S03 (क) Importance of food donation || अन्न दान का महत्व || दि.24-12-1950 ई. का प्रवचन A

महर्षि मेँहीँ  सत्संग सुधा सागर / 03

     प्रभु प्रेमियों ! संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेँहीँ  परमहंस जी महाराज के हिंदी प्रवचन संग्रह "महर्षि मेँहीँ सत्संग सुधा सागर" के दो प्रवचनों के पाठ से हम लोगों ने जाना कि-- मानव जीवन का परम लक्ष्य ईश्वर की प्राप्ति है और ईश्वर की प्राप्ति के लिए ध्यानाभ्यास करना जरूरी हैध्यानाभ्यास में सफलता पाने के लिए इस प्रवचन में खानपान के महत्व और अन्नदान के महत्व के बारे में चर्चा किया गया है। इसके साथ ही हमें संसार में किस तरह रहना चाहिए? परमात्मा की प्राप्ति के लिए क्या-क्या परहेज करना चाहिए? आदि विषयों पर भी प्रकाश डाला गया है। इन बातों को जानने-समझने के पहले, आइए !  संत सदगुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज का दर्शन करें।  

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संतमत सत्संग में दान का महत्व और खानपान की व्यवस्था पर चर्चा करते सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज
अन्नदान और खानपान पर चर्चा करते गुरुदेव

संतमत सत्संग में अन्नदान और खानपान का महत्व

      प्रभु प्रेमियों ! सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज अपने इस प्रवचन, ( उपदेश, अमृतवाणी, वचनामृत, सत्संग सुधा, संतवाणी, गुरु वचन, उपदेशामृत, ज्ञान कथा, भागवत वाणी, संतवचन, संतवचन-सुधा, संतवचनामृत, प्रवचन पीयूष ) में  राजा श्वेत की कथा कहते हुए बताते हैं कि उन्होंने अपने जीवन में अन्न का दान नहीं किया था जिसके कारण से ब्रह्म लोक में जाकर भी उनको भूख सताती थी और ध्यान अभ्यास में सफलता पाने के लिए मनुष्य को किस तरह से रहना चाहिए? कैसा भोजन करना चाहिए ? किन बातों से परहेज करना चाहिए? इन बातों पर चर्चा करते हुए गुरु महाराज निम्नलिखित प्रश्नों के भी समाधान बताएं है जैसे कि--    1. सत्संग में क्या सिखाया जाता है? हमलोगों को सत्संग क्यों करना चाहिए?   2. ईश्वर कैसा है? ईश्वर-स्वरूप को क्यों जानना चाहिए?   3. माया क्या है? ईश्वर को कौन जान सकता है?  4. मनुष्य शरीर का सर्वोत्तम उपयोग क्या है?   5. राजा श्वेत  की कथा। दान का महत्व।  दान क्यों करना चाहिए?   6. स्वर्ग का सुख कैसा है? शांतिदायक  सुख कहां प्राप्त होगा?   7. ईश्वर की पहचान क्या है? संसार का सुख कैसा है?  कबीर साहब के अनुसार आनंद-ही-आनंद कहां मिलता है?   8. ध्यान में क्या देखते हैं? ध्यान का शब्द कैसा होता है? ईश्वर प्राप्ति के लिए बिंदु और शब्द का क्या महत्व है?  9. हमें संसार में किस तरह रहना चाहिए? परमात्मा की प्राप्ति के लिए क्या-क्या परहेज करना चाहिए? व्यभिचारी किसे कहते हैं?   10. नशा क्यों नहीं करना चाहिए?   11. वार्य और अनिवार्य हिंसा क्या है?   12. मांस क्यों नहीं खाना चाहिए?   13. साधना आशा और दृढ विश्वास के साथ करने से शक्ति अवश्य प्राप्त होती है । इत्यादि इन बातों को अच्छी तरह समझने के लिए निम्नलिखित प्रवचन को मनोयोग पूर्वक पूरा पढ़ें-

                     ३. ब्रह्मलोक में भी दुःख है।

Santmat ki upyogita par pravachan karte sadguru Maharshi Mehi paramhans Ji Maharaj

 

प्यारे धर्मानुरागी भाइयो !

