S120, श्रीकृष्ण का आह्वान ।। श्रीबद्रीनाथ एवं साक्षत् दर्शन से भी परम कल्याण नहीं ।। १४.७.१९५५ ई०प्रात:
महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर / 120
प्रभु प्रेमियों ! सत्संग ध्यान के इस प्रवचन सीरीज में आपका स्वागत है। आइए आज जानते हैं-संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज के हिंदी प्रवचन संग्रह "महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर" के प्रवचन नंबर 120 के बारे में। इसमें बताया गया है कि ईश्वर की भक्ति क्या है? ईश्वर की भक्ति कैसे करें? सच्ची भक्ति के लिए मनुष्य को क्या करना चाहिए? ईश्वर के भक्ति क्यों मांगते हैं? सच्चे भक्त की कहानी, भगवान और भक्त की सच्ची कहानी।
इसके साथ ही आप इस प्रवचन (उपदेश, अमृतवाणी, वचनामृत, सत्संग सुधा, संतवाणी, गुरु वचन, उपदेशामृत, ज्ञान कथा, भागवत वाणी, संतवचन, संतवचन-सुधा, संतवचनामृत, प्रवचन पीयूष ) में पायेंगे कि- परम कल्याण कैसे होगा? क्या विराट रूप के दर्शन से परम कल्याण होगा? भगवान श्री कृष्ण के दर्शन से कल्याण होगा? भगवान का दर्शन होने पर भी पांडवों की दुर्दशा क्यों हुई? दुर्वासा ऋषि और पांडवों की कथा। भगवान श्री कृष्ण का भूख? मनुष्य शरीर में रहना कितना सुखदायक है? भगवान के आंतरिक स्वरूप को कैसे प्राप्त कर सकते हैं? भगवान की भक्ति कैसे करें? ध्यान क्या है? बिंदु ध्यान क्या है? शून्य ध्यान क्या है? ध्यान में सफलता कैसे मिलेगी? संसार में कैसे रहे? संसार में रहते हुए परमार्थ कैसे कर सकते हैं? सबसे श्रेष्ठ दान क्या है? इत्यादि बातों के बारे में। इसके साथ-ही-साथ निम्नलिखित प्रश्नों के भी कुछ-न-कुछ समाधान इसमें मिलेगा। जैसे कि- ईश्वर की भक्ति क्या है? ईश्वर की भक्ति कैसे करें? सच्ची भक्ति के लिए मनुष्य को क्या करना चाहिए? ईश्वर के भक्ति क्यों मांगते हैं? सच्चे भक्त की कहानी, भगवान और भक्त की सच्ची कहानी, भक्त और भगवान की लड़ाई, भक्त और भगवान की सच्ची घटना, भक्ति कथाएं, भक्त और भगवान की कथा, भक्त के बस में है भगवान, कृष्ण भगवान की सच्ची घटना, भक्ति की कहानी, इत्यादि बातें। इन बातों को जानने-समझने के पहले, आइए ! संत सदगुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज का दर्शन करें।
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१२०. श्रीकृष्ण का आह्वान
प्यारे लोगो !
सभी संतों ने यही शिक्षा दी है कि किसी प्रकार के शरीर में जबतक रहोगे, कल्याण नहीं होगा । चाहे विराट शरीर में ही क्यों न रहो । एक शरीर से दूसरे शरीर में जाना - आना होता है । जीवात्मा का मरण, शरीर में रहना, बारम्बार जन्म- मरण के चक्र में पड़ा रहना , मरणवाला जीवन होता है । इसमें कभी कल्याण नहीं हो सकता । इसलिए ऐसा यत्न होना चाहिए कि किसी शरीर में नहीं रहो । किसी शरीर में नहीं रहना अमर जीवन है । आत्मा अमर हई है , किंतु मरण शरीर में रहता है , इसलिए उसका मरणशील जीवन होता है । इसीलिए उस जीवन को त्याग देने योग्य है, इसके लिए ईश्वर को पहचानो । भजन करो , किंतु यह भी याद रखो कि कोई अद्भुत शक्तिवाला शरीर क्यों न हो , यह मायारूप है । इन मायारूपों के दर्शन से ईश्वर का दर्शन नहीं होता । इससे माया के बहुत बड़े - बड़े काम होते हैं । माया के बड़े - बड़े काम होने पर भी यह न समझ लो कि माया से आनेवाली सारी आपदाएँ मिट जाती हैं । शरीरधारी भगवान और इसमें व्यापक भगवान दोनों को जानिए । शरीर कृष्ण - काले शरीरवाला और स्वरूपतः कृष्ण ।
कृष्ण का अर्थ है , आकर्षण करनेवाला । शरीरवाले श्रीकृष्ण ने पांडवों की बहुत - सी आपदाओं का हरण किया ; किंतु सभी आपदाओं का नहीं ।
