महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर / 126
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता !
यह सत्संग हमलोगों को बहुत ऊँचे जाने को सिखलाता है । इतना ऊँचा जिससे विशेष कोई ऊँचाई नहीं हो सकती । ऊँचाई की शिखर पर पहुँचाने के लिए सत्संग सिखाता है । संतों के संग को सत्संग कहते हैं
सत्संगति दुर्लभ संसारा । निमिष दण्ड भरि एकउ बारा ।।
गोस्वामी तुलसीदासजी ने ठीक ही कहा है । प्रत्यक्ष में संतों का संग वास्तव में बड़ा दुर्लभ है । संतों को पहचानने की योग्यता मुझमें नहीं है । बड़े - बड़े साधकों तथा संतलोगों ने संतों का गुण जैसा वर्णन किया है , मैं उन्हें पहचानने योग्य बनूँ , यह बहुत दुर्लभ है ।
"अमित बोध अनीह मितभोगी । सत्यसार कवि कोविद योगी ।।" सुनु मुनि साधुन के गुन जेते । कहि नसकहिं सारद श्रुतितेते ।। विधि हरिहर कवि कोविद वानी । कहत साधु महिमा सकुचानी ।। सो मोसन कहि जात न कैसे । साक वनिक मनिगन गुन जैसे ।। -गोस्वामी तुलसीदास
तुलसी साहब भी संत कहलाते हैं । वे बहुत अच्छे थे , लोग कहते हैं । उत्तर प्रान्त के लोग उनको जानते हैं । इधर के लोग उन्हे विशेष नहीं जानते । उन्होंने कहा है
जो कोई कहै साधको चीन्हा । तुलसी हाथ कान पर दीन्हा ।।
गीता में भगवान श्रीकृष्ण से अर्जुन ने स्थितप्रज्ञ अर्थात् संत का लक्षण पूछा कि वे कैसे बोलते , चलते , बैठते हैं । इन प्रश्नों का उत्तर नहीं देकर भगवान ने केवल उनका , स्थितप्रज्ञों ( संतो ) का गुण ही गाया है । संत को ही मैं स्थितप्रज्ञ कहता हूँ । संतों के गुण का वर्णन है , किंतु उनको ठीक - ठीक पहचानना अति कठिन है । जो संत हों , वे ही संत को पहचान सकते हैं , जैसे जौहरी हीरा को पहचानते हैं
हीरा परखे जौहरी , शब्द को परखे साध । जो कोई परखे साधको , ताका मता अगाध ।।
हमलोगों के सामने पहले अमुक संत थे और अब हमलोगों के सामने अमुक संत हैं , इस तरह परीक्षित भाव से संतों की पहचान , उनका संग अर्थात् सत्संग कैसे हो ? गुरु महाराज ने कहा था- ' बेटा ! चिट्ठी आधी मुलाकात होती है , सन्तों की वाणी जो उनके ग्रन्थों में है उसको पढ़ो । यह संतों की वाणी संतों की आधी मुलाकात है । ' यह ही क्या कम है , बहुत है । लोग नये ग्रंथों का प्रकाशन करते हैं । मैं कहता हूँ जिन ग्रंथों का प्रकाशन हो चुका है , उन्हें समझना चाहिए तथा उनके अनुकूल कर्म निरत होना चाहिए । इसीलिए संतों की वाणी का पाठ हमारे सत्संग में होता है । संतों की वाणी को हम समझेंगे , उसके अनुकूल चलेंगे । संतों की वाणी में है-
जीवन से मरना भला , जौ मरि जाने कोय । मरने पहले जो मरे , तो अजर अरु अम्मर होय ।। मरते मरते जग मुआ , औसर मुआ न कोय । दास कबीरा यो मुआ , बहुरि न मरना होय ॥ -सन्त कबीर साहब
