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S128, साम्यावस्थाधारिणी मूल प्रकृति ।। महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा सागर ।। २६.११.१९५५ ई. पूर्णियाँ

महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर / 128

प्रभु प्रेमियों ! सत्संग ध्यान के इस प्रवचन सीरीज में आपका स्वागत है। आइए आज जानते हैं-संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज के हिंदी प्रवचन संग्रह "महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर" के प्रवचन नंबर 128 के बारे में। इसमें बताया गया है कि  संतमत में ईश्वर का स्वरूप कैसा है और साम्यावस्थाधारनी मूल प्रकृति किसे कहते हैं?

इसके साथ ही आप इस प्रवचन (उपदेश, अमृतवाणी, वचनामृत, सत्संग सुधा, संतवाणी, गुरु वचन, उपदेशामृत, ज्ञान कथा, भागवत वाणी, संतवचन, संतवचन-सुधा, संतवचनामृत, प्रवचन पीयूष )  में  पायेंगे कि- संतमत में ईश्वर का स्वरूप कैसा है? ईश्वर भक्ति के लिए किन बातों की आवश्यकता है? किन बातों को जानना जरूरी है? सत्संग क्यों करते हैं? हम ज्ञान कैसे करते हैं ?शब्द का गुण कैसा होता है? सृष्टि का विकास कैसे हुआ है?   साम्यावस्थाधारिणी मूल प्रकृति किसे कहते हैं ? प्रलय काल में क्या होता है? ईश्वर किसे मानना चाहिए? ईश्वर स्वरूप को जानने के लिए श्वेतकेतु मुनि - पुत्र की कथा । चित्त किसे कहते हैं? मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार किसे कहते हैं? शून्य कितने प्रकार का है?   इत्यादि बातों  के बारे में। इसके साथ-ही-साथ निम्नलिखित प्रश्नों के भी कुछ-न-कुछ समाधान इसमें मिलेगा। जैसे कि- ,सत्संग में जाने से क्या फायदा? सत्संग का क्या महत्व है? सत्संग के फायदे, सत्संग के बारे में, सत्संग महिमा,सत्संग, मूल प्रकृति क्या है, शाश्वतता के विरुद्ध नियम, भगवान ने सृष्टि क्यों बनाई? सृष्टि का अवतार कैसे हुआ? दुनिया में सबसे पहला इंसान कौन आया था? ईश्वर की उत्पत्ति कैसे हुई? सृष्टि की उत्पत्ति कैसे हुई, सृष्टि कैसे बनी, संसार की रचना कैसे हुई, वेदों के अनुसार सृष्टि की उत्पत्ति, सृष्टि क्या है, सृष्टि के रचयिता कौन है, पुराण के अनुसार सृष्टि की रचना, सृष्टि रचना की कथा, सृष्टि का निर्माण, सृष्टि के पालनहार कौन है, विष्णु पुराण सृष्टि की रचना, सृष्टि का अर्थ,  इत्यादि बातें। इन बातों को जानने-समझने के पहले, आइए !  संत सदगुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज का दर्शन करें।

इस प्रवचन के पहले वाले प्रवचन नंबर 127 को पढ़ने के लिए   यहां दवाएं।

ईश्वर भक्ति के लिए आवश्यक बातों की चर्चा करते गुरुदेव महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज

१२८. साम्यावस्थाधारिणी मूल प्रकृति 


धर्मानुरागिनी प्यारी जनता !

      मैं चाहता हूँ कि ईश्वर - स्वरूप का ठीक-ठीक निर्णय संतों की वाणी के अनुसार हो जाय फिर आपके बोध में आवे कि उसकी भक्ति कैसे की जाय ? जबतक स्वरूप समझ में नहीं आवे , तबतक उसकी भक्ति कैसी की जाय , बोध में नहीं आता । फिर उसके लिए संयम करना चाहिए । जिससे उस भक्ति मार्ग पर ठीक - ठीक चला जाय । इन्हीं सब आवश्यक बातों का बोध करने और कराने के लिए सत्संग है । 

