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S115, परमात्मा के लिए ईश्वर शब्द का प्रयोग ।। Paramaatma kee Pahachaan ।। १६.६.१६५५ ई. अपराह्न

महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर / 115

प्रभु प्रेमियों ! सत्संग ध्यान के इस प्रवचन सीरीज में आपका स्वागत है। आइए आज जानते हैं-संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज के हिंदी प्रवचन संग्रह "महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर" के प्रवचन नंबर 115 के बारे में। इसमें बताया गया है कि  वेद , उपनिषद् , संतवाणी सबमें है- जो इन्द्रियों के ज्ञान से बाहर है , जो आदि - अंत - रहित है , जिसकी सीमा कहीं नहीं है , जो अनादि , अनंत , असीम है , जिसकी शक्ति अपरिमित है , जो इन्द्रियों के ज्ञान में नहीं , आत्मा के ज्ञान में आने योग्य है , वह परमात्मा है ।

इस प्रवचन के पहले वाले प्रवचन नंबर 114 को पढ़ने के लिए   यहां दवाएं। 

Ek Anant tatoo ko Ishwar kyon mante Hain is per pravachan karte sadguru Maharshi Mehi

पूर्ण ब्रह्म परमेश्वर कौन है । Paramaatma kee Pahachaan


 इस प्रवचन (उपदेश, अमृतवाणी, वचनामृत, सत्संग सुधा, संतवाणी, गुरु वचन, उपदेशामृत, ज्ञान कथा, भागवत वाणी, संतवचन, संतवचन-सुधा, संतवचनामृत, प्रवचन पीयूष )  में  पायेंगे कि- सत्संग से क्या प्रचारित होता है? ईश्वर-भक्ति के लिए सबसे पहले क्या जाना चाहिए? साधारण लोगों के ईश्वर कैसे होते हैं? ईश्वर किसे कहा जाता है? ईश्वर का स्वरूप कैसा है? अनीश्वरवाद क्या है? वेद उपनिषद और संतवाणीयों में ईश्वर का स्वरूप कैसा बताया गया है? किन-किन इंद्रियों से किन-किन विषयों का ज्ञान होता है? परमात्मा का ज्ञान कैसे होगा? कबीर साहब परमात्मा के बारे में क्या कहते हैं? बाबा नानक के वचन में ईश्वर कैसा है? इत्यादि बातों  के बारे में। इसके साथ-ही-साथ निम्नलिखित प्रश्नों के भी कुछ-न-कुछ समाधान इसमें मिलेगा। जैसे कि- एक ही परमात्मा संसार में कैसे व्याप्त है, कवि ने ईश्वर को अनादि क्यों कहा है, ऋषि महर्षि कितने कारण मानते है? परमात्मा कैसे दिखते हैं? आत्मा से परमात्मा का मिलन कैसे होता है? पूर्ण ब्रह्म परमेश्वर कौन है? परमपिता शिव परमात्मा कौन है, परमात्मा की पहचान, कबीर परमात्मा के विषय में क्या कहते हैं, परमात्मा का अर्थ, परमात्मा in हिन्दी, इत्यादि बातें। इन बातों को जानने-समझने के पहले, आइए !  संत सदगुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज का दर्शन करें।

११५. परमात्मा के लिए ईश्वर शब्द का प्रयोग


पूर्ण ब्रह्म परमात्मा कौन है इस पर चर्चा करते सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी

प्यारे लोगो ! 

     इस सत्संग के द्वारा ईश्वर - भक्ति करने के लिए सदा से उपदेश होता हुआ चला आया है ईश्वर - भक्ति करने के लिए सबसे पहले ईश्वर की स्थिति को जानना चाहिए । फिर उसके स्वरूप को जानना चाहिए । ईश्वर की स्थिति और उसके स्वरूप को पहले जानना चाहिए ।

     ' ईश्वर ' शब्द को लोग बहुत जगह प्रयोग करते हैं । जैसे नर + ईश्वर कहने से राजा का ज्ञान होता है । देवेश और देवेश्वर में भी ईश , ईश्वर लगा हुआ है । यहाँ ईश्वर से बढ़कर कोई नहीं है । जैसे नरेश्वर से बढ़कर देवेश्वर है , तो देवेश्वर के ऊपर देव ब्रह्मा है । उनसे भी बढ़कर विष्णु हैं । देवियों के लिए भी ईश्वर शब्द प्रयोग हुआ है , किंतु यहाँ जिस ईश्वर के लिए कहा जाता है , उससे बढकर कोई नहीं ।

     परमात्मा के लिए ईश्वर शब्द का प्रयोग है । यहाँ एक ईश्वर की मान्यता है अनेक शरीरों की अनेक जीवात्माओं को अनेक मानने से अनीश्वरवाद होता है , न कि ईश्वरवाद । ईश्वर - ज्ञान के लिए  वेद , उपनिषद् , संतवाणी सबमें है- जो इन्द्रियों के ज्ञान से बाहर है , जो आदि - अंत - रहित है , जिसकी सीमा कहीं नहीं है , जो अनादि , अनंत , असीम है , जिसकी शक्ति अपरिमित है , जो इन्द्रियों के ज्ञान में नहीं , आत्मा के ज्ञान में आने योग्य है , वह परमात्मा है । यह बात कहते - कहते मुझे २० वर्ष हो गए , किंतु अफसोस है कि कुछ लोग ही इसे समझ पाए हैं ।

