महर्षि मेँहीँ सत्संग सुधा सागर / 315
प्रभु प्रेमियों ! संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज के भारती (हिंदी) प्रवचन संग्रह "महर्षि मेँहीँ सत्संग सुधा सागर" के प्रवचन नंबर 315 में संतवाणी की विशेषता,संतवाणी का पाठ करने से क्या होता है, संतवाणी को अच्छी तरह समझें, मेरी सूरत सुहागिनी जाग री में 'सूरत' शब्द का विशेष अर्थ क्या है, सूरत का जगना क्या है? क्या सूरत को जगाने से व्यक्ति की सभी मनोकामना पूर्ण होती है? इत्यादि बातों की जानकारी दी गई है। इन बातों को जानने के पहले, आइए ! संत सदगुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज का दर्शन करें।
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जीवन की अभिलाषा कैसे पूरी होती है?
प्रभु प्रेमियों ! सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज इस प्रवचन ( उपदेश, अमृतवाणी, वचनामृत, सत्संग सुधा, संतवाणी, गुरुवचन, उपदेशामृत, ज्ञानोपदेश, भागवत वाणी, संतवचन, संतवचन-सुधा, संतवचनामृत, प्रवचन पीयूष ) में निम्नलिखित पाराग्राफ नंबरानुसार निम्नोक्त विषयों की चर्चा की है-- 1. किस आधार पर सत्संग करने की गुरु आज्ञा है? 2. सुरत किसे कहते हैं? 3. सुरत का अर्थ क्या है? 4. तुलसी साहब कौन थे? 5. सुरत, जीव, चेतन आत्मा क्या है? 6. सुरत किस अवस्था में रहती है? 7. सन्तों के विचार में स्वप्न क्या है? 8. सुरत को जगाने का क्या मतलब है? 9. तुरीय अवस्था होता है इसका विश्वास कैसे करें? 10. साधना में तरक्की कैसे होती है? 11. सदगुरु का शब्द क्या है? 12. संसार की ओर पीठ कैसे होता है? 13. सन्तवाणी का पाठ करने से क्या मिलता है? 14. मनुष्य की सारी अभिलाषाएँ कैसे पूर्ण होती है? 15. गुरु महाराज साधना से क्या पाये? इत्यादि बातें।इन बातों को अच्छी तरह समझने के लिए निम्नलिखित प्रवचन को मनोयोग पूर्वक विचारते हुए बार- बार पूरा-पूरा पढ़ें-
जीवन की अभिलाषा कैसे पूरी होती है?
३१५. आत्मवत् सर्वभूतेषु कैसे होगा?
1. जैसा कि आपलोग दो दिनों से सुन रहे हैं, ईश्वर-भक्ति का प्रचार- गुरु-आदेश से मैं कर रहा हूँ। यह जो सत्संग का प्रचार है वा ईश्वर-भक्ति का प्रचार है, इसका अवलम्बन खासकर संतों की वाणी है। गुरुदेव ने कहा कि सन्तों की वाणी का अवलम्ब लेकर सत्संग करो। इसलिये सन्तवाणी का पाठ करता हूँ और कराता हूँ। सन्तवाणी में बहुत गम्भीरता है। ऊपर-ऊपर सरलता मालूम पड़ती है। गुरु की कृपा से उस गंभीरता को थोड़ा-थोड़ा जाना है। उस गम्भीरता का थोड़ा-थोड़ा प्रकाश करूँ, इससे आपको लाभ हो, इसलिये सन्तों की वाणी का पाठ करता हूँ और समझाता हूँ। अभी आपलोगों ने सुना -
क्या तुम सोवत मोह नींद में,उठि के भजनियाँ में लागरी।चित से शब्द सुनो सरवन दे, उठत मधुर धुन राग री। दोउ कर जोड़ि शीश चरणन दे,भक्ति अचल वर माँग री।कहै कबीर सुनो भाई साधो, जगत पीठ दै भाग री।। 2. सुरत के कई अर्थ हैं। उसकी एक परिभाषा है। कबीर साहब के पन्थ के ग्रन्थ में एक चौपाई है। सन्त कबीर साहब एक अक्षर भी पढ़े-लिखे नहीं थे। उनके नाम से जो ग्रन्थ मिलते हैं, उनमें से एक में लिखा है कि-
