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S95, (ख) संतमत और कबीर वाणी में सहज समाधि और भक्ति-भेद पर विशेष ।। महर्षि मेंहीं अमृतवाणी ।। अपराह्न

महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर / 95 ख

प्रभु प्रेमियों ! सत्संग ध्यान के इस प्रवचन सीरीज में आपका स्वागत है। आइए आज जानते हैं-संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज के हिंदी प्रवचन संग्रह "महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर" के प्रवचन नंबर ९५वां, के बारे में। इसमें  बताया गया है कि संतमत वाणी में और कबीर वाणी में सहज समाधि का मार्मिक अर्थ क्या है? लोग भर्म में कैसे पढ़े हैं?

इसके साथ ही आप इस प्रवचन (उपदेश, अमृतवाणी, वचनामृत, सत्संग सुधा, संतवाणी, गुरु वचन, उपदेशामृत, ज्ञान कथा, भागवत वाणी, संतवचन, संतवचन-सुधा, संतवचनामृत, प्रवचन पीयूष )  में  पायेंगे कि-  santamat mein nirgun sagun bhakti ke maarmik bhed, kabeer vaanee mein bhakti bhed, guru naanak saahab, palatoo saahab, daadoo dayaal jee mahaaraaj aur upanishadon mein bhakti bhed ka varnan, sahaj samaadhi ka asalee gyaan,     इत्यादि बातों  के बारे में। इसके साथ-ही-साथ निम्नलिखित प्रश्नों के भी कुछ-न-कुछ समाधान इसमें मिलेगा। जैसे कि- santo sahaj samaadhi bhalee, santo sahaj samaadhi bhalee vyaakhya, dhyaan aur samaadhi, saadho ! sahaj samaadhi bhalee kabeer, samaadhi tak kaise pahunche, saadho sahaj samaadhi bhalee bhajan, samaadhi saadhana, samaadhi kee vidhi, samaadhi kaise lagaen, sahaj dhyaan yog, samaadhi mantr, naadayog samaadhi,   इत्यादि बातें। इन बातों को जानने-समझने के पहले, आइए !  संत सदगुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज का दर्शन करें। 

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सहज समाधि पर चर्चा करने के बाद गुरुदेव महर्षि मेंहीं
प्रवचन के बाद टहलते हुए गुरुदेव

संतमत और कबीर वाणी में सहज समाधि

Easy Samadhi in Santmat and Kabir speech पर बताते हुए सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज कहते हैं कि- .......सब विधि अगम विचारहि तातें , ' सूर ' मगुन लीला पद गावै ॥ निर्गुण को सब तरह से अगम विचारकर सगुण का वर्णन किया ।। .....इस तरह प्रारंभ करके गुरुदेव----Describing the poignant distinction of nirgun saguna bhakti in Santmat, devotional distinction in Kabir Vani, description of devotional distinction in Guru Nanak Sahab, Palatu Sahab, Dadu Dayal Ji Maharaj and Upanishads, real knowledge of Sahaj Samadhi,.....आदि बातों पर विशेष प्रकाश डालते हैं। इन बातों को अच्छी तरह समझने के लिए पढ़ें-

S95, (ख) संतो सहज समाधि भली व्याख्या


मुरादाबाद महाधिवेशन में प्रवचन करते सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज

S95, (क) का शेष भाग

.......सब विधि अगम विचारहि तातें , ' सूर ' मगुन लीला पद गावै ॥ 

     निर्गुण को सब तरह से अगम विचारकर सगुण का वर्णन किया । हमलोगों को यह नहीं समझना चाहिए कि हम निर्गुण स्वरूप को नहीं पाप्त कर सकेंगे । परमात्मा और जीवात्मा स्वजातीय पदार्थ हैं । हम पिण्ड , ब्रह्माण्ड आदि आवरणों से आवरणित हैं । हमको काम , क्रोध , लोभ , मोह सताते हैं । यह आवरण से आवृत्त रहने के कारण ही होता है । इससे अपने को पार करो । कैसे पार करोगे , तो किसी संत से पूछ लो । एक प्रेमी ने गाया है भेद यह गुप्त पाना किसी गंध से । है असंभव समझ लो किसी संत से ॥ 

