महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर/09 क
प्रभु प्रेमियों ! संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज के भारती (हिंदी) प्रवचन संग्रह "महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर" के प्रवचन नंबर 09 वां, में स्वावलंबी जीवन पर विशेष रूप से चर्चा किया गया है।
इसके साथ ही इस संतमत प्रवचन में आप जानेंगे-- मोक्ष के लिए ध्यानाभ्यास आवश्यक, मोक्ष, मोक्ष प्राप्ति के साधन, मोक्ष की आवश्यकता, सत्संग प्रचार, सत्संग का प्रचार, ज्ञान का प्रचार भी करना चाहिए, सत्संग क्या है? संतमत क्या है? सत्संग की महिमा, अखिल भारतीय संतमत सत्संग, सत्संग प्रवचन कथा, स्वावलंबी जीवन, स्वावलंबन के महत्व, स्वावलंबन पर कहानी, स्वावलंबन का अर्थ हिंदी में, स्वावलंबी होना अर्थ, लालची कहानी, लालची राजा की कहानी, बच्चों की कहानियां, लालची वाली कहानी, यह शरीर संसार रुपी सराय की संपत्ति है, ध्यान का सही तरीका, आदि बातों के बारे में।इन बातों को समझने के पहले आइए गुरु महाराज का दर्शन करें-
इस प्रवचन के पहले वाले प्रवचन नं.S08, को पढ़ने के लिए यहां दवाएं।
बाबा देवी साहब के संस्मरण |
Means of Moksha, Need for Moksha
सदगुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज कहते हैं कि- सत्संग का प्रचार-प्रसार कैसे करना चाहिए ? सत्संग क्या है ? संतमत क्या है? इस पर भी चर्चा होना चाहिए। कैसा भी मनुष्य हो ध्यान अवश्य करें । स्वाबलंबी जीवन के लिए कोई काम अवश्य करना चाहिए। 40 साल तक कमाना चाहिए। लालची राजा की कथा का दृष्टांत देते हुए कहते हैं कि मनुष्य कम इच्छा रखकर, संतोषी बनके संसार से छूटने का, मुक्ति पाने का उपाय कर सकता है । शरीर और संसार में समानता है। मोक्ष प्राप्ति की क्या-क्या बातें हैं? जब ध्यान कैसे करना चाहिए? उसका सही तरीका क्या है? पूरी जानकारी के लिए इस प्रवचन को पूरा पढें-
९ . बाबा साहब के उपदेशों का सार
प्यारे लोगो !
मैं पहले पहल सन् १९०९ ई० के अंत में बाबा साहब ( पूज्य देवी साहबजी ) के साथ यहाँ ( मुरादाबाद ) आया था । बाबा साहब सत्संग - प्रचार के लिए बहुत भ्रमण करते थे । वे भागलपुर गए थे , वहाँ पहले से ही उनका प्रचार था । सत्संग के लिए भागलपुर में एक घर बन चुका था , जो खपड़े से छाया हुआ था । उसमें लगभग पाँच - सात सौ आदमी बैठ सकते थे । वह समय अक्टूबर दुर्गापूजा का था । वहाँ वे एक पखवारे से अधिक ठहर गए । चलते समय मेरे विनय करने पर उन्होंने मुझे भी संग लेने की कृपा की । यहाँ ( मुरादाबाद ) आते - आते १ ९ ० ९ का अंत ही हो गया । उनके ( बाबा साहब के ) साथ मैं यहाँ ( मुरादाबाद ) पहुँचा । सत्संग होता था तो मैं बहुत कम समझता था । बाबा साहब मुझे विशेष समझाना चाहते थे । सत्संग वचन कहकर वे सबसे पूछते थे , क्या समझा ? हमसे भी पूछते थे । वे विद्यालय की शिक्षा के समान ही - जिससे याद रहे , सत्संग वचन समझाकर प्रश्न किया करते थे । इनका ( बाबा साहब का ) लेख बहुत कम मिलता है । रामायण के ' बाल का आदि तथा उत्तर का अंत ' तथा ' घटरामायण की भूमिका ' ; इन दो ही पुस्तकों में इनका लेख पाया जाता है । इनका मत ऐसा नहीं था कि जिसमें किसी दूसरे मत का खंडन हो । मैं यही जानकर उनके सत्संग में सम्मिलित हुआ था ।