नानक जीवतिया मरि रहिये, ऐसा जोगु कमाइऔ । बाजे बाझहु सिंधी बाजै तउ निरभउ पदु पाइये .॥ -गुरुनानक साहब
आप कहेंगे जीते - जी मर जाना तो शाप है , संतलोग भले ऐसा कहते हैं , परंतु हमलोगों के लिए यह उत्तम बात नहीं है । कबीर साहब ने कहा
जा मरने से जग डरे , मेरे मन आनंद । कब मरिहौं कब पाइहौं , पूरन परमानंद ।
छान्दोग्योपनिषद् में है कि ब्रह्मरन्ध में प्रवेश कर मरो तो कोई कष्ट नहीं होता है । मरने के समय बहुत कष्ट होता है । किसी मरनेवाले के निकट जाकर उन्हें देखिए कि उनका चेहरा कैसा कैसा होता है, उन्हें कष्ट हो रहा है , उनके चेहरे से ऐसा विदित होता होगा । जन्म होता है , तो मृत्यु अवश्य होगी ।
अण्ड कटाह अमित लयकारी । काल महा दूरित क्रम भारी ।।
शरीर बहुत दिनों तक रहने पर भी कभी अवश्य नाश होगा । ऐसी मौत से मरो कि फिर जन्म न हो । असली मरना यही है । यह शाप नहीं है । यह बहुत कुशल की बात है कि ऐसा मरो कि फिर नहीं मरोगे , पुनः दुःख में नहीं आओगे । किंतु ऐसा मरन अपने जीवन में ही हो जाए ।
पंजाब के स्वामी रामतीर्थ ने कुछ दिन विद्याध्ययन किया , उसके साथ ही उन्होंने योग - साधन भी किया । उनके गुरु बड़े अच्छे थे। कुछ दिनों तक वे प्रोफेसर थे , फिर घर छोड़कर संन्यासी हो गए । वे जापान गए वहाँ उन्होंने व्याख्यान दिया । वे अपने को राम बादशाह कहा करते थे और पास में एक पैसा भी नहीं रखते थे । वे जापान से अमेरिका गए । जापानी ने अमेरिका तक के जहाज का भाड़ा दे दिया था । अमेरिका पहुँचने पर वहाँ के लोगों ने पूछा कि तुम कितने रुपये साथ लाए हो जो यहाँ उतरोगे । उन्होंने कहा मेरे पास रुपये नहीं । अमेरिकन ने कहा - तब तुम यहाँ उतर नहीं सकते । उन्होंने कहा - अवश्य उतरूँगा । अमेरिकन ने पूछा तुम कौन हो ? उन्होंने कहा - मैं राम बादशाह हूँ । पुन : अमेरिकन ने पूछा - कौन राम बादशाह , जिन्होंने भारत से जापान पहुँचकर व्याख्यान दिया है ? उन्होंने कहा - हाँ , वही राम बादशाह । वहाँ के एक और अमेरिकन सज्जन ने कहा कि इन्हें जहाज से उतरने दो । ये जबतक अमेरिका में रहेंगे , तबतक मैं इनका सब खर्च अपने ऊपर लेता हूँ । राम बादशाह हँसे और बोल उठे - खजाना तो बादशाह के खजाञ्ची के पास में रहता है , खुद बादशाह के पास नहीं । उन सज्जनों की ओर बताकर उन्होंने कहा - देखो , ये मेरे खजाञ्ची हैं ।
वहाँ के लोगों ने कहा कि आप विज्ञापन छपवाकर वितरण कराइए कि लोग आकर आपका व्याख्यान सुनें । राम बादशाह ने कहा कि मैं इस तरह विज्ञापन वितरण नहीं करता हूँ। शहर के अच्छे - अच्छे डॉक्टर मेरे पास आवें । सिवाय उनके और दूसरे कोई न आवें , वे ही डॉक्टर मेरे विज्ञापन होंगे । ऐसा ही हुआ । डॉक्टरों से उन्होंने अपने शरीर की जाँच करवाई । डॉक्टरों ने अपनी जाँच में उनके शरीर को बिल्कुल मृतक पाया । दिल का धड़कन और नाड़ियों के स्पंदन सभी बन्द थे । फिर वह जिन्दा कैसे हैं , यह देखकर डॉक्टर घबराए । राम बादशाह ने कहा कि शरीर सब दिन मृतक है मैं जिन्दा था , अभी जिन्दा हूँ और जिन्दा रहूँगा । यही भारतीय योगविद्या है ।
