महर्षि मेँहीँ सत्संग सुधा सागर / 209
रहस्यमय ईश्वर का स्वरूप कैसा है?
२०९. गुरु कैसा होना चाहिए?
ईश्वर की प्राप्ति ईश्वर की भक्ति से ही होती है। ईश्वर की भक्ति ही ईश्वर की प्राप्ति के लिए सुगम साधन है, यह बात भारत में बहुत प्रसिद्ध है। इसलिए भारत के लोग अधिक-से-अधिक ईश्वर- भक्ति की चर्चा किया करते हैं। बात बिल्कुल यथार्थ है। केवल रोचक नहीं, रोचक होते हुए यथार्थ है। रोचक हो और यथार्थ नहीं हो, तब भी साधु महात्मा, जो ऐसी बात कहते हैं, तो जिस ओर रुचि बढ़ानी चाहिए, बढ़ाते हैं; इसमें तो दोष नहीं है।
ईश्वर-प्राप्ति के लिए ईश्वर-भक्ति रोचक भी है और यथार्थ भी। ईश्वर-भक्ति के लिए ईश्वर का स्वरूप जानना चाहिए। ईश्वर की प्राप्ति के लिए ईश्वर की भक्ति सुगम साधन है, इस बात को जो जानते हैं अथवा इस बात का जिसको ज्ञान है, वे ही ईश्वर-भक्ति में पड़ते हैं। मतलब यह कि ईश्वर-भक्ति के लिए ईश्वर-स्वरूप का ज्ञान अवश्य चाहिए। यदि विश्वास हो कि ईश्वर की स्थिति नहीं है, तो ईश्वर-भक्ति के लिए कोई आग्रह नहीं।
कुछ ज्ञान की आवश्यकता पहले होती है; क्योंकि बिना जाने क्या कर सकते हैं? अर्थात् कुछ नहीं कर सकते हैं। किसी प्रकार कुछ जानना बहुत आवश्यक है। इसलिए यह बहुत कहने योग्य है कि ईश्वर-भक्ति के लिए ईश्वर-स्वरूप का ज्ञान होना चाहिए। किसी विषय के लिए हो, यदि अपने लिए हितकर होता है तो उस विषय की ओर एक आकर्षण-सा होता है।
आपलोगों को मालूम है कि अपने देश में द्वापर युग का अंत होते-होते एक बड़ा भारी युद्ध हुआ था और भरतवंशी में युद्ध हुआ था। भरत- वंशी दो भागों में बँटे थे-कौरव और पाण्डव।
भरतवंश में कुरु नाम का एक राजा हुआ था; इसीलिए कौरव । और पाण्डवों के पिता का नाम पाण्डु था, इसीलिए पाण्डव । किंतु दोनों ही कौरव थे और भरतवंशीय थे। वह युद्ध अट्ठारह दिनों में समाप्त हुआ था। वह बड़ा भयंकर गृहयुद्ध था। पाण्डव जीत गए और कौरव सब मारे गए। सभी चचेरे भाई थे। और भी जो युद्ध करने आए थे, वे कोई उनके मामा, कोई चाचा आदि होते थे। उस भयंकर युद्ध में सब प्रिय और बड़े लोग एक दूसरे के द्वारा मारे गए। बच गए पाँच भाई पाण्डव। पाण्डवों में जो सबसे बड़े थे, वे थे युधिष्ठिर।
उनके मन में हुआ कि अब हम राज्य करके क्या करेंगे? जो हमारे चाचा थे, भाई थे, अपने लड़के थे, भतीजे थे; सभी मारे गए अब राज्य किसके लिए करें। यह कहकर वे बहुत रोते थे कि मैंने बहुत पाप किए। लोग कहते कि तुम क्षत्रियों के धर्म के अनुसार युद्ध किए हो, मारे हो, तुम ऐसा क्यों कहते हो कि पाप हो गया है। फिर भी लोगों की बातों से इनका मन नहीं मानता था। व्यास और कृष्ण ने भी समझाया, लेकिन वे समझे नहीं। अंत में व्यासदेवजी ने कहा कि तू पाप-पाप क्यों बोल रहा है, यज्ञ करो-अश्वमेध यज्ञ करो। युधिष्ठिर ने कहा कि अश्वमेध यज्ञ के लिए तो बहुत धन चाहिए, मेरे पास धन कहाँ? हमारे आश्रित जो राजे लोग थे, उनके कुछ धन लेकर मैंने खर्च किया और कुछ दुर्योधन ने लेकर खर्च किया। उनसे धन माँगूँ, तो कहाँ से वे देंगे और भी जो धन हस्तिनापुर का था, उसको दुर्योधन ने खर्च किया, हमलोग तो जंगल में थे। व्यासदेव ने कहा कि पहाड़ों में बहुत धन है, मरुत राजा ने यज्ञ किया था और उन्होंने इतना धन दान लोगों को दिया था कि लोग न ले जा सके, उसे पहाड़ में गाड़ दिया। मैं रास्ता और अनुष्ठान बताता हूँ, वहाँ जाओ, धन ले आओ और यज्ञ करो। युधिष्ठिर ने व्यासदेव की बात में विश्वास किया, उनके बताए हुए मार्ग से गए, अनुष्ठान कर धन प्राप्त किए और धन लाकर अश्वमेध यज्ञ किया।