आदि सुरत सतपुरुष तें आई। जीव सोहं बोलिये सो ताई ।।
3. जिनको आप सच्चिदानन्द ब्रह्म कहते हैं, उसी को कबीर साहब सत्पुरुष कहते हैं। जिस पुस्तक का नाम अनुराग सागर है, उसी में यह है। सुरत का अर्थ ख्याल भी होता है; सुरत का अर्थ तुलसीदासजी ने स्मरण भी किया है। जैसे-
रहत न प्रभु चित चूक किये की। करत सुरत सै बार हिये की ।।
यह मैं बारम्बार का ख्याल करता हूँ। मेरे जानते परमात्मा परम उदार हैं, महादाता हैं; महाक्षमा-कर्त्ता हैं। यहाँ सुरत का अर्थ स्मरण करना हो जाता है। इसको दूसरी-दूसरी तरह से भी इस्तेमाल करते हैं। 4. तुलसी साहब हाथरस में रहते थे। भारत के किस प्रान्त में उनका जन्म हुआ था, यह पता नहीं। आज के कुछ लोग उनके जीवन पर कुछ लिखे हैं। लेकिन ठीक-ठीक नहीं है। मैंने भी इसकी खोज की, ठीक-ठीक पता नहीं लगा। लोग इनको तुलसीदास, तुलसी साहब और गोसाईं तुलसी भी कहने लगे थे। घटरामायण उनकी पुस्तक है। उसमें लोगों ने कुछ मेल-मिलाप भी कर दिया है। उस पुस्तक की भूमिका में कहते हैं-
स्रुति बुन्द सिंध मिलाप, आप अधर चढ़ि चाखिया । भाषा भोर भियान, भेद भान गुरु स्रुति लखा।। 5. अपने से चढ़ाई की। उसके रस को चखा। स्वयं साधन कर, कोशिश कर, आकाशी मार्ग पर चढ़कर आनन्द को चखा है। यहाँ 'स्रुति' सुरत के लिये लिखा है। यह सन्तों का पारिभाषिक शब्द है। व्याकरण का शुद्ध-अशुद्ध विचार यहाँ नहीं है। सब लोग सन्तवाणी को पढ़िये और इस अर्थ को भी रखिये। साहित्य के अर्थ को भी रखिये। कहीं यह अर्थ होगा, कहीं वह अर्थ होगा। सुरत, जीव, चेतन आत्मा एक ही बात है।
6. यह सुरत सोई हुई है। मन उससे भिन्न पदार्थ है। मन सोया हुआ है। सुरत असल में सोती नहीं है। अन्तःकरण का संग होने से उसका निजी ज्ञान नहीं है। इसलिये कहते हैं कि सुरत सोई हुई है। हमलोगों की जाग्रत अवस्था सन्तों के विचार में नींद हैं। इस अवस्था में सुरत जगती नहीं है। स्वप्न में भी जगती नहीं। तन्द्रा में भी नहीं जगती है। गहरी नींद में तो क्या जगेगी ? चौथी अवस्था-तुरीय में जगेगी। सुरत अपने आपको भूली हुई है। इसलिये वह सोई हुई है-
मोह निसाँ सब सोवनिहारा। देखिय सपन अनेक प्रकारा।।एहि जग जामिनि जागहिं जोगी। परमारथी प्रपंच वियोगी।।
स्वप्न संसार
7. मोह की नींद में अनेक प्रकार का स्वप्न हो रहा है। जाग्रत अवस्था में जो हम कर रहे हैं, सन्तों के विचार में स्वप्न अवस्था में कर रहे हैं। योगी परमार्थी होते हैं। परम तत्त्व के ज्ञाता होते हैं। जो ब्रह्म का ज्ञान रखते हैं, वे परमार्थी होते हैं। इस परमार्थ तत्त्व को जो ग्रहण करता है, वह जगता है। संसार का ज्ञान जब है, तब सोया हुआ है।
सपने होई भिखारि नृप, रंक नाकपति होई। जागे लाभ न हानि कछु, तिमि प्रपंच जिय जोई।। 8. स्वप्न में राजा दरिद्र हो जाता है और दरिद्र इन्द्र बन जाता है; किन्तु जगने पर न तो दरिद्र को कुछ लाभ होता है और न राजा को कोई हानि होती है। जब कोई चौथी अवस्था में जायेगा, तो इस जाग्रत का हानि-लाभ स्वप्न का हो जायेगा। सुरत को जगने के लिये जो कहते हैं, वह तबतक जगती नहीं है, जबतक चौथी अवस्था में नहीं जाए। इसलिए इस जाग्रत अवस्था में भी जगने के लिये कहते हैं। भजन करोगे, तो जागोगे, नहीं तो क्या जागोगे? क्या भजन करो, तो कहा-
