S209 (ग) दृष्टियोग, शाम्भवी मुद्रा और वैष्णवी मुद्रा साधने के लाभ || Benefits of practicing Shambhavi Mudra
महर्षि मेँहीँ सत्संग सुधा सागर" / 209 ग
दृष्टियोग, शाम्भवी मुद्रा और वैष्णवी मुद्रा साधने के लाभ
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता !
शेष प्रवचन
....ईश्वर क्या है? मैं कहता हूँ कि दृश्य क्या है? तो जो तुम आँख से देखो, वह दृश्य वा रूप है। जो कान से सुनो, वह शब्द है। इसी तरह जिसको तुम चेतन आत्मा से जानो, वही ईश्वर है।
अपने को मायिक आवरणों से छुड़ाकर अपने तईं में रखने के लिए अंदर चलना है। इस मंदिर में हमलोग बैठे हैं, इससे निकलने के लिए पहले मन्दिर-ही-मन्दिर चलना होगा। इसी तरह इस शरीर से निकलने के लिए शरीर के अन्दर अन्दर चलना होगा। शरीर चार हैं- स्थूल, सूक्ष्म, कारण और महाकारण। इन चारों जड़ आवरणों को पार करो, ईश्वर-दर्शन होगा। बाहर में कितना भी दर्शन करो, ईश्वर-दर्शन नहीं होगा। जैसे, जहाँ दूध है, वहाँ मक्खन; उसी तरह जहाँ मन है, वहाँ चेतन। इसीलिए संत तुलसी साहब ने कहा है-
मन को समेटो। मन को कैसे समेटोगे? प्रथम भक्ति से पाँचवीं भक्ति तक मन समेटने को कहा। मन जिधर से सिमटता है, उसके विपरीत ओर को जाता है। बिछावन फैला हुआ है, उसको समेटो तो ऊपर को उठ जाएगा। यह प्राकृतिक नियम है कि किसी पदार्थ को जिस ओर से समेटो, उसकी गति उसके विपरीत ओर को हो जाएगी। पाँच भक्ति से जितना समेट हुआ, और भी समेटने के लिए क्या करो?
दमशीलता का अभ्यास |
अर्थात् इन्द्रियों को रोकने का स्वभाव बनाना, बहुत से कर्मों को करने से विरक्त होना और सदा सज्जनों के धर्म में लगा रहना, छठी भक्ति है। झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार; इन पंच पापों में बरतना सज्जनों के धर्म में बरतना नहीं है। पंच पापों से बचकर बरतना सज्जनों का धर्म है। दम= इन्द्रियनिग्रह। इन्द्रियों को काबू में रखने का स्वभाववाला बनना दमशील होना है। इन्द्रियों को काबू में कैसे करोगे? लोग कहते हैं कि विषयों की ओर से मन को विचार से हटाओ। ऐसा भी होता है, लेकिन विचार स्थिर नहीं रहता, बुद्धि स्थिर नहीं रहती है। इसलिए आदमी डिग जाता है। इसको छोड़ते भी नहीं बनता है। विचार भी रखो और देखो कि विषयों में इन्द्रियाँ कैसे जाती हैं? इन्द्रियों के घाटों में मन की धारा रहती है, तब इन्द्रियाँ विषयों को ग्रहण करती हैं। इसके लिए जाग्रत और स्वप्न की अवस्था प्रत्यक्ष प्रमाण है। मन की धारों को समेटो। मन को समेटने का साधन करने से और विचार द्वारा मन को रोकने से सूक्ष्मता में गति होगी। मन का इतना सिमटाव हो कि एकविन्दु हो जाए। एकविन्दुता में पूर्ण सिमटाव होता है। इसीलिए-
वह विन्दु क्या है? 'तेजो विन्दुं परं ध्यानं विश्वात्म- हृदि संस्थितम्। (तेजोविन्दूपनिषद्)' अक्षर का बीज क्या है? अ, आ; A, B वा अलिफ, बे; कुछ लिखेंगे, तो पहले पेन्सिल जहाँ रखेंगे एक चिह्न होगा, उसको विन्दु कहते हैं। लेकिन यह परम विन्दु नहीं। परम विन्दु के लिए दूसरे पेन्सिल की जरूरत होती है, वह पेन्सिल है दृष्टि की। आपसे हम तक और हमसे आप तक दृष्टि आती-जाती है, लेकिन उस धार को देख नहीं सकते हैं।
द्रोणाचार्य ने एक बार अपने शिष्यों- कौरवों और पाण्डवों की परीक्षा ली। उन्होंने एक काठ का पक्षी बनवाकर वृक्ष पर रखवा दिया और एक-एक करके अपने सब शिष्यों को तीर से उसका निशाना करने कहा। आचार्य के पूछने पर किसी ने कहा- मैं वृक्ष-डालियों एवं पत्तों सहित पक्षी को देखता हूँ, तो किसी ने कहा-मैं डालियों और पत्तों सहित पक्षी को देखता हूँ; इस प्रकार किसी से भी उस पक्षी का ठीक-ठीक निशाना नहीं हुआ, अंत में अर्जुन से पूछने पर उसने कहा-मैं केवल पक्षी देख रहा हूँ। अर्जुन परीक्षा में उत्तीर्ण हुआ।
अंदर में चलने का अभ्यास |