प्रवचन करते गुरुदेव महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज
सदगुरु महर्षि मेँहीँ
   1हमलोग संतमत का सत्संग करते हैं । यह सत्संग हमलोगों को ईश्वर की भक्ति सिखलाता है । ईश्वर की भक्ति से सब दुःख दूर हो जाएंगे । इसी आशा को लेकर हमलोग सत्संग करते हैं । साथ ही अगर सत्संग के ख्याल के मुताबिक रहेंगे तो शातिपूर्वक रहेंगे । शातिपूर्वक रहने का नमूना ठीक - ठीक प्रत्यक्ष उनलोगों को होता है , जो मन बनाकर सत्संग के अनुकूल रहते हैं । इसी जन्म में मोक्ष प्राप्त कर लें और अगर मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकें तो फिर दूसरे जन्म में काम को खतम करें ; इसीलिए सत्संग है । इहलोक - परलोक दोनों को सुधारने के लिए हम सत्संग करते हैं तथा लोगों को भी करने के लिए कहते हैं । इसी ईश्वर - भक्ति के संबंध में थोड़ा - सा कहूँगा , जैसी मेरी शिक्षा है , जैसा मैं जानता हूँ ।

प्रसन्न मुद्रा में गुरुदेव महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज
गुरुदेव बाबा
      2. पहली बात यह है कि ईश्वर - स्वरूप को जानें कि वह कैसा है ? प्राप्तव्य वस्तु की जानकारी होनी चाहिए । जो आप इन्द्रिय से जान सकें , वह परमात्मा नहीं । तुलसीकृत रामायण में ईश्वर - स्वरूप जानने के लिए लक्ष्मण से रामजी कहते हैं- 

गो गोचर जहँ लगिमन जाई । सो सब माया जानहु भाई ।।    

     3. इन्द्रियों को जो प्रत्यक्ष हो और जहाँ तक मन जाय , सब माया है । ईश्वर स्वरूप इससे बहुत आगे है । इन्द्रियगम्य जो कुछ भी है , वह मायिक पदार्थ है । ईश्वर आत्मगम्य है । जिसे केवल आत्मा से ही पहचान सकते हैं , वह ईश्वर है । जो इन्द्रियों से जानते हैं , वह ईश्वर नहीं है । श्री राम उपदेश करते हैं-

    एहि तन कर फल विषय न भाई । 
                                     स्वर्गउ स्वल्प अन्त दुखदाई ।।'

     4. नर-तन का यह फल नहीं है कि विषयानुरागी बनो । स्वर्ग का विषय भी ओछा है और अंत में दुःख देता है । विषय उसे कहते हैं , जिसे इन्द्रियों से जानते हैं ; इसके पाँच प्रकार हैं - रूप , रस , गंध , स्पर्श और शब्द । स्पर्श त्वचा से , शब्द कान से , रस जिभ्या से , गंध नाक से और रूप नेत्र से ; इनके अतिरिक्त संसार में कुछ जानने में नहीं आता । कोई भी पदार्थ हो – कठिन ( ठोस ) , तरल , वाष्पीय ; लेकिन पंच विषयों में से कोई एक अवश्य है । पुराण में स्वर्ग के लिए जाना जाता है कि इन्द्रियों के विषय वहाँ भी भोगते हैं ; चाहे कितने ऊँचे दर्जे का स्वर्ग क्यों न हो । 