चित से शब्द सुनो सखन दे, उठत मधुर धुन राग री। 9. तुरीय अवस्था में जो शक्ति सुनने की होती है, उससे सुनो। इस कान से क्या सुनोगे ? कोई सोया रहता है, उसको पुकारकर जगा देते हैं। कुछ काल तक अलसाया रहता है, तब फिर पूरा-पूरा जागता है। इसीलिए अन्दर का शब्द आवेगा और पूरा-पूरा जागोगे? यह साधन में अनुभूति की बात है। जिसको विश्वास नहीं है, तो करके देखो। गुरु के वचन में विश्वास तो था ही, है ही और बाबा नानक ने कहा है-
अन्तर जोति भई गुरु साखी, चीने राम करंमा ।
आंतरिक प्रकाश में गुरुदेव
10. अन्तर की ज्योति गुरु की गवाही हो गई। करनेवाला ठीक-ठीक करे। करने की युक्ति ठीक-ठीक हो, तो अवश्य होगा। ऑक्सीजन और हाईड्रोजन को मिलाकर देखो, पानी होता है कि नहीं? उसी तरह इस साधना को करके देखो, होता है कि नहीं। गुरु नानकदेवजी शीघ्रतापूर्वक दौड़कर तारे पर चढ़ गए। तारा क्या है? तुलसी साहब कहते हैं- श्याम कंज लीला गिरि सोई। तिल परिमान जान जन कोई।। वहाँ बहुत लीलाएँ होती हैं। वह पहाड़ कैसा है? तो कहा- 'तिल परिमान जान जन कोई ।' और भी कहा-
श्रुति ठहरानी रहे अकासा। तिल खिड़की में निसदिन वासा ।। गगन द्वार दीसै एक तारा। अनहद नाद सुनै झनकारा ।। इस ध्यान-साधना का अभ्यास करके देखो, होता है कि नहीं? करो नहीं, केवल गप हाँको तो क्या होगा? तारा क्या है?
तेजो विन्दुः परं ध्यानं विश्वात्म हृदि संस्थितम् । - तेजोविन्दूपनिषद् इस ध्यान को जानते हो? नहीं जानते हो, तो जानकार से जानकर करो, होता है कि नहीं?
11. सेवक अपने कर्म में पूर्ण है तो सद्गुरु का शब्द मिलता है। सद्गुरु का शब्द वैखरी वाणी नहीं, अन्तर्नाद है। ईश्वर की ओर से यह दया-दान है- अन्तज्योति का प्रगट होना। तो गुरु की गवाही ठीक है। सुरत के जगने पर यह होता है। यह तो पहली सीढ़ी है, पहला कदम रखने के लिये। आगे बहुत है! बहुत है!! बहुत है!!! पहले पहली सीढ़ी तो मिले पैर रखने के लिये। सन्तवाणी में जो गंभीरता है, वह आपके सामने कहता हूँ। आगे चलकर कबीर साहब कहते हैं-
'जगत पीठ दै भाग री।' आंतरिक शब्द और प्रकाश
12. कहाँ भागो ? ऊपर-नीचे, आग-पीछे, दायें-बायें, चारो कोण, दसो दिशाओं में कहीं भागो- 'जगत पीठ' नहीं होगा। संसार की ओर पीठ तब होगी, जैसे अभी जगे हो तो संसार को देखते हो। स्वप्न और सुषुप्ति में इस संसार का ख्याल नहीं रहता है, तो संसार की ओर पीठ होती है।लेकिन घोर अंधकार का जगत तुम्हारे सामने रह जाता है। फिर जगत की ओर पीठ कहाँ हुई? ऐसा करो कि संसार का ज्ञान तुमको नहीं रहे। न जाग्रत में, न स्वप्न में, न सुषुप्ति में, कहीं भी संसार का ज्ञान नहीं रहे।
सकल दृस्य निज उदर मेलि, सोवइ निद्रा तजि जोगी ।सोइ हरिपद अनुभवइ परम सुख, अतिसय द्वैत वियोगी।। इसपर विचार करो। वह द्वैत-वियोगी पद कैसा है?
