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S116, भिक्षु जीवन का प्रत्यक्ष फल ।। Ways to live a good life ।। प्रवचन १९.६.१९५५ई०अपराह्न

महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर / 116

प्रभु प्रेमियों ! सत्संग ध्यान के इस प्रवचन सीरीज में आपका स्वागत है। आइए आज जानते हैं-संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज के हिंदी प्रवचन संग्रह "महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर" के प्रवचन नंबर 116 के बारे में। इसमें बताया गया है कि  इन्द्रियों को काबू करके संसार में रहे । संतों ने इसी की विशेष तारीफ की है । बहुत विद्याओं को जाने , यह ऊँची बात है । किंतु विद्वान होते हुए सदाचारी बने , इन्द्रियों को वश में करके रखे , यह विशेष ऊँची बात है । विद्वान होने से संसार में प्रतिष्ठित होते हैं और सदाचारी होकर रहने से ईश्वर के यहाँ प्रतिष्ठित होते हैं । हमारे यहाँ के ऋषियों ने इसी को विशेष प्रतिष्ठा दी है ।

इस प्रवचन के पहले वाले प्रवचन नंबर 115 को पढ़ने के लिए   यहां दवाएं। 

Manushya ka jivan kaisa hona chahie is per pravachan karte sadguru Maharshi Mehi

अच्छा जीवन जीने के तरीके ।। Ways to live a good life

   प्रभु प्रेमियों !  इस प्रवचन (उपदेश, अमृतवाणी, वचनामृत, सत्संग सुधा, संतवाणी, गुरु वचन, उपदेशामृत, ज्ञान कथा, भागवत वाणी, संतवचन, संतवचन-सुधा, संतवचनामृत, प्रवचन पीयूष )  में  पायेंगे कि- मानव शरीर में क्या होता है? शरीर कितने तरह का होता है? मृत्यु के बाद क्या होता है? आवागमन किसे कहते हैं? मनुष्य को कैसा जीवन जीना चाहिए? परमात्मा की प्राप्ति से आप क्या समझते हैं? सब शरीरों को छोड़ने से जीव को क्या मिलता है? संतो के दृष्टि में प्रतिष्ठित जीवन कैसा है? पाशविकता क्या है? परमात्मा ने हमें क्या-क्या दिया है? मुनि बालक की कथा। राजा अजातशत्रु और भगवान बुध का वार्तालाप। भिक्षु-जीवन का प्रत्यक्ष लाभ । जन्म जन्मांतर की बातें कैसे जानते हैं? अंतर्यामी कैसे हो सकते हैं? पूजा पाठ कैसे करना चाहिए? पाप क्यों नहीं करना चाहिए? ईश्वर को हम क्यों नहीं पहचानते हैं? भजन कब कब करना चाहिए? इत्यादि बातों  के बारे में। इसके साथ-ही-साथ निम्नलिखित प्रश्नों के भी कुछ-न-कुछ समाधान इसमें मिलेगा। जैसे कि- मनुष्य को कैसे रहना चाहिए, व्यक्ति को किस प्रकार का जीवन जीना चाहिए, व्यक्ति को कैसा जीवन जीना चाहिए, मनुष्य को अपना जीवन कैसे व्यतीत करना चाहिए, हम कैसा जीवन जीना चाहते हैं, गृहस्थ जीवन कैसे जीना चाहिए, आप कैसा जीवन जीना चाहते हैं, अच्छा जीवन जीने के तरीके, सुखी जीवन के उपाय, स्वस्थ तन से सुखी जीवन कैसे होता है, सुखी जीवन का रहस्य, इत्यादि बातें। इन बातों को जानने-समझने के पहले, आइए !  संत सदगुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज का दर्शन करें।

११६. भिक्षु जीवन का प्रत्यक्ष फल 


Sukh mein Jeevan ka Rahasya kya hai is par charcha karte sadguru Maharshi Mehi paramhans Ji Maharaj

बंदउ गुरु पद कंज, कृपा  सिंधु  नर  रुप   हरी । 

महा मोह तम पुंज, जासु बचन रबि कर निकर।।

प्यारे लोगो ! 