संसार में धन , पुत्र और प्रतिष्ठा का चला जाना बहुत हानि है । पाण्डवों की प्रतिष्ठा भी गई , राजसूय यज्ञ में मातहत राजा लोग टहल करते थे । दुर्योधन भण्डारी था । दीगर राजाओं में कोई द्वारपाल थे , कोई कुछ , कोई कुछ काम करते थे । इतनी बड़ी सभा में राजा के पहनने के वस्त्र को ले लिया गया । अपने से ही राजसी पोशाक को हटाकर सिर नीचा कर लिया । एक बड़े आदमी का इतना अपमान हुआ । द्रौपदी की साड़ी खींची गई । यह कितनी बेइज्जती है ! बाद को वनगमन किया । राजा विराट ने जुआ खेलते समय पासे से युधिष्ठिर को मारा , सिर से खून जाने लगा । द्रौपदी को कीचक ने लात मार दी ।
दुर्वासा साठ हजार शिष्यों के साथ वन में भोजन माँगने युधिष्ठिर के पास आए । युधिष्ठिर के पास सूर्य की दी हुई एक हंडी थी । जिस हंडी से बना हुआ भोजन कितने ही लोगों को खिलाया जाता था , लेकिन वह घटता नहीं था । जब द्रौपदी भोजन कर लेती थी , तभी उस हंडी का भोजन समाप्त होता था । जब दुर्वासाजी ने युधिष्ठिर से भोजन माँगा , तो उस समय हंडी का भोजन समाप्त हो चुका था । फिर भी युधिष्ठिरजी ने दुर्वासा ऋषि से कहा कि आप अपने शिष्यों के साथ स्नान करके आवें । वे लोग स्नान करने चले गए । युधिष्ठिरजी ने द्रौपदी से जब भोजन तैयार करने के लिए कहा , तो द्रौपदी ने कहा कि भोजन तो समाप्त हो चुका है । युधिष्ठिर बड़े दुःखी हुए और द्रौपदी से कहा कि दुर्वासा ऋषि साठ हजार शिष्यों के साथ स्नान करके भोजन करने आ रहे हैं । यदि उनको भोजन नहीं दिया जाएगा तो हमलोगों को शाप दे देंगे । द्रौपदी ने भगवान श्रीकृष्ण का आह्वान किया । भगवान कृष्ण जब द्रौपदी के पास पहुँचे , तो उन्होंने कहा - मुझे भोजन कराओ । द्रौपदी ने कहा - ' भगवन् ! भोजन के लिए कोई चीज मेरे पास नहीं हैं । सूर्य की दी हुई हंडी भी खाली है । भगवान ने कहा कि कुछ भी खिलाओ । द्रौपदी हंडी में लगी हुई साग की एक पत्ती भगवान श्रीकृष्ण को देती है । भगवान उसे खा गए । परिणाम यह हुआ कि दुर्वासा ऋषि स्नान करके जब युधिष्ठिरजी के यहाँ आने लगे तो सबके पेट फूलने लगे । दुर्वासाजी ने सभी शिष्यों से कहा जल्दी भागो , नहीं तो बहुत बड़ा अनिष्ट हो जाएगा । वे सब के सब भाग गए । युधिष्ठिरजी इस आपदा से बचे, किंतु संतान - नाश , पूर्ण धन की हानि हुई ।
भगवान के चले जाने पर अर्जुन की क्या हालत हुई ! पंजाब में थोड़े ही लोगों ने उनको लूट लिया । शरीर रूप भगवान के दर्शन से सब आपदाएँ नहीं कटतीं , किंतु शरीर - रहित भगवान के दर्शन से एक भी आपदा रहने नहीं पाती ।
संतों की यही युक्ति है कि शरीर में रहो ही नहीं । जैसे दूध से घी अलग हो जाय , वैसे ही सभी शरीरों से जीवात्मा अलग हो जाय । ध्यान - अभ्यास से ऐसा होगा । यही परम्परा से चला आया है । विवेकानंद स्वामी ने कहा कि ' बहिर्वृत्ति को अंतर्मुखी करो । ' जो इसके प्रयोग को जानता है , अभ्यास करता है , कुछ अनुभूति होती है , तो उसको ऐसा होता है कि वह बारम्बार उसी ओर देखना चाहता है, जिसको कुछ मालूम हो जाता है , उसकी दृष्टि अंतर की ओर हमेशा लग सकती है , बाहर से हट सकती है , जब किसी का ध्यान भीतर में लग जाय । ध्यान के दो प्रकार हैं - एक मोटा ध्यान है , जैसे कबीर साहब के वचन में सुना
मूल ध्यान गुरु रूप है , मूल पूजा गुरु पाँव । मूल नाम गुरु वचन है , मूल सत्य सतभाव ।।
सद्गुरु महर्षि मेंहीं |
