S70, What is the ultimate goal of life ।। महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा ।। 12-04-1954ई. पुनामा, भागलपुर

महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर / 70

प्रभु प्रेमियों ! सत्संग ध्यान के इस प्रवचन सीरीज में आपका स्वागत है। आइए आज जानते हैं-संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज के हिंदी प्रवचन संग्रह "महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर" के प्रवचन नंबर ७० के बारे में। इसमें बताया गया है कि  मनुष्य जीवन में सबसे महत्वपूर्ण बात क्या है? जिसे सबको अवश्य जानना चाहिए।

इसके साथ ही आप इस प्रवचन (उपदेश, अमृतवाणी, वचनामृत, सत्संग सुधा, संतवाणी, गुरु वचन, उपदेशामृत, ज्ञान कथा, भागवत वाणी, संतवचन, संतवचन-सुधा, संतवचनामृत, प्रवचन पीयूष )  में  पायेंगे कि-  प्रत्येक मनुष्य को क्या जानना आवश्यक है? ज्ञान और योग किस लिए है? भक्ति किसे कहते हैं? भक्ति, भक्त और भगवन्त; ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान को समझना जरूरी क्यों है? ईश्वर स्वरूप कैसा है? ज्ञान इंद्रियां कितनी है? हमारा स्वरूप कैसा है? ईश्वर को कैसे समझ सकते हैं? परमात्मा को जानने से क्या होता है?    इत्यादि बातों  के बारे में। इसके साथ-ही-साथ निम्नलिखित प्रश्नों के भी कुछ-न-कुछ समाधान इसमें मिलेगा। जैसे कि- व्यक्तित्व की विशेषताएं, व्यक्तित्व विकास pdf, व्यक्तित्व विकास को प्रभावित करने वाले कारक, पहचान निर्माण के सिद्धान्त, मनुष्य जीवन का चरम लक्ष्य क्या है, व्यक्तित्व से आप क्या समझते हैं, मनुष्य में कौन-कौन से गुण होने चाहिए, मनुष्य की परिभाषा क्या है, मानव का कर्तव्य क्या है, व्यक्तिगत विकास क्या है, कर्तव्य का अर्थ क्या है, मनुष्य के अंदर कितने गुण होते हैं, व्यक्तित्व विकास क्या है, मानव जीवन का उद्देश्य क्या है,  इत्यादि बातें। इन बातों को जानने-समझने के पहले, आइए !  संत सदगुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज का दर्शन करें।  

इस प्रवचन के पहले वाले प्रवचन नंबर 69 को पढ़ने के लिए   यहां दवाएं।

मनुष्य जीवन में ज्ञाता ज्ञेय और ज्ञान की त्रिपुटी को समझना
मनुष्य जीवन का उद्देश्य क्या है?

What is the ultimate goal of life. जीवन का अंतिम लक्ष्य क्या है 

सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज कहते हैं कि- प्यारे सज्जनो ! संतों के ज्ञान में सबसे विशेष बात ईश्वर का ज्ञान है , मोक्ष का ज्ञान है । यद्यपि दोनों वाक्य पृथक - पृथक मालूम होते हैं , किंतु दोनों दो नहीं , एक ही हैं ज्ञान के साथ योग रहता है और योग के साथ भक्ति रहती है ।..... इस तरह प्रारंभ करके गुरुदेव----What does every human need to know? What is knowledge and yoga for? What is Bhakti? Devotion, Devotee and Bhagavant; Why is it important to understand the knower, known and knowledge? How is the image of God? How much is knowledge senses? What is our nature like How can we understand God? What happens with knowing God?......आदि बातों पर विशेष प्रकाश डालते हैं। इन बातों को अच्छी तरह समझने के लिए पढ़ें-

७०. बिना प्रेम की सेवा ऊपरी भाव है 


मनुष्य जीवन में पाने योग्य क्या है? इसे बताते हुए गुरुदेव महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज

प्यारे सज्जनो ! 