     शरीर - इन्द्रियों से जानने और मिलने योग्य ईश्वर मानोगे , तो उसमें ऐसी - ऐसी बात देखने में आवेगी , जिसे देखने से ईश्वर मानने के योग्य वह नहीं रह जाता । उसको ईश्वर मानना अन्धी श्रद्धा होगी । जो मन - इन्द्रियों से नहीं जानो , उसको किससे जानो ? तो कहा - चेतन आत्मा से इन्द्रियों के पृथक-पृथक होने के कारण उनका पृथक - पृथक ज्ञान होता है । सब विषयों को एक ही इन्द्रिय से नहीं जान सकते । आँख से रूप देखते हैं , कान से शब्द सुनते हैं , नासिका से गंध ग्रहण करते हैं , जिह्वा से रस लेते हैं और चमड़े से स्पर्श का ज्ञान होता है । इन्द्रियों के पृथक - पृथक होने के कारण उनका पृथक - पृथक काम है , किंतु तुम्हारा निज काम क्या है ? तुम्हारा निज काम परमात्मा की पहचान है और अपनी पहचान है जो मानता है कि आत्मा बिना शरीर के नहीं रह सकती , सूक्ष्म शरीर में रहती है , उसका यह ज्ञान अधूरा है । स्थूल शरीर के बाद सूक्ष्म शरीर , सूक्ष्म के बाद कारण शरीर , कारण के बाद महाकारण शरीर , फिर कैवल्य शरीर है । उस चेतन आत्मा का निज ज्ञान परमात्मा की पहचान है । इसके अतिरिक्त परमात्मा को किसी से पहचाना नहीं जा सकता । 

     एक असीम पदार्थ को नहीं मानो , तो प्रश्न होगा कि सब ससीम पदार्थों के बाद में क्या होगा ? बिना असीम कहे प्रश्न सिर पर से नहीं उतर सकता । इसलिए एक असीम तत्त्व को मानना ही पड़ेगा । यदि कहो कि यह कल्पित है तो अकल्पित क्या है ? ईश्वर को कल्पित कहनेवाले का ज्ञान मिथ्या है । कल्पित तो वह है , जिसकी स्थिति नहीं हो और मन से कुछ गढ़ लिया गया हो , किंतु एक अनादि अनंत तत्त्व अवश्य है । उसकी स्थिति अवश्य है , वह कल्पित कैसा ? जो असीम है , जिसकी शक्ति अपरिमित है , उसको तुम अपनी परिमित बुद्धि से कैसे माप सकते हो ? कोई यह नहीं कह सकता कि बुद्धि अपिरमित है । 

     आजकल विज्ञान का बहुत बड़ा विस्तार हुआ है , किंतु उनसे पूछो तो वे कहते हैं - अभी तो समुद्र के किनारे का एक बालूकण ही दीख पड़ा है । बुद्धि अभी कितनी विकसित होगी , ठिकाना नहीं । किंतु बुद्धि अपरिमित नहीं हो सकती । परिमित बुद्धि में अपरिमित को अँटा नहीं सकते । आज की बुद्धि जितनी दूर तक गई , उतनी ही रहेगी या उससे भी अधिक बढ़ेगी ? यदि कोई योगेश्वर है तो बता दे कि बुद्धि कितनी बढ़ेगी ? आजकल हमारे देश में अणु बम की खोज हो रही है । दूसरे देश के लोग इसको जानते हैं । यदि तुम जानते हो तो बता दो , तो समयूँ कि इतना ज्ञान तुमको है । किंतु इतना भी ज्ञान नहीं है । दूसरे देश के लोगों को बम बनाते देखकर गौरव करते हो कि अणु बम हमने बनाया । तारे , चाँद , सूर्य सभी हमने बनाए ? दूसरे देश के लोगों से हम डरते हैं कि कहीं बम गिरा दे, तो हमारा सर्वनाश हो जाएगा ; और हम गौरव करते हैं कि ये सब हमने बनाये । 

     वेद में यही ज्ञान दिया गया है कि इन्द्रियों से परमात्मा को ग्रहण नहीं कर सकते । कबीर साहब ने कहा है 

राम निरंजन न्यारा रे । अंजन सकल पसारा रे ॥ अंजन उतपति वो ऊँकार । अंजन मांड्या सब बिस्तार ।। अंजन ब्रह्मा शंकर इन्द । अंजन गोपी संगिगोव्यंद ।। अंजन वाणी अंजन वेद । अंजन किया नाना भेद ।। अंजन विद्या पाठपुरान । अंजन फोकट कथहि गियान ।। अंजन पाती अंजन देव । अंजन की करै अंजन सेव ।। अंजन नाचै अंजन गावै । अंजन भेष अनंत दिखावै ।। अंजन कहाँ कहाँ लगि केता । दान पुंनि तप तीरथ जेता ।। कहै कबीर कोइ विरला जागे , अंजन छाडि निरंजन लागै ॥

