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S04, (क) Bhagavaan ka Nirgun Svaroop kaisa hai? । महर्षि मेंहीं प्रवचन । 25-12-1950ई.

महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर / 04 
प्रभु प्रेमियों ! सत्संग ध्यान के इस प्रवचन सीरीज में आपका स्वागत है। आइए आज जानते हैं- संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज के हिंदी प्रवचन संग्रह "महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर" के इस प्रवचन में  निर्गुण भक्ति क्या है, सगुण का अर्थ, निर्गुण की परिभाषा, ईश्वर भक्ति से ही मोक्ष की प्राप्ति होगी? आदि बातों की विस्तार से जानकारी दी गई है। इन बातों को जानने-समझने के पहले, आइए !  संत सदगुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज का दर्शन करें।  

इस प्रवचन के पहले वाले प्रवचन S03, को पढ़ने के लिए   
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निर्गुण और सगुण भक्ति में श्रेष्ठ भक्ति बिंदु ध्यान से मोक्ष प्राप्ति के संबंध में उपदेश करते सद्गुरु महर्षि मेंहीं ।
निर्गुण भक्ति में श्रेष्ठ बिंदु ध्यान पर प्रवचन करते गुरुदेव

भगवान का निर्गुण स्वरूप कैसा है? What is the nature of God?

सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज इस प्रवचन, उपदेश, अमृतवाणी, वचनामृत, सत्संग सुधा, संतवाणी, गुरु वचन, उपदेशामृत, ज्ञान कथा, भागवत वाणी, संतवचन, संतवचन-सुधा, संतवचनामृत, प्रवचन पीयूष  में कहते हैं - ज्ञानमार्गी कौन है? भक्त किसे कहते हैं? अनलहक का क्या मतलब है? भक्त इष्ट के निर्गुण सगुण दोनों रूपों का क्यों मानते हैं? सगुण किसे कहते हैं? भगवान का निर्गुण स्वरूप कैसा है? भक्त सूरदास जी भगवान के निर्गुण स्वरूप को कैसा बताते हैं? भक्ति भाव के चर्चा से विशेष लाभ किसमें है? अंतर साधन से विशेष लाभ क्यों होता है? संतुष्टि कैसे मिलती है? साधन करने से चैन मिलता है इसका प्रत्यक्ष नमूना क्या है? भक्ति करना किसे कहते हैं ? भक्ति क्या है? बिना अंग के संग कैसे होता है? मौलाना रूम साधना के बारे में क्या कहते हैं? अंदर में प्रकाश कैसे होता है? प्रकाश देखने का रास्ता कहां है? देखना सुनना कहां जाकर बंद हो जाता है? इत्यादि बातों  के बारे में। इसके साथ-ही-साथ निम्नलिखित प्रश्नों के भी कुछ-न-कुछ समाधान इसमें मिलेगा। जैसे कि- ज्ञानमार्गी शाखा के कवि हैं, ज्ञानमार्गी शाखा के प्रमुख कवि कौन हैं, ज्ञानाश्रयी शाखा के प्रमुख कवि कौन है, सगुण भक्ति धारा के कवि कौन है, ज्ञानमार्गी शाखा की विशेषता, ज्ञानमार्गी शाखा की प्रवृत्तियां स्पष्ट कीजिए, रामभक्ति शाखा के कवि, निर्गुण प्रेमाश्रयी धारा, निर्गुण और सगुण भक्ति में अंतर, सगुण और निर्गुण क्या है, भक्ति काल की चार विशेषताएं, सगुण भक्ति काव्य की विशेषता, निर्गुण भक्ति क्या है, सगुण भक्ति श्रेष्ठ का, इत्यादि बातें। इन बातों को अच्छी तरह समझने के लिए निम्नलिखित प्रवचन को मनोयोग पूर्वक पूरा पढ़ें-


                  ४. अन्तर में डूबने से चैन

भगवान के निर्गुण सर्गुन स्वरूप पर चर्चा करते सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज

प्यारे लोगो !

