S118 (ख) मनुष्य शरीर का महत्व || विषय सेवन कितना करें || ध्यान जनित सुख कैसा होता है ?

महर्षि मेँहीँ सत्संग सुधा सागर  / 118

     प्रभु प्रेमियों ! संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज के भारती (हिंदी) प्रवचन संग्रह "महर्षि मेँहीँ सत्संग सुधा सागर" के प्रवचन नंबर 118 के बारे में। इसमें बताया गया है कि  भगवान श्रीराम के राज्य में  दु:ख नहीं था, ऐसा क्यों कहते हैं? आध्यात्मिक सुख कैसा है?  अंत:करण की पवित्रता  कैसे होती है और  इससे लाभ क्या हैं ?    भगवान श्रीराम की आध्यात्मिक शिक्षा क्या है? इत्यादि बातें। इन बातों को जानने-समझने के पहले, आइए ! संत सदगुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज का दर्शन करें।

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महर्षि मेँहीँ सत्संग-सुधा 118
महर्षि मेँहीँ सत्संग-सुधा 118

मनुष्य शरीर का महत्व

     प्रभु प्रेमियों। !  इस प्रवचनांश में आप पायेंगे कि -  12. शरीर  और  संसार में क्या संबंध है?   13. दशवां द्वार और उसकी विशेषता क्या है?   14. ध्यान में कैसा सुख मिलता है?   15. भक्ति करना किसे कहते हैं?   16. ईश्वर की बड़ी कृपा कैसे प्राप्त करें?   17. मनुष्य शरीर का सदुपयोग क्या है?   18.  सद्गुरु कौन होते हैं?   19.  विषय सेवन  कितना करना चाहिए?    इत्यादि बातें । इन बातों को अच्छी तरह से समझने के लिए निम्नलिखित प्रवचन को मनोयोग पूर्वक विचारते हुए बार-बार पढिए --


११८. विषयों का उपभोग किस रूप में?

सत्संग -सुधा 118

धर्मानुरागिनी प्यारी जनता !

शेष प्रवचन --

......हमारे यहाँ ऋषि, मुनि, योगी लोग हो गए हैं । उन लोगों ने इन्द्रियों को दमन किया है, जिनको दमन करना कठिन है । इस शरीर में मोक्ष का द्वार भी है ।

     12. शरीर के जितने तल हैं , संसार के भी उतने ही तल हैं । जब हम स्थूल शरीर में रहते हैं , तो हम स्थूल संसार में रहते हैं । उसी तरह से सूक्ष्म , कारण , महाकारण आदि शरीरों के भी जिस तल पर रहते हैं , संसार के भी उसी तल पर रहते हैं । शरीर के जिस तल को छोड़ते हैं , संसार के भी उस तल को छोड़ते हैं । जो शरीर के सभी तलों से ऊपर उठ जाते हैं, वे संसार के सभी तलों से परे हो जाते हैं । जो शरीर से निकलता है, वह संसार से भी छूट जाता है । 

     जाग्रत से जब हम स्वप्न अवस्था में जाते हैं तो स्थूल शरीर का ज्ञान नहीं रहता है , तो स्थूल संसार का भी ज्ञान नहीं रहता है ।पिण्ड को पार करो तो ब्रह्माण्ड को भी पार कर जाओगे । इसलिए ऐसा कोई रास्ता मिले, जिससे इस शरीर से, संसार से छूटा जाय । 

      13. इस शरीर में छोटे - छोटे बहुत छिद्र हैं , बड़े - बड़े नौ ।  आँख के दो , नाक के दो , कान के दो , मुँह का एक और मल - मूत्र के दो छिद्र हैं । छोटे - छोटे छिद्र झरोखे हैं । यह शरीर नौ द्वारों का घर है । नौ द्वारों में से एक भी द्वार ऐसा नहीं है , जिससे शरीर से छुटकारा मिले , मोक्ष मिले । ये सब द्वार भीतर से बाहर जाने को हैं और वह द्वार जिससे भीतर प्रवेश कर सकते हैं , दसवाँ द्वार है । वह आपकी आँख के पास है । आपलोग शिवजी की प्रतिमा में तीन आँखें देखते होंगे । शिवनेत्र इसलिए कहलाता है कि जो उसको प्राप्त करता है , उसका कल्याण होता है । यह रास्ता ब्रह्म की ओर जाने का है । गुरु नानक साहब ने कहा-

