S127, प्राप्तव्य क्या है ।। महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा ।। Sukhee Jeevan jeene ke upaay ।। २५.११.१९५५ई

महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर / 127

प्रभु प्रेमियों ! सत्संग ध्यान के इस प्रवचन सीरीज में आपका स्वागत है। आइए आज जानते हैं-संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज के हिंदी प्रवचन संग्रह "महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर" के प्रवचन नंबर 127 के बारे में। इसमें बताया गया है कि  किसी भी काम को करने से दुख होता है और लोग उस दुख को सुख की आशा से सहते हैं। ईश्वर का स्वरूप कैसा है।

इसके साथ ही आप इस प्रवचन (उपदेश, अमृतवाणी, वचनामृत, सत्संग सुधा, संतवाणी, गुरु वचन, उपदेशामृत, ज्ञान कथा, भागवत वाणी, संतवचन, संतवचन-सुधा, संतवचनामृत, प्रवचन पीयूष )  में  पायेंगे कि- लोग दुख क्यों उठाते हैं? अपने को सुखी कैसे बना सकते हैं? क्या ईश्वर भक्ति से सुख होगा? ईश्वर कैसा है? उसकी भक्ति कैसे करेंगे? क्या राम, कृष्ण, शिव, दुर्गा आदिश्वर है? ईश्वर है कि नहीं क्या यह गप है। गोस्वामी तुलसीदास जी, बाबा नानक साहब और संत कबीर साहब के ईश्वर संबंधी विचार, वायु के उपमा से ईश्वर स्वरूप को समझना चाहिए   इत्यादि बातों  के बारे में। इसके साथ-ही-साथ निम्नलिखित प्रश्नों के भी कुछ-न-कुछ समाधान इसमें मिलेगा। जैसे कि- सुखी जीवन जीने के लिए क्या करना चाहिए? सुखी जीवन क्या है? जीवन को सुखमय कैसे बनाएं? व्यक्ति को किस प्रकार का जीवन जीना चाहिए, व्यक्ति को कैसा जीवन जीना चाहिए, सुखी जीवन जीने का रहस्य, मनुष्य को कैसे जीना चाहिए, व्यक्ति को किस प्रकार का जीवन जीना चाहिए, manushyata, सुखी जीवन जीने के उपाय, मनुष्य सुखी कैसे बन सकता है, मनुष्य-मनुष्य में बाहरी अंतर क्यों दिखाई देता है?  इत्यादि बातें। इन बातों को जानने-समझने के पहले, आइए !  संत सदगुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज का दर्शन करें।

इस प्रवचन के पहले वाले प्रवचन नंबर 126 को पढ़ने के लिए   यहां दवाएं। 

सुखमय जीवन बिताने का अचूक उपाय वा रहस्य पर चर्चा करते सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज
सुखी जीवन का रहस्य

१२७. प्राप्तव्य क्या है ? 

शांति संदेश में प्रकाशित गुरुदेव के प्रवचन करते हुए

धर्मानुरागिनी प्यारी जनता ! 

     आप सोचिए कि आपको क्या चाहिए ? किसी का हृदय ऐसा नहीं है कि जिसका हृदय कह दे कि दुःख चाहता हूँ । यदि किसी को आप देखते हैं कि दुःख उठाने के लिए अमुक व्यक्ति तत्पर है, तो आप समझिए कि वह सुख पाने के लिए दुःख उठाता है । सभी सुख - लाभ के लिए ही काम करते हैं । 

     स्कूल छोड़ने के कई वर्ष पहले मेरे मन में उत्पन्न होता था कि मैं अपने को किस तरह सुखी बना सकूंगा , तो समझ में आया कि ईश्वर की भक्ति में सुख होगा । रामायण का पाठ करने की अभिरुचि मेरे बचपन काल से थी । मैं रामायण पढ़ा करता था । उसमें ईश्वर भक्ति के लिए बहुत प्रेरण है । 

देह धरे कर यहि फल भाई । भजिय राम सब काम बिहाई ।। 

और - 

राका पति षोडस उअहिं , तारागण समुदाय । सकल गिरिन्ह दव लाइअ , बिनु रवि राति न जाय । ऐसहि बिनुहरि भजन खगेसा । मिटर्हिनजीवन केर कलेसा ।।