सोक मोह भय हरष दिवस निसि, देस काल तहँ नाहीं । तुलसीदास एहि दसाहीन, संसय निर्मूल न जाहीं ।। 13. इन सब सन्तवाणियों को मिला-मिलाकर पढ़ो। पहले तो पढ़ने-समझने में ही अपने को बड़ा आनन्द मिलता है। करो तो और आनन्द मिलता है। ऐसा न समझो कि संसार में कुछ करना नहीं है। ध्यान का समय तो ऐसा ही है, लेकिन संसार में बेवकूफ बनकर भी रहना नहीं है। विद्या-उपार्जन करो और संसार के काम भी करो। संसार के काम के लिए सन्त लोग कहते हैं कि इस दर्जे में पहुँचोगे- 'आत्मवत् सर्वभूतेषु', तब सारा संसार आत्मवत् होगा। इंगलैंड वा इस देश, उस देश की बात नहीं। सारे संसार के भूत आत्मवत् होंगे, लेकिन चालाकी से नहीं होगा। कबीर साहब कहते हैं-
कोई चतुर न पावे पार, नगरिया बावरी । संतवाणी की गंभीरता
14. सन्तों की वाणी में बड़ी गम्भीरता है। केवल शब्दार्थ से ही अर्थ नहीं होता है। शब्दार्थ जाने, सन्तों के पारिभाषिक शब्दार्थ जाने और कुछ-कुछ साधन भी करे, तब जानोगे। सन्तवाणी को कुछ नहीं जानकर, केवल भौतिक बुद्धि-विलास में रहकर अपने को सर्वज्ञ जानना गलत बात है। जाग्रत की बात जानो, स्वप्न की बात जानो, सुषुप्ति की बात जानो और इन तीनों के परे कैसे जाओगे, सो भी जानो। तीन अवस्थाएँ स्वाभाविक ही आती-जाती रहती हैं। लेकिन तुरीय अवस्था स्वभाविक ही नहीं आती। इसके लिए कुछ और करो अर्थात् योग करो। योग के साधन में ईश्वर की भक्ति है और योग के अन्त में ईश्वर की प्राप्ति है। ईश्वर-प्राप्ति को ही भक्त अपना असली धन मानता है। यहीं सारी अभिलाषाएँ पूर्ण होती हैं।
परम स्वाद सबही जू निरन्तर, अमित तोष उपजावै ।मन बानी को अगम अगोचर, सो जाने जो पावै ।। 15. मैं १९०४ ई० से इस खोज में लग गया। आज तक इस खोज में हूँ। इसकी गंभीरता में जाता हूँ, तो जैसे-जैसे जाता हूँ, बड़ा आनन्द पाता हूँ। अभी और भी पाने को है। मुझे जो आनन्द मिला है, वह आनन्द सबको मिले। इस संसार में सबसे ऊँची बात है- 'आत्मवत् सर्वभूतेषु।' संसार में बेवकूफ बनकर नहीं रहो, विद्या-अर्जन भी करो और संसार की संभाल भी करो। •
( यह प्रवचन भारत की राजधानी दिल्ली में अ० भा० सन्तमत सत्संग के ६२वें वार्षिक महाधिवेशन के अवसर पर दिनांक ३. ३. १९७० ई० को प्रातः काल में हुआ था। )
नोट- उपर्युक्त प्रवचन में हेडलाइन की चर्चा, सत्संग, ध्यान, सद्गगुरु, ईश्वर, अध्यात्मिक विचार एवं अन्य विचार से संबंधित बातें उपर्युक्त लेख में उपर्युक्त विषयों के रंगानुसार रंग में रंगे है।
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'महर्षि मेँहीँ सत्संग-सुधा-सागर' ग्रंथ में प्रकाशित उपरोक्त प्रवचन निम्नलिखित प्रकार से प्रकाशित है--
