महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर / 121
प्रभु प्रेमियों ! सत्संग ध्यान के इस प्रवचन सीरीज में आपका स्वागत है। आइए आज जानते हैं-संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज के हिंदी प्रवचन संग्रह "महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर" के प्रवचन नंबर 121 के बारे में। इसमें बताया गया है कि सबसे प्राचीन ग्रंथ में दुख निवारण के लिए क्या लिखा है? लोक परलोक मैं क्या दुख है? संपूर्ण सुख कहां मिलता है ?
इसके साथ ही आप इस प्रवचन (उपदेश, अमृतवाणी, वचनामृत, सत्संग सुधा, संतवाणी, गुरु वचन, उपदेशामृत, ज्ञान कथा, भागवत वाणी, संतवचन, संतवचन-सुधा, संतवचनामृत, प्रवचन पीयूष ) में पायेंगे कि- संसार का सबसे पुराना ग्रंथ कौन है? सबसे प्राचीन ग्रंथ में दुख निवारण के लिए क्या लिखा है? लोक परलोक मैं क्या दुख है? संपूर्ण सुख कहां मिलता है ? नास्तिक किसे कहते हैं? नास्तिक कितने प्रकार के होते हैं? शरीर और संसार के संबंध से अलग कैसे हो सकते हैं? संध्या वंदन न करने वाले ब्राह्मण की कथा। संत लोग संध्या वंदन क्यों करते हैं? भजन में सफलता मिले इसके लिए क्या जरूरी है? ईश्वर भजन कैसे करते हैं? देखा-देखी ईश्वर भक्ति क्या है? संतो की वाणी में परमात्मा का स्वरूप कैसा है? चेतन के दो रूप कैसे हैं? आविष्कार और उत्पादन में क्या अंतर है? इत्यादि बातों के बारे में। इसके साथ-ही-साथ निम्नलिखित प्रश्नों के भी कुछ-न-कुछ समाधान इसमें मिलेगा। जैसे कि- संध्या वंदन का तरीका, संध्या वंदन का मंत्र, संध्या वंदन का समय, संध्या वंदन क्या है, संध्या वंदन meaning, संध्या वंदन का अर्थ, ईश्वर की भक्ति क्या है? वास्तविक सच्ची भक्ति क्या है? ईश्वर की भक्ति कैसे करें? सच्ची भक्ति के लिए मनुष्य को क्या करना चाहिए? भक्ति क्या देती है, सच्चे भक्त की कहानी, भगवान और भक्त की सच्ची कहानी, भक्त और भगवान की लड़ाई, भक्ति कथाएं, भक्त और भगवान की सच्ची घटना, भक्त और भगवान की कथा, शिव भक्त की कहानी, असली भक्ति क्या है, ईश्वर भक्ति में नामस्मरण का महत्व होता है, भक्ति का महत्व, भक्त के बस में है भगवान, इत्यादि बातें। इन बातों को जानने-समझने के पहले, आइए ! संत सदगुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज का दर्शन करें।
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१२१. चेतन के दो रूप
प्यारे लोगो !