पुरैनियाँ जिलान्तर्गत ग्राम जोतरामराय में बाबू श्री धीरजलालजी सत्संग कराते थे । मैंने उनसे पूछा - ' सत्संग क्या है ? ' उन्होंने उत्तर दिया - ' ईश्वर भक्ति का उपदेश । ' मैंने पूछा ' आपका क्या मत है ? ' उन्होंने उत्तर दिया - ' संतमत । ' मैंने फिर पूछा ' संतमत क्या है ? ' उन्होंने उत्तर दिया - ' जो सब संतों का मत है । ' मैंने फिर पूछा - ' आप सब संतों को मानते हैं ? ' उन्होंने उत्तर दिया - ' हाँ , सब संतों को मानता हूँ '
मेरे हृदय में यह सुनकर कि ये सब संतों को मानते हैं , संतमत - सत्संग की ओर बड़ा आकर्षण हुआ । मैं पहले सत्संग का विरोधी था । अन्य लोगों को भी सत्संग में जाने के लिए मना करता था । मैं लोगों से कहता था - ' ये लोग ( सत्संगी ) गुरु को नहीं मानते , वहाँ मत जाओ । ' क्योंकि मैं तो कभी सत्संग में गया था नहीं , केवल लोगों से सुना था कि ये लोग गुरु , देवता - देवी आदि किसी को नहीं मानते।
बाबा साहब कहते थे - ' वैदिकधर्मी , मुसलमान , ईसाई कुछ बने रहो , असली चीज धर्म को जानो और ध्यानाभ्यास किए बिना एक दिन भी मत रहो । ' इनमें ( बाबा साहब में ) मत - मतान्तर नहीं था , उनको यह उपदेश करते मैंने देखा था । हमलोग उनको याद करें , इसलिए मैं उनके उपदेशों का वर्णन करता हूँ , उनके शरीर का नहीं उनके उपदेश का वर्णन करने से हममें उस कर्म को करने के लिए प्रेरणा होती है । सन् १ ९ ० ९ ई ० में मुझे बाबा साहब के प्रथम दर्शन हुए । सन् १ ९ १ ९ ई ० में वे परमधाम सिधारे । वे सिखाते थे - ' सत्य बोलो । ' अगर कोई झूठ बोले और उनको मालूम हो तो वे कहते थे ' ऐसा क्यों किया ? ' अपनी झूठ बोलनेवाली जिह्वा को निकालकर क्यों नहीं फेंक देते ? '
सन् १ ९ १२ ई ० में मैं फिर मुरादाबाद आया । वे कहते थे , सबको दुनिया में आजादी हासिल करनी चाहिए । ' उनके कथनानुसार अपनी कमाई से अपना गुजर करना , दुनिया में आजादी हासिल करना था । कभी - कभी तो वे यह भी कहा करते थे कि चालीस वर्ष की उम्र तक अपनी कमाई से इतना जमा कर लो , फिर पीछे काम न करना पड़े ।
बाबा साहब के पूछने पर मैने मधुकरी वृत्ति से अपने जीवन - यापन के विषय में ( बाबा साहब से ) कहा था । इस पर बाबा साहब ने कहा कि जो अपनी इच्छा कम रखते हैं , वे थोड़ी - सी पूँजी पाकर भी संतुष्ट रहेंगे । विशेष इच्छा रखनेवाले संतोषी नहीं होते और इसी कारण वे दुःखी रहते हैं । फिर मुझसे बोले - ' तुम थोड़ी - सी जमीन लेकर बाँस लगाओ । ' किंतु मुझे पिताजी से जमीन माँगने में लज्जा आती थी ; क्योंकि मैंने पिताजी की सेवा कुछ भी नहीं की थी । उन्होंने मुझको पढ़ाया , लिखाया तथा बचपन में सेवा की आदि , लेकिन मैंने उनका बदला कुछ नहीं दिया था । दूसरी बात यह थी कि अगर जमीन मिल भी जाय तो पूँजी चाहिए थी उसे जोतने , कोड़ने तथा कुछ लगाने के लिए । मैंने बाबा साहब से कहा - ' अगर जमीन तैयार करते - करते ही शरीर चला जाय तब ? ' बाबा साहब बोले - ' तुम मुझे ज्ञान सिखाने आए हो , अगर तुम सौ वर्ष तक जीते रहे , तब क्या खाओगे ? ' उन्होंने मुझे बहुत फटकारा और मुझे ८० रुपये देने लगे और बोले- ' इससे जाकर काम करो । कम जाय तो फिर लेना , जब तुम्हें हो तब वापस करना । ' मैंने मन में कहा – ' गुरुऋण रहा सोच बड़जी के । ' फिर मैंने कहा - ' अगर आपकी ऐसी इच्छा है , तो गुजारा हो जाएगा । मैं जाता हूँ काम करने । '