सिंघासना रूढ़ सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज
गुरु भगवान

     5. राजा श्वेत ब्रह्मलोक गए । उन्होंने दान नहीं किया था , फलस्वरूप उनको ब्रह्मलोक में भूख-प्यास सताने लगी । तब उन्होंने ब्रह्माजी को कहा । ब्रह्माजी ने कहा - ' यहाँ खाने का सामान है ही नहीं । आपने कभी दान नहीं किया , उसका ही फल है कि यहाँ आपको भूख - प्यास सता रही है । इसलिए आप अमुक सरोवर में जाएँ , वहाँ आपका मृत शरीर सुरक्षित है , उसी का भोजन करें । ' राजा श्वेत ने पूछा - ' महाराज ! यह भोग मुझे कबतक भोगना पड़ेगा ? ' ब्रह्माजी ने कहा - ' जब आपको अगस्त्य मुनि के दर्शन होंगे और उनका आशीर्वाद आपको मिलेगा , तो आप इस कष्ट मुक्त हो जाएंगे ।

    राजा श्वेत लाचारी नितप्रति उक्त सरोवर जाते और अपने मृत शरीर का मांस खाकर भूख बुझाते । संयोगवश वहाँ अगस्त्य मुनि पहुँचे । उन्होंने देखा कि दिव्य शरीर है , लेकिन मृतशरीर का मांस खा रहे हैं तो उनसे पूछा - ' आप कौन हैं ? ' राजा श्वेत ने अपना परिचय दिया और आशीर्वाद मांगा , तब वे उस भोग से मुक्त हुए ।

 

कर्मफल के अनुसार डंडा विधान का चित्र
कर्मफल चित्र
   6. ब्रह्मलोक जाकर भी भूख - प्यास सताती है । इसीलिए कहा - 'स्वर्गउ स्वल्प अंत दुखदाई ।" वहाँ भी जबतक पुण्य है , तभी तक रहो , फिर मृत्युलोक आओ । इससे यह जाना गया कि जैसे विषय यहाँ है , वैसे ही वहाँ भी । यह विशेष बात है । इसी का विचार कीजिए , नित्यानित्य विचारिए । वहाँ पर क्या सुख ? इन्द्रियगम्य पदार्थ का ग्रहण करना । जो इन्द्रियों के ज्ञान से ऊपर है , वह है ईश्वर - ज्ञान । चाहे भीतर की या बाहर की इन्द्रिय से जो आप जानते हैं , सो माया है ।

     7. न्द्रियों का संग छोड़कर जो आप जानें , वही परमात्मा ईश्वर है । उसकी भक्ति करें , उसका भक्त बनें , उसको प्राप्त करें फिर सुख की कमी क्या ? यहाँ का सुख थोड़ा तथा अंग - अंग में दुःख है । रूप , रस , गंध , स्पर्श और शब्द का सुख प्राप्त करने के लिए कमाई और परिश्रम कीजिए , कितना करना पड़ता है ? कितना दुःख है ! फिर भी एक ही दिन की कमाई से काम नहीं चलता है । संतोष नहीं होता । परमात्मा को  जिन लोगों ने प्राप्त किया , उन्होंने कहा- यही सुख है । जबतक प्राप्त नहीं हो , परिश्रम करें । भक्ति करने के अभ्यास में आनंद मिलता है ।

भजन में होत आनंद आनंद । 
बरसत विसद अमी के वादर , भीजत है कोइ संत ।। 
अगर बास जहं तत  की  नदिया,  मानो  धारा  गंग । 
करि असनान मगन होइ बैठी , चढ़त  शब्द कै रंग ।। 
रोम रोम जाके अमृत भीना ,   पारस  परसत  अंग । 
शब्द गह्यो जिव संसय नाही, साहिब भयो तेरे संग ।। 
सोइ सार रच्यो मेरे साहिब,  जहँ   नहिं  माया  अहं । 
कहै कबीर सुनो  भाइ  साधो ,  जपो   सोहं   सोहं ।।

ध्यान मुद्रा में सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज
 सदगुरुदेव

     8. अगर=चन्दन । शब्द का रंग चढ़े तो क्या होगा? साहिब भये तेरे संग । संग में हई है , जबसे हम नहीं जानते , तबसे ही । किंतु शब्द को पकड़ लेने से प्रत्यक्ष हो जाएगा । बिना शब्द गहे प्रत्यक्षता हो जाएगा। बिना शब्द गहे प्रत्यक्षता हो जायगी? नहीं होगी । ध्यानविन्दूपनिषद् में है--