नउ दरवाजे नवै दर फीके,  रसु अमृतु दसवै चुयीजै । 

और - 
नउ दर ठाके धावतु रहाए, दसवें निज घरि वासा पाये 

      इन नौ द्वारों में रहते हुए आप कल्याण नहीं  पाते हैं, दसवें द्वार में जाएँ , तब बहुत कल्याण होगा । दसवें द्वार में जाने के लिए बड़ी एकाग्रता की जरूरत होती है । एकाग्रता में शान्ति आती है । 

      14. आपलोग जब जगने से सोने के लिए कोशिश करते हैं तो एक अवस्था आती है , जिसको तन्द्रा कहते हैं , उस समय शरीर कमजोर होता जाता है , शक्ति भीतर की ओर खिंचती जाती है । उस समय कुछ सुनते हैं और कुछ भूलते हैं । किसी इन्द्रिय का वहाँ स्वाद नहीं है । अंदर सरकाव में चैन मालूम होता है । सोने के समय मन की चंचलता छूटती है । यदि मन में कोई चिन्ता लगी हो तो नींद नहीं आवेगी । सोने के समय अंदर प्रवेश करते समय सब ख्याल छूटते जाते हैं , एक चैन मालूम होता है , यह तो स्वाभाविक सबको होता है । जो कोई भजन करता है , उसको विचित्र आनंद मालूम होता है । संत कबीर साहब ने कहा है--

      भजन में होत आनंद आनंद । 
      बरसत बिसद अमी के बादर, भीजत है कोइ संत ।। 

      15. जो अंतर की ओर चलता है , वह संसार की ओर से छूटता है , जो संसार की ओर से छूटता है , वह परमात्मा की ओर जाता है ।जो उस दसवें द्वार से गुजरता है , वह मोक्ष की ओर जाता है, वह भक्ति करता है । दसवें द्वार की ओर जाना भक्ति करनी है ।

   जिसने इस मनुष्य शरीर को पाकर अपना परलोक नहीं सुधारा , वह दुःख पाता है । परलोक दो तरह के होते हैं - एक स्वर्गादि और दूसरा मोक्ष । यहाँ परलोक स्वागादि के लिए है । इसीलिए भगवान श्रीराम ने कहा-- 

सो परत्र दुःख पावइ , सिर धुनि धुनि पछताय । 
कालहिं   कर्महिं  ईश्वरहिं , मिथ्या दोष लगाय ॥

     अर्थात् जो मनुष्य-शरीर पाकर अपना कल्याण नहीं कर लेते हैं,  वे अंत में दुःख पाते हैं और सिर धुन-धुनकर पछताते हैं । वे काल, कर्म और ईश्वर को झूठ ही दोष देते हैं । 

     16. ईश्वर की बड़ी कृपा है कि मनुष्य का शरीर मिला है । ईश्वर की विशेष कृपा को आप प्राप्त कर सकते हैं , जब आप परमात्मा का भजन कीजिए । काल आपके अधिकार में है । समय को सोकर , बैठकर खो सकते हैं, कुछ काम करके बिता सकते हैं, ईश्वर - भजन करके बिता सकते हैं । समय किसी को कुछ करने में रोकता नहीं है । कर्म का भी दोष देना बेकार है । अपने प्रारब्ध को अपने से ही बनाना होता है। इसलिए काल, कर्म, ईश्वर को दोष देना उचित नहीं । फिर भगवान श्रीराम ने कहा--

एहि तन कर फल विषय न भाई । 
स्वर्गहु    स्वल्प   अन्त   दुखदाई ।।

       17. स्वर्ग में भी पुण्य के अंत में दुःख ही होता है । विषय - सुख से अपने को निवृत्त करो । स्वर्ग- सुख का लालच भी छोड़ो । पशुओं के शरीर में भी इन्द्रियों के सुख का भोग है । मनुष्य भी यदि इन्द्रियों के भोगों में बरते तो पशु से क्या विशेषता हुई ? भगवान राम ने कहा-पंच विषयों से पर पदार्थ के लिए चेष्टा करो अर्थात् परमात्मा को प्राप्त करने कहा । भगवान राम ने कहा-- 