     सब लोगों को जानना चाहिए कि प्रत्येक शरीर में जीवात्मा रहता है , जैसे घर में लोग रहते हैं । शरीर में लड़कपन , जवानी , बुढ़ापा होता है और एक दिन इससे जीवात्मा निकल जाता है , जैसे घर से कोई निकल जाय । 

     यह शरीर एक ही नहीं है । इसके अंदर तीन और जड़ शरीर हैं । साधारण मृत्यु में एक शरीर को छोड़कर और तीन को लेकर जीवात्मा निकल जाता है । उसी को लोग मरना कहते हैं। अपने कर्मों के अनुसार नरक , स्वर्ग भोगकर उसके यहाँ जाकर जन्म लेता है , जिसके यहाँ उसका संबंध रहता है । इसी प्रकार आवागमन जीवात्मा पर लगा रहता है । यह कबतक लगा रहेगा , ठिकाना नहीं । इस प्रकार के जीवन में पड़े रहना यदि आनंददायक होता, तो इसको कोई छोड़ना नहीं चाहता । किंतु इसमें सब को दुःख होता है । चाहे वह पढ़ा - लिखा हो , अनपढ़ हो , धनी हो या निर्धन हो । कोई इस प्रकार के दुःख में रहना नहीं चाहता । यहाँ जो भी सुख है , उसके मूल में दुःख है । सबको चाहिए कि ऐसा जीवन प्राप्त करे , जहाँ सब दुःखों से छूट जाय । मानव इस बात को विचार सकता है । उसको मनुष्य को सुख की ओर जाना चाहिए । मनुष्य होकर सुख की ओर जाना नहीं चाहे तो मनुष्यत्व में कमी हैइस कमी को सत्संग के द्वारा दूर करना चाहिए । दुःख - रहित सुख तब होगा , जब सब शरीरों से छूटा जाय । जिस पर कोई देह नहीं , इस तरह की स्थिति सबसे ऊँची स्थिति है । यही परमात्मा की प्राप्ति या मुक्ति की स्थिति है । 

     जीवात्मा के एक - एक शरीर में रहने का जीवन बहुत अल्प है । एक शरीर को छोड़कर और दूसरे शरीरों में आने - जाने का समय - जीवन बहुत लम्बा है । और सब शरीरों को छोड़ने का जो जीवन है , वह अनंत जीवन , सुखमय जीवन है । अभी भी जीवात्मा का जीवन अनंत है । किंतु यह दुःखमय जीवन है , अभी मान - प्रतिष्ठा के लिए जो जीवन बिताते हैं , यह कोई ऊँचा जीवन नहीं है । 
     पशु - पक्षी भी सुख का जीवन पसन्द करते हैं । वे खाने - पीने , इन्द्रियों के भोग में , प्रतिष्ठा में रहते हैं । प्रतिष्ठा के लिए ही साँड़ - साँड़ से लड़ते हैं , बिलाड़ बिलाड़ से लड़ते हैं । यदि मनुष्य भी प्रतिष्ठा के लिए ही जीवन बितावे , तो मनुष्य पशु से क्या श्रेष्ठ हुआ ? जैसे जो घोड़ा अच्छी चाल चलना जानता है , तो उसका विशेष मूल्य होता है । मनुष्य भी जो अधिक विद्या जानते हैं , उनकी अधिक प्रतिष्ठा होती है । किंतु इतने ही में कोई विशेष नहीं हो जाते । एक शिक्षित पशु अच्छा काम करता है और मनुष्य भी उसी तरह रहता है , तो क्या विशेष । मनुष्य केवल विद्वान , धनवान , प्रतिष्ठावान होकर रहे तो यह कोई विशेष बात नहीं है । इन्हीं बातों में अपना काम खतम मानना ठीक नहीं । इसका अर्थ यह नहीं कि अविद्वान , निर्धन और अप्रतिष्ठित होकर रहे । तात्पर्य यह है कि वह पशु की तरह न रहे । पाशविक वृत्ति न रखे । इन्द्रियों के अधीन न रहे । 

     एक चिड़िया बहुत अच्छी तरह गाती है । सीटी देती है । चोंचा पक्षी सुन्दर घर बना लेता है । इसी तरह यदि मनुष्य भी कारीगरी जानता है और पढ़ा - लिखा है , तो उसकी विशेषता नहीं । विचारवान नहीं तो पूरा मनुष्य नहीं । मनुष्य कहते हैं विचारवान को । मनुष्य को चाहिए कि इन्द्रियों को काबू करके संसार में रहे । संतों ने इसी की विशेष तारीफ की है । बहुत विद्याओं को जाने , यह ऊँची बात है । किंतु विद्वान होते हुए सदाचारी बने , इन्द्रियों को वश में करके रखे , यह विशेष ऊँची बात है । विद्वान होने से संसार में प्रतिष्ठित होते हैं और सदाचारी होकर रहने से ईश्वर के यहाँ प्रतिष्ठित होते हैं । हमारे यहाँ के ऋषियों ने इसी को विशेष प्रतिष्ठा दी है ।