संतलोग समझाते हैं कि जहाँ तक लोक लोकान्तर हैं , किसी प्रकार का शरीर है , चाहे कितना ही दिव्य शरीर हो , वहाँ शापा - शापी और कोई - न - कोई आपदा आती ही है । चाहे विष्णुलोक , शिवलोक या किसी लोक का शरीर हो , भक्ति पूरी नहीं होती । भक्ति पूरी वहाँ होती है , जहाँ कोई शरीर नहीं , कैवल्य दशा प्राप्त हो , देश - काल जहाँ नहीं हो । गोस्वामी तुलसीदासजी ने विनय पत्रिका में लिखा है-
सोक मोह भय हरष दिवस निसि , देस काल तहं नाहीं । तुलसिदास एहि दसा - हीन , संसय निर्मूल न जाहीं ॥
भक्ति में इसकी युक्ति है कि सब शरीरों को छोड़कर मोक्ष दशा प्राप्त कर लेना । चाहे द्वैती रहो . चाहे अद्वैती रहो । दोनों का एक भाव हो जाएगा । द्वैत - अद्वैत का कोई झगड़ा नहीं रहेगा । वहाँ जैसे रहना होता है , वैसे रहता है । यहाँ माया का चक्र है । इस चक्र पर बुद्धि घूमती रहती है और नाना तर्क करती है । किंतु वहाँ सब निर्मूल हो जाते हैं , चाहे किसी वाद के माननेवाले हों । वहाँ नास्तिक , आस्तिक सबके लिए एक ही है।
नास्तिक दो तरह के होते हैं - एक तो पूरे नास्तिक , जो जीव - परमात्मा कुछ न माने । उनका सिद्धांत है कि
'यावत् जीवेत् सुखं जीवेत् । ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत् । भस्मीभूत शरीरस्य पुनरागमन कुतो भवेत् । '
उनके लिए यह उपदेश कुछ भी नहीं हैं इसके अतिरिक्त दूसरे तरह के नास्तिक वे हैं , जो जीव को माने और ईश्वर को नहीं माने । उन दोनों को मैं कहता हूँ , भजन करो , फिर जानोगे कि परमात्मा क्या है? कोई इस तरह की मुक्ति मानते हैं कि सूक्ष्म शरीर रह जाता है , किंतु संतों का सिद्धांत है कि कोई भी शरीर नहीं रहे । जो पूरे नास्तिक हैं , वे भी इसको मानेंगे कि एकाग्रता से ज्ञान की वृद्धि होती है । एकाग्रता के लिए ध्यान करो और ध्यान के अंत तक पहुँचो । फिर जानोगे कि ईश्वर है कि नहीं ।
संतों ने बताया कि न शरीर सम्बन्धी रहो , न संसार संबंधी । शरीर और संसार के संबंध से अलग होओ । फिर जो दर्शन होगा , तो उसमें कभी दुःख नहीं होगा । वहाँ हृदय - आकाश में सूर्य बराबर उगा रहता है । कभी न उदय लेता है , न अस्त होता है ।
उपनिषद् की एक कथा है कि एक ब्राह्मण थे । वे संध्या वंदन कुछ नहीं करते थे । उनकी पत्नी जब कभी पड़ोस में जायँ , तो पड़ोस की महिलाएं उससे कहतीं कि आपके पति कैसे ब्राह्मण हैं , जो संध्या - वन्दन नहीं करते । पत्नी जब आकर पति से आग्रह करती कि आप संध्या वन्दन क्यों नहीं करते हैं , ब्राह्मण कोई उत्तर नहीं देते । एक दिन उनकी पत्नी को पड़ोस की महिलाओं ने उसके पति के लिए बहुत दुत्कारा । पत्नी ने ब्राह्मण से कहा कि आप कैसे ब्राह्मण हैं , कभी संध्या नहीं करते । पड़ोस की महिलाएँ मुझे दुत्कारती हैं । तब ब्राह्मण ने कहा - ' तुम नहीं जानती हो , मेरे हृदयरूपी आकाश में सूर्य बराबर उगा रहता है , वह कभी न उदय लेता है , न उसका कभी अस्त होता । अब बताओ कि मैं संध्या कैसे करूँ ? '