जीते - जी मर जाएँ , यह बड़ी खुशी की बात है । शरीर ' मर ' है और जीवात्मा अमर है , यह कभी नहीं मरता । जीवन काल में शरीर से संग छूट गया , फिर मरने पर संग नहीं हो सकता । जिसके जीवन में शरीर संग है , उसके मरने पर शरीर नहीं छूट सकता । इस शरीर से कैसे छूटा जाय , यही हम लोगों को जानना , जनाना , करना और कराना चाहते हैं । इसलिए पहले शरीर को स्थिर रखो , एक आसन से देर तक बैठो ।
आसन दृढ आहार दृढ़ , भजन नेम दृढ़ होय । तौ प्राणी पावै कछुक , नहिं तो रहै विषय रस मोय ।।
भोजनकी मात्रा जानो । कितना खाना चाहिए , कब खाना चाहिए , इसको जानो । गीता कहती है - न पूरा भरकर खावो, न बिल्कुल उपवासी रहो , स्वल्प भोगी बनो और तब भजन करो ।
बचपन में पढ़ने में मन नहीं लगता था । हमारे पिता , हमारे अभिभावक ने हमको स्कूल भेजा । इस तरह विद्या पढ़ा । महर्षि शिवव्रतलाल महोदयजी ने कहा है कि सत्संग में एक आसन से बैठो , यह आसन का साधन है । ध्यान देकर सुनोगे तो क्या सत्संग हुआ , यह समझ सकोगे । इस तरह मन को एक ओर लगाने का भी साधन होगा । मुरादाबाद में उन महर्षिजी का मुझे पहला दर्शन हुआ था । यहाँ धरहरा वे बिना बुलाए हुए ही आए थे , वे सरल हृदय के थे । उपर्युक्त प्रकार के फल लाभ का भजन साधन आरंभ में एकान्त बैठ बैठकर करना चाहिए ।
रामकृष्ण परमहंस देवजी का वचन है - ' पहले कुछ दिन तक एकान्त में बैठकर ध्यान करना सीखो । पूरा अभ्यास हो जाने पर फिर जहाँ - तहाँ बैठकर भी ध्यान कर सकोगे । पेड़ जब छोटा रहता है , तब उसको घेरा लगाकर रखना पड़ता है , नहीं तो गाय - बकरियाँ चर जाएँ । जब वह पेड़ पूरा बढ़ जाता है , तब फिर उसमें दस - दस गाय बकरियाँ बंधी रहने से भी उसका कुछ बिगड़ नहीं सकता ।
गुरु नानकदेवजी रहहिं एकान्ति एको मनि बसिआ, आसा माहिं निरासो । अगमु अगोचरु देखि दिखाए, नानक ताका दासो ।।
आजकल के कतिपय विद्वान साधनारम्भ में ही कहा करते हैं कि
आँख न मूंदों कान नरुंधों , तनिक कष्ट नहिं धारौं । खुले नयन पहिचानौं हसि - हँसि , सुन्दर रूप निहारौं । -कबीर साहब।
उनको जानना चाहिए कि इस प्रकार की सहज समाधि की स्थिति तो साधन समाप्त हो जाने पर प्राप्त होती है । साधन के आरंभ में तो ' बंद करने कहा
और
धुन आनै जो गगन की सो मेरा गुरुदेव ।। सो मेरा गुरुदेव सेवा मैं करिहौं वाकी । शब्द में है गलतान अवस्था ऐसी जाकी ।। निसदिन दशा अरूढ़ लगै ना भूख पियासा । ज्ञान भूमि के बीच चलत है उलटी स्वासा ।। तुरिया सेती अतीत सोधि फिर सहज समाधी । भजन तेल की धार साधना निर्मल साधी । पलटू तन मन वारिये , मिलै जो ऐसा कोउ । धुन आनै जो गगन की सो मेरा गुरुदेव ।। -सन्त पलटू साहब