     ईश्वर की भक्ति करो , ज्ञान प्राप्त करो । ज्ञान प्राप्त करने से ही ऐसा जीवन मिलता है । पूर्णयोगी बनो । ज्ञान , भक्ति और योग को तीन बातें कोई भले कहे , किंतु तीनों एक ही हैं । यदि कोई कुछ नहीं जाने तो भक्ति कैसे करेगा ? ईश्वर से कैसे मिलेगा ? यह जानना ही ज्ञान है । उससे मिलने के लिए कुछ करेगा तो वह योग होगा । मिलने के लिए जो प्रेम है , वह भक्ति है । इसलिए ज्ञान , योग और भक्ति तीनों साथ - साथ है । मन उधर अधिक लगता है जिधर प्रेम होता है । इसीलिए भक्ति को प्रेम प्रधान कहा गया है ।

 प्रेम बिना जो भक्ति है , सोनिज डिम्भ विचार । उद्र भरन के कारने , जनम गँवायो सार । -संत कबीर साहब 

     प्रेम उत्पन्न उसके लिए होता है , जिससे अपना कुछ लाभ होता है । परमात्मा सबसे बड़ा लाभ देते हैं । ईश्वर की महिमा , उनकी स्थिति के लिए ज्ञान होता है , तब श्रद्धा होती है । श्रद्धा होने से भक्ति होती है । परमात्मा की महिमा को समझाने के लिए थोड़ी - सी बात यह है । 

     आप किसी भी हालत में रहते हो ; किंतु बिना हवा के , भोजन के नहीं रह सकते हैं , श्वास नहीं लेने से हम जीवित रह नहीं सकते । गर्मी से हम जीते हैं । यह ईश्वर की दी हुई है । लोग कहते हैं यह गर्मी सूर्य की है । किंतु ईश्वर के बनाए हुए सूर्य , चन्द्र , हैं । सारी सृष्टि ईश्वर की बनाई हुई है । हवा मुफ्त मिलती है । इसके लिए किसी को खजाना ( कर ) देना नहीं पड़ता । परमात्मा की बनाई हुई मिट्टी है । इस मिट्टी को नहीं लेकर तब अन्न उपजाओ , हो नहीं सकता । हाँ , मिट्टी को लेकर , उसमें कुछ डालकर उसको उर्वरा भले बनाओ ; किंतु मिट्टी नहीं बना सकते । 

     एक मुनि बालक था । वह जंगल में रहता था । एक राजा ने उस बालक को देखा । वह बालक बड़ा ज्ञानी था । राजा बहुत प्रसन्न हुआ । उस मुनि बालक से राजा ने कहा - ' तुम मेरे साथ चलो । तुमको अच्छी तरह अपने राजमहल में रखूगा । जो खाऊँगा , तुमको भी वही खिलाऊँगा । जो मेरी रक्षा पहरा करेगा , वह तुम्हारी भी रक्षा करेगा । ' मुनि बालक ने कहा - ' मैं तुम्हारे साथ तभी चलूँगा , यदि तुम मेरी बात मान लो । ' राजा ने कहा - ' तुम अपनी बात कहो , वह क्या है ? ' मुनि बालक ने कहा ' मुझे खिलाओ , तुम मत खाओ । मुझे पहनाओ , तुम मत पहनो । जब मैं सो जाऊँ , तब तुम जगकर मेरी रक्षा करो ' राजा ने कहा - ' ऐसा नहीं होगा । ' मुनि बालक ने कहा- ' मैं तब तुम्हारे साथ नहीं जाऊँगा । मेरे राजा ऐसे हैं , जो स्वयं नहीं खाते , मुझे खिलाते हैं । अपने कुछ नहीं पहनते , मुझे पहनाते हैं । जब मैं सो जाता हूँ , तो वे जगकर मेरी रक्षा करते हैं । ' ऐसे राजा हैं परम प्रभु परमात्मा । परमात्मा सबको खिलाते हैं , वे अपने कुछ नहीं खाते हैं सबको पहनाते हैं , अपने स्वयं कुछ नहीं पहनते हैं । सब कोई सोते हैं , अपने जगकर हमलोगों का पहरा करते हैं । 