     बीजाक्षरं परं विन्दुं नादं तस्योपरि स्थितम् । 
     सशब्दं चाक्षरे क्षीणे  नि:शब्दं परमं पदम् ।।

    अक्षर का बीज विन्दु है । पेन्सिल या कलम रखो , पहले विन्दु ही बनता है । लकीर बनाते हैं , वह विन्दुमय है । आपलोगों ने जो ध्यानविन्दूपनिषद् के पाठ में सुना , वही परम विन्दु है । यहाँ आपलोगों ने सुना--

 ' विन्दु ध्यान विधि , नाद ध्यान विधि , सरल सरल जग में परचारी ।' 

     विन्दु इतना छोटा होता है कि उसका विभाग नहीं हो सकता । बहुत छोटा है , इसीलिए इसे विन्दु नहीं कहकर परम विन्दु कहा । संसार में लोग चिह्न करके विन्दु मानते हैं । लेकिन उसकी परिभाषा के अनुकूल बाहर में विन्दु नहीं बना सकते । इस परम विन्दु को प्राप्त करने से शब्द मिलता है । फिर शब्द का भी जहाँ लय हो जाता है , वह ' निःशब्दं परमं पदम् ' है । अंतस्साधना करते - करते आनंद आने लगेगा । मलयागिरि का सुगंध मालूम होगा तथा शब्द का रंग चढ़ जाएगा । तब हो जाएगा - 

साहिब भयो तेरे संग । ' ( कबीर ) 

     कोई कहे शब्दातीत परम पद है और यहाँ शब्द को ही परम पद बना दिया , ऐसा क्यों ? इसके उत्तर में कहा जा सकता है , गुरु नानकदेव ने कहा है -

'ना तिसु रूप बरनु नहि रेखिआ , साचे शबदि नीसाणु ।

गुरुदेव की सेवा में गुरु सेवी भगीरथ बाबा
प्रवचन के बाद गुरुदेव

     शब्द ही सही चिह्न है । देवता को प्रसन्न करने के लिए देवताओं की प्रतिमा पूजते हैं ; उसी प्रकार यह शब्द भी परमात्मा है । प्रतिमा पूजते हैं तथा उसे ठाकुरजी कहते हैं । उसी प्रकार यह शब्द भी परमात्मा है । शब्द अपने उद्गम स्थान पर पहुँचाता है । घोर अँधेरी रात में जहाँ से शब्द आता है , वहाँ चलते-चलते पहुँच जाय , असम्भव नहीं । जो कोई विन्दु को ग्रहण करेगा , वह शब्द को ग्रहण कर लेगा । जहाँ से इस शब्द का विकास हुआ है , वहाँ पहुँचा देगा । इसलिए मन बुद्धि आदि इन्द्रियों से आगे बढ़कर शब्द को पकड़ने की कोशिश करें । आँख , कान ; सब मोटी - मोटी इन्द्रियाँ हैं । इसमें सूक्ष्म रूप से जो चेतनवृत्ति है , उसके अंदर रहने के कारण सूक्ष्म इन्द्रियाँ हैं । यह वृत्ति आँख में आई तो देखने की शक्ति दृष्टि हुई । जो स्थूल में लिपट कर रहेगा तो सूक्ष्म में क्या उठ सकता है ? इन सब पदार्थों को लें तो वह विन्दुमय है । परमात्मा की कृपा , गुरु की दया हो , विन्दु पर अपने को रख सकें तो पूर्ण सिमटाव होगा । सिमटाव का फल ऊर्ध्वगति होगी । कठिन या तरल किसी पदार्थ को समेटिए ऊर्ध्वगति होगी । जहाँ मन का समेट है , स्थूल में सिमटने पर सूक्ष्म में प्रवेश होगा । इसके शौकीन को बाबा नानक की बात याद रहे-

     सूचै     भाड़ै   साचु   समावै   विरले     सूचाचारी । 
     तंतै कउ परम तंतु मिलाइआ नानक सरणि तुमारी ।।