     संतों के ज्ञान में सबसे विशेष बात ईश्वर का ज्ञान है , मोक्ष का ज्ञान है । यद्यपि दोनों वाक्य पृथक - पृथक मालूम होते हैं , किंतु दोनों दो नहीं , एक ही हैं। ज्ञान के साथ योग रहता है और योग के साथ भक्ति रहती है । ज्ञानविहीन योग और योगविहीन ज्ञान मोक्षप्रद नहीं होता । फिर भक्ति के बिना योग और ज्ञान पूरा नहीं होता । इन सब बातों के मूल में ईश्वर का ज्ञान है । यदि ईश्वर को आप न जानें , ईश्वर तत्त्व का बोध नहीं हो तो ज्ञान किसके लिए ? ज्ञान में तीन बातें होती हैं - ज्ञान , ज्ञाता और ज्ञेय । जो जानने योग्य है , उसका पता नहीं , फिर ज्ञान किसका ? बिना ज्ञेय का ज्ञान किस काम का ? इसलिए ईश्वर - स्वरूप का निर्णय जानना आवश्यक है । उसे जानना ज्ञान है । उसमें जो अत्यन्त आसक्ति है , उसको प्राप्त करने के लिए वह प्रेम है , वही भक्ति है । 

     जहाँ संलग्नता नहीं , वहाँ सेवा - भाव नहीं रह सकता । बिना प्रेम की सेवा ऊपरी भाव है । जैसे ज्ञान में तीन बातें होती हैं , वैसे ही भक्ति में भी तीन बातें होती हैं ; वे हैं- भक्ति , भक्त और भगवन्त । इन तीनों में से किसी को अलग नहीं किया जा सकता । सेवा में मिलन होता है । मिलन वह कर्म है , जो सेवा के लिए होता है । यदि सेवा और मिलन - दोनों को अलग - अलग कर दो , तो सेवा हो नहीं सकती । मिलन के ही कार्य से सेवा होती है । भक्ति और योग बिना ज्ञान के छूंछ पड़ जाता है । इसलिए भक्ति , ज्ञान और योग - तीनों साथ - साथ रहते हैं। मूल में बात यह है कि ज्ञातव्य क्या है ? किसकी सेवा हो ? संतों ने ईश्वर से मिलने , योग करने , सेवा करने के लिए कहा है । संतों की बतायी भक्ति ईश्वर में प्रेम - भाव रखकर भक्ति करने की है । सबसे पहले ईश्वर का स्वरूप जानना चाहिए । 

     उपनिषद् और संतवाणी के अनुकूल ईश्वर - स्वरूप ऐसा है कि वह इन्द्रियों के ज्ञान से बाहर है । सांसारिक ज्ञान इन्द्रियों से होता है । आपके शरीर में पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं । वे हैं - आँख , कान , नाक , जीभ और चमड़ा । इनसे पंच विषयों का ज्ञान होता है । एक इन्द्रिय के विषय का ज्ञान दूसरी इन्द्रिय से नहीं होता ; जैसे जो ज्ञान कान से होता है , वह नाक से नहीं और जो नाक से होता है , वह आँख से नहीं । जिस पदार्थ को ईश्वर कहते हैं , उसका ज्ञान इन पाँचों से नही हो सकता । अंदर की इन्द्रियों से भी उसे प्राप्त नहीं कर सकते । गोगोचर जहँ लगि मन जाई । सो सब माया जानहु भाई ॥ -रामचरितमानस 

      जो माया है , वह विषय है और जो निर्माया है , वह निर्विषय है बाहर - भीतर की सब इन्द्रियों को छोड़ दीजिए , तब आप स्वयं बच जाते हैं । मन , बुद्धि आदि इन्द्रियों को छोड़ो । बाहर की पंच ज्ञानेन्द्रियों और पंच कर्मेन्द्रियों को छोड़ो , तब जो बचे , वह आप हैं । यदि कहो कि शरीर किसका ? तो कहिएगा - मेरा । उसी प्रकार बुद्धि किसकी ? तो कहिएगा - मेरी बुद्धि । इस प्रकार आप शरीर और बुद्धि - कुछ भी नहीं , आपके संग शरीर और बुद्धि है । जैसे कपड़ा आप नहीं , आपका कपड़ा है । इस प्रकार जो मन - बुद्धि से परे है ; जो अपने से ग्रहण करनेयोग्य है , वह ईश्वर है और आप हैं , ईश्वर के अंश । गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने रामचरितमानस में लिखा है ईश्वर अंश जीव अविनाशी । चेतन अमल सहज सुखरासी ।। 