     मन सांसारिक पदार्थों में लगता है । सांसारिक पदार्थ माया है । माया एक तरह नहीं रहतीं । परमात्मा सदा एक तरह रहते हैं । दोनों के आपस में उलटे उलटे गुण हैं । माया में हम अपने को दु : खी पाते हैं । इससे उलटे परमात्मा हैं । उधर अपने को करो , तो सुखी होओगे । 

     प्रह्लाद की कथा बहुत पुरानी है । उनको पिता के द्वारा बहुत दुःख दिया गया । किंतु ईश्वर की कृपा से उनसे वे उद्धार पाते गए । ईश्वर में प्रेम होना चाहिए ।

भगवान बुद्ध उपदेश मुद्रा में

     राजा अजातशत्रु ने भगवान बुद्ध से प्रश्न किया कि भिक्षु जीवन का कोई प्रत्यक्ष फल भी होता है ? भगवान बुद्ध ने उत्तर में कहा था - ' हे राजन् ! मैं आपसे भी एक प्रश्न करता हूँ , आप पहले उसका उत्तर दीजिए । आपके दासगण प्रतिदिन आपकी सेवा करते हैं , यदि आपके दासों में से कोई एक दास यह विचार कर कि थोड़े से जीवन के लिए कौन इतनी पराधीनता स्वीकार करके दिन - रात कष्ट भोगे , वह साधु हो जाय और एकान्त में रहकर युक्ताहारपूर्वक अपनी इन्द्रियों का संयम करने लगे , तो क्या आप उसे दास बनने के लिए फिर बाध्य करेंगे ? ' राजा अजातशत्रु ने कहा- ' ऐसा होने पर तो उसको दास बनने के लिए कभी नहीं बाध्य करेंगे । वरन् उसका सम्मान करेंगे और यथाशक्ति उसकी सेवा - सत्कार करेंगे । ' भगवान बुद्ध बोले - ' राजन् ! तब तो आपको यह मानना पड़ा कि भिक्षु होने से इसी जीवन में फल मिलता है राजन् ! यदि कोई व्यक्ति एकान्तसेवी हो इन्द्रिय - संयम के द्वारा भक्ति - धर्म का पालन करे , तो लोक में अवश्य पूजित होगा ; बल्कि त्यागशील पुरुषों को और भी अनेक फल मिलते हैं । आत्म - संयम के अभ्यास द्वारा मनुष्य क्रमशः उन्नत भिक्षु जीवन- लाभ करके रोगमुक्त , कारागार मुक्त , चिर - दासत्व मुक्त की तरह परमानन्द का लाभ करता है । हे राजन् ! उसे जन्म - जन्मानन्तर की बात स्मरण हो जाती है वह जान लेता है , हम पूर्व जन्मों में किन - किन अवस्थाओं में थे ? कहाँ - कहाँ जन्म ? क्या - क्या किया ? क्या - क्या भोगा ? कौन व्यक्ति क्या - क्या कर्म कर है और परिणाम में उसे किस प्रकार का फल भोगना पड़ेगा ? इसको वह इस प्रकार देखता है , जैसे कोई ऊँचे मकान के ऊपर से नीचे के मनुष्यों को देखता है कि कौन क्या कर रहा है ? कहाँ से आ रहा है ? किधर जा रहा है ? यह भिक्षुजीवन का प्रत्यक्ष फल है । 

     साधु - संयमी परमात्मा में जब लग जाता है , तब वह रोगमुक्त रोगी की तरह , कारागार से मुक्त कैदी की तरह आनन्दित होता है । यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है । जिसको ईश्वर में प्रेम होगा , वह सदाचारी होगा , जो जप - ध्यान है , उसको वह करेगा । ईश्वर की भक्ति में प्रेम की प्रधानता है । सबको ईश्वर में प्रेम करना चाहिए । उनकी महिमा को जानना चाहिए । परमात्मा की ओर से हमारी बहुत भलाई होती है । परमात्मा में लौ लगाने के लिए कोई जरिया चाहिए । कीर्तन से पूजा - पाठ से लौ लगती है किंतु दिखलानेवाला कीर्तन और पूजा - पाठ नहीं होना चाहिए । जप ध्यान से लौ लगाना सरल है । किंतु इसकी भूमि सत्संग है । लौ लगाने के लिए सत्संग से प्रेरणा मिलती है ।