     आपको रूप , रस , गंध , स्पर्श और शब्द का प्रत्यक्ष ज्ञान है । इन बाहर के पदार्थों के अतिरिक्त और कोई कुछ प्रत्यक्ष रूप में जानते हैं , ऐसा नहीं । लोग इन्हीं को जानते हैं और इन्हें जानने के लिए सबको पंच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं । आँख से रूप , कान से शब्द , जिभ्या से रस , नासिका से गंध और त्वचा से स्पर्श जानते हैं । ये सब कैसे हैं , सो सोचिए । जो कुछ भी आप देखते हैं , सभी एक तरह से रह जाय , हो नहीं सकता । रूप एक तरह रहे , शब्द एक तरह रहे , हो नहीं सकता ।

     शब्द के लिए लोग कहते हैं कि यह अनाश है । सुनने के समय शब्द सुनते हैं , उसके बाद उस शब्द को नहीं सुन सकते । लोग विचार में ही जानते कि पहले के भी शब्द आकाश के गर्भ में हैं । परंतु इसका प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं है जब इसको प्रत्यक्ष कर ले तब उसको नित्य समझेंगे । प्रत्यक्ष नहीं रहने पर भी विचार में ऐसा ज्ञान है तो यह आज के ख्याल में अयोग्य नहीं है । शब्द ऐसा नहीं है कि वह पानी में सड़ जाय या आग में जल जाय । जब आप कहते हैं कि शब्द आकाश का गुण है , तो जहाँ गुणी है , वहाँ गुण रहे , यह असंभव नहीं है । आप स्थूल इन्द्रियों के द्वारा स्थूल यंत्रों से स्थूल आकाश के शब्द सुनते हैं । 

     जल , बर्फ और वाष्प स्थूल हैै। बर्फ कठिन होने से कठिन , उसका जल होने से तरल और फिर वाष्प होने से वाष्परूप होता है । किंतु फिर भी स्थूल है क्योंकि स्थूल इन्द्रियों से इसका ज्ञान होता है । सृष्टि का विकास एक ही बार में ऐसा हो गया , सो नहीं । इसका पूर्व रूप सूक्ष्म था और है । उसके बाद स्थूल है, पहले सूक्ष्म मण्डल है , जिससे स्थूल मण्डल बना । इस तरह जो बना सो कभी - न- कभी बिगड़ेगा , यह असंभव बात नहीं । ऐसी चीज को देखते हैं , जो थोड़े समय में बदल जाती है। कोई ऐसी चीज भी है जो जल्दी नहीं बिगड़ती । तो इसके लिए भी आप विचारते हैं कि यह कभी - न- कभी बदल जाएगा । 

     स्थूलाकाश का विकास सूक्ष्माकाश से हुआ है यह स्थूलाकाश बदलकर सूक्ष्माकाश में रहेगा और यह भी नहीं रहेगा । सांख्य ज्ञान और संतों के विचार के अनुकूल जानने में आता है कि सृष्टि बनने के लिए एक महान तत्त्व है , जिसको प्रकृति कहते हैं । 

     सृष्टि में उपज , ठहराव और विनाश है । जिसके परिवर्तित - विकृत स्थूल में इन तीनों के काम होते देखे जाते हैं , उसके मूल में ये तीनों नहीं हों , सम्भव नहीं । उत्पन्न करने की शक्ति को रजोगुण , पालन करने की शक्ति को सतोगुण और विनाश करने की शक्ति को तमोगुण कहते हैं । ये तीनों गुण सृष्टि के मूल मशाले – प्रकृति में ही हैं । अथवा यों भी कह सकते हैं कि ये तीनों गुण ही साम्य रूप में प्रकृति कहलाते हैं अथवा यों भी कह सकते हैं कि त्रैगुण के सम्मिश्रण रूप को साम्यावस्थाधारिणी मूल प्रकृति कहते हैं । 