     9. वित्र बर्तन में सत्य अँटता है । हमारा अंत : करण शुद्ध होना चाहिए । इसके लिए संयम तथा परहेज करें । अपने को काम क्रोध से बचाकर रखें । बाहर में पाप कर्म नहीं करें । जिस कर्म को करने से अधोगति हो , उसे पाप कहते हैं । पाप - झूठ , चोरी , नशा , हिंसा और व्यभिचार नहीं करें , तब ईश्वर की ओर जाएंगे । इस पर संशय उठेगा कि क्या यहाँ ईश्वर नहीं है ? इसका उत्तर गो ० तुलसीदासजी ने लिखा है- 

अग जग मय सब सहित विरागी ।

     यहाँ हम नहीं पहचानते हैं , इसलिए हम जहाँ जाकर पहचानेंगे , वहाँ जाएँगे । प्रत्यक्ष वहाँ पाएँगे , जहाँ जाएँगे । उसको प्राप्त करने के लिए अभ्यास करना तथा परहेज करना ; इतनी बातों को जानें । इससे विशेष जानें तो और अच्छा । यह बहुत दृढ़ है कि कोई बिना संयम किए प्राप्त करना चाहे तो ' भूमि पड़ा चह छुवन आकाशा ' वाली बात है । संयमी होने पर संसार में भी सुखी रहता है । वह फजूल खर्च नहीं करता है । उसके पास धन भी जमा हो जाता है । संयमी आदमी बहुत रोग में नहीं पड़ते । धन एकत्रित होने के कारण और पापविहीन होने के कारण लोगों की नजर में वे श्रेष्ठ देखने में आते हैं तथा अंत में परमात्मा को प्राप्त कर लेते हैं । पुरुष को स्त्री का और स्त्री को पुरुष का संग करना पड़ता है । इसके लिए वैवाहिक विधान है । विवाह करने से व्यभिचार नहीं होगा । शास्त्र के नियम छोड़कर अथवा विवाह नहीं होने पर जो संग है , वह व्यभिचार है ।

सिंघासना रूढ़ गुरुदेव महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज
गुरु महाराज

     10. तम्बाकू , बीड़ी , सिगरेट , खैनी - नशा है । दाँत खराब , थू थू करने की आदत , ऐसी चीज क्यों खाते हो ? बच्चे थे , तब इसकी आदत नहीं थी , बड़े होकर लगाया तो आदत लग गई । अब रास्ते चलते नशा करते हैं । तम्बाकू संसार में क्यों हुआ ? औषधि के लिए हुआ । तम्बाकू की गद्दी में साँप ठहर नहीं सकता । साँप के मुँह में खैनी देने से वह मर जाता है । चावल को धोकर खाते हैं , किंतु खैनी को क्या करते हैं ? यह अपवित्र तथा नशा भी है । हमारे सत्संग में यह कहा जाता है कि ताड़ी को कौन कहे , तम्बाकू तक मत लो । 

'भाँग तमाखू छूतरा , अफयूँ और सराब । 
कह कबीर इनको तजै, तव पावै दीदार ।। ''  
       'मद तो बहुतक भाँति का , ताहि   न  जाने कोय । 
        तन मद मन मद जाति मद , माया मद सब लोय ।। 
विद्या मद और गुनहु मद , राज मद्द उनमद्द । 
इतने मद को रद  करै ,  तब  पावै   अनहद ॥ ' 
                                                       -संत कबीर साहब

     11. छुतिया= छू जानेवाली चीज । लोग कहते  हैं बिना हिंसा किए कैसे रह सकते हैं ? एक हिंसा वार्य तथा दूसरा अनिवार्य होता है । वार्य से बच सकते हैं , किंतु अनिवार्य से नहीं बच सकते हैं शरीर खुजलाने पर भी शरीर के कीड़े मरते हैं । जल पीने , हवा लेने में भी हिंसा है । इसको रोकने की कोई विधि नहीं है । यह अनिवार्य हिंसा है । खेती करने , घर बुहारने , आग जलाने आदि में भी हिंसा है , किंतु अनिवार्य है । इसका प्रायश्चित अतिथि - सत्कार और परोपकार से करो । राजा के लिए युद्ध अनिवार्य है । गृहस्थ के लिए घर बनाना , खेती करना अनिवार्य हिंसा है । जान - बुझकर स्वार्थ के लिए जो हिंसा होती है , वह वार्य हिंसा होती है , इसे त्यागना चाहिए । मांस - मछली भी छोड़ो , खाओ मत । मनुस्मृति में आठ आदमी को पाप लिखा है । भूपेन्द्रनाथ सान्याल ने कहा है 