किंतु इस अवस्था को पाकर भी संत लोग संध्या करते हैं , संसार के सामने नमूने के लिए । भगवान श्रीकृष्ण को साधन - भजन करने को कुछ बाकी नहीं था , किंतु लोगों को सुमार्ग पर चलाने के लिए , नमूने के लिए वे भी संध्या करते थे ; ऐसा श्रीमद्भागवत में लिखा है ।
जिस भूमि पर महल बनता है , महल से जमीन का दाम बहुत कम होता है । किंतु महल का आधार जमीन है बिना जमीन के कितनाहू विशेष कीमत का महल बन नहीं सकता , उसी तरह बिना सत्संग रूपी जमीन के भजन - रूपी महल बन नहीं सकता । इसलिए सत्संग की बड़ी जरूरत है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है।
जीवन मुक्त ब्रह्म पर , चरित सुनहिं तजि ध्यान । जे हरि कथा न करहिं रति , तिन्हके हिय पाषान ।।
संसार में रहने पर प्रत्येक संत को देश के लिए , संसार के प्रति कोई - न - कोई काम अवश्य रहता है । इसीलिए सत्संग में यदि वे पहुँचे हुए महान संत रहें, तो लोगों को बहुत लाभ हो यदि संत न रहें, तो संतवाणी से लाभ हो सकता है । किंतु जितना लाभ पहुँचे हुए संत से होगा , उतना केवल साधारणजन के सत्संग से नहीं ।
ईश्वर भजन में सत्संग , स्तुति , प्रार्थना , जप और ध्यान- पाँच चाहिए । सत्संग में जाने से बोध होता है । भेड़ियाधसान में किसी को नहीं पड़ना चाहिए भेड़ियाधसान की तरह किसी में बिना समझे - बूझे मत कूद पड़ो ।
हमलोगों के यहाँ तो कहावत है कि ' गुरु कीजिये जान , पानी पीजिये छान । ' सत्संग से सिद्धांत का निर्णय होता है । क्या करें , इसका भी निर्णय होता है । चरित्र के लिए निर्णय होता है कि चरित्र सुधार करके रखो । सत्संग को पकड़े रहो तो भेड़ियाधसानपन छूट जाएगा ।
देखा-देखी भक्ति का , कबहुँ न चढ़सि रंग । विपति पड़े यो छाडसी , ज्यों केंचुली भुजंग ।
भुजंग - साँप केंचुली छोड़ता है , उसे वह उलटकर देखता भी नहीं है । उसी तरह जिसने ठीक से समझ नहीं लिया है , एक धर्म को पकड़ लिया है , दूसरा सुनता है तो उसी ओर कूद पड़ता है , ऐसा नहीं करना चाहिए । धर्म को अच्छी तरह समझ लो यदि भूल से धर्म के बदले अधर्म पकड़ा गया हो , तो वह छोड़ देने योग्य है पापी- पुण्यात्मा , दुःखी सुखी सबमें परमात्मा है , किंतु परमात्मा पापी - पुण्यात्मा , सुखी - दुःखी नहीं होते । गोस्वामीजी ने कहा है
उमाराम विषयक अस मोहा । नभ तम धूम धूरिि जिमि सोहा ।। जथा गगनधन पटल निहारी। झाँपेउ भानु कहेहु कुविचारी ।।
घन - पटल मानी बादलों का झुण्ड । बड़े - बड़े विद्वानों , महात्माओं ने कहा कि ईश्वर तर्क - सिद्ध नहीं , श्रद्धा - सिद्ध है । किंतु संतों ने बहुत दृढ़ता के साथ कहा । परमात्मा का वर्णन करते - करते इति कहने की शक्ति किसी में नहीं । जहाँ तक मैंने संतों की वाणी में , उपनिषदों में , वेदों के अर्थ को भी देखा , किंतु इस बात से खाली नहीं कि परमात्मा आदि - अंत - रहित है , वह हई है । कुछ फाँक छोड़कर यहाँ वहाँ , ऐसा नहीं । लोकमान्य बाल गंगाधर तिलकजी ने कहा - ' अति सघनता से जो सर्वव्यापक अनादि - अनंत है , वह परमात्मा ' ऐसे वर्णनों को पढ़कर कहा जाय कि ऐसा नहीं है तो क्या है ? प्रश्न