वे ( बाबा साहब ) चाहते थे कि कोई आदमी ऐसा न हो जो अपने कमाई से नहीं खा सके । इसलिए मैंने कुछ मोटा काम किया , बाँस बाड़ी लगाई । फिर पौने दो वर्षों तक लड़कों को पढ़ाकर अपना गुजारा किया । उन बाबा साहब की कृपा से अब यों ही चलता है । कुछ दिनों तक यहाँ ( मुरादाबाद ) रहने के पश्चात् मैं अपने वहाँ लौट गया । फिर लौटकर जब मैंने यहाँ बाबा साहब से भेंट की , तब बाबा साहब बोले - ' मोक्ष तो की बात है , पर संसार से तुम आजाद हो गए । ' खाने के लिए कोई दूसरे का मुहताज बने , ऐसा उनका ख्याल नहीं था । लालची की नजर में कितना ही धन हो , वह कम ही है ।
लालच पर एक सुप्रसिद्ध कथा है । एक राजा बड़ा लालची था । कितना ही धन मिले , पर वह संतुष्ट नहीं होता था । अपनी प्रजा से अनेक प्रकार के कर लेकर जब उसे संतोष नहीं हुआ , तो उसने फौज लेकर समुद्र पर चढ़ाई कर दी और कर माँगने लगा । जब सीधी बातों से समुद्र ने कर नहीं दिया , तो वह राजा समुद्र में गोले , बम आदि बरसाने लगा । समुद्र मनुष्य के रूप में आकर बोला - ' राजन् ! क्या बात है ? जो गोले गिराकर मेरे अंदर रहनेवाले मगर , मछली , कछुए आदि अनेकों जीवों की हत्या कर रहे हो ? ' राजा बोला ' समुद्र ! तुम मेरे राज्य के अंदर कितने वर्षों से निवास करते हो , किंतु आजतक तुमने मुझे कर स्वरूप कुछ भी नहीं दिया है । वही कर वसूल करने के लिए तुम्हारे पास आया हूँ । ' समुद्र बोला - ' राजा ! तुम जितना धन लेना चाहो ; मैं तुम्हें एक खजाना बता देता हूँ , उससे ले लो । ' यह कहकर समुद्र राजा को धन का एक खजाना बताकर गुप्त हो गया । समुद्र के बताए हुए खजाने से राजा धीरे - धीरे धन ढोने लगा । धन ढोते - ढोते राजा के कितने बैल मर गए ; गाड़ियाँ टूट गई ; कितने नौकर बीमार हो गए , राजा का घर धन से भर गया , किंतु राजा का मन नहीं भरा ; क्योंकि समुद्र के बताए हुए खजाने के धन का अंत ही नहीं होता था । राजा फिर फौज लेकर समुद्र किनारे पहुँचा और बम - गोला आदि बरसाने लगा । समुद्र फिर मनुष्यरूप में आकर बोला - ' राजन् ! अब क्या बात है , कहिए ? ' राजा बोला - ' तुम्हारे धन को ढोते - ढोते मेरे सब घर भर गए , किंतु तुम्हारे धन का अंत नहीं हुआ । अब मेरे पास स्थान नहीं , जहाँ धन को ले जाकर रख सकूँ । इसलिए कोई ऐसा बर्तन दो , जिसमें सब धन अँट सके । ' समुद्र ने राजा के हाथ में मनुष्य - खोपड़ी देते हुए कहा - ' राजा ! यह खोपड़ी लो , इसी में रखो । ' यह कहकर समुद्र अंतर्धान हो गया । राजा तो पहले मन - ही - मन घबड़ाया । भला ! इसमें कितना धन अँट सकता है ? फिर जब उसमें धन भरने लगा , तब न तो खोपड़ी ही भरती है और न धन का ही अंत