महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर / 116
अच्छा जीवन जीने के तरीके ।। Ways to live a good life
११६. भिक्षु जीवन का प्रत्यक्ष फल
बंदउ गुरु पद कंज, कृपा सिंधु नर रुप हरी ।
प्यारे लोगो !
यह शरीर एक ही नहीं है । इसके अंदर तीन और जड़ शरीर हैं । साधारण मृत्यु में एक शरीर को छोड़कर और तीन को लेकर जीवात्मा निकल जाता है । उसी को लोग मरना कहते हैं। अपने कर्मों के अनुसार नरक , स्वर्ग भोगकर उसके यहाँ जाकर जन्म लेता है , जिसके यहाँ उसका संबंध रहता है । इसी प्रकार आवागमन जीवात्मा पर लगा रहता है । यह कबतक लगा रहेगा , ठिकाना नहीं । इस प्रकार के जीवन में पड़े रहना यदि आनंददायक होता, तो इसको कोई छोड़ना नहीं चाहता । किंतु इसमें सब को दुःख होता है । चाहे वह पढ़ा - लिखा हो , अनपढ़ हो , धनी हो या निर्धन हो । कोई इस प्रकार के दुःख में रहना नहीं चाहता । यहाँ जो भी सुख है , उसके मूल में दुःख है । सबको चाहिए कि ऐसा जीवन प्राप्त करे , जहाँ सब दुःखों से छूट जाय । मानव इस बात को विचार सकता है । उसको मनुष्य को सुख की ओर जाना चाहिए । मनुष्य होकर सुख की ओर जाना नहीं चाहे तो मनुष्यत्व में कमी है । इस कमी को सत्संग के द्वारा दूर करना चाहिए । दुःख - रहित सुख तब होगा , जब सब शरीरों से छूटा जाय । जिस पर कोई देह नहीं , इस तरह की स्थिति सबसे ऊँची स्थिति है । यही परमात्मा की प्राप्ति या मुक्ति की स्थिति है ।
एक चिड़िया बहुत अच्छी तरह गाती है । सीटी देती है । चोंचा पक्षी सुन्दर घर बना लेता है । इसी तरह यदि मनुष्य भी कारीगरी जानता है और पढ़ा - लिखा है , तो उसकी विशेषता नहीं । विचारवान नहीं तो पूरा मनुष्य नहीं । मनुष्य कहते हैं विचारवान को । मनुष्य को चाहिए कि इन्द्रियों को काबू करके संसार में रहे । संतों ने इसी की विशेष तारीफ की है । बहुत विद्याओं को जाने , यह ऊँची बात है । किंतु विद्वान होते हुए सदाचारी बने , इन्द्रियों को वश में करके रखे , यह विशेष ऊँची बात है । विद्वान होने से संसार में प्रतिष्ठित होते हैं और सदाचारी होकर रहने से ईश्वर के यहाँ प्रतिष्ठित होते हैं । हमारे यहाँ के ऋषियों ने इसी को विशेष प्रतिष्ठा दी है ।
ईश्वर की भक्ति करो , ज्ञान प्राप्त करो । ज्ञान प्राप्त करने से ही ऐसा जीवन मिलता है । पूर्णयोगी बनो । ज्ञान , भक्ति और योग को तीन बातें कोई भले कहे , किंतु तीनों एक ही हैं । यदि कोई कुछ नहीं जाने तो भक्ति कैसे करेगा ? ईश्वर से कैसे मिलेगा ? यह जानना ही ज्ञान है । उससे मिलने के लिए कुछ करेगा तो वह योग होगा । मिलने के लिए जो प्रेम है , वह भक्ति है । इसलिए ज्ञान , योग और भक्ति तीनों साथ - साथ है । मन उधर अधिक लगता है जिधर प्रेम होता है । इसीलिए भक्ति को प्रेम प्रधान कहा गया है ।
प्रेम बिना जो भक्ति है , सोनिज डिम्भ विचार । उद्र भरन के कारने , जनम गँवायो सार । -संत कबीर साहब
प्रेम उत्पन्न उसके लिए होता है , जिससे अपना कुछ लाभ होता है । परमात्मा सबसे बड़ा लाभ देते हैं । ईश्वर की महिमा , उनकी स्थिति के लिए ज्ञान होता है , तब श्रद्धा होती है । श्रद्धा होने से भक्ति होती है । परमात्मा की महिमा को समझाने के लिए थोड़ी - सी बात यह है ।
आप किसी भी हालत में रहते हो ; किंतु बिना हवा के , भोजन के नहीं रह सकते हैं , श्वास नहीं लेने से हम जीवित रह नहीं सकते । गर्मी से हम जीते हैं । यह ईश्वर की दी हुई है । लोग कहते हैं यह गर्मी सूर्य की है । किंतु ईश्वर के बनाए हुए सूर्य , चन्द्र , हैं । सारी सृष्टि ईश्वर की बनाई हुई है । हवा मुफ्त मिलती है । इसके लिए किसी को खजाना ( कर ) देना नहीं पड़ता । परमात्मा की बनाई हुई मिट्टी है । इस मिट्टी को नहीं लेकर तब अन्न उपजाओ , हो नहीं सकता । हाँ , मिट्टी को लेकर , उसमें कुछ डालकर उसको उर्वरा भले बनाओ ; किंतु मिट्टी नहीं बना सकते ।