हमको इन संतोक्त आरम्भिक साधनाओं का पहले अभ्यास करना चाहिए । अब मैं आता हूँ , जो शब्द अभी गाए गए
मेरी सुरत सुहागिनी जागरी ॥ क्या तुम सोवत मोह नींद में , उठि के भजनियाँ में लागरी ।। चित्त से शब्द सुनो सरबन दे , उठत मधुर धुन रागरी ।। दोउ कर जोडि सीस चरणन दे , भक्ति अचल वर माँगरी । कहै कबीर सुनो भाइ साधो , जगत पीठ दै भागरी ।।
सुहागिनी स्त्री वह है , जो पति से प्यार करे जो पति से प्यार नहीं करे , वह दुहागिनी है । जीवात्मा , सुरत को कहते हैं
आदि सुरत सत पुरुषते आई । जीव सोहं बोलिये सो ताई ।।
सुरत का अर्थ ख्याल भी होता है । जीवात्मा के लिए ' सुरत ' शब्द का प्रयोग संतवाणी में बहुत किया गया । जिसका पति जीवित हो और जो पति से प्यार करे , वह सुहागिनी है । चेतन आत्मा को स्त्री कहा गया है , इसका पति परमात्मा है । चेतन आत्मा को जिधर नहीं जाना चाहिए , उधर भी जाती है इसलिए जगने के लिए कहते हैं । भजन में लगने से जगना होगा । मोह - लोभ में जगना , जगना नहीं है , सोना है । असार तत्त्व के त्याग का और सार तत्त्व के ग्रहण का सुरत या जीव को ज्ञान होना चाहिए । तब वह उठा और जगा । यह त्याग और ग्रहण केवल विचार से नहीं होगा । स्वप्न में केवल विचार हो कि जग जाएँ , जग जाएँ तो केवल कहने से जगते हो या कोई स्वाभाविक क्रिया होती है ? जाग्रत से स्वप्न में जाने के लिए बाहर के ख्याल छूटते हैं स्वप में, इसका ख्याल मन में होता है, तो विविध स्वप्न देखते हैं जगने और सपने में अन्तर्मुखी होना और बाहर होना स्वाभाविक है । जगने के स्थान से दूसरे स्थान में जाने से दूसरी अवस्था हो जाती है लोभ मोह में हम नहीं रहें , सार को पकड़ें , ऐसा ज्ञान होने पर भी भूल भटक जाते हैं । ऐसा क्यों ? इसलिए कि जगने के स्थान में नहीं हैं ।
हमलोग इस शरीर में कहाँ है ? आँख में हैं । आँख बंदकर पूछिये मैं कहाँ हूँ ? तो उत्तर होगा कि अंधकार में । अंधकार कहाँ है ? नयनाकाश में । नयनाकाश में अंधकार है और अंधकार में मैं हूँ इसलिए मैं आँख में हूँ
जानिले जानिले सत्तपहचानिले , सुरति साँची बसैदीद दाना । -दरिया साहब , बिहारी
नेत्रस्थं जागरितं विद्यात्कण्ठे स्वप्नं समाविशेत् ...। -ब्रह्मोपनिषद्
जाग्रत से स्वप्न में जाने पर स्थान छूट जाता है , उस समय आप कण्ठ में चले जाते हैं। स्वर का स्थान कण्ठ है , इसलिए स्वप्न में कभी कभी बोल उठते हैं । कण्ठ को षोडस दल कमल भी कहते हैं । जबतक यहाँ रहेंगे , तबतक आप स्वप्न में रहेंगे । गहरी नींद में फेफड़ा में रहेंगे । वह स्वर का स्थान नहीं है , इसलिए हम बोल नहीं सकते । हम साधारणत : जाग्रत , स्वण और सुषुप्ति ; इन तीनों अवस्थाओं में जाते - आते रहते हैं । स्वप्न से जागते हैं , किंतु इस जगने को जगना नहीं कहते हैं । मुर्द्धा में स्थित रखने से जगना होगा । दरिया साहब मारवाड़ी कहते हैं