होता है । यह देखकर राजा और भी विशेष व्याकुल हो गया । उन्होंने ( राजा ने ) फिर समुद्र पर गोले बरसाना आरंभ कर दिया । समुद्र फिर मनुष्यरूप में प्रकट हुआ और बोला - ' राजा ! क्या बात है , जो बारम्बार मुझ पर गोलेबारी करते हो ? ' राजा बोला - ' समुद्र ! देखो , यह न खोपड़ी भरती है और न इस धन का अंत होता है । अब क्या किया जाय ? ' समुद्र बोला- ' राजा ! तुम बड़े मूर्ख हो , मनुष्य की खोपड़ी भी कहीं भरती है ? इसपर राख डालो , तभी यह खोपड़ी भरेगी । ' यह कहकर समुद्र ने थोड़ी - सी मिट्टी ले खोपड़ी में रख दी । मिट्टी रखते ही खोपड़ी भर गई । इसका सारांश यह है कि मनुष्य जबतक अपनी इच्छा पर धूल नहीं डालता , अर्थात् मनुष्य जबतक संतोष धारण नहीं करता , तबतक वह बराबर दुःखी रहता है और संतोष कर लेने पर ही वह दुःख रहित हो जाता है । इसलिए मनुष्य को संतोषी होना चाहिए । गोधन गजधन बाजिधन , और रतनधन खान । जब आवै संतोष धन , सब धनधूरि समान ।।
अपनी जीवन - रक्षा के लिए सच्ची कमाई करके खाओ , यही सांसारिक आजादी है ।
संतों के मत में सबसे बड़ी चीज मोक्ष है । किंतु शरीर के अंदर जो कैद हो , इससे तुम्हारा छूटकारा हो जाय तो संसार से भी छूटकारा हो जाय । पिण्ड से छूट जाय तो ब्रह्माण्ड ( बाह्य जगत ) से भी छूटकारा हो जाय । कोई कहे - पिण्ड से निकल जाय तो बाहर संसार से भी कैसे निकल जाएगा ? तो इस शरीर और संसार में बड़ा सरोकार है । जितने तत्त्वों से शरीर बना है , संसार भी उतने ही तत्त्वों से बना है । तल की दर्जेबंदी करने पर स्थूल - सूक्ष्म भेद से जितने तल शरीर के होते हैं , संसार के भी उतने ही तल हैं । शरीर जिस प्रकार पाँच तत्त्वों तथा तीन गुणों से बना हुआ है , संसार में भी पाँच चीजें अर्थात् आकाश , अग्नि , वायु , जल और पृथ्वी तथा तीन गुण - रज ( उत्पादक शक्ति ) , सत्त्व ( पालक शक्ति ) और तम ( विनाशक शक्ति ) है ।
जाग्रत में शरीर के स्थूल तल पर काम करने से संसार के भी स्थूल तल पर ही काम करते हैं । स्वप्न में शरीर के स्थूल तल पर काम नहीं करने से संसार के भी स्थूल तल पर काम नहीं कर सकते । इस प्रकार यदि आप अपने शरीर के सूक्ष्म तल पर पहुँच जायँ तो संसार के भी सूक्ष्म तल पर पहुंच जाएँगे तथा जिस प्रकार शरीर के स्थूल तल पर रहकर स्थूल संसार को दूर तक देखते हैं तथा विचरण करते हैं , उसी प्रकार शरीर के सूक्ष्म तल पर पहुँचने पर आप सूक्ष्म संसार ( ब्रह्माण्ड के सूक्ष्म तल ) को दूर तक देखेंगे तथा विचरण करेंगे । इस प्रकार जो पिण्ड को पार करेगा , वह ब्रह्माण्ड को भी पार कर जाएगा । स्थूल को देखकर सूक्ष्म का ज्ञान होता है । सूक्ष्म भी बिना कारण के नहीं हो सकता तथा कारण भी बिना महाकारण के हो नहीं सकता । इन चारों से छूटने पर कैवल्य परम पद है । बाबा साहब इसी का उपदेश करते थे तथा साधन बताते थे । वे कभी नहीं कहते थे कि हम तुमको ऊपर चढ़ा देंगे । वे कहते थे कि उस ईश्वर को पाने के लिए उसका अवलंब , उसके प्रति तुम्हारी भक्ति होनी चाहिए । इसके लिए साधन ठीक है , करो । जहाँ ईश्वर की प्राप्ति होती है , वहाँ सारे मायिक आवरणों का पार होना होता है । जहाँ सब आवरणों का पार होना होता है , वहीं परमात्मा है । जिमि थल बिनु जल रहि न सकाई । कोटि भाँति कोउ करै उपाई ।। तथा मोक्ष सुख सुनु खगराई। रहि न सकई हरि भगति बिहाई ।। -गोस्वामी तुलसीदास
