महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर / 115
पूर्ण ब्रह्म परमेश्वर कौन है । Paramaatma kee Pahachaan
११५. परमात्मा के लिए ईश्वर शब्द का प्रयोग
इस सत्संग के द्वारा ईश्वर - भक्ति करने के लिए सदा से उपदेश होता हुआ चला आया है । ईश्वर - भक्ति करने के लिए सबसे पहले ईश्वर की स्थिति को जानना चाहिए । फिर उसके स्वरूप को जानना चाहिए । ईश्वर की स्थिति और उसके स्वरूप को पहले जानना चाहिए ।
' ईश्वर ' शब्द को लोग बहुत जगह प्रयोग करते हैं । जैसे नर + ईश्वर कहने से राजा का ज्ञान होता है । देवेश और देवेश्वर में भी ईश , ईश्वर लगा हुआ है । यहाँ ईश्वर से बढ़कर कोई नहीं है । जैसे नरेश्वर से बढ़कर देवेश्वर है , तो देवेश्वर के ऊपर देव ब्रह्मा है । उनसे भी बढ़कर विष्णु हैं । देवियों के लिए भी ईश्वर शब्द प्रयोग हुआ है , किंतु यहाँ जिस ईश्वर के लिए कहा जाता है , उससे बढकर कोई नहीं ।
परमात्मा के लिए ईश्वर शब्द का प्रयोग है । यहाँ एक ईश्वर की मान्यता है अनेक शरीरों की अनेक जीवात्माओं को अनेक मानने से अनीश्वरवाद होता है , न कि ईश्वरवाद । ईश्वर - ज्ञान के लिए वेद , उपनिषद् , संतवाणी सबमें है- जो इन्द्रियों के ज्ञान से बाहर है , जो आदि - अंत - रहित है , जिसकी सीमा कहीं नहीं है , जो अनादि , अनंत , असीम है , जिसकी शक्ति अपरिमित है , जो इन्द्रियों के ज्ञान में नहीं , आत्मा के ज्ञान में आने योग्य है , वह परमात्मा है । यह बात कहते - कहते मुझे २० वर्ष हो गए , किंतु अफसोस है कि कुछ लोग ही इसे समझ पाए हैं ।
शरीर - इन्द्रियों से जानने और मिलने योग्य ईश्वर मानोगे , तो उसमें ऐसी - ऐसी बात देखने में आवेगी , जिसे देखने से ईश्वर मानने के योग्य वह नहीं रह जाता । उसको ईश्वर मानना अन्धी श्रद्धा होगी । जो मन - इन्द्रियों से नहीं जानो , उसको किससे जानो ? तो कहा - चेतन आत्मा से इन्द्रियों के पृथक-पृथक होने के कारण उनका पृथक - पृथक ज्ञान होता है । सब विषयों को एक ही इन्द्रिय से नहीं जान सकते । आँख से रूप देखते हैं , कान से शब्द सुनते हैं , नासिका से गंध ग्रहण करते हैं , जिह्वा से रस लेते हैं और चमड़े से स्पर्श का ज्ञान होता है । इन्द्रियों के पृथक - पृथक होने के कारण उनका पृथक - पृथक काम है , किंतु तुम्हारा निज काम क्या है ? तुम्हारा निज काम परमात्मा की पहचान है और अपनी पहचान है । जो मानता है कि आत्मा बिना शरीर के नहीं रह सकती , सूक्ष्म शरीर में रहती है , उसका यह ज्ञान अधूरा है । स्थूल शरीर के बाद सूक्ष्म शरीर , सूक्ष्म के बाद कारण शरीर , कारण के बाद महाकारण शरीर , फिर कैवल्य शरीर है । उस चेतन आत्मा का निज ज्ञान परमात्मा की पहचान है । इसके अतिरिक्त परमात्मा को किसी से पहचाना नहीं जा सकता ।
एक असीम पदार्थ को नहीं मानो , तो प्रश्न होगा कि सब ससीम पदार्थों के बाद में क्या होगा ? बिना असीम कहे प्रश्न सिर पर से नहीं उतर सकता । इसलिए एक असीम तत्त्व को मानना ही पड़ेगा । यदि कहो कि यह कल्पित है तो अकल्पित क्या है ? ईश्वर को कल्पित कहनेवाले का ज्ञान मिथ्या है । कल्पित तो वह है , जिसकी स्थिति नहीं हो और मन से कुछ गढ़ लिया गया हो , किंतु एक अनादि अनंत तत्त्व अवश्य है । उसकी स्थिति अवश्य है , वह कल्पित कैसा ? जो असीम है , जिसकी शक्ति अपरिमित है , उसको तुम अपनी परिमित बुद्धि से कैसे माप सकते हो ? कोई यह नहीं कह सकता कि बुद्धि अपिरमित है ।