     यह पद कहकर सभी को माया बताया है और वह परमात्मा निरंजन है , निर्मायिक है । गुरु नानकदेवजी ने भी कहा है कि

अलख अपारअगमअगोचरि , नातिसुकालनकरमा ।। जातिअजाति अजोनीसंभउ , नातिसुभाउन भरमा ।। 

     अर्थात् परम प्रभु परमात्मा देखने की शक्ति से परे , असीम , मन और बुद्धि की पहुँच से परे अजन्मा , कुलविहीन , काल और कर्म से रहित तथा भूल और मनोमय संकल्प से हीन है । 

     एक - एक शरीर में एक - एक ईश्वर माननेवाले को कितना भ्रम है , उसका ठिकाना नहीं । जो परमात्मा सर्वव्यापी है , वह सबके घट - घट में है उसको पाने का यत्न अपने अंदर करो । अंदर में यत्न करने पर तुम अपने को भी जानोगे और ईश्वर को भी पहचानोगे । 

     एक अनादि अनंत स्वरूपी ईश्वर को नहीं मानकर जो एक - एक शरीर में एक - एक ईश्वर को मानता है , वह ईश्वर कैसा ? जरा सोचो - यदि एक - एक शरीर में एक - एक ईश्वर है , तो एक ईश्वर दूसरे ईश्वर को थप्पड़ लगाता है , गाली देता है , मार - पीट करता है । एक ईश्वर दूसरे ईश्वर पर मामला - मुकदमा करता है , तीसरा झूठा वकील - ईश्वर झूठा फैसला करता है । क्या यही ईश्वर है ? ये सब ईश्वर नहीं हैं । वास्तव में परम प्रभु परमात्मा एक है , वह स्वरूपत : अनंत है


( यह प्रवचन कटिहार जिलान्तर्गत श्रीसंतमत सत्संग मंदिर मनिहारी में दिनांक १६.६.१६५५ ई . को अपराह्नकालीन सत्संग में हुआ था । )


नोट-  इस प्रवचन में निम्नलिखित रंगानुसार और विषयानुसार ही  प्रवचन के लेख को रंगा गया या सजाया गया है। जैसे-  हेडलाइन की चर्चा,   सत्संग,   ध्यान,   सद्गगुरु  ईश्वर,   अध्यात्मिक विचार   एवं   अन्य विचार   । 


इसी प्रवचन को "महर्षि मेंही सत्संग सुधा सागर" और "शांति संदेश" में प्रकाशित रूप में पढ़ें-

महर्षि मेंही सत्संग सुधा सागर प्रवचन नंबर 115

महर्षि मेंही सत्संग सुधा सागर प्रवचन नंबर 115 क

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महर्षि मेंही सत्संग सुधा सागर प्रवचन नंबर 115 ग

महर्षि मेंही सत्संग सुधा सागर प्रवचन नंबर 115 घ


इस प्रवचन के बाद वाले प्रवचन नंबर 116 को पढ़ने के लिए   यहां दबाएं।


प्रभु प्रेमियों ! गुरु महाराज के इस प्रवचन का पाठ करके आपलोगों ने जाना कि वेद , उपनिषद् , संतवाणी सबमें है- जो इन्द्रियों के ज्ञान से बाहर है , जो आदि - अंत - रहित है , जिसकी सीमा कहीं नहीं है , जो अनादि , अनंत , असीम है , जिसकी शक्ति अपरिमित है , जो इन्द्रियों के ज्ञान में नहीं , आत्मा के ज्ञान में आने योग्य है , वह परमात्मा है । इत्यादि बातें।  इतनी जानकारी के बाद भी अगर कोई संका या प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस प्रवचन के बारे में अपने इष्ट मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने इससे आपको आने वाले प्रवचन या पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहेगी। उपर्युक्त प्रवचन का पाठ निम्न वीडियो में किया गया है। जय गुरु महाराज। 




सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज के विविध विषयों पर विभिन्न स्थानों में दिए गए प्रवचनों का संग्रहनीय ग्रंथ महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा सागर
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अगर आप "महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा सागर"' पुस्तक से महान संत सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस  जी महाराज के  अन्य प्रवचनों के बारे में जानना चाहते हैं या इस पुस्तक के बारे में विशेष रूप से जानना चाहते हैं तो नििम्नलिखि लिंक पर जाकर पढ़िए -

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S115, परमात्मा के लिए ईश्वर शब्द का प्रयोग ।। Paramaatma kee Pahachaan ।। १६.६.१६५५ ई. अपराह्न S115, परमात्मा के लिए ईश्वर शब्द का प्रयोग  ।।  Paramaatma kee Pahachaan ।। १६.६.१६५५ ई. अपराह्न Reviewed by सत्संग ध्यान on 4/02/2018 Rating: 5

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