Sadguru Maharshi Mehi paramhans Ji Maharaj
सद्गुरु महर्षि मेंही  

     किसी गुण का उत्कर्ष और किसी का अपकर्ष होता है , तब सृष्टि होती है उस प्रकृति से बुद्धि , बुद्धि से अहंकार , अहंकार से सेन्द्रिय , और निरेन्द्रिय दो प्रकार की सृष्टि हुई है । सेन्द्रिय में पहले मन बना और निरेन्द्रिय में पहले आकाश बना है । अब जानिए कि आकाश कितना नीचे है । पहले विचार द्वारा किसी वस्तु का सिद्धान्त स्थिर होता है , फिर प्रयोग द्वारा उसको प्रत्यक्ष किया जाता है । बिना दार्शनिक विचार के बोध नहीं हो सकता कि जिस स्थूलाकाश में हम हैं , यह आकाश का अपर रूप है , पूर्व रूप नहीं है । यह स्थूलाकाश सूक्ष्माकाश में लय हो जाएगा । इस प्रकार जब स्थूलाकाश का नाश होगा , तब उसका शब्द भी नहीं रहेगा । इसलिए इस स्थूलाकाश का शब्द सत्य नहीं हो सकता । मुँह से शब्द निकलता है , वचनवर्द्धक यंत्र उस शब्द को दूर तक फैला देता है यंत्र नहीं रहे तो दूर - दूर तक उस शब्द को नहीं सुन पाते । इसलिए शब्द नहीं है , यह कोई बात नहीं । इस तरह वह कायल कर देते हैं कि तब शब्द नित्य कैसे नहीं हो सकता ? मैं कहता हूँ कि जिस स्थूलाकाश का गुण शब्द है , उस स्थूलाकाश के लय होने पर स्थूल शब्द कैसे रह सकता है ? इसलिए यह शब्द नाशवान है ।

     विनाश दो प्रकार के हैं । एक केवल बदल जाय , परंतु अत्यन्ताभाव नहीं हो। जैसे आपका शरीर बदलता है, बचपन से अभी तक है , बदला है , किंतु अत्यन्ताभाव इसका नहीं हुआ है। शरीर के मरने और जलाए जाने पर भी इसका अत्यन्ताभाव नहीं होता , किसी - न - किसी रूप में इसके भौतिक तत्त्व रहते ही हैं इसलिए उसका रहना हुआ । बदलते रहने के कारण असत् कहा गया । जैसे लोकमान्य बालगंगाधर तिलकजी ने कहा है कि - ' कोई झूठ बोलता है , दूसरा कहता है कि वह झूठा है , इसका अर्थ यह नहीं कि वह आदमी है ही नहीं । है , किंतु वह अपना वचन बदलता रहता है , इसलिए वह झूठा है । ' समर्थ रामदास की दासबोध नाम्नी पुस्तक में है कि सौ वर्ष केवल धूप - ही - धूप होगी । यह भूमण्डल जलकर चूना हो जाएगा । सौ वर्ष तक मूसलाधार जल की वर्षा होगी । जैसे इन्द्र ने ब्रज पर जल वर्षा की थी , उससे भी विशेष मूसलाधार वर्षा होगी । इस प्रकार वह चूना गलकर पानी हो जाएगा । तब सौ वर्ष तक केवल प्रचण्ड हवा चलेगी , तब सब पानी कण - कण होकर पवन स्थिर अग्नि में लय हो जाएगा । अग्नि हवा में लय हो जाएगी , हवा आकाश में लय हो जाएगी , आकाश अहंकार में , अहंकार मह- तत्त्व में अर्थात् बुद्धि में , बुद्धि प्रकृति में लय हो जाएगी और प्रकृति ईश्वर में लय हो जाएगी । 

     क्या अन्तिम के लय - स्थान के बाद अतिरिक्त और पदार्थों को आप ईश्वर मानते हैं ? ये सभी नाशवान पदार्थ हैं । परमात्मा भी यदि नाशवान हो तो उसकी भक्ति करके क्या लाभ ? सभी धर्म के लोग परमात्मा को अनाश मानते हैं। गुरु नानक का वचन है 'अलख अपार अगम अगोचरि , ना तिसुकाल न करमा ।' जो काल की मर्यादा से बाहर है , उसका नाश कैसे हो सकता है ? केनोपनिषद् में लिखा है कि-

यन्मनसा न मनुते येनाहुर्मनोमतम् । तदेव ब्रह्मत्वं विद्धिनेदं यदिदमुपासते ।। 

     अर्थात् जो मन से मनन नहीं किया जाता , बल्कि जिससे मन मनन किया हुआ कहा जाता है , उसी को तू ब्रह्म जान । जिस इस ( देशकालाविच्छिन्न वस्तु ) की लोग उपासना करता है , वह ब्रह्म नहीं है । 