     प्रसिद्ध है संतों का भेद और पण्डितों का वेदकबीर साहब पढ़े - लिखे नहीं थे . रामकृष्ण परमहंस भी पढ़े - लिखे नहीं , किन्तु इतने बड़े ज्ञानी थे कि नरेन्द्र ( स्वामी विवेकानन्द ) उनसे सोखते थे । उनसे कोई वेद का और कोई कुरान का अर्थ पूछने जाते थे । वे उनका अर्थ उन्हीं से पूछते थे , फिर अपनी बात कहते थे कि इस तरह का अर्थ करने से नहीं होगा ? और इन्हीं का अर्थ ठीक होता । हमारे यहाँ योगशास्त्र प्रसिद्ध है । जोग कुजोग ज्ञान अज्ञातृ । जहँ नहिं राम प्रेम परधानू ॥ ( अयोध्याकाण्ड. रामचरितमानस ) 

     योगशिोपनिषद् में है कि योग बिना ज्ञान और ज्ञान बिना योग मोक्ष कार्य में समर्थ नहीं होता । योगहीनं कथं ज्ञानं मोक्षदं भवतीह भोः । योगोऽपि ज्ञानहीनस्तु न क्षमो मोक्षकमणि ।। तस्माज्ञानं च योगं च मुमुक्षुटूंढमभ्यमेत्

     चित्तवृत्ति - निरोध को योग कहते हैं । संत वेश बनाने से नहीं होता । गो ० तुलसीदासजी महाराज कहते हैं अमित बोध अनीह मितभोगी । सत्यसार कबि कोबिद जोगी

     संत कंवल गेरुआ वस्त्र पहनने से नहीं होता । किसी वेश में रहो . संत हो सकते हो . किन्तु जानो इसका भेद कबीर भेदी भक्त से मेरा मन पतियाय । मेरी पावै शब्द की , निर्भय आवै जाय ॥ भेदी जाने सर्व गुण , अनभेदी क्या जान । के जाने गुर पारखी , के जाकै लागा बान । ( संत कबीर साहब  ) 

     यहाँ से जगन्नाथजी जायेंगे , जगन्नाथ के लिए जैसे - जैसे पैर पड़ता है , वैसे - वैसे उसकी भक्ति होती है । उसी तरह शरीर - इन्द्रियों से जैसे - जैसे अपने को छुड़ाते हैं , उसकी भक्ति होती है । संतों ने इसका सरल तरीका बताया है । जप करो और ध्यान करो । ध्यान के बहुत दर्जे है । कबीर साहब की वाणी में है- जो कोइ निरगुन दरसन पावै ॥टेक ।। प्रथमे सुरति जमावै तिल पर , मूल मन्त्र गहि लावै । निजिभ्या नामहिं को सुमिरे , अमि रस अजर चुवावे । गगन गराजै दामिनि दमकै , अनहद नाद बजावै ॥ अजपा लागि रहे सुरति पर , नैन न पलक डुलावै ॥ इंगला पिंगला सुखमनि सोधे , प्रेम ज्योति लौ लावै ।। गगन मन्दिल में फूल फुलाना , उहाँ भँवर रस पावै । सुन्न महल में पुरुष विराजै , जहाँ अमर घर छावै । कहै कबीर सतगुरु बिनु चीन्हे , कैसे वह घर पावै ॥ 