     जो ' अहं ब्रह्मास्मि ' , ' अनलहक '  ' ; ऐसे शब्दों की पुकार करते हैं , उन्हें मैं ज्ञानमार्गी कहता हूँ । जो कहते हैं - प्रभु हम तुमसे मिलना चाहते हैं , प्रभु के लिए पुकार लगाते हैं , मैं उन्हें भक्त कहता हूँ । ज्ञानमार्ग और भक्तिमार्ग को मैंने ऐसा ही समझा है ।

    कुछ लोग निर्गुण उपासक को ज्ञानी तथा सगुण के स्थूल उपासक को भक्त कहते हैं । जो जिसकी भक्ति करता है , उसे वह अपना प्रभु मानता है , चाहे अपने इष्टदेव को निर्गुण नहीं माने , सगुण ही माने । सगुण के माननेवाले संत निर्गुण नहीं मानते थे ऐसा नहीं ; निर्गुण भी मानते थे । गोस्वामी तुलसीदासजी ने लिखा है- 

हिय निर्गुण नयनन्हि सगुण रसना राम सुनाम ।

     उनके हृदय में निर्गुण भरा था । तुलसीदासजी , सूरदासजी एवं कबीर साहब की वाणी में एक ही बात झलकती है । 

' संतो आवै जाय सो माया । है प्रतिपाल काल नहिं वाके , ना कहुँ गया न आया । ' ' दस अवतार ईश्वरी माया कर्ता कै जिन पूजा । कहै कबीर सुनो हो संतो , उपजै खपै सो दूजा ।। ' -संत कबीर साहब
    
 रामचरितमानस में है 

' निर्गुन रूप सुलभ अति , सगुन जान नहिं कोइ । सुगम अगम नाना चरित , सुनि मुनि मन भ्रम होइ ॥ ' ' भगत हेतु भगवान प्रभु , रामधरेहु तनु भूप । किये चरित पावन परम , प्राकृत नर अनुरूप ।। ' -गोस्वामी तुलसीदास ।

 गुरु साहब तो एक है , दूजा साहब आकार । आपा मेटै गुरु मिले , तो पावै करतार ।। -कबीर साहब

    अवतारी राम को जिस गद्दी पर तुलसीदासजी ने बिठाया , उसी गद्दी पर गुरु को संत कबीर साहब ने बिठाया । तुलसीदासजी के हृदय में निर्गुण भरा है , किंतु अपने - अपने कहने का ढंग है । सगुण का अर्थ है गुण सहित , गुण को धारण करनेवाला । जिसने त्रयगुण को धारण किया है , उसे सगुण कहते हैं । जो निर्गुण ही निर्गुण मानते हैं , किंतु गुरुचरण में नबते हैं तो वे सगुण को भी मानते हैं । 

लीलासगुन जोकहहिं बखानी । सोइस्वच्छता करइ मल हानी ।। रघुपति महिमा अगुन अबाधा । बरनव सोइ बर बारि अगाधा ।। -रामचरितमानस , बालकाण्ड

    रामचरितमानस में सगुण सरिता जल है , निर्गुण उसकी गंभीरता है । जो गंभीरता है उसका महत्व विशेष है । सगुण मिठास है । मीठा खाने में लोगों को अच्छा लगता है , किंतु मीठा खाने से बीमारी भी होती है । निर्गुण तीता नीम - सा है । 
अविगत गति कछु कहतन आवै । ज्यों गूंगहिं मीठे फल को रस , अन्तरगत ही भावै ।। परम स्वाद सबही जू निरन्तर , अमित तोष उपजावै । मन वाणी को अगम अगोचर , सो जानै जो पावै ।। रूपरेख गुन जाति जुगुति बिनु , निरालंब मन चकृत धावै । सब विधिअगमविचारहितात , ' सूर सगुनलीला पदगावै ।। 

    अविगत=सर्वव्यापी । निरालंब होने के कारण मन उसे ग्रहण नहीं कर पाता है । चक्कर काटता रहता है । मन - बुद्धि के परे जानकर सूरदासजी सगुण लीला पद गाते हैं । जिसने उसे पाया है , मन वाणी से आगे जाकर पाया है । 

तापर अकह लोक है भाई । पुरुष अनामी तहाँरहाई ।। जे पहुँचे जानेगा साँई । कहन सुनन ते न्यारा है । -राधास्वामी साहब 

    जब ' गुरु की मूरति मन महि ध्यानु ' कहते हैं , तब कहाँ निर्गुण रहता है , सगुण हो जाता है । फिर जब ' अलख अपार अगम अगोचर ' कहते हैं तो निर्गुण हो जाता है। निर्गुण - सगुण किसी की पकड़ संतों ने नहीं छोड़ी । जाते - जाते वे अंत तक चले जाते संतों की वाणी में अंतस्साधना विषय पर विशेष जोर है । सगुण - निर्गुण , द्वैत - अद्वैत , त्रैत कुछ मानिये ; खूब वर्णन कीजिए हाथ में कुछ नहीं आएगा । अंतर में गोता लगाओ , तब पाओगे । जहाँ तक गति है वहाँ तक चले जाओ , तब जो पाओ सो असली है । तब सगुण - निर्गुण क्या है , द्वैत - अद्वैत क्या है - प्रत्यक्ष हो जाएगा । इस मतलब का विचार सुनें । जिस विचार को लोग विशेष सुनते हैं , उसको करने का मन होता है । संतलोग संतवाणी कहकर ध्यान करने के लिए प्रेरणा करते हैं । संत तुलसी साहब कहते हैं 