     यहाँ ' इस ' शब्द बहुत महत्त्व का है । ' इस ' नजदीक की चीज को कहते हैं और ' उस ' दूर की चीज को कहते हैं । ' इस ' इन्द्रिय - गोचर पदार्थ को कहा गया है । जहाँ आप सशरीर हों , वहाँ इन्द्रिय - गोचर पदार्थ नहीं हो कैसे संभव है ? इन्द्रिय - गोचर पदार्थ परमात्मा नहीं हो सकता । इन्द्रियों के ज्ञान में वह आ नहीं सकता । 

     श्वेतकेतु एक मुनि - पुत्र था । उन्होंने उपने पिता से ब्रह्म स्वरूप की जिज्ञासा की मुनि ने श्वेतकेतु से कहा कि तुम वट वृक्ष से एक फल ले आओ । आज्ञा पाकर मुनि पुत्र ने तुरंत एक फल ले आया । पिता ने कहा कि फल को टुकड़ा करो । श्वेतकेतु ने उसका टुकड़ा किया । पिता ने पूछा - इसमें क्या है ? पुत्र ने कहा - इसमें छोटे - छोटे कई दाने हैं । पिता ने कहा - एक दाने को लेकर उसे भी तोड़ डालो और देखो कि क्या है ? श्वेतकेतु ने उसे तोड़ा और कहा कि इसमें दो दालें हैं । पिता ने पुनः पूछा उन दोनों दालों के बीच में क्या है ? पुत्र ने कहा - दोनों दालों के बीच में कुछ नहीं है पिता ने कहा - यदि दोनों दालों के बीच में कुछ नहीं है तो वृक्ष कैसे हुआ ? बीच में कुछ अवश्य है , वह अव्यक्त है ।

     जिससे वृक्ष हुआ वह इन्द्रियों के ज्ञान में नहीं है। इन्द्रियों का राजा मन है । मन पर बुद्धि का शासन है इसलिए बुद्धि तक इन्द्रियाँ मानते हैं मन संकल्प - विकल्प करता है बुद्धि उसको कहते हैं जिसमें विवेचना शक्ति है अहंकार उसको कहते हैं , जिसमें अपनेपन का ज्ञान हो ।    चित्त उसको कहते हैं , जिसमें हिलाने - डुलाने की शक्ति हो । इसके हिलाए बिना मन संकल्प - विकल्प नहीं कर सकता है , बुद्धि विचार नहीं कर सकती और अहंकार का ' मैं हूँ ' ज्ञान नहीं हो सकता । चित्त इन तीनों को हिलाता है । 

     इन इन्द्रियों से परमात्मा को नहीं पहचान सकते । इन्द्रियों के बाद कुछ और भी इस शरीर में है कि नहीं ? तुम तो इसी शरीर में हो तुम क्या लूले - लँगड़े हो ? तुम इन्द्रियों से परतत्त्व हो । मन , बिना इन्द्रियों के कुछ काम नहीं कर सकता है बिना कान के मन पर बाहर में कुछ सुन नहीं सकता । बिना आँख के मन बाहर में कुछ देख नहीं सकता । किंतु तुम अपने को अपने से देख सकते हो और अपने से ही परमात्मा को भी देख सकते हो , जैसे समूचे शरीर को आँख से और आँख को फिर आँख से देखते हो दादू दयाल जी का शब्द है- 

दादू जानै न कोई , संतन की गति गोई ॥टेक ।। अविगत अंत अंत अंतर पट , अगम अगाध अगोई । सुन्नी सुन्न सुन्न के पारा , अगुन सगुन नहिं दोई ।। अंड न पिंड खंड ब्रह्मण्डा , सूरत सिंध समोई । निराकार आकार न जोति , पूरन ब्रह्म न होई ॥ इनके पार सार सोइ पइहैं , तन मन गति पति खोई । दादू दीन लीन चरणन चित , मैं उनकी सरणोई ।। 

     संतों की चाल छिपी हुई होती है । वह कहाँ तक जाते हैं , किस होकर जाते हैं ? वह अविगत तक जाते हैं । उसतक जाने का मार्ग अपने अंदर में है । उसपर चलते हुए सभी पर्दो को पार करते हैं । गोस्वामी तुलसीदासजी के वचन में है