एक मुनि बालक था । वह जंगल में रहता था । एक राजा ने उस बालक को देखा । वह बालक बड़ा ज्ञानी था । राजा बहुत प्रसन्न हुआ । उस मुनि बालक से राजा ने कहा - ' तुम मेरे साथ चलो । तुमको अच्छी तरह अपने राजमहल में रखूगा । जो खाऊँगा , तुमको भी वही खिलाऊँगा । जो मेरी रक्षा पहरा करेगा , वह तुम्हारी भी रक्षा करेगा । ' मुनि बालक ने कहा - ' मैं तुम्हारे साथ तभी चलूँगा , यदि तुम मेरी बात मान लो । ' राजा ने कहा - ' तुम अपनी बात कहो , वह क्या है ? ' मुनि बालक ने कहा ' मुझे खिलाओ , तुम मत खाओ । मुझे पहनाओ , तुम मत पहनो । जब मैं सो जाऊँ , तब तुम जगकर मेरी रक्षा करो ' राजा ने कहा - ' ऐसा नहीं होगा । ' मुनि बालक ने कहा- ' मैं तब तुम्हारे साथ नहीं जाऊँगा । मेरे राजा ऐसे हैं , जो स्वयं नहीं खाते , मुझे खिलाते हैं । अपने कुछ नहीं पहनते , मुझे पहनाते हैं । जब मैं सो जाता हूँ , तो वे जगकर मेरी रक्षा करते हैं । ' ऐसे राजा हैं परम प्रभु परमात्मा । परमात्मा सबको खिलाते हैं , वे अपने कुछ नहीं खाते हैं सबको पहनाते हैं , अपने स्वयं कुछ नहीं पहनते हैं । सब कोई सोते हैं , अपने जगकर हमलोगों का पहरा करते हैं ।
मन सांसारिक पदार्थों में लगता है । सांसारिक पदार्थ माया है । माया एक तरह नहीं रहतीं । परमात्मा सदा एक तरह रहते हैं । दोनों के आपस में उलटे उलटे गुण हैं । माया में हम अपने को दु : खी पाते हैं । इससे उलटे परमात्मा हैं । उधर अपने को करो , तो सुखी होओगे ।
प्रह्लाद की कथा बहुत पुरानी है । उनको पिता के द्वारा बहुत दुःख दिया गया । किंतु ईश्वर की कृपा से उनसे वे उद्धार पाते गए । ईश्वर में प्रेम होना चाहिए ।
राजा अजातशत्रु ने भगवान बुद्ध से प्रश्न किया कि भिक्षु जीवन का कोई प्रत्यक्ष फल भी होता है ? भगवान बुद्ध ने उत्तर में कहा था - ' हे राजन् ! मैं आपसे भी एक प्रश्न करता हूँ , आप पहले उसका उत्तर दीजिए । आपके दासगण प्रतिदिन आपकी सेवा करते हैं , यदि आपके दासों में से कोई एक दास यह विचार कर कि थोड़े से जीवन के लिए कौन इतनी पराधीनता स्वीकार करके दिन - रात कष्ट भोगे , वह साधु हो जाय और एकान्त में रहकर युक्ताहारपूर्वक अपनी इन्द्रियों का संयम करने लगे , तो क्या आप उसे दास बनने के लिए फिर बाध्य करेंगे ? ' राजा अजातशत्रु ने कहा- ' ऐसा होने पर तो उसको दास बनने के लिए कभी नहीं बाध्य करेंगे । वरन् उसका सम्मान करेंगे और यथाशक्ति उसकी सेवा - सत्कार करेंगे । ' भगवान बुद्ध बोले - ' राजन् ! तब तो आपको यह मानना पड़ा कि भिक्षु होने से इसी जीवन में फल मिलता है राजन् ! यदि कोई व्यक्ति एकान्तसेवी हो इन्द्रिय - संयम के द्वारा भक्ति - धर्म का पालन करे , तो लोक में अवश्य पूजित होगा ; बल्कि त्यागशील पुरुषों को और भी अनेक फल मिलते हैं । आत्म - संयम के अभ्यास द्वारा मनुष्य क्रमशः उन्नत भिक्षु जीवन- लाभ करके रोगमुक्त , कारागार मुक्त , चिर - दासत्व मुक्त की तरह परमानन्द का लाभ करता है । हे राजन् ! उसे जन्म - जन्मानन्तर की बात स्मरण हो जाती है वह जान लेता है , हम पूर्व जन्मों में किन - किन अवस्थाओं में थे ? कहाँ - कहाँ जन्म ? क्या - क्या किया ? क्या - क्या भोगा ? कौन व्यक्ति क्या - क्या कर्म कर है और परिणाम में उसे किस प्रकार का फल भोगना पड़ेगा ? इसको वह इस प्रकार देखता है , जैसे कोई ऊँचे मकान के ऊपर से नीचे के मनुष्यों को देखता है कि कौन क्या कर रहा है ? कहाँ से आ रहा है ? किधर जा रहा है ? यह भिक्षुजीवन का प्रत्यक्ष फल है ।