महर्षि मेँहीँ सत्संग-सुधा सागर प्रवचन नंबर 316, क
महर्षि मेँहीँ सत्संग-सुधा प्रवचन नंबर 315 घ
प्रभु प्रेमियों ! गुरु महाराज के इस प्रवचन का पाठ करके हमलोगों ने जाना कि हम अपने सारे अभिलाषाओं को, मनोकामनाओं को चौथी अवस्था अर्थात् तुरीयावस्था में जाकर पूरा कर सकते हैं । इसके लिए गुरु ध्यान और सत्संग की बहुत आवश्यकता है । गुरु से सच्ची विधि जानकर साधना करना पड़ता है और साधना में प्रगति के लिए बराबर सत्संग करना पडेगा। इत्यादि बातें इतनी जानकारी के बाद भी अगर आपके मन में किसी प्रकार का शंका या कोई प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस प्रवचन के बारे में अपने इष्ट मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने। इससे आपको आने वाले प्रवचन या पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहेगी। निम्न वीडियो में इस प्रवचन का पाठ किया गया है।
1. जैसा कि आपलोग दो दिनों से सुन रहे हैं, ईश्वर-भक्ति का प्रचार- गुरु-आदेश से मैं कर रहा हूँ। यह जो सत्संग का प्रचार है वा ईश्वर-भक्ति का प्रचार है, इसका अवलम्बन खासकर संतों की वाणी है। गुरुदेव ने कहा कि सन्तों की वाणी का अवलम्ब लेकर सत्संग करो। इसलिये सन्तवाणी का पाठ करता हूँ और कराता हूँ। सन्तवाणी में बहुत गम्भीरता है। ऊपर-ऊपर सरलता मालूम पड़ती है। गुरु की कृपा से उस गंभीरता को थोड़ा-थोड़ा जाना है। उस गम्भीरता का थोड़ा-थोड़ा प्रकाश करूँ, इससे आपको लाभ हो, इसलिये सन्तों की वाणी का पाठ करता हूँ और समझाता हूँ। अभी आपलोगों ने सुना -
2. सुरत के कई अर्थ हैं। उसकी एक परिभाषा है। कबीर साहब के पन्थ के ग्रन्थ में एक चौपाई है। सन्त कबीर साहब एक अक्षर भी पढ़े-लिखे नहीं थे। उनके नाम से जो ग्रन्थ मिलते हैं, उनमें से एक में लिखा है कि-
आदि सुरत सतपुरुष तें आई। जीव सोहं बोलिये सो ताई ।।
3. जिनको आप सच्चिदानन्द ब्रह्म कहते हैं, उसी को कबीर साहब सत्पुरुष कहते हैं। जिस पुस्तक का नाम अनुराग सागर है, उसी में यह है। सुरत का अर्थ ख्याल भी होता है; सुरत का अर्थ तुलसीदासजी ने स्मरण भी किया है। जैसे-
4. तुलसी साहब हाथरस में रहते थे। भारत के किस प्रान्त में उनका जन्म हुआ था, यह पता नहीं। आज के कुछ लोग उनके जीवन पर कुछ लिखे हैं। लेकिन ठीक-ठीक नहीं है। मैंने भी इसकी खोज की, ठीक-ठीक पता नहीं लगा। लोग इनको तुलसीदास, तुलसी साहब और गोसाईं तुलसी भी कहने लगे थे। घटरामायण उनकी पुस्तक है। उसमें लोगों ने कुछ मेल-मिलाप भी कर दिया है। उस पुस्तक की भूमिका में कहते हैं-