आजकल विज्ञान का बहुत बड़ा विस्तार हुआ है , किंतु उनसे पूछो तो वे कहते हैं - अभी तो समुद्र के किनारे का एक बालूकण ही दीख पड़ा है । बुद्धि अभी कितनी विकसित होगी , ठिकाना नहीं । किंतु बुद्धि अपरिमित नहीं हो सकती । परिमित बुद्धि में अपरिमित को अँटा नहीं सकते । आज की बुद्धि जितनी दूर तक गई , उतनी ही रहेगी या उससे भी अधिक बढ़ेगी ? यदि कोई योगेश्वर है तो बता दे कि बुद्धि कितनी बढ़ेगी ? आजकल हमारे देश में अणु बम की खोज हो रही है । दूसरे देश के लोग इसको जानते हैं । यदि तुम जानते हो तो बता दो , तो समयूँ कि इतना ज्ञान तुमको है । किंतु इतना भी ज्ञान नहीं है । दूसरे देश के लोगों को बम बनाते देखकर गौरव करते हो कि अणु बम हमने बनाया । तारे , चाँद , सूर्य सभी हमने बनाए ? दूसरे देश के लोगों से हम डरते हैं कि कहीं बम गिरा दे, तो हमारा सर्वनाश हो जाएगा ; और हम गौरव करते हैं कि ये सब हमने बनाये ।
वेद में यही ज्ञान दिया गया है कि इन्द्रियों से परमात्मा को ग्रहण नहीं कर सकते । कबीर साहब ने कहा है
राम निरंजन न्यारा रे । अंजन सकल पसारा रे ॥ अंजन उतपति वो ऊँकार । अंजन मांड्या सब बिस्तार ।। अंजन ब्रह्मा शंकर इन्द । अंजन गोपी संगिगोव्यंद ।। अंजन वाणी अंजन वेद । अंजन किया नाना भेद ।। अंजन विद्या पाठपुरान । अंजन फोकट कथहि गियान ।। अंजन पाती अंजन देव । अंजन की करै अंजन सेव ।। अंजन नाचै अंजन गावै । अंजन भेष अनंत दिखावै ।। अंजन कहाँ कहाँ लगि केता । दान पुंनि तप तीरथ जेता ।। कहै कबीर कोइ विरला जागे , अंजन छाडि निरंजन लागै ॥
यह पद कहकर सभी को माया बताया है और वह परमात्मा निरंजन है , निर्मायिक है । गुरु नानकदेवजी ने भी कहा है कि
अलख अपारअगमअगोचरि , नातिसुकालनकरमा ।। जातिअजाति अजोनीसंभउ , नातिसुभाउन भरमा ।।
अर्थात् परम प्रभु परमात्मा देखने की शक्ति से परे , असीम , मन और बुद्धि की पहुँच से परे अजन्मा , कुलविहीन , काल और कर्म से रहित तथा भूल और मनोमय संकल्प से हीन है ।
एक - एक शरीर में एक - एक ईश्वर माननेवाले को कितना भ्रम है , उसका ठिकाना नहीं । जो परमात्मा सर्वव्यापी है , वह सबके घट - घट में है उसको पाने का यत्न अपने अंदर करो । अंदर में यत्न करने पर तुम अपने को भी जानोगे और ईश्वर को भी पहचानोगे ।
एक अनादि अनंत स्वरूपी ईश्वर को नहीं मानकर जो एक - एक शरीर में एक - एक ईश्वर को मानता है , वह ईश्वर कैसा ? जरा सोचो - यदि एक - एक शरीर में एक - एक ईश्वर है , तो एक ईश्वर दूसरे ईश्वर को थप्पड़ लगाता है , गाली देता है , मार - पीट करता है । एक ईश्वर दूसरे ईश्वर पर मामला - मुकदमा करता है , तीसरा झूठा वकील - ईश्वर झूठा फैसला करता है । क्या यही ईश्वर है ? ये सब ईश्वर नहीं हैं । वास्तव में परम प्रभु परमात्मा एक है , वह स्वरूपत : अनंत है ।∆
( यह प्रवचन कटिहार जिलान्तर्गत श्रीसंतमत सत्संग मंदिर मनिहारी में दिनांक १६.६.१६५५ ई . को अपराह्नकालीन सत्संग में हुआ था । )
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