होगा कि यदि अनादि - अनन्त नहीं है तो क्या है ? सादि - सान्त है ? जब सादि सान्त है तो वह कहीं जाकर अन्त अवश्य होगा । इसलिए उस सादि - सात के पार में एक अनंत बिना माने प्रश्न सिर पर से उतर नहीं सकता । एक एम ० ए ० , बी ० एल ० ने प्रश्न किया कि अनादि अनन्त है मान लिया । फिर इसको ईश्वर क्यों मानें ? मैंने कहा कि अनंत से बाहर आप कहीं जा सकते हैं यदि नहीं तो उसके अंदर हैं । इसलिए वह ईश्वर है फिर उन्होंने पूछा कि उनकी भक्ति क्यों की जाय ? मैंने कहा कि उसकी माया को पहचानते हो तो दुःख में हो और परमात्मा को पाओ , पहचानो तो इसका उलटा जो गुण है , वह होगा । अर्थात् दुःख के बदले सुख होगा । इस प्रकार के अनंत , असीम परमात्मा को जड़ तो कह नहीं सकते , चेतन भी नहीं है । इसीलिए गीता में क्षर - अक्षर के परे पुरुषोत्तम कहा है ।
चेतन गतिशील है यदि चेतन गतिशील नहीं रहता तो चेतन रहते हुए भी शरीर हिलता - डुलता नहीं । चेतन का विस्तार बहुत है । फिर भी इसकी सीमा है जिसकी सीमा है , उसके बाहर कुछ अवकाश है हिलने - डोलने के लिए । बिना अवकाश के हिल - डोल कैसे सकता है ? इसीलिए चेतन को असीम नहीं , ससीम माना गया है । किंतु थोड़ा नहीं है , जड़ प्रकृति - मण्डल को भरकर उसके परे भी है परमात्मा चलनात्मक इसलिए नहीं है कि उसकी सीमा नहीं है , असीम है इसलिए वह निश्चल है । निश्चल हिमालय जैसा नहीं । हिमालय भी भूकम्प में हिलता है । किसी भी पदार्थ का परमाणु धीरे- धीरे घटता है । संथाल परगना में कितने पहाड़ सड़ते हैं । ऐसा कोई पदार्थ यहाँ नहीं , जिसका क्षय न हो किसी पदार्थ का झड़ जाना भी हिलना है इसीलिए परमात्मा के लिए गीता में सत् - असत् नहीं , क्षर - अक्षर नहीं ऐसा कहा गया है । बुद्धि उसका निर्णय कर सकती है , पहचान नहीं सकती है ।
चेतन के दो रूप माने जाते हैं - सामान्य चेतन और विशेष चेतन । अंत : करण - रूप यंत्र के कारण विशेष चेतन , इसलिए कि इससे काम का होना जाना जाता है । कोई पापी - पुण्यात्मा , दुःखी - सुखी होता है तो यह आत्मा पर कोई दोष नहीं होता । स्वामी विवेकानन्दजी ने कहा है - ' प्राणिमात्र के नेत्रों मे जो दृष्टि शक्ति होती है , उसके एक मात्र कारण सूर्य हैं । किंतु यदि किसी को नेत्र दोष होता है , तो वह अपने उस दोष की छाया सूर्य पर डालने में समर्थ नहीं हो पाता । यदि किसी को पाण्डु रोग हो गया होता है तो उसे सारी वस्तुएँ पीली - ही - पीली दृष्टिगोचर होती हैं । उस व्यक्ति की भी दृष्टि- शक्ति के कारण सूर्य ही हैं । किंतु उसके नेत्रों में हर एक वस्तु को पीली देखने का जो गुण है , वह सूर्य को तो नहीं स्पर्श कर पाता । इस तरह यह एकमात्र जीवात्मा प्रत्येक प्राणी के शरीर में व्याप्त रहकर भी बाहर की पवित्रता या अपवित्रता के संस्पर्श से बचा रहता है । ' पुष्कर निवासी स्वामी ब्रह्मानन्दजी ने भी कहा है- ' विशेषरूप से चैतन्य का दो प्रकार का रूप होता है , तिनमें जो सर्व चराचर जगत में समान रूप से व्यापक है , उसको सामान्य चेतन कहते हैं और