S127, प्राप्तव्य क्या है ।। महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा ।। Sukhee Jeevan jeene ke upaay ।। २५.११.१९५५ई
महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर / 127
सुखी जीवन का रहस्य |
१२७. प्राप्तव्य क्या है ?
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता !
स्कूल छोड़ने के कई वर्ष पहले मेरे मन में उत्पन्न होता था कि मैं अपने को किस तरह सुखी बना सकूंगा , तो समझ में आया कि ईश्वर की भक्ति में सुख होगा । रामायण का पाठ करने की अभिरुचि मेरे बचपन काल से थी । मैं रामायण पढ़ा करता था । उसमें ईश्वर भक्ति के लिए बहुत प्रेरण है ।
देह धरे कर यहि फल भाई । भजिय राम सब काम बिहाई ।।
और -
राका पति षोडस उअहिं , तारागण समुदाय । सकल गिरिन्ह दव लाइअ , बिनु रवि राति न जाय । ऐसहि बिनुहरि भजन खगेसा । मिटर्हिनजीवन केर कलेसा ।।
अर्थात् ईश्वर - भक्ति रूपी सूर्य का उदय हो तो दुःख रूपी रात का नाश हो जाएगा ।
मैं पहले सोचा करता था कि क्या मुझसे परमात्म- भक्ति सध सकेगी ? तो कभी पैर ढीला होता था और कभी बल मिलता था । मेरे कई गुरु हुए । मैं जिज्ञासु होकर कइयों के यहाँ गया । सबसे ईश्वर- भक्ति की प्रेरणा मिली । कहीं बाहर की भक्ति और कहीं भीतर की भक्ति करने का उपदेश मिला । अंत में यह ज्ञान पाया कि बहिर्मुख और अंतर्मुख दोनों प्रकार की भक्तियों का करना आवश्यक है।
प्राप्तव्य क्या है इसको जानो , फिर उसको पाने के लिए दौड़ो । बिना प्राप्तव्य जाने उसको पाने के लिए दौड़ना बुद्धिमानी नहीं है । ईश्वर क्या तत्त्व हैै? इसको जानो । मैं पहले जानता था कि राम ईश्वर है , शिव ईश्वर है । रामायण पढ़ने से राम और शिव दोनों को ईश्वर जानते थे । घर में भगवती की पूजा होती थी तो उनको भी देवी मानता था फिर गाणपत्य और सौर भक्त को भी जानो । फिर समझा कि नरसिंहरूप , क्षीरसमुद्रवासी , साकेतवासी , दशावतारी ; सभी रूप उन्हीं ईश्वर के हैं , ऐसा सुना और कहीं कहीं ऐसा पढ़ा भी । गणेश , शिव , सूर्य , विष्णु , दुर्गादि देवियाँ तथा सम्पूर्ण चराचर एक ईश्वर के ही रूप हैं , ऐसा भी पढ़ा और सुना है । ईश्वर संबंधी इस ज्ञान पर सहज ही प्रश्न होता है कि ये सभी रूप जिनके , वे स्वयं अपने कैसे ? उनका स्वरूप कैसा है ? वह एक अनेक रूपों में है , वह कैसा ? वह कितना बड़ा है अथवा कितना छोटा है , इसको जानने के लिए उत्सुकता आती है । होते - होते ऐसे लोगों से भी भेंट हुई , जिन्होंने कहा कि किस ख्याल में तुम हो , जिसको लोग ईश्वर कहते हैं , वह हई नहीं है । किंतु इस बात का विश्वास मुझे कभी नहीं हुआ । ईश्वर की स्थिति पर आक्षेपात्मक कितने ही प्रश्न उनके हुआ करते थे , जिनका उत्तर देना कठिन होता था किंतु वे मेरे विश्वास को डिगा नहीं सके । कैवल्य शास्त्र नाम की एक पुस्तक मैंने पढ़ी , जिसमें है कि एक आदितत्त्व ऐसा है जो अनादि , अनंत है । गोस्वामी तुलसीदासजी की रामायण की चौपाई याद आती है