     कुछ पढ़े - लिखे लोग भी भ्रमवश कहते हैं कि कबीर साहब कुछ करने को नहीं कहते । वे कहते - ' साधो सहज समाधि भली ।... आँखि न मूंदों कान न रूँधौं , तनिक कष्ट नहिं धारौं । खुले नयन पहिचानौं हाँस हँसि , सुन्दर रूप निहारौं । ' सम्पूर्ण पद्य को पढ़ा कि नहीं , किन्तु इतना पढ़ लिया कि - ' आँखि न मूंदौं कान न रुंधों , तनिक कष्ट नहिं धारौं । खुले नयन पहिचानौं हाँस हँसि , सुन्दर रूप निहारौं । ' 

     सम्पूर्ण पद्य को भी पढ़ो  साधो सहज समाधि भली । गुरु प्रताप जा दिन से जागी , दिन दिन अधिक चली । जहँ जहँ डोलौं सो परिकरमा , जो कुछ करौं सो सेवा । जब सोवौं तब करौं दण्डवत , पूजा और न देवा ॥ कहौं सो नाम सुनौं सो सुमिरन , खावं पियौं सो पूजा । गिरह उजाड़ एक सम लेखी , भाव मिटावौं दूजा ॥ आँख न मूंदों कान न रूंधौं , तनिक कष्ट नहिं धारौं । खुले नयन पहिचानौं हँसि - हँसि , सुन्दर रूप निहारौं ॥ शब्द निरन्तर से मन लागा , मलिन वासना भागी । उठत बैठत कबहुँ न छूटै , ऐसी ताड़ी लागी । कहै कबीर यह उनमुनि रहनी , सो परगट कर गाई । दुख सुख से कोइ परे परम पद , तेहि पद रहा समाई ॥ 

     समस्त पद को पढ़कर पाठक को यह सोचना चाहिए कि ' गिरह उजाड एक सम लेखौं , भाव मिटावौं दूजा ' के अनुकूल ठीक - ठीक उनकी दशा हुई है या नहीं ? फिर ' शब्द निरन्तर सं मन लागा , मलिन वासना त्यागी । उठत - बैठत कबहुँ न छूटै , ऐसी ताड़ी लागी । ' इस पद्य वर्णित ' निरन्तर शब्द ' में उनकी सुरत सदैव लगी रहती है या नहीं ? यदि ' दूजा भाव ' ( द्वैत बुद्धि ) सम्पूर्णत : छूट गया हो , घर और उजाड़ यथार्थ में एक ही तरह मालूम होते हों , निरन्तर शब्द में सुरत सदा लगी रहती हो और ' मलिन वासना ' -- कभी नहीं आती हो, तो इस दशा में पहुँचे हुए को अवश्य ही ' सहज समाधि ' प्राप्त है । ' निरन्तर शब्द के विषय में तो बिहारी दरिया साहब कहते हैं सोवत जागत ऊठत बैठत , टुक विहीन नहिं तारा । झिन झिन जंतर निसि दिन बाज , जम जालिम पचिहारा ॥ 

     परन्तु यह सहज समाधि ' की अवस्था किसी को आरम्भ में ही होने योग्य नहीं है । दृष्टियोग और नादानुसन्धान करते - करते जब कोई साधन को अंत कर देता है , तब उसे यह दशा प्राप्त होती है । फिर उसको आँख बंद और कान बन्द करने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती । प्रथम से ही आँख - कान बन्द नहीं करते हुए अथवा अभ्यास के कुछ भी कष्ट को नहीं धारण करते हुए सहज समाधि प्राप्त हो , कभी संभव नहीं है । उसके अतिरिक्त वराहोपनिषद् का यह वाक्य भी ध्यान में रखने योग्य है  दुर्लभो विषयत्यागो दुर्लभं तत्त्वदर्शनम् । दुर्लभासहजावस्था सद्गुरोः करुणां विना ।। 

     और कबीर साहब ने भी कहा है साधो सहज समाधि भली । गुरु प्रताप जा दिन से जागी , दिन दिन अधिक चली