नरतन पाइ विषय मन देहीं । पलटि सुधा तेसठ विष लेहीं ।। ताहि कबहुँ भल कहहिं न कोई । गुंजा ग्रहइ परसमनि खोई ।।

     मनुष्य - शरीर पाकर जो विषय में मन लगाता है, वह अमृत छोड़कर विष लेता है । आगे भगवान श्रीराम कहते हैं-- 

आकर   चारि     लाख   चौरासी । 
जोनि भ्रमत यह जीव अविनासी ।

     अंडज , पिण्डज , स्वेदज और ऊष्मज ; इन चार खानियों में ८४ लाख योनियाँ हैं । माया की प्रेरणा से काल , कर्म , स्वभाव , गुण के घेरे में पड़कर सदा अविनाशी जीव घूमा करता है । मनुष्य ८४ लाख योनियों को भोगते हुए आया है । इसलिए इससे छूटने का उपाय करो । इससे छूटने का उपाय है - वायु , नाव और मल्लाह । ईश्वर की कृपा सन्मुख मरुत ' या अनुकूल पवन है । अनुकूल इसलिए कि नाव को पश्चिम जाना चाहिए , किंतु नदी का बहाव पूरब की ओर ले जाता है । यदि पुरबैया हवा चल पड़े तो वह हवा उसको पूरब की ओर जाने से रोकती है । उस नाव पर मल्लाह पाल टाँग देता है , तब नाव भाठे से सिरे की ओर चली जाती है । मनुष्य शरीर नाव है , ईश्वर की कृपा अनुकूल वायु है और सद्गुरु मल्लाह हैं ।

       18सद्गुरु वह है , जो सद्ज्ञान में बरते , जो दूसरों को सद्ज्ञान देता हो, सत्स्वरूप परमेश्वर का भजन करता हो और दूसरों को भजन करने का प्रेरण देता है । 

मुक्ति   मारग   जानते,  साधन  करते   नित्त ॥ 
साधन करते नित्त,  सत्त  चित्त  जग  में रहते । 
दिन-दिन अधिक विराग,प्रेम सत्संग सों करते । 
दृढ़ ज्ञान समुझाय  बोध दे,  कुबुधि  को हरते । 
संशय   दूर    बहाय,   संतमत   स्थिर   करते ॥ 
'मँही' ये  गुणधर जोई,   गुरु   सोई   सतचित्त । 
मुक्ति    मारग    जानते,   साधन  करते   नित्त ॥

     19. सद्गुरु मल्लाह हैं । जो इन साज - सामानों को पाकर अपना कल्याण नहीं कर लेते हैं , वे कृत निन्दक , मंदमति और आत्महत्या के दोष को पाते हैं । इसलिए लोगों को चाहिए कि भगवान श्रीराम के उपदेश को माने और विषय को छोड़कर निर्विषय की ओर चलें । जैसे दवाई की मात्रा के अनुसार दवाई - सेवन करते हैं , इसी तरह संसार में रहने के लिए दवाई के रूप में विषयों का उपभोग कीजिए , उसमें आसक्त नहीं होइए । .....

क्रमशः

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(यह प्रवचन पुरैनियाँ जिलान्तर्गत महर्षि में ही नगर , कुशहा तेलियारी ग्राम में दिनांक २८.६.१९५५ ई ० को अपराह्नकालीन सत्संग में हुआ था । )

नोट-  इस प्रवचन में निम्नलिखित रंगानुसार और विषयानुसार ही  प्रवचन के लेख को रंगा गया या सजाया गया है। जैसे-  हेडलाइन की चर्चा,   सत्संग,   ध्यान,   सद्गगुरु  ईश्वर,   अध्यात्मिक विचार   एवं   अन्य विचार   । 


उपरोक्त प्रवचन को 'महर्षि मेँहीँ सत्संग सुधा सागर' में प्रकाशित रूप में पढ़ें -

महर्षि मेँहीँ सत्संग-सुधा सागरडं
महर्षि मेँहीँ सत्संग-सुधा सागर 118घ

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इस प्रवचन को शांति संदेश में प्रकाशित रूप में पढ़ें -


सत्संग -सुधा 118घ
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