मायावस मतिमन्द अभागी । हृदय जवनिका बहुविधि लागी ।। ते सठ हठ बस संसय करहीं । निज अज्ञान राम पर धरहीं ।। काम क्रोध मद लोभरत , गृहासक्त दुख रूप । ते किमि जानहिं रघुपतिहिं , मूढ पड़े तम कूप ।। 

     उपर्युक्त दादू दयालजी के शब्द में तीन शून्य बताए गए - ' सुन्नी सुन सुन के पारा । ' इसी को हमारे गुरु महाराज बाबा देवी साहब कहते थे - अंधकार का शून्य , प्रकाश का शून्य और केवल शब्द का शून्य । स्थूल अंधकारमय शून्य , सूक्ष्म प्रकाशमय शून्य और कारण - महाकारण केवल शब्दमय शून्य । कतिपय विद्वान कारण और महाकारण नहीं कहकर केवल कारण वा प्रकृति कहते हैं । प्रकृति कोई छोटी चीज नहीं है । इसका मण्डल बहुत बड़ा है । किंतु बहुत बड़ा मण्डल होने पर भी इसको अनन्त नहीं कह सकते । कुम्भकार पृथ्वी को कोड़ते ( खोदते ) हैं , फिर भी पृथ्वी मौजूद है जहाँ - जहाँ पृथ्वी कोड़ते हैं , वहाँ - वहाँ पृथ्वी कँपती है जितनी मिट्टी से बर्तन बनाते हैं , उतनी मिट्टी उस बर्तन का कारण है । सभी कारणों को मिला दीजिए तो महाकारण है । जहाँ से सृष्टि होती है , वह प्रकृति का विकृति अंश है। ऐसी विकृतियाँ प्रकृति में अनेक हैं । 

     अन्धकार , प्रकाश और शब्द इन तीनों शून्यों के पार में जो है , उसको निर्गुण वा सगुण कुछ भी नहीं कह सकते । यहाँ गुण का अर्थ त्रैगुण से है और गुण का अर्थ विशेषता और प्रशंसा भी होता है गुण सहित नहीं , तो त्रैगुण नहीं - निर्गुण । परंतु जब निर्गुण भी नहीं , तब वह क्या है ? यह बोध में आना बहुत कठिन होता है । परा प्रकृति चेतन और अपरा प्रकृति जड़ हैं ये ही श्रीमद्भगवद्गीता के अक्षर पुरुष और क्षर पुरुष हैं । परंतु पुरुषोत्तम को इन दोनों से श्रेष्ठ बतलाया गया है । विचारने पर गीतोक्त ज्ञानानुकूल ही संतों की वाणियों में भी सगुण - निर्गुण , क्षर - अक्षर के परे परमात्म स्वरूप का ज्ञान जानने में आता है । ऐसे भी विद्वान हैं , जो कहते हैं कि परमात्मा त्रैगुण रहित , पर दिव्यगुण सहित हैं । तो निस्वैगुण्य होने के गुण से उसे युक्त करने पर वह दिव्य गुणधारी सगुण होता है , किंतु केवल वैगुण - रहित होने के कारण वह निर्गुण भी है गोस्वामी तुलसीदासजी की विनय पत्रिका का शब्द है -

'अचर चर रूप हरि सर्वगत सर्वदा , वसत इति वासना धूप दीजै ।

और संत कबीर साहब के वचन में है - 

है सबमें सब ही ते न्यारा ।जीव जन्तु जलयल सबहीं में शब्द वियापत बोलनहारा ॥ 

     वह सब चर - अचर रूपों में अंश रूप है जैसे महदाकाश और मठाकाश ।

  उमा राम विषयक असमोहा । नभतम धूमधूरि जिमि सोहा ।। जथा गगनधन पटल निहारी । झापेउ भानु कहेहु कुविचारी ।। 