सखी सीख सुनि गुनिगाँठि बांधौ , ठाठ ठठ सत्संग करो ।
   
    सत्संग बहुत करें । इससे मिलता क्या है ? प्रतिष्ठा से ऊँचे आसन से बैठते हैं । बड़े लोगों से मेल है । यह बाहर में देखे जाते हैं , किंतु संतुष्टि नहीं । संतुष्टि जिसमें है वह यह बात है कि संसार में छोटे होकर रहे , लेकिन आप बाहरी चीज में चंचल नहीं होवें । अपने को इतना समेटें कि एकविन्दुता प्राप्त कर लें । मन जमा हुआ रहे । उस समय आप कितना संतुष्ट होंगे , ठिकाना नहीं । यदि मिठास मालूम नहीं हो तो भी थोड़े - से - थोड़े काल ध्यान कीजिए तो उसका मिठास मालूम होगा । अंतर में डूबनेवाले को जो चैन मिलता है , बाहर में भटकनेवाले को नहीं । इसके लिए परमात्मा ने एक नमूना आपके अंदर दिया है , किंतु आप उसपर विचारते नहीं हैं । 

    तन्द्रा के समय में ( स्वन जाग्रत के बीच में ) हाथ - पैर में कमजोरी होती जाती है , चैन मालूम होता है । भीतर प्रवेश करते जाते हैं । अगर कोई थोड़ा - सा भी खट - खुट करे तो बड़ा दुःख मालूम होता है । इसको कौन सुख कहें ? पाँच इन्द्रियों में जो सुख - रस मिलता है वैसा है या कैसा है ? इसे भी तो नहीं बोल सकते । इससे जाना जाता है , अंतर में डूबने से चैन मिलता है । अंतर में डूबते - डूबते जब अतिम गति तक पहुँचोगे , तो किसी से पूछना नहीं पड़ेगा कि क्या है ? सत्संग में खास करके यह बात बताई जाती है कि अंदर में डूबते जाओ । यात्री बनो , जैसे जगन्नाथ के यात्री चलते हैं । यह भक्ति है । इसी तरह से अपने अंदर में डूबो ।

     संतलोग कहते हैं- हाथ - पैर को मत डुलाओ , मन को अंतर में चलाओ । मन चलते - चलते फिर आप चलेंगे । पहले मन साथ - साथ आप चलेंगे जैसे दूध में घी रहता है । 

सहस कँवल दल पार में , मन बुद्धि हिराना हो । प्राण पुरुष आगे चले , सोइ करत बखाना हो ।। -तुलसी साहब

फिर मन से छूटकर आप स्वयं चलेंगे , यह पराभक्ति है।

श्रवण बिना धुनि सुने , नयन बिनु रूप निहारै । रसना बिनु उच्चरै , प्रशंसा बहु विस्तारै ॥ नृत्य चरण बिनु करै , हस्त बिनु ताल बजावै । अंग बिना मिलि संग , बहुत आनंद बढ़ावै ॥ बिनुशीश नवे जहँ सेव्य को , सेवक भाव लिये रहै । मिलि परमातम सोंआतमा पराभक्ति सुन्दर कहै ।।

     यहाँ ( संसार में ) अंग से मिलता है , किंतु वहाँ तो बिना अंग के ही संग होता है । इसे हमलोगों को करना चाहिए । आप करके देखिए , करने से सब पता चल जाएगा । योगी को संशय कहाँ ? जो पाओ सो सत्य है , जो नहीं पाओ असत्य है ।

    भौतिक विज्ञानवाले एक चीज दूसरे से मिलाकर तीसरी चीज बनाते हैं । यह तो बाहर की बात है । इनमें बहुत से सामान इकट्ठे करने पड़ते हैं । किंतु अंतर में चलने के लिए सब सामान आपके साथ है । किंतु ईमानदारी से ( practical ) प्रयोग करो  

चश्मबंद गोशबंदलवबंद । गरनवीने नूरहकबरबन बखन्द ।।

    मौलाना रूम का वचन है - चश्म , गोश , लब , आँख , कान , मुँह बन्द करके देखो । अगर ब्रह्म ज्योति ( नूरे हक ) नहीं देखो तो मुझपर हँसना । 