5. अपने से चढ़ाई की। उसके रस को चखा। स्वयं साधन कर, कोशिश कर, आकाशी मार्ग पर चढ़कर आनन्द को चखा है। यहाँ 'स्रुति' सुरत के लिये लिखा है। यह सन्तों का पारिभाषिक शब्द है। व्याकरण का शुद्ध-अशुद्ध विचार यहाँ नहीं है। सब लोग सन्तवाणी को पढ़िये और इस अर्थ को भी रखिये। साहित्य के अर्थ को भी रखिये। कहीं यह अर्थ होगा, कहीं वह अर्थ होगा। सुरत, जीव, चेतन आत्मा एक ही बात है।
6. यह सुरत सोई हुई है। मन उससे भिन्न पदार्थ है। मन सोया हुआ है। सुरत असल में सोती नहीं है। अन्तःकरण का संग होने से उसका निजी ज्ञान नहीं है। इसलिये कहते हैं कि सुरत सोई हुई है। हमलोगों की जाग्रत अवस्था सन्तों के विचार में नींद हैं। इस अवस्था में सुरत जगती नहीं है। स्वप्न में भी जगती नहीं। तन्द्रा में भी नहीं जगती है। गहरी नींद में तो क्या जगेगी ? चौथी अवस्था-तुरीय में जगेगी। सुरत अपने आपको भूली हुई है। इसलिये वह सोई हुई है-
मोह निसाँ सब सोवनिहारा। देखिय सपन अनेक प्रकारा।।एहि जग जामिनि जागहिं जोगी। परमारथी प्रपंच वियोगी।।
स्वप्न संसार |
7. मोह की नींद में अनेक प्रकार का स्वप्न हो रहा है। जाग्रत अवस्था में जो हम कर रहे हैं, सन्तों के विचार में स्वप्न अवस्था में कर रहे हैं। योगी परमार्थी होते हैं। परम तत्त्व के ज्ञाता होते हैं। जो ब्रह्म का ज्ञान रखते हैं, वे परमार्थी होते हैं। इस परमार्थ तत्त्व को जो ग्रहण करता है, वह जगता है। संसार का ज्ञान जब है, तब सोया हुआ है।
8. स्वप्न में राजा दरिद्र हो जाता है और दरिद्र इन्द्र बन जाता है; किन्तु जगने पर न तो दरिद्र को कुछ लाभ होता है और न राजा को कोई हानि होती है। जब कोई चौथी अवस्था में जायेगा, तो इस जाग्रत का हानि-लाभ स्वप्न का हो जायेगा। सुरत को जगने के लिये जो कहते हैं, वह तबतक जगती नहीं है, जबतक चौथी अवस्था में नहीं जाए। इसलिए इस जाग्रत अवस्था में भी जगने के लिये कहते हैं। भजन करोगे, तो जागोगे, नहीं तो क्या जागोगे? क्या भजन करो, तो कहा-
9. तुरीय अवस्था में जो शक्ति सुनने की होती है, उससे सुनो। इस कान से क्या सुनोगे ? कोई सोया रहता है, उसको पुकारकर जगा देते हैं। कुछ काल तक अलसाया रहता है, तब फिर पूरा-पूरा जागता है। इसीलिए अन्दर का शब्द आवेगा और पूरा-पूरा जागोगे? यह साधन में अनुभूति की बात है। जिसको विश्वास नहीं है, तो करके देखो। गुरु के वचन में विश्वास तो था ही, है ही और बाबा नानक ने कहा है-
आंतरिक प्रकाश में गुरुदेव |
वहाँ बहुत लीलाएँ होती हैं। वह पहाड़ कैसा है? तो कहा- 'तिल परिमान जान जन कोई ।' और भी कहा-
इस ध्यान-साधना का अभ्यास करके देखो, होता है कि नहीं? करो नहीं, केवल गप हाँको तो क्या होगा? तारा क्या है?
इस ध्यान को जानते हो? नहीं जानते हो, तो जानकार से जानकर करो, होता है कि नहीं?