अष्ट कुलाचल सप्त समुद्रा ब्रह्म पुरन्दर दिनकर रूद्रा । 
न त्वं नाहं नायं  लोकस्तदपि  किमर्थ  क्रियते  शोकः ।।

     12. हमारे देह जो परमाणु है जलचर , नभचर आदि में जो परमाणु है एक नहीं । हमलोगों के शरीर में मानुषिक परमाणु है तथा उनमें पाशविक परमाणु है। मनुष्य शरीर में पशु शरीर का परमाणु रखना उचित नहीं । मानसिक हिंसा भी छोड़ो । ईश्वर पर विश्वास करो , उसकी प्राप्ति अपने अंदर में होगी । तब बाहरि भीतरि एको जानहु इहु गुर गिआन बताई । ' ऐसा ध्यानाभ्यास से होगा । 

गुरु महाराज कबीर साहेब
संत कबीर साहेब
सबकी दृष्टि पड़े अविनाशी 
                          बिरला संत पिछाने ।
कहै कबीर यह भ्रम किबारी 
                            जो खोले सो जाने ।। 

     सत्संग करो , ध्यानाभ्यास करो ; यह अंतर का सत्संग है और गुरु की सेवा करो ।

तेल तुल पावक पुट भरिधरि , बनै न दिया प्रकाशत । 
कहत बनाय  दीप  की  बातें ,   कैसे हो   तमनाशत ।। 
                                                            --संत सूरदास जी

    13. साधना करते - करते करने की शक्ति प्राप्त होगी , तब मालूम होगा कि पहले से कुछ बदल गए । अन्यथा , हनोज रोज अब्बल - अब भी पहला ही दिन है । बाबा साहब से एक सत्संगी ने कहा था जिसका नाम रंगलाल था ।

     पानी बहुत दूर में है । मानो हजार हाथ नीचे है । हजार हाथ की रस्सी लगेगी , पानी खींचने के लिए बाल्टी भी चाहिए । रस्सी कुएँ में गिराकर केवल छोर पकड़े रहते हैं फिर पानी निकालकर पीते हैं । अगर छोर छूट जाय तो पानी नहीं पी सकते हैं । उसी प्रकार भजन तथा आशा की छोर पकड़े रहो , कल्याण होगा । आशा कभी मत छोड़ो । 

            आशा से मत डोल रे तोको पीव मिलेंगे ।०



नोट-    हेडलाइन की चर्चा,   सत्संग,   ध्यान,   सद्गगुरु
  ईश्वर,   अध्यात्मिक विचार   एवं   अन्य विचार   विषयों से संबंधित बातें उपर्युक्त लेख में उपर्युक्त विषयों के रंगानुसार रंग में रंगे है।
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इसी प्रवचन को "शांति-संदेश* तथा 'महर्षि मेँहीँ सत्संग-सुधा-सागर' ग्रंथ में भी प्रकाशित किया गया है। इसे उसी प्रकाशित रूप में पढ़ने के लिए लिए  👉   यहां दबाएं।


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सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज के विविध विषयों पर विभिन्न स्थानों में दिए गए प्रवचनों का संग्रहनीय ग्रंथ महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा सागर
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S03 (क) Importance of food donation || अन्न दान का महत्व || दि.24-12-1950 ई. का प्रवचन A S03 (क)  Importance of food donation || अन्न दान का महत्व  || दि.24-12-1950 ई. का प्रवचन A Reviewed by सत्संग ध्यान on 7/05/2018 Rating: 5

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