साधु - संयमी परमात्मा में जब लग जाता है , तब वह रोगमुक्त रोगी की तरह , कारागार से मुक्त कैदी की तरह आनन्दित होता है । यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है । जिसको ईश्वर में प्रेम होगा , वह सदाचारी होगा , जो जप - ध्यान है , उसको वह करेगा । ईश्वर की भक्ति में प्रेम की प्रधानता है । सबको ईश्वर में प्रेम करना चाहिए । उनकी महिमा को जानना चाहिए । परमात्मा की ओर से हमारी बहुत भलाई होती है । परमात्मा में लौ लगाने के लिए कोई जरिया चाहिए । कीर्तन से पूजा - पाठ से लौ लगती है किंतु दिखलानेवाला कीर्तन और पूजा - पाठ नहीं होना चाहिए । जप ध्यान से लौ लगाना सरल है । किंतु इसकी भूमि सत्संग है । लौ लगाने के लिए सत्संग से प्रेरणा मिलती है ।
साधुओं का संग करना चाहिए । नित प्रति साधु का संग नहीं हो सकता । जिनको विशेष प्रेम है , उनको कभी - न - कभी साधु अवश्य मिलते हैं । चिट्ठी आधी मुलाकात है । साधु - संतों के वचन उनके ग्रंथों में है । उन ग्रंथों को पढ़ना चाहिए । इसमें आधा साधु का दर्शन होना होता है । सद्ग्रंथों को नित पढ़ो । बिना सत्संग के कोई ज्ञानी , योगी , भक्त नहीं हो सकता ।
पंच पापों को नहीं करो । किसी भी नशा को लेना आपको लाभ नहीं पहुंचा सकता । अन्न और जल , दूध आपको लाभ पहुँचा सकता है । अन्न , जल , दूध लेना जरूरी है । बेजरूरी की चीज लेना हानिकारक है । तम्बाकू , बीड़ी , सिगरेट , नस , खैनीी आदि जो नशा है , इनको छोड़ो । यदि आप इन सबों को छोड़ दीजिएगा , तो मालूम होगा कि इनके बंधनों से हम छूट गए । चोरी नहीं करनी चाहिए । झूठ नहीं बोलना चाहिए । व्यभिचार नहीं करना चाहिए । इसके बदले में एक ईश्वर पर पूर्ण भरोसा रखना चाहिए , वे अपने अंदर में मिलेंगे , इस पर अटल विश्वास रखना चाहिए । सत्संग नित करना चाहिए । ध्यान करना चाहिए और सद्गुरु की श्रद्धा- प्रेम से सेवा करनी चाहिए ।
सब लोगों को मालूम है कि ईश्वर सब जगह हैं । आपके अंदर भी ईश्वर हैं । आप भी अपने शरीर में हैं । किंतु उनको पहचान नहीं सकते हैं । आप जिस दर्जे में हैं , उससे ईश्वर बहुत ऊँचे दर्जे में हैं । जिस दर्जे में आप हैं , उस दर्जे में ईश्वर नहीं हैं - इस विचार को नहीं मानना चाहिए । ईश्वर उस जप दर्जे में भी हैं , लेकिन उनको वहाँ पहचान नहीं सकते । उस दर्जे में आप शरीर और इन्द्रियों के साथ रहते हैं । सारे शरीरों - आवरणों को पार करने पर ही प्रभु मिलेंगे । चेतन आत्मा के ऊपर से जितने आवरण हटाए जाते हैं , उतनी ही उसकी दीप्ति और अधिक बढ़ती है । बिल्कुल आवरण हट जाय तो सूर्य से विशेष प्रकाशमान वह होगा । परमात्मा , पुरुष , स्त्रीलिंग आदि कुछ नहीं , नपुंसक भी नहीं ।
सत्संग - ध्यान सबको नित करना चाहिए । ब्राह्ममुहर्त में उठना चाहिए । भजन करना चाहिए । दिन में स्नान के बाद को और सायंकाल संध्या समय भजन करो । रात में सोते समय भजन करते हुए सो जाय , तो बुरा स्वप्न नहीं होगा । यही त्रयकाल संध्या है । दिन में सब काम करते हुए अपने मन को जप - ध्यान में लगाते हुए रहना चाहिए । ∆
(यह प्रवचन पूर्णियाँ जिला के श्रीसंतमत सत्संग मंदिर सिकलीगढ़ धरहरा में दिनांक १९.६.१९५५ई० को अपराह्नलीन सत्संग में हुआ था ।)
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श्री सद्गुरु महाराज की जय !
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