     अर्थात् ईश्वर - भक्ति रूपी सूर्य का उदय हो तो दुःख रूपी रात का नाश हो जाएगा । 

     मैं पहले सोचा करता था कि क्या मुझसे परमात्म- भक्ति सध सकेगी ? तो कभी पैर ढीला होता था और कभी बल मिलता था । मेरे कई गुरु हुए । मैं जिज्ञासु होकर कइयों के यहाँ गया । सबसे ईश्वर- भक्ति की प्रेरणा मिली । कहीं बाहर की भक्ति और कहीं भीतर की भक्ति करने का उपदेश मिला । अंत में यह ज्ञान पाया कि बहिर्मुख और अंतर्मुख दोनों प्रकार की भक्तियों का करना आवश्यक है।

      प्राप्तव्य क्या है इसको जानो , फिर उसको पाने के लिए दौड़ो । बिना प्राप्तव्य जाने उसको पाने के लिए दौड़ना बुद्धिमानी नहीं हैईश्वर क्या तत्त्व हैै? इसको जानो मैं पहले जानता था कि राम ईश्वर है , शिव ईश्वर है । रामायण पढ़ने से राम और शिव दोनों को ईश्वर जानते थे । घर में भगवती की पूजा होती थी तो उनको भी देवी मानता था फिर गाणपत्य और सौर भक्त को भी जानो । फिर समझा कि नरसिंहरूप , क्षीरसमुद्रवासी , साकेतवासी , दशावतारी ; सभी रूप उन्हीं ईश्वर के हैं , ऐसा सुना और कहीं कहीं ऐसा पढ़ा भी । गणेश , शिव , सूर्य , विष्णु , दुर्गादि देवियाँ तथा सम्पूर्ण चराचर एक ईश्वर के ही रूप हैं , ऐसा भी पढ़ा और सुना है । ईश्वर संबंधी इस ज्ञान पर सहज ही प्रश्न होता है कि ये सभी रूप जिनके , वे स्वयं अपने कैसे ? उनका स्वरूप कैसा है ? वह एक अनेक रूपों में है , वह कैसा ? वह कितना बड़ा है अथवा कितना छोटा है , इसको जानने के लिए उत्सुकता आती है । होते - होते ऐसे लोगों से भी भेंट हुई , जिन्होंने कहा कि किस ख्याल में तुम हो , जिसको लोग ईश्वर कहते हैं , वह हई नहीं है । किंतु इस बात का विश्वास मुझे कभी नहीं हुआ । ईश्वर की स्थिति पर आक्षेपात्मक कितने ही प्रश्न उनके हुआ करते थे , जिनका उत्तर देना कठिन होता था किंतु वे मेरे विश्वास को डिगा नहीं सके । कैवल्य शास्त्र नाम की एक पुस्तक मैंने पढ़ी , जिसमें है कि एक आदितत्त्व ऐसा है जो अनादि , अनंत है । गोस्वामी तुलसीदासजी की रामायण की चौपाई याद आती है 

व्यापक व्याप्य अखण्ड अनन्ता । अखिल अमोघ सक्ति भगवन्ता ॥ 

     एक अनादि - अनंत तत्त्व अवश्य है । यदि इसमें कोई शक - सन्देह करे तो इसका जवाब है कि यदि सभी सान्त - ही - सान्त हैं और एक अनादि अनंत तत्त्व नहीं है तो सभी सान्तों को मिलाने से अनंत नहीं हो सकता । क्योंकि सान्त - सान्त का जोड़ सान्त ही होगा , वह अनंत नहीं होगा । तब प्रश्न होगा कि उस सान्त तत्त्व के पार में क्या है ? इसका उत्तर होगा अनंत है , इसके सिवाय और कुछ उत्तर नहीं हो सकता । 