     बिना योगाभ्यास के समाधि नहीं होती है । कबीर साहब कहते हैं ' सबद खोजि मन बस करै, सहज योग है येहि । ' पलकों की चिक डारि के , पिय को लिया रियाय ॥ '  ' नैनों की करि कोटरी , पुतली पलंग बिछाय । ' बंद कर दृष्टि को फेरि अन्दार करै , घट का पाट गुरुदेव खोलै । ' आँख कान मुख बंद कराओ । अनहद झींगा शन्द मुनाओ । दोनों तिल एक तार मिलाओ , तब देखो गुलजाारा है । ' सहज ध्यान रहु सहज ध्यान रहु , गुरु के वचन समाई हो मेली चित्त चराचित्त राखो , रहो दृष्टि लौ लाई हो । 

     गुरु नानक साहब कहतं हैं ' सुखमन कै घरि राग सुनि सुन मंडल लिवलाइ । अकथ कथा वीचारिये मनसा मनहि समाइ ।। ' ' तीन बंद लगाय कर सुन अनहद टंकार । नानक सुन्न समाधि में नहीं माँझ नहि भोर ॥

     दादू दयालजी महाराज कहते हैं ' सहज समरपण सुमिरण सेवा , तिरवेणी तट संयम सपरा। सुन्दरि सन्मुख जागण लागी , तहँ मोहन मेरा मन पकरा । ' सहज सुन्नि मन राखिये , इन दुन्यू के माहिं। लय समाधि रस पीजिये , तहाँ काल भय नाहिं । ' क्यों करि उल्टा आणिये , पसरि गया मन फेरि । दादू डोरी सहज की , यौं आण घेरि घेरि ।। साध सबद सौं मिलि रहै , मन राखं बिलमाइ । साध सबद बिन क्यों रहे , तवहीं वीखरि जाइ । ' 

धुन आने जो गगन की सो मेरा गुरुदेव ॥ सो मेरा गुरुदेव सेवा में करिहौं वाकी । शब्द में है गलतान अवस्था ऐसी जाकी ॥ निसदिन दसा अरूढ़ लग ना भूख पियासा । ज्ञान भूमि के बीच चलत है उलटी स्वासा ।। तुरिया सेति अतीत मोधि फिरि महज समाधी । भजन तेल की धार साधना निर्मल साधी ॥ पलटू तन मन वारिये मिले जो ऐसा कोउ । 

     पलटू साहब कहते हैं धुन आने जो गान की सो मेरा गुरुदेय ।। इन सब उद्धरणों में यही सिद्ध होता है कि आरम्भ से ही ' आँख न मूंदौं कान न रुुधौं , तनिक कष्ट नहिं धारौं । खुले नयन पहिचानों हँसि हँसि , सुन्दर रूप निहारौं । ' नहीं होता है । इस दशा पर आने के लिए पहले दृष्टियोग फिर नादानुसंधान पूर्णरूपेण करके उपर्युक्त दशा की प्राप्ति होती । पद्य में कथित सहजयोग के अभ्यास के बिना सहज समाधि कदापि प्राप्त नहीं होगी । केवल मानसिक चिंतन ही महज समाधि की अवस्था पर नहीं पहुंचाएगी . जिस समाधि में पहुंचकर पिण्ड में उतार होने पर भी सहज समाधि लगी रहती है , उस समाधि में मन नहीं पहुँचता । वहाँ कंवल चेतनधारा की  गति है । एकबार भी इस समाधि की प्राप्ति होने पर इस समाधिवाले को समाधि में प्राप्त सार पदार्थ ( शब्द निरन्तर कभी छूटता नहीं है । यद्यपि यह विषय सम्पूर्णत : वचन में आने योग्य नहीं है , तथापि देश में फैले हुए सहज समाधि के भ्रामकविचारों को कुछ - न - कुछ कहकर दूर करना आवश्यक है इसीलिए इस विषय पर यह थोड़ी - सी बात कही गई । 