11. सेवक अपने कर्म में पूर्ण है तो सद्गुरु का शब्द मिलता है। सद्गुरु का शब्द वैखरी वाणी नहीं, अन्तर्नाद है। ईश्वर की ओर से यह दया-दान है- अन्तज्योति का प्रगट होना। तो गुरु की गवाही ठीक है। सुरत के जगने पर यह होता है। यह तो पहली सीढ़ी है, पहला कदम रखने के लिये। आगे बहुत है! बहुत है!! बहुत है!!! पहले पहली सीढ़ी तो मिले पैर रखने के लिये। सन्तवाणी में जो गंभीरता है, वह आपके सामने कहता हूँ। आगे चलकर कबीर साहब कहते हैं-
आंतरिक शब्द और प्रकाश |
12. कहाँ भागो ? ऊपर-नीचे, आग-पीछे, दायें-बायें, चारो कोण, दसो दिशाओं में कहीं भागो- 'जगत पीठ' नहीं होगा। संसार की ओर पीठ तब होगी, जैसे अभी जगे हो तो संसार को देखते हो। स्वप्न और सुषुप्ति में इस संसार का ख्याल नहीं रहता है, तो संसार की ओर पीठ होती है।लेकिन घोर अंधकार का जगत तुम्हारे सामने रह जाता है। फिर जगत की ओर पीठ कहाँ हुई? ऐसा करो कि संसार का ज्ञान तुमको नहीं रहे। न जाग्रत में, न स्वप्न में, न सुषुप्ति में, कहीं भी संसार का ज्ञान नहीं रहे।
इसपर विचार करो। वह द्वैत-वियोगी पद कैसा है?
13. इन सब सन्तवाणियों को मिला-मिलाकर पढ़ो। पहले तो पढ़ने-समझने में ही अपने को बड़ा आनन्द मिलता है। करो तो और आनन्द मिलता है। ऐसा न समझो कि संसार में कुछ करना नहीं है। ध्यान का समय तो ऐसा ही है, लेकिन संसार में बेवकूफ बनकर भी रहना नहीं है। विद्या-उपार्जन करो और संसार के काम भी करो। संसार के काम के लिए सन्त लोग कहते हैं कि इस दर्जे में पहुँचोगे- 'आत्मवत् सर्वभूतेषु', तब सारा संसार आत्मवत् होगा। इंगलैंड वा इस देश, उस देश की बात नहीं। सारे संसार के भूत आत्मवत् होंगे, लेकिन चालाकी से नहीं होगा। कबीर साहब कहते हैं-
संतवाणी की गंभीरता |
14. सन्तों की वाणी में बड़ी गम्भीरता है। केवल शब्दार्थ से ही अर्थ नहीं होता है। शब्दार्थ जाने, सन्तों के पारिभाषिक शब्दार्थ जाने और कुछ-कुछ साधन भी करे, तब जानोगे। सन्तवाणी को कुछ नहीं जानकर, केवल भौतिक बुद्धि-विलास में रहकर अपने को सर्वज्ञ जानना गलत बात है। जाग्रत की बात जानो, स्वप्न की बात जानो, सुषुप्ति की बात जानो और इन तीनों के परे कैसे जाओगे, सो भी जानो। तीन अवस्थाएँ स्वाभाविक ही आती-जाती रहती हैं। लेकिन तुरीय अवस्था स्वभाविक ही नहीं आती। इसके लिए कुछ और करो अर्थात् योग करो। योग के साधन में ईश्वर की भक्ति है और योग के अन्त में ईश्वर की प्राप्ति है। ईश्वर-प्राप्ति को ही भक्त अपना असली धन मानता है। यहीं सारी अभिलाषाएँ पूर्ण होती हैं।
15. मैं १९०४ ई० से इस खोज में लग गया। आज तक इस खोज में हूँ। इसकी गंभीरता में जाता हूँ, तो जैसे-जैसे जाता हूँ, बड़ा आनन्द पाता हूँ। अभी और भी पाने को है। मुझे जो आनन्द मिला है, वह आनन्द सबको मिले। इस संसार में सबसे ऊँची बात है- 'आत्मवत् सर्वभूतेषु।' संसार में बेवकूफ बनकर नहीं रहो, विद्या-अर्जन भी करो और संसार की संभाल भी करो। •
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महर्षि मेँहीँ सत्संग-सुधा सागर |
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