जो अंत : करण - उपाधि से मिला हुआ है , उसको विशेष चैतन्य कहते हैं । सो जैसे घट में स्थित भया आकाश , दूसरे घटाकाशों से भिन्न हो जावे है और जैसे दीपक पर आरूढ़ हुई अग्नि दूसरे दीपकों वा समान व्यापक अग्नि से भिन होती है , तैसे ही अंत : करण उपाधि - युक्त चैतन्य भी दूसरे सर्व जीवात्माओं से या ब्रह्म से भिन्न हो जाता है । सो जैसे एक घटाकाश के रजो धूमादियुक्त होने से सभी घटकाश रजोधूमादियुक्त करके नहीं होते हैं और जैसे एक दीपक के हिलने डोलने से वा धूम - धूलिवाले होने से सभी वैसे नहीं हो जाते , तैसे ही यहाँ जीवात्माओं की बाबत भी समझ लेनी चाहिए अर्थात् व्यापक चैतन्य एक होने पर भी अंत : करणरूप - उपाधि के भेद से परस्पर जीवात्माओं के भिन्न होने से सुख - दुःख , बंधन - मोक्ष आदिकों को मिश्रितपन नहीं होवे है '
ईश्वर , जीव और प्रकृति में इस तरह भेद है । इस भेद को ठीक - ठीक नहीं समझ लेने के कारण ही जीव , ईश्वर और प्रकृति पर भिन्न - भिन्न तरह से लोग कहते हैं ।
आविष्कार और उत्पादन में अन्तर है । संसार की वस्तुओं को लेकर कुछ बना दिया , वह आविष्कार है और संसार से कुछ लिए बिना कुछ बनाना उत्पादन निर्मित है। गुरु नानकदेवजी ने कहा है
तदि अपना आपु आपहि उपाया । ना किछु ते किछु करि दिखलाया ।।
यह ईश्वर से हो सकता है , दूसरे से । अद्वैत सिद्धान्त कथन में हो सकता है , व्यवहार में नहीं ।
समाधि सिद्धवाले से जहाँ तक हो सकता है , समता का व्यवहार करते हैं । बहुत बड़े - से - बड़ा दुःख आता है, किंतु समाधि - सिद्ध महापुरुष उसको सुख से सहते हैं और साधारणजन उसको दुःख से सहते हैं । दुःख को लोग सहते हैं , किंतु सुख को सह नहीं सकते । सुख पाकर साधारण लोग उसमें मस्ता जाते हैं ।∆
(यह प्रवचन कटिहार जिला के श्रीसंतमत सत्संग मंदिर मनिहारों में दिनांक ३०.७.१९५५ ई० को अपराह्नकालीन सत्संग में हुआ था ।)
नोट- इस प्रवचन में निम्नलिखित रंगानुसार और विषयानुसार ही प्रवचन के लेख को रंगा या सजाया गया है। जैसे- हेडलाइन की चर्चा, सत्संग, ध्यान, सद्गगुरु, ईश्वर, अध्यात्मिक विचार एवं अन्य विचार ।
महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर में प्रकाशित यही प्रवचन को निम्नलिखित चित्र में पढ़ें।
इस प्रवचन के बाद वाले प्रवचन नंबर 122 को पढ़ने के लिए यहां दवाएं।
प्रभु प्रेमियों ! गुरु महाराज के इस प्रवचन का पाठ करके आपलोगों ने जाना कि सबसे प्राचीन ग्रंथ में दुख निवारण के लिए क्या लिखा है? लोक परलोक मैं क्या दुख है? संपूर्ण सुख कहां मिलता है ? इत्यादि बातें। इतनी जानकारी के बाद भी अगर कोई संका या प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस प्रवचन के बारे में अपने इष्ट मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने। इससे आपको आने वाले प्रवचन या पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहेगी। उपर्युक्त प्रवचन का पाठ निम्न वीडियो में किया गया है।
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