     पुन कह देना चाहता हूँ कि यह अन्तिम बात है आदि की नहीं । आदि में तो है गुर की मूरति मन महि धिआनु । गुर के शयदि मंत्र मनु मानु ( गुरु नानक साहब ..मूल ध्यान गुरु रूप है , मूल पूजा गुरु पाँव । मूल नाम गुरु वचन है , मूल सत्य सतभाव ॥ ( संत कबीर साहब) और सूक्ष्म ध्यान है नैनों की करि कोठरी , पुतली पलंग विधाय ॥ पलकों की चिक डारि के , पिय को लिया रिझायगगन मंडल के बीच में , तहयां झलके नर । निगुरा महल न पावई , पहुंचंगा गुरु पूर ॥ कबीर कमल प्रकाशिया ऊगा निर्मल सूर । रेन अंधेरी मिटि गई , याजै अनहद तूर ।। 

     इन वाणियों में उनका ध्यान स्पष्ट मालूम होता है । कबीर साहब के पद्य में ' प्रथमहिं सुरत जमावं तिल पर ' पहले कहा जा चुका है और अब ' मूल ध्यान गुरु रूप है ' कहा गया । इसमें लोग भ्रम में आ सकते हैं और जिज्ञासा कर सकते हैं कि अभ्यास के आगम में गुरु रूप का ध्यान होना चाहिए अथवा तिल पर सुरत जमाना चाहिए । इसके लिए जानना चाहिए कि गुरु - रूप का ध्यान स्थूल और मानस ध्यान है . और तिल पर सुरत जमाने का ध्यान सूक्ष्म है और मन से विन्दु या तिल ( इसकी युक्ति भेदी अभ्यासी गुरु से जानी जा सकती है । ) बनाकर देखना नही है । अभ्यास के आरम्भ में स्थूल से ही आरम्भ करना स्वभावानुकूल है । इससे दृष्टि और मन का सिमटाव स्थूल मूर्ति को मनोमय बनाकर मन और दृष्टि को उसपर रखने से मन और दृष्टि का जितना सिमटाव होता है , उससे तिल या विन्दु वा सूक्ष्म ध्यान के आरम्भिक अभ्यास करने की योग्यता अभ्यासी को होती हैजैसे मोटे - मोटे अक्षरों का लिखना सीखकर बारीक बारीक अक्षरों के लिखने की योग्यता होती है । इसलिए अभ्यास के आरम्भ में गुरु - रूप का स्थूल ध्यान कहा गया है और सूक्ष्म ध्यान के आरम्भ के लिए तिल वा विन्दु - ध्यान कहा गया है । यह सन्तमत परम आस्तिक मत है । इसमें सगुण रूप का ध्यान भी है और निर्गुण स्वरूप की भक्ति भी है । अभ्यासी गुरु के बिन लोग गड़बड़ में पड़े रहते हैं । अभ्यासी गुरु हो , अपने अभ्यास करे , तब संतमत ठीक - ठीक समझ में आता है । इसमें परहेज है - पंच पापों झूठ , चोरी , नशा , हिंसा और व्यभिचार ) से बचो । इन पंच पापों से अपने का बचाने के लिए कोशिश करो । ईश्वर से प्रार्थना करो और अभ्यास करो । संतलोग यही कहते हैं कि तुम्हारा कल्याण हो । साथ ही जो संत चताते हैं , वह करो । यही संतमत है ।


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S95, (ख) संतमत और कबीर वाणी में सहज समाधि और भक्ति-भेद पर विशेष ।। महर्षि मेंहीं अमृतवाणी ।। अपराह्न S95, (ख)  संतमत और कबीर वाणी में सहज समाधि और भक्ति-भेद पर विशेष ।। महर्षि मेंहीं अमृतवाणी ।। अपराह्न Reviewed by सत्संग ध्यान on 5/09/2018 Rating: 5

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