहि तजिहाँसठ , चाहतयहि विधितृषाबुझायो ।। व्यापित त्रिविधतापतनदारुण , तापर दुसह दरिद सतायो । अपने धाम नाम सुरतरु तजि , विषय बबूरबाग मन लायो ।। तुम्ह सम ज्ञान निधान मोहि सम , मूढन आन पुरानन्हि गायो । तुलसिदासप्रभुयह विचारिजिय , कीजैनाथउचित मन भायो ।।

     इस शरीररूपी तालाब में परमात्मरूपी निर्मल जल है । यदि माया के परदे को हटा दो तो परमात्मा का दर्शन होगा । जिसको देखना चाहो , उधर अपनी दृष्टि को ले जाओ । पलक बन्द करने पर अन्धकार का परदा दीखता है । मायाबस मति मन्द अभागी । हृदय जवनिका बहुविधि लागी ।। तेसठ हठ बस संसय करहीं । निज अज्ञान राम परधरहीं ।। काम क्रोध मद लोभरत , गृहासक्त दुख रूप । ते किमि जानहिं रघुपतिहिं , मूढ पड़े तम कूप ।।

     ( अन्दर में परदे रहने से परमात्मा को कैसे पहचानोगे ? ) इच्छा द्वेष को छोड़ो । सेंवार - रूप परदों का छेदन करो , अंधकार के परदे को हटाओ , तब दर्शन होगा । तुलसीदासजी कहते हैं - अन्तर के अन्तिम तह में चलकर दर्शन होगा । सूरदासजी कहते हैं अपुनपौं आपुन ही में पायो । शब्दहिं शब्द भयो उजियारो , सतगुरु भेद बतायो ।। ज्यों कुरंग नाभि कस्तूरी , ढूँढ़त फिरत भुलायो । फिर चेत्यो जब चेतन ह्वै करि , आपुन ही तनु छायो ।। राज कुँआर कण्ठे मणि भूषण , भ्रम भयो कह्यो गँवायो । दियो बताइ और सतजन तब , तनु को पाप नशायो ।। सपने माहिं नारि को भ्रम भयो , बालक कहुँ हिरायो । जागि लख्यो ज्यों का त्योहीं है , ना कहूँ गयो न आयो ।। सूरदास समुझै की यह गति , मन ही मन मुसकायो । कहिन जाय या सुख की महिमा , ज्यों गूगो गुर खायो ।। -सूरदासजी महाराज

      सूरदासजी कहते हैं कि जागो , तो बालक को पाओगे । बालक को ईश्वर से पटतर कर दिया है कबीर साहब ने आगे कहा है बालक रूपी साइयाँ , खेले सब घट माहिं । जो चाहे सो करत है , भय काहू को नाहिं ।। 

     पलटू साहब ने कहा - वह ईश्वर तुम्हारे अन्दर है , जैसे दूध में घी है । तुलसी साहब ने कहा - पहले पवित्र बनो , तब ईश्वर का दर्शन होगा । पवित्रता के लिए स्नान करो , कैसा स्नान करो ? तो कहा आली अधर धार निहार निजकै , निकरि सिखर चढ़ावहीं । जहाँ गगन गंगा सुरति जमुना , जतन धार बहावहीं ।। जहाँ पदम प्रेम प्रयाग सुरसरि , धुर गुरू गति गावहीं । जहाँ संत आस विलास बेनी , विमल अजब अन्हावहीं ।। कृत कुमति काग सुभाग कलिमल , कर्म धोय बहावहीं । हिय हेरि हरष निहारि घर को , पार हंस कहावहीं ।। मिलि तूल मूल अतूल स्वामी , धाम अविचल बसि रही । आलि आदि अंत विचारि पद कौ , तुलसी तब पिउ की भई ॥ 

     अंतर की गंगा में स्नान करो , तो शुभ और अशुभ सभी कर्म धुल जाएँगे , आवागमन से छूट जाओगे, जब उस परमात्मा को पाओगे , तो कभी दुःख में न जाओगे । सभी संतों ने कहा कि ईश्वर तुम्हारे अंदर है । ऐसा भजन करो कि अपने अंदर अंदर चलो और परमात्मा को पाकर सारे दुःखों से छूट जाओगे ।


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प्रभु प्रेमियों ! गुरु महाराज के इस प्रवचन का पाठ करके आपलोगों ने जाना कि सत्संग किसे कहते हैं? संतों का सोना, जगना और ईश्वर दर्शन कैसे होता है? स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय अवस्था क्या है? संत लोग ईश्वर दर्शन कैसे करते हैं?  इतनी जानकारी के बाद भी अगर कोई संका या प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस प्रवचन के बारे में अपने इष्ट मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने इससे आपको आने वाले प्रवचन या पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहेगी। उपर्युक्त प्रवचन का पाठ निम्न वीडियो में किया गया है।





सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज के विविध विषयों पर विभिन्न स्थानों में दिए गए प्रवचनों का संग्रहनीय ग्रंथ महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा सागर
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S62, Svapn, Sushupti aur Tureey Avastha ।। गुरु महाराज का प्रवचन ।। 27-02-1954ई. मिरजानहाट S62, Svapn, Sushupti aur Tureey Avastha ।। गुरु महाराज का प्रवचन ।। 27-02-1954ई. मिरजानहाट Reviewed by सत्संग ध्यान on 10/17/2020 Rating: 5

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