गोस्वामी तुलसीदास सूर्य इतना बड़ा है कि वह धरती से कई हजार गुना बड़ा है । आकाश में जो बादल है , उसने सूर्य को ढक लिया , ऐसा कहना अज्ञानता है । उस बादल ने आपकी दृष्टि को ढक लिया है न कि सूर्य को ढक लिया है । जिस तरह बादल सम्पूर्ण सूर्य को नहीं ढक सकता , वैसे ही माया परमात्मा को ढक नहीं सकती । परमात्मा सब जगह है , सबमें है , जिसको आप पवित्र - से - पवित्र और घृणित- से - घृणित मानते हैं । आकाश में कहीं धुआँ , कहीं धूली उड़ रही है और कहीं अंधकार - ही - अंधकार है । किंतु सबमें होते हुए आकाश धुआँ , धुल और अंधकार से परे भी है आकाश का वह रूप , जो उसका निज रूप है ; अंधकार , धुआँ और स्थूल को पार करो , फिर देखोगे । आकाश पर अंधकार , धुआँ और धूल कुछ सट ( चिपक ) नहीं सकती । तीनों रहने पर भी वह निर्मल - ही - निर्मल रहता है । इसी तरह परमात्मा सबमें रहने पर भी पवित्र और निर्लेप रहता है । सबमें रहते हुए एक मण्डल अंश रूप से रहता है । अंश का अर्थ टुकड़ा नहीं , अभिन्न अंश । इस तरह से ईश्वर सबमें रहता हुआ सबसे न्यारा , सबसे निर्लेप है । आत्मगम्य है , इन्द्रियगम्य नहीं । इन्द्रियगम्य में व्यापक है । इन्द्रियगम्य पदार्थ के भीतर वह छिपा है जिसे आप इन्द्रियों से नहीं जान सकते । जबतक उस पदार्थ के भीतर की पहचान नहीं हो तबतक परमात्मा का दर्शन कैसे हुआ ? सगुण में हम कितना प्रेम करें , किंतु वह स्थिर नहीं रह सकता । कभी - न - कभी नाश होगा ही । जो अजर , अमर , अविनाशी है , वह ध्रुव है , निश्चल है , वह कहीं से टसमस नहीं हो सकता । जो अनादि अनंत है , वह अपरिमित शक्तियुक्त है , उसमें क्या गुण है , मेरी मति उसका गुण वर्णन नहीं कर सकता।

 निरुपम न उपमा राम समाण कहै जिमि कोटि सत खद्योत सम रवि कहत अति लघुता लहै ।। एहि भाँति निज निज मति विलास मुनीस हरिहिं बखानहीं । प्रभु भाव गाहक अति कृपाल सप्रेम सुनि सचु पावहीं ।

 -गोस्वामी तुलसीदासजी।    

     इसका पूरा - पूरा वर्णन कौन कर सकता है , वह अवर्णनीय है।∆

 ( यह प्रवचन पुर्णियों जिला श्रीसंतमत सत्संग मंदिर सिकलीगढ़ धरहरा में दिनांक २६.११.१९५५ ई ० को प्रात : कालीन सत्संग में हुआ था ।)


नोट-  इस प्रवचन में निम्नलिखित रंगानुसार और विषयानुसार ही  प्रवचन के लेख को रंगा गया या सजाया गया है। जैसे-  हेडलाइन की चर्चा,   सत्संग,   ध्यान,   सद्गगुरु  ईश्वर,   अध्यात्मिक विचार   एवं   अन्य विचार   । 

इस प्रवचन को महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर में प्रकाशित रूप में पढ़ें-

महर्षि मेंही सत्संग सुधा सागर प्रवचन नंबर 128 प्रवचन चित्र एक

महर्षि मेंही सत्संग सुधा सागर प्रवचन नंबर 128, प्रवचन चित्र दो

महर्षि मेंही सत्संग सुधा सागर प्रवचन नंबर 128 प्रवचन चित्र 3

महर्षि मेंही सत्संग सुधा सागर प्रवचन नंबर 128 प्रवचन चित्र 4


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S128, साम्यावस्थाधारिणी मूल प्रकृति ।। महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा सागर ।। २६.११.१९५५ ई. पूर्णियाँ S128, साम्यावस्थाधारिणी मूल प्रकृति ।। महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा सागर ।। २६.११.१९५५ ई. पूर्णियाँ Reviewed by सत्संग ध्यान on 5/11/2021 Rating: 5

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