     साधुओं का संग करना चाहिए । नित प्रति साधु का संग नहीं हो सकता । जिनको विशेष प्रेम है , उनको कभी - न - कभी साधु अवश्य मिलते हैं । चिट्ठी आधी मुलाकात है । साधु - संतों के वचन उनके ग्रंथों में है । उन ग्रंथों को पढ़ना चाहिए । इसमें आधा साधु का दर्शन होना होता है । सद्ग्रंथों को नित पढ़ो । बिना सत्संग के कोई ज्ञानी , योगी , भक्त नहीं हो सकता । 

     पंच पापों को नहीं करो । किसी भी नशा को लेना आपको लाभ नहीं पहुंचा सकता । अन्न और जल , दूध आपको लाभ पहुँचा सकता है । अन्न , जल , दूध लेना जरूरी है । बेजरूरी की चीज लेना हानिकारक है । तम्बाकू , बीड़ी , सिगरेट , नस , खैनीी आदि जो नशा है , इनको छोड़ो । यदि आप इन सबों को छोड़ दीजिएगा , तो मालूम होगा कि इनके बंधनों से हम छूट गए । चोरी नहीं करनी चाहिए । झूठ नहीं बोलना चाहिए । व्यभिचार नहीं करना चाहिए । इसके बदले में एक ईश्वर पर पूर्ण भरोसा रखना चाहिए , वे अपने अंदर में मिलेंगे , इस पर अटल विश्वास रखना चाहिए । सत्संग नित करना चाहिए । ध्यान करना चाहिए और सद्गुरु की श्रद्धा- प्रेम से सेवा करनी चाहिए । 

     सब लोगों को मालूम है कि ईश्वर सब जगह हैं । आपके अंदर भी ईश्वर हैं । आप भी अपने  शरीर में हैं । किंतु उनको पहचान नहीं सकते हैं । आप जिस दर्जे में हैं , उससे ईश्वर बहुत ऊँचे दर्जे  में हैं । जिस दर्जे में आप हैं , उस दर्जे में ईश्वर नहीं  हैं - इस विचार को नहीं मानना चाहिए । ईश्वर उस जप दर्जे में भी हैं , लेकिन उनको वहाँ पहचान नहीं सकते । उस दर्जे में आप शरीर और इन्द्रियों के साथ रहते हैं । सारे शरीरों - आवरणों को पार करने पर ही प्रभु मिलेंगे । चेतन आत्मा के ऊपर से जितने आवरण हटाए जाते हैं , उतनी ही उसकी दीप्ति और अधिक बढ़ती है । बिल्कुल आवरण हट जाय तो सूर्य से विशेष प्रकाशमान वह होगा । परमात्मा , पुरुष , स्त्रीलिंग आदि कुछ नहीं , नपुंसक भी नहीं । 

     सत्संग - ध्यान सबको नित करना चाहिए । ब्राह्ममुहर्त में उठना चाहिए । भजन करना चाहिए । दिन में स्नान के बाद को और सायंकाल संध्या समय भजन करो । रात में सोते समय भजन करते हुए सो जाय , तो बुरा स्वप्न नहीं होगा । यही त्रयकाल संध्या है । दिन में सब काम करते हुए अपने मन को जप - ध्यान में लगाते हुए रहना चाहिए । ∆

     (यह प्रवचन पूर्णियाँ जिला के श्रीसंतमत सत्संग मंदिर सिकलीगढ़ धरहरा में दिनांक १९.६.१९५५ई० को अपराह्नलीन सत्संग में हुआ था ।)



नोट-  इस प्रवचन में निम्नलिखित रंगानुसार और विषयानुसार ही  प्रवचन के लेख को रंगा गया या सजाया गया है। जैसे-  हेडलाइन की चर्चा,   सत्संग,   ध्यान,   सद्गगुरु  ईश्वर,   अध्यात्मिक विचार   एवं   अन्य विचार   । 


इसी प्रवचन को पुस्तक में और शांति संदेश में प्रकाशित रूप में पढ़ें-

Guru maharaj ka pravachan number 116

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सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज के विविध विषयों पर विभिन्न स्थानों में दिए गए प्रवचनों का संग्रहनीय ग्रंथ महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा सागर
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S116, भिक्षु जीवन का प्रत्यक्ष फल ।। Ways to live a good life ।। प्रवचन १९.६.१९५५ई०अपराह्न S116, भिक्षु जीवन का प्रत्यक्ष फल ।। Ways to live a good life ।। प्रवचन १९.६.१९५५ई०अपराह्न Reviewed by सत्संग ध्यान on 8/21/2018 Rating: 5

1 टिप्पणी:

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