मुरशिद नैनों बीच नबी है । स्याहसफेदतिलाबीचतारा , अविगतअलखरखी है ।। आँखी मढे पाँखी चमकै , पाँखी मढे द्वारा । तेहि बारे दुरवीन लगावै , उतरे भव जल पारा ।। सुन्न शहर में वास हमारा , तहुँ सरवंगी जावे । साहब कबीर सदा के संगी , शब्दमहल लै आवै ।।

    मुर्शद= गुरु । हमलोग बहुत प्रकार के गुरु का प्रयोग करते हैं , किंतु यहाँ आध्यात्मिक गुरु के लिए लिया गया है । हे मुर्शिद ! आँखों के बीच में नवी है अर्थात् संदेशवाहक है । उनके पैगम्बर मुहम्मद साहब थे । उनको खुदा का नूर भी कहते हैं । अर्थात् वे खुदा के नूर थे । वह ब्रह्म प्रकाश तुम्हारी आँख में है । रब्ब - शब्द को रबी किया है । काले - उजले तिलों के बीच में तारा है । यह भी बाहर में कैसे समझाया जा सकता है । जब दृष्टि एक होती है तो पहले काले फिर उजले तिल का दर्शन होता है । जो अंधकार में एक ही स्थान पर देखता है , उसे वह काला चमकदार मालूम होता है , पीछे वही उजला हो जाता है , फिर तारा का दर्शन होता है । यह जो तारा है वह सर्वव्यापी सब में है । 

खोज करो अंतर उजियारी छोड़ चलो नौ बार । -राधास्वामी साहब  

श्याम कंज लीला गिरिसोई। तिल परमान जान जन कोई ।। छिन छिन मन को तहाँ लगावै । एक पलक छूटन नहिं पावै ।। श्रुति ठहरानी रहे अकाशा । तिल खिरकी में निसदिन बासा ।। गगन द्वार दीसै एकतारा । अनहद नाद सुनै झनकारा ॥

    जबतक आप जिन्दा हैं , तबतक आँख में चमक है , प्राण निकल जाने से आँख की ज्योति चली जाती है , वह चमक नहीं रहती । उस ज्योति में द्वार है । जहाँ ज्योति नहीं है , वहाँ द्वार कैसे पाते हैं ? एक स्थान में देखने से एकविन्दुता प्राप्त होने से ज्योतिमण्डल में पहुँचता है । दृष्टियोग करने से शून्य शहर में वास होता है । सरवंगी - जो अंग में हो । सदा के संगी सब शरीर में सदा व्यापक है । उस शब्द की महिमा क्या है ? जो सदा के संगी परमात्मा हैं , उनके महल में वही शब्द ले जाएगा । कबीर साहब कहते हैं - परमात्मा सदा के संगी हैं । उस महल में शब्द ही ले जाएँगे । संतो की वाणी में दृष्टियोग और शब्दयोग सूक्ष्म साधना है , किंतु स्थूल में 

नाम जपत स्थिर भया , ज्ञान कथत भवा लीन । सुरतिशब्द एकै भया , जल ही बैगा मीन ।। नाम जपत कुष्टी भला , चुई चुई पड़े जो चाम । कंचन देह केहि कामका , जामुख नाहीं नाम ।। -कबीर साहब

    वर्णात्मक जाप स्थूल है । गुरु की मूरति , यह स्थूल रूप ध्यान है , इसके बाद है दृष्टियोग और शब्द ध्यान । शब्द ध्यान वहाँ तक ले जाता है जहाँ कि शब्द विलीन न हो जाय । वहाँ देखना - सुनना सब बंद हो जाता है । वहाँ निःशब्द - परमात्मा मिलते हैं । ०



नोट-    हेडलाइन की चर्चा,   सत्संग,   ध्यान,   सद्गगुरु
  ईश्वर,   अध्यात्मिक विचार   एवं   अन्य विचार   विषयों से संबंधित बातें उपर्युक्त लेख में उपर्युक्त विषयों के रंगानुसार रंग में रंगे है।
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S04, (क) Bhagavaan ka Nirgun Svaroop kaisa hai? । महर्षि मेंहीं प्रवचन । 25-12-1950ई. S04, (क) Bhagavaan ka Nirgun Svaroop kaisa hai? । महर्षि मेंहीं प्रवचन । 25-12-1950ई. Reviewed by सत्संग ध्यान on 9/01/2020 Rating: 5

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