गुरु रूप , भगवान रूप किन्हीं के स्थूल रूप का ध्यान करो , किंतु इतना ही ध्यान, ध्यान नहीं है अभी आपलोगों ने सुना कि ध्यान को ध्यान नहीं कहते हैं । शून्यगत मन को ध्यान कहते हैं । इसीलिए शून्य ध्यान असली ध्यान है। श्रीमद्भागवत में भी शून्य ध्यान का वर्णन है । दृष्टि साधन की क्रिया से शून्य ध्यान होता है । मन में कुछ नहीं रहे और बिना कुछ बात मन में रहे , शून्य में मन लगा रहे , यही दृष्टियोग है । शून्य में मन को लगाकर रखना विन्दुध्यान है फैलाव से सिमटाव में आवे । विन्दु ही सबसे विशेष सिमटाव हैं। विन्दु - ध्यान से पूर्ण सिमटाव हो जाता है । दृष्टि को ऐसा बनाकर रखो , जैसे सूई में धागा पहनाते समय सूई की छिद्र में दृष्टि एकाग्र हो जाती है , उसी तरह दृष्टियोग करो । इसको कैसे करो , तो इसकी युक्ति गुरु से जानो । शून्यगत शून्य में प्रवेश । एक ही तरह शून्य रहने से एक ही जगत में बैठा रहना हुआ । शून्य में दृश्य का परिवर्तन हुआ , तब मन शून्यगत हुआ । कबीर साहब ने कहा
गगन मंडल के बीच में , तहँवा झलके नूर । निगुरा महल न पावई , पहुँचेगा गुरु पूर ॥ कबीर कमल प्रकाशिया , ऊगा निर्मल सूर । रैन अंधरी मिटि गई , बाजै अनहद तूर ।।
विन्दु - ध्यान से मन शून्यगत होता है और शब्द - ध्यान से भी मन शून्यगत होता है । दृष्टियोग से दृश्यवाले शून्य तक मन जाता है और शब्द ध्यान से अदृश्य शून्य तक जाता है । इसके लिए पहले समझ होनी चाहिए । समझ के लिए सत्संग करना चाहिए । फिर प्रेम से ध्यान करना चाहिए । धीरे - धीरे ध्यान करते - करते वैसा होगा और परमात्मा की पहचान होगी । स्वामी विवेकानन्द ने कहा - स्वयंभू इन्द्रियों से दूर है ।
किंतु घर में यदि पाँच भाई हो तो अपने - अपने योग्य सभी सेवा करते हैं । कोई सामाजिक , कोई राजनीतिक , कोई आध्यात्मिक ज्ञान कहते हैं। संसार में दो रूप देखे जाते हैं - स्त्री और पुरुष । इन्हीं से सारी जीव - सृष्टि है यहाँ दो काम है - एक तो राज्य प्रबंध ; क्योंकि बिना राज्य - प्रबंध के कोई घर ठीक नहीं रह सकेगा । दूसरा , स्त्री - पुरुष का वैवाहिक सम्बन्ध । वेदों में मैंने इन बातों को बहुत देखा । वैवाहिक सम्बन्ध जिस देश में गड़बड़ होगा , वह देश एकदम खराब हो जाएगा* और जहाँ राज्य - प्रबन्ध ढीला हुआ , वहाँ दूसरे आकर बैठ जाएँगे । वैवाहिक संबंध के लिए अपने कुल में जैसा व्यवहार है , उस तरह बरतें । इस तरह जो बरतते हैं , वे ही ठीक सत्संगी और सत्संगिनी हैं । वैवाहिक संबंध का जो नियम है , उसके अनुकूल जो रहे , तो व्यभिचार नहीं होगा । जहाँ इसके प्रतिकूल करते हों , वहाँ धर्म टिक नहीं सकता । यदि कोई कहे कि स्त्री को पुरुष हो गया , तब परमात्मा की उपासना नहीं करे , वह पुरुष की ही आराधना करे , तो यह ठीक नहीं । ईश्वर की भक्ति स्त्री - पुरुष सबके लिए है । किंतु हाँ , कोई - कोई ऐसे भी पति हैं , जैसे भूपेन्द्रनाथ सान्यालजी हैं । मैं उनकी प्रशंसा करता हूँ । पहले उन्होंने अपनी स्त्री को दीक्षा नहीं दी । बहुत दिनों के बाद सुनता हूँ कि उन्होंने अपनी स्त्री को दीक्षा दी । किंतु अब पहले जैसा स्त्री - पुरुष का संबंध नहीं रहा । किंतु फिर भी साथ - साथ रहते हैं । लेकिन ऐसे कितने आदमी हैं ?
सब दानों में धर्म का दान उत्तम है । धर्मदान ज्ञानदान है श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि सब यज्ञों में ज्ञानयज्ञ श्रेष्ठ हैै, धर्म के व्यवहार है , प्रचार में तन , मन , धन से सेवा करनी चाहिए । ∆
*रामचरितमानस में वर्णित पतिव्रत धर्म के बारे में विशेष रूप से जानने के लिए यहां दबाएं।
यह प्रवचन कटिहार जिला के श्रीसंतमत सत्संग मंदिर मनिहारी में दिनांक १४.७.१९५५ ई० को प्रात : कालीन सत्संग में हुआ था ।
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