व्यापक व्याप्य अखण्ड अनन्ता । अखिल अमोघ सक्ति भगवन्ता ॥
एक अनादि - अनंत तत्त्व अवश्य है । यदि इसमें कोई शक - सन्देह करे तो इसका जवाब है कि यदि सभी सान्त - ही - सान्त हैं और एक अनादि अनंत तत्त्व नहीं है तो सभी सान्तों को मिलाने से अनंत नहीं हो सकता । क्योंकि सान्त - सान्त का जोड़ सान्त ही होगा , वह अनंत नहीं होगा । तब प्रश्न होगा कि उस सान्त तत्त्व के पार में क्या है ? इसका उत्तर होगा अनंत है , इसके सिवाय और कुछ उत्तर नहीं हो सकता ।
इस संसार को देखकर लोग भले ही कहें कि संसार बनता और बिगड़ता है , इसके अंग - प्रत्यंग बनते और नाश होते हैं ; यह अनंत नहीं हो सकता । परंतु यदि कोई उस अनादि - अनंत तत्त्व को प्रत्यक्ष नहीं देख सकता है , इसलिए उसकी स्थिति को स्वीकार नहीं करे , यह ठीक नहीं । सारे सान्तों के पार में एक अनंत अवश्य है ।
राम स्वरूप तुम्हार , वचन अगोचर बुद्धि पर । अविगत अकथ अपार , नेति नेति नित निगम कह ।। -रामचरितमानस
श्रूप अखण्डित व्यापी चैतन्यश्चैतन्य । ऊँचे नीचे आगे पीछे दाहिन बायें अनन्य । बड़ातें बड़ा छोट तें छोटा मीही तें सब लेखा । सबके मध्य निरन्तर साई दृष्टि दृष्टि सौं देखा ।। -कबीर साहब
बड़ा से बड़ा क्या हो सकता है ? जिससे बड़ा और कुछ नहीं हो सके , वह अनंत के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं हो सकता । एक अनंत तत्त्व की स्थिति अवश्य है , यह बात बुद्धि के ग्रहण में आती है ।
अलख अपार अगम अगोचरि , नातिसुकालनकरमा ।। जाति अजाति अजोनीसंभउ , ना तिसुभाउ न भरमा ।। साचे सचिआर बिटहु कुखाणु । ना तिसुरूप बस्नु नर्हि रेखिआ साचे सबदि नीसाणु ।। -गुरुनानक साहब
कबीर साहब , गुरु नानक साहब और गोस्वामी तुलसीदासजी ; इन तीनों संतों को इधर के लोग विशेष जानते हैं । ये तीनों संत कहते हैं कि एक अनादि - अनंत तत्त्व अवश्य है । परंतु वह अव्यक्त शरीरधारी लम्बे - चौड़े आकार का नहीं है । किसी आकार - प्रकार का कहने से वह ससीम हो जाएगा ? सब ससीमों में वह पूर्ण है और सबसे बाहर भी है
जिस प्रकार इस लोक में प्रविष्ट हुआ वायु प्रत्येक रूप के अनुरूप हो रहा है , उसी प्रकार संपूर्ण भूतों का एक ही अंतरात्मा प्रत्येक रूप के अनुरूप हो रहा है और उनसे बाहर भी है, कितना बाहर जिसका अन्दाजा नहीं लगाया जा सकता । वह एक अनादि अनंत तत्त्व अवश्य हैं , इसी का प्रचार सभी संत किए और इस सत्संग से भी इसी का प्रचार होता है। यही प्राप्तव्य है , यही ईश्वर है । ∆
(यह प्रवचन पूर्णिया जिला श्रीसंतमत सत्संग मंदिर सिकलीगढ़ धरहरा में दिनांक २५.११.१९५५ई. को अपराहकालौन सत्संग में हुआ । )
महर्षि मेंहीं सत्संग-... |
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