     जैसे बाहर का आकाश और घर का आकाश दोनों एक ही हैं , लेकिन घर की लम्बाई , चौड़ाई और ऊँचाई के कारण उसकी नाप जोख के अंदर ही शून्य जाना जाता है और बाहर का आकाश उससे विशेष है ; किंतु बाहर का आकाश और घर का आकाश तत्त्वरूप में एक ही है । जैसे एक लोटा पानी और दरिया का पानी या समुद्र का पानी तत्त्वरूप में एक ही है । परमात्मा का जातीय पदार्थ चेतन आत्मा है । इसलिए चेतन आत्मा ही उसे ग्रहण कर सकती है । उसको ग्रहण करने से नित्य सुख - शान्ति मिलती है , तृप्ति होती है । इसी के लिए सभी संतों का कहना है कि उस ईश्वर का भजन करो ।०


(जय गुरु महाराज ! संत कबीर साहब ने कहा है "तन धर सुखिया, किया कोई न देखा । जो देखा सो दुखिया हो।।..." सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज कहते हैं- ईश्वर की प्राप्ति से ही हर तरह का सुख प्राप्त हो सकता है। "आवागमन सम दुःख दूजा, है नहीं जग में कोई। इसके निवारण के लिए, प्रभु भक्ति करनी चाहिए।। " यह ऐसा सुख है जो एक बार मिलने के बाद फिर उसमें किसी प्रकार का बदलाव नहीं होता, संसार के प्रत्येक काम में, प्रत्येक पद में, प्रत्येक प्राप्तव्य में उपर्युक्त सुख नहीं है। इसलिए प्रत्येक मनुष्य का प्रथम कर्तव्य है, वह अपना लक्ष्य को समझें। उसका लक्ष्य ईश्वर की प्राप्ति, परमात्मा की प्राप्ति है; ना कि संसार का कोई पद । संसार का कोई भी पद केवल मनुष्य शरीर के संभाल के लिए है। जिससे कि ईश्वर की प्राप्ति होती है। इसलिए मनुष्य शरीर की संभाल करते हुए हमारा मुख्य लक्ष्य ईश्वर प्राप्ति होना चाहिए। जय गुरुदेव। )




इस प्रवचन के बाद वाले प्रवचन नंबर 71 को पढ़ने के लिए   यहां दबाएं


प्रभु प्रेमियों ! गुरु महाराज के इस प्रवचन का पाठ करके आपलोगों ने जाना कि जीवन का चरम लक्ष्य क्या है? मानव जीवन का उद्देश्य क्या है? व्यक्तित्व विकास क्या है? कर्तव्य का अर्थ क्या है? भक्ति किसे कहते हैं? परमात्मा को जानने से क्या होता है?  इतनी जानकारी के बाद भी अगर कोई संका या प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस प्रवचन के बारे में अपने इष्ट मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने इससे आपको आने वाले प्रवचन या पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहेगी। उपर्युक्त प्रवचन का पाठ निम्न वीडियो में किया गया है।




सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज के विविध विषयों पर विभिन्न स्थानों में दिए गए प्रवचनों का संग्रहनीय ग्रंथ महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा सागर
महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा सागर
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S70, What is the ultimate goal of life ।। महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा ।। 12-04-1954ई. पुनामा, भागलपुर S70, What is the ultimate goal of life ।। महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा ।। 12-04-1954ई. पुनामा, भागलपुर Reviewed by सत्संग ध्यान on 10/22/2020 Rating: 5

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