माया मुख जागे सभे , सो सूता कर जान । दरिया जागेब्रह्म दिसि , सो जागा परमान ।।
हमलोग मोह में सोए हुए हैं , इससे कैसे जगा जाएगा । तो कहा
- ' चित्त से शब्द सुनो सरबन दे , उठत मधुर धुन राग री । '
आपके अंदर राग होता है -
' एहि घट बाजै तबल निशान । बहिरा शब्द सुने नहिं कान ।। '
ध्वनि को सुनने के लिए तुम वहाँ ठहरो , जहाँ पर जाकर तुम सुन सकते हो । कहाँ पर जाकर कोई सुन सकते हैं ? इसके लिए पहले वैष्णवी मुद्रा वा शाम्भवी मुद्रा यानी दृष्टियोग करने के लिए नादविन्दूपनिषद् में कहा है और संतों की वाणी में इसकी विधि बतलाई गई है । दृष्टियोग करने से ही आप वहाँ पहुँचकर सुन सकते हैं , जहाँ पहुँचकर संतवाणीके अनुकूल आंतरिक नाद सुना जा सकता है । कितने कहते हैं कि बिना दृष्टियोग के किए ही तो सुनते हैं तो उनको जानना चाहिए कि वे उस शब्द को नहीं सुन सकते , जो सुनना चाहिए । यदि बिना दृष्टियोग के ही शब्द का सुनना होता तो संतलोग दृष्टि - साधन करने पर विशेष जोर नहीं देते । इसकी शिक्षा कहाँ होगी ? जहाँ होगी , वहाँ जाइए अर्थात् संतों के पास जाइए । यह क्रिया कीजिए , तब संसार की ओर पीठ होगी । अभी संसार में कहीं भी जाओ सन्मुख संसार रहेगा ।
मुर्द्धा में जाने से संसार की ओर पीठ देना होगा । गोस्वामी तुलसीदासजी के शब्दों में सुनाया गया है
इन्होंने भी एक दूसरे पद्य में चौथी अवस्था में जाने के लिए कहा है
तीन अवस्था तजहु , भजहु भगवन्त । मन क्रम वचन अगोचर व्यापक व्याप्य अनंत ।।
अर्थात् तीनों अवस्थाओं को छोड़कर भजन करने कहते हैं तीन अवस्थाओं को छोड़ना योगियों से ही हो सकता है । इसलिए तुलसीकृत रामायण में है कि
एहि जग जामिनिजागहिं जोगी । परमारथी प्रपंच वियोगी ।।
इसी तरह सभी संत कहते हैं उपनिषद् में भी है - ' उतिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत .. ' अर्थात् अरे ! अविद्याग्रस्त लोगो ! उठो , अज्ञान निद्रा से जागो । बाहर में कहीं भी जाने से संसार से और तीनों अवस्थाओं से नहीं छूट सकते । जो अपने को तुरीय अवस्था में ले जाते हैं , तो वे मरकर फिर नहीं मरते । रोग व्याधि से मर जाने पर फिर - फिर मरना होगा । कुछ कोशिश करके मरने से यह संस्कार आगे जन्म में प्रेरण करेगा और यही संस्कार जमा होते - होते एक दिन ऐसा बना देगा कि संसार में आना नहीं होगा । इसी के लिए यह सत्संग है । इसमें कोई बाह्याडम्बर नहीं है । हमलोग यहाँ सत्संग करने और सत्संग का प्रचार भी करने के लिए आए हैं । ∆
( यह प्रवचन पूर्णिया जिला के श्रीसंतमत सत्संग मंदिर सिकलीगढ़ धरहरा में दिनांक २५.११.१९५५ ई ० को प्रात : कालीन सत्संग में हुआ था ।)
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