     इस संसार को देखकर लोग भले ही कहें कि संसार बनता और बिगड़ता है , इसके अंग - प्रत्यंग बनते और नाश होते हैं ; यह अनंत नहीं हो सकता । परंतु यदि कोई उस अनादि - अनंत तत्त्व को प्रत्यक्ष नहीं देख सकता है , इसलिए उसकी स्थिति को स्वीकार नहीं करे , यह ठीक नहीं । सारे सान्तों के पार में एक अनंत अवश्य है । 

राम स्वरूप तुम्हार , वचन अगोचर बुद्धि पर । अविगत अकथ अपार , नेति नेति नित निगम कह ।। -रामचरितमानस 

श्रूप अखण्डित व्यापी चैतन्यश्चैतन्य । ऊँचे नीचे आगे पीछे दाहिन बायें अनन्य । बड़ातें बड़ा छोट तें छोटा मीही तें सब लेखा । सबके मध्य निरन्तर साई दृष्टि दृष्टि सौं देखा ।। -कबीर साहब 

     बड़ा से बड़ा क्या हो सकता है ? जिससे बड़ा और कुछ नहीं हो सके , वह अनंत के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं हो सकता । एक अनंत तत्त्व की स्थिति अवश्य है , यह बात बुद्धि के ग्रहण में आती है । 

अलख अपार अगम अगोचरि , नातिसुकालनकरमा ।। जाति अजाति अजोनीसंभउ , ना तिसुभाउ न भरमा ।। साचे सचिआर बिटहु कुखाणु । ना तिसुरूप बस्नु नर्हि रेखिआ साचे सबदि नीसाणु ।। -गुरुनानक साहब 

     कबीर साहब , गुरु नानक साहब और गोस्वामी तुलसीदासजी ; इन तीनों संतों को इधर के लोग विशेष जानते हैं । ये तीनों संत कहते हैं कि एक अनादि - अनंत तत्त्व अवश्य है । परंतु वह अव्यक्त शरीरधारी लम्बे - चौड़े आकार का नहीं है । किसी आकार - प्रकार का कहने से वह ससीम हो जाएगा ? सब ससीमों में वह पूर्ण है और सबसे बाहर भी है 

     जिस प्रकार इस लोक में प्रविष्ट हुआ वायु प्रत्येक रूप के अनुरूप हो रहा है , उसी प्रकार संपूर्ण भूतों का एक ही अंतरात्मा प्रत्येक रूप के अनुरूप हो रहा है और उनसे बाहर भी है, कितना बाहर जिसका अन्दाजा नहीं लगाया जा सकता । वह एक अनादि अनंत तत्त्व अवश्य हैं , इसी का प्रचार सभी संत किए और इस सत्संग से भी इसी का प्रचार होता है। यही प्राप्तव्य है , यही ईश्वर है । ∆

(यह प्रवचन पूर्णिया जिला श्रीसंतमत सत्संग मंदिर सिकलीगढ़ धरहरा में दिनांक २५.११.१९५५ई. को अपराहकालौन सत्संग में हुआ । )


नोट-  इस प्रवचन में निम्नलिखित रंगानुसार और विषयानुसार ही  प्रवचन के लेख को रंगा गया या सजाया गया है। जैसे-  हेडलाइन की चर्चा,   सत्संग,   ध्यान,   सद्गगुरु  ईश्वर,   अध्यात्मिक विचार   एवं   अन्य विचार   । 

इस प्रवचन को महर्षि मेंही सत्संग सुधा सागर में प्रकाशित रूप में पढ़ें-

महर्षि मेंही सत्संग सुधा सागर प्रवचन नंबर 127 प्रवचन चित्र एक

महर्षि मेंही सत्संग सुधा सागर प्रवचन नंबर 127 प्रवचन चित्र दो



इस प्रवचन के बाद वाले प्रवचन नंबर 128 को पढ़ने के लिए   यहां दबाएं।


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S127, प्राप्तव्य क्या है ।। महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा ।। Sukhee Jeevan jeene ke upaay ।। २५.११.१९५५ई S127, प्राप्तव्य क्या है ।। महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा ।। Sukhee Jeevan jeene ke upaay ।।  २५.११.१९५५ई Reviewed by सत्संग ध्यान on 5/12/2021 Rating: 5

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