बाबा साहब वही बतलाते थे , जो वेद , उपनिषदों तथा संतवाणियों में है । वे कहते थे - ' कब्र में दाखिल होने तथा चिता में जलने के पहले मोक्ष प्राप्त कर लो । ' इसके साधन बतलाते थे - ' मन को एकाग्र करो । ' इसकी बड़ी आवश्यकता है । सुरत फंसी संसार में , ताते परिगा दूर । सुरत बाँधि सुस्थिर करो , आठोपहर हजूर ।।
पहले मोटा - मोटी जप करो । फिर किसी स्थूल रूप का मानस ध्यान करो । फिर सूक्ष्म ध्यान के लिए दृष्टिसाधन करो । दृष्टिसाधन उसको कहते हैं कि जो आँख के साथ अभ्यास किया जाता है । इसके साधन करने के सैकड़ों गुर और अमल हैं, कि जो भारतवर्ष और दूसरे मुल्कों में जारी है , लेकिन बाजे इनमें ऐसे हैं कि जिनसे आँख के दोनों गोले टेढ़े पड़ जाते हैं । और बाजे ऐसे हैं कि जिनसे आँख जाती रहती है और बाजे कायदे ऐसे भी हैं जो कि आँख की दोनों पुतलियों को , जिनमें होकर रोशनी बाहर को निकलती है , खराब कर देते हैं । जिससे फिर आँखों से धुंधला दिखाई पड़ता है और चाहे तमाम उमर हकीम , वैद्य , डॉक्टर इलाज करे , किसी तरह पुतलियाँ दुरुस्त नहीं होतीं । दृष्टि से अभ्यास करने का वह भी कायदा है जिसको आँख और आँख के गोले से कुछ तअल्लुक नहीं है और न दृष्टि के मानी आँख और आँख के गोले हैं , जिससे कि यह नुकसान होते हैं । जो ऊपर बयान किए गए हैं , दृष्टि निगाह को कहते हैं कि जो मांस और खून की बनी हुई नहीं है । मनुष्य में यह निगाह ऐसी बड़ी ताकतवर चीज है कि जितने बड़े - बड़े छिपे हुए साइन्स और विद्याओं को निकालकर दुनिया में जाहिर किया है और सिद्धि वगैरह की असलियत और मसालों का पता जिससे कि वह हो सकती है । सिवाय इसके और किसी से नहीं लग सकता है ।
योगविद्या सीखने का दृष्टि पहिला कायदा है और इससे अभ्यास करने का गुर ऐसा उमदा है , जिससे स्थूल शरीर के किसी हिस्से को कुछ तकलीफ नहीं होती है और अभ्यासी इसके अभ्यास से उन निसानों को जिनको की ईश्वर या खुदा की आकाशी या आसमानी ग्रंथों और किताबों में सबसे बड़ा बतलाया है । जल्द पाकर मालूम कर लेता है और तमाम दुनिया के सिद्धांत और उसूल अभ्यासी के रूबरू हाथ जोड़कर खड़े रहते हैं कि जो तमाम उमर पोथियों और ग्रंथों के पढ़ने और सुनने से हासिल नहीं होते , लेकिन दृष्टि सिर्फ उसी जगह पहुँच सकती है , जहाँ तक की रूप है और जहाँ से कि आवागमन हो सकता है , दृष्टि उसके आगे नहीं जा सकती , जहाँ कि रूप और रेखा कुछ भी नहीं है और जहाँ से कि मोक्ष होता है । संतों के मत में सबसे बड़ा पदार्थ मोक्ष है और उस जगह तक दृष्टि नहीं जा सकती । इसलिए शब्द का दूसरा कायदा वहाँ पहुँचने को उपदेश दिया गया है ।