एक संत ने कहा- 'उलटि देखो घट में जोति पसार।' इसी को दृष्टियोग, शाम्भवी मुद्रा और वैष्णवी मुद्रा कहते हैं। इसका अमा, प्रतिपदा और पूर्णिमा दृष्टि से साधन किया जाता है। आँख बंदकर देखना अमादृष्टि है, आधी आँख खोलकर देखना प्रतिपदा दृष्टि है और पूरी आँख खोलकर देखना पूर्णिमा दृष्टि है। प्रतिपदा और पूर्णिमा दृष्टि में आँख में रोग भी हो सकता है। अमादृष्टि में कोई रोग नहीं। सुतीक्ष्ण मुनि और शमीक मुनि की कथा को पढ़िए, ये सब आँख बंदकर ध्यान करते थे। भगवान बुद्ध की ध्यानावस्थित प्रतिमा को देखिए, वे भी आँख बंदकर ही ध्यान करते दिखाई पड़ते हैं। कबीर साहब ने कहा है-
तथा-
यह सुगम साधन है। दृष्टियोग से एकविन्दुता होती है। एकविन्दुता से पूर्ण सिमटाव होता है और तब प्रत्यक्ष होता है- 'उलटि देखो घट में जोति पसार।' और बाबा नानक ने कहा- 'अंतरि जोति भइ गुरु साखी चीने राम करंमा।' यह जो साधन करता है, इन्द्रियाँ काबू में आती हैं। एकविन्दुता होती है। केन्द्र में केन्द्रित होता है। वहाँ का रस साधक को बाह्य विषय रस से विशेष मनोहारी हो जाता है। बाह्य विषय रस कम हो जाता है। इसी तरह दमशील होना होता है। इन्द्रियों को विचार से भी रोको और साधन भी करो। केवल विचार से गिर भी सकता है।
विषय से छूटा तो क्या हुआ? निर्विषय की ओर हुआ। श्रीराम ने कहा था- 'एहि तन कर फल विषय न भाई। स्वर्गहु स्वल्प अन्त दुखदाई।।' परमात्मा निर्विषय है, उससे जुटा यह संबंध ईश्वर-भक्ति से है। उसके बाद सातवीं भक्ति में मनोनिग्रह का साधन है। कोई कहे कि दम के साधन में भी तो मन का साधन होता है। लेकिन वहाँ दोनों के साधन संग-संग होते हैं। सातवीं भक्ति में केवल मन का साधन होता है। क्योंकि मन के साधन के बिना ऋद्धि सिद्धि के प्रेरण में मन पड़ सकता है।
इसलिए मनोनिग्रह का साधन है। कैसे होगा? 'न नाद सदृशो लयः।' गुरु से इसका यत्न जानो। अंधकार के शब्द में स्वाद नहीं है। प्रकाश मण्डल के शब्द को पकड़ो, तब जो शब्द मिलता है, उसमें बहुत स्वाद है। उस शब्द को पकड़कर आगे बढ़ो। तुलसी साहब ने कहा है-
वह शब्द कहाँ से आया है? ईश्वर से सृष्टि हुई है, शब्द ईश्वर से है। बिना कम्प के सृष्टि नहीं हो सकती। आदि सृष्टि में आदि कम्प हुआ। कम्प शब्दमय होता है और शब्द कम्पमय होता है। जो कोई आदि शब्द को पकड़ता है तो 'परसत ही कंचन भया, छूटा बंधन मोह' ऐसा हो जाएगा। शब्द में अपने उद्गम स्थान पर खींचने का गुण है। इसलिए वह शब्द ईश्वर तक पहुँचाता है। वह शब्द वर्णात्मक नहीं है, ध्वन्यात्मक है।
जो लाभ हो, उसी में संतोष करना और स्वप्न में भी दूसरे के दोष को न देखना, आठवीं भक्ति है। नवीं भक्ति सबसे सीधा तथा अकपट रहना और हृदय में न हर्ष और न दीनता लाकर मेरा (राम) भरोसा रखना है। ऊपर वर्णित सात भक्तियों में पूर्णता पाने पर ये आठवीं और नवीं; दोनों भक्तियाँ आप ही आप सध जाती हैं।
यह संतों का मार्ग है, इस पर चलो। सत्संग करो, गुरु खोजो और भजन करो तो कृतार्थ हो जाओगे। एक जन्म में नहीं, तो कई जन्मों में। यह बीज ऐसा है कि मुक्ति दिलाकर ही छोड़ेगा।
भगवान श्रीकृष्ण ने भी कहा है कि 'योग का आरंभ का नाश नहीं होता। साधक पुण्यकर्ता पुरुषों को मिलनेवाले स्वर्ग आदि लोकों को पाकर और वहाँ बहुत वर्षों तक निवास करके पवित्र श्रीमान् लोगों के घर में जन्म लेता है अथवा बुद्धिमान योगियों के ही कुल में जन्म पाता है। इस प्रकार प्राप्त हुए जन्म में वह पूर्व के बुद्धि संस्कार को पाता है और उससे अधिक (योग) सिद्धि पाने का प्रयत्न करता है। प्रयत्नपूर्वक उद्योग करते-करते पापों से शुद्ध होता हुआ अनेक जन्मों के अनन्तर सिद्धि पाकर उत्तमगति पा लेता है।
कोई कहते हैं कि नौ भक्ति में से एक भी कर लो, तो ईश्वर के अतिशय प्यारे बन जाओगे। मैं कहता हूँ कि एक भक्तिवाला अतिशय प्रिय है, तो नवो प्रकार की भक्ति जो करेगा, उसके लिए नौ बार अतिशय जोड़कर देखो, वह कितना प्यारा होगा? भक्त को तो भक्ति करने में न्योछावर हो जाना चाहिए। तुम कुछ भक्ति करना चाहो और कुछ नहीं, तो कैसे भक्त हो? तुम कायर हो। तुमको पुरुषार्थी बनकर सभी भक्ति करनी चाहिए। नवो प्रकार की भक्ति सिलसिले के साथ है, नवो भक्ति करो। ∆
सत्संग-सुधा सागर और शांति संदेश में प्रकाशित लेख
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महर्षि मेँहीँ सत्संग-सुधा सागर |
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