बाबा साहब के दृष्टियोग ( दृष्टिसाधन ) तथा शब्दयोग ( शब्दसाधन ) विषयक वर्णन को कबीर साहब का यह शब्द अत्यंत पुष्ट करता है गगन की ओट निशाना है । दहिने सूर चंद्रमा बायें , तिनके बीच छिपाना है । तन की कमान सुरत का रोदा , शब्द बान ले ताना है । मारत बान बिंधा तन ही तन , सतगुरु का पखाना है ।। मारयोबान घाव नहिंतन में , जिन लागा तिन जाना है । कहै कबीर सुनो भाई साधो , जिन जाना तिन माना है ।
इसी प्रकार की वाणी सब संतों की वाणियों में पायी जाती है । बाबा साहब कहते थे कि दृष्टि अभ्यास के बाद शब्द - अभ्यास करो । भजन के समय सब ख्यालों का विर्सजन कर बैठो । भाव शून्य होकर बैठो । गुरु के बताए निसाने पर अपने को लगाओ । भावना करते हुए जो बैठता है , वह भावना के अनुकूल होता है । इसलिए भावना को छोड़ो । वे अनेक शब्दों का जिकर नहीं करते थे , एक सार शब्द पर ही विशेष जोर देते थे । गवैया लोग गाने के लिए बैठते हैं , तो बाजा मिलाते हैं । क्या मिलाते हैं ? सितार , सारंगी , तबला , डुग्गी , हारमोनियम , मजीरा आदि । इन सबकी अलग - अलग आवाजें हैं- उनलोगों से पूछने पर मालूम हुआ कि इमलोग साज को एक समान कसते हैं , जिससे सबका स्वर एक मिले । सबका स्वर मिलने पर सब ध्वनियाँ एक ही मालूम होती है । सब साजों की ध्वनियों में एकता होने पर तब यह मालूम नहीं होता कि यह इसकी और यह उसकी आवाज है । सब एक ही हो जाती है । उसी प्रकार सब आवाजों की एक आवाज सारशब्द है यह बाबा साहब कहते थे । वह ध्वनि देर तक रहती है । महति श्रूयमानोऽपि मेघ भेर्यादिके ध्वनौ । तत्र सूक्ष्मात्सूक्ष्मतरं नादमेव परामशेत् ।। ( हठयोग प्रदीपिका , गोरखनाथजी महाराज के शिष्य स्वात्मारामजी महाराज )
अर्थ - मेघ , भेरी आदि का जो महान शब्द है , उसके तुल्य शब्द के सुनने पर भी उन शब्दों में सूक्ष्म - से - सूक्ष्म जो नाद है , उसका चिंतन करे क्योंकि सूक्ष्म नाद चिरकाल तक रहता है । उसमें आसक्त हुआ है चित्त जिसका , ऐसा मनुष्य भी चिरकाल तक स्थिरमति हो जाता है ।
इसलिए बाबा साहब एक सारशब्द के लिए उपदेश देते थे । एक शब्द को कहाँ पकड़ोगे इसलिए दृष्टियोग पर बहुत जोर देते थे । सुखमन के घरिराग सुनि , सुन मण्डल लिव लाइ । अकय कथा बीचारीजै , मनसा मनहिं समाइ ॥ उलटि कमलु अंमृति भरिआ , इहु मन कतहुँ न जाइ । अजपा जाप न बीसरे , आदि जुगादि समाइ ॥ सभि सखिया पंचे मिलै , गुरमुखि निज घरि वासु । सबदु खोजि इहु घर लहै , नानकु ताका दासु ॥ -गुरु नानक साहब
यही उपदेश हमलोगों को बाबा साहब दे गए हैं , जिसका वर्णन कबीर साहब और गुर नानक साहब आदि संतों की वाणियों में भी पाय जाता है। सदाचार का पालन करना चाहिए । झूठ चोरी , नशा , हिंसा तथा व्याभिचार ; इन पाँचों पापो से अलग रहना चाहिए । बाबा साहब हमलोगों को जो उपदेश दे गए हैं , वह अत्यंत दृढ़ है तथा रास्त बिल्कुल ठीक है । हमलोगों को उसपर दृढ़ता के साथ चलना चाहिए । ०
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महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा सागर |
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S09, (क) Means of Moksha, Need for Moksha ।। महर्षि मेंहीं प्रवचन ।। सत्संग ध्यान
Reviewed by सत्संग ध्यान
on
7/06/2018
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