कौरव पांडव |
मतलब यह कि बिना जाने आदमी क्या करेगा? इसलिए पहले जानना चाहिए अर्थात् ज्ञान चाहिए। युधिष्ठिर के लिए वह धन पहले अव्यक्त था। अव्यक्त में उसकी आसक्ति होती है, वही आसक्ति प्रेम में प्रवाहित होती है और उससे वह खिंचता है और धन लाने जाता है। ईश्वर-भक्ति के लिए ईश्वर-स्वरूप का जानना आवश्यक है। नहीं तो अपना प्रेम किधर रखा जाय ? इसलिए थोड़ी देर ईश्वर-स्वरूप के संबंध में सुनिए। इससे निर्णय होगा कि उसकी प्राप्ति के लिए क्या काम करना होता है।
ईश्वर कभी हुआ है, ऐसा नहीं; वह हई है। कबसे है? इसका समय बताना असंभव है। देश और काल माया के फैलने में होते हैं। जब देश-काल नहीं थे, तबसे ईश्वर है। ईश्वर कितना पूर्व से है, कोई समय निर्धारित नहीं कर सकता। सबसे पहले का वह है। यह ज्ञान किसी धर्मवाले को पूछो कि ईश्वर सबसे पहले से है कि पीछे हुआ? सभी कहेंगे कि ईश्वर सबसे पहले का है। वह परम पुरातन, परम सनातन हैं। उससे पूर्व का और कोई सनातन नहीं है। वह अपने अतिरिक्त अवकाश छोड़कर रहता है, ऐसा नहीं।
प्रथम एक सो आपे आप, निराकार निर्गुण निर्जाप। वह (परमात्मा) कभी बन गया है, ऐसा नहीं। किसी कारण से वह हुआ, सो भी नहीं। कबीर साहब ने एक बड़ी बात कही है-
मूल न फूल बेलि नहीं बीजा, बिना वृक्ष फल सोहै। न उसकी जड़ है, न फूल है, न लता है और न बीज है; केवल फल-ही-फल है। उसको किस रंग-रूप में जानें? तो कहा- 'निराकार निर्गुण निर्जाप।' कोई आकार नहीं, रज, सत, तम कोई गुण नहीं अर्थात् त्रयगुणातीत वह है। इसलिए भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कहा था- 'निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।'
गोस्वामी तुलसीदासजी से पूछिए, तो वे कहेंगे- 'अगुण अखण्ड अलख अज' है। तुलसीदासजी ने सगुण रूप के बहुत गुण-गान किए हैं और उन्होंने सगुण होने का कारण भी बताया है- 'भगत प्रेमवश सगुण सो होई।' बाबा नानक से पूछिए तो वे कहेंगे- अलख़ अपार अगम अगोचरि, ना तिसु काल न करमा।। अपार अर्थात् आदि-अंत-रहित। और संत लोग भी यही बात कहते हैं। उपनिषद् भी संतवाणी है। वेद-वाक्य के तुल्य उसका वाक्य माना जाता है। उसमें है-
अर्थात् जिस प्रकार इस लोक में प्रविष्ट हुआ वायु प्रत्येक रूप के अनुरूप हो रहा है, उसी प्रकार सम्पूर्ण भूतों का एक ही अंतरात्मा प्रत्येक रूप के अनुरूप हो रहा है और उनसे बाहर भी है। सबसे बाहर होने पर प्रकृति से भी बाहर हो जाता है। इसीलिए 'प्रकृति पार प्रभु सब उरवासी। ब्रह्म निरीह विरज अविनाशी ।।' और दूसरी जगह-
सगुण का अर्थ जो गुण के सहित है। जो गुण के सहित होता है, वह सगुण होता है और जब गुण को नहीं लेता है, वह निर्गुण है। निर्गुण जो सगुण होता है, तो क्या वह पूर्ण का पूर्ण सगुण हो जाता है? अभी सुना- 'राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर। अविगत अकय अपार, नेति नेति नित निगम कह ।।' अपार को कोई दूसरा 'अपार' हो तो सम्पूर्ण को ढँक ले। लेकिन 'अपार' दो नहीं हो सकते। इसलिए गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा-
एक ही समय में कहीं बादल रहता है और कहीं सूर्य दीखता है। मतलब यह कि बादल का कितना बड़ा समूह भी सूर्य को ढँक नहीं सकता। बादल समूह को ऊपर करते जाओ तो रास्ते में ही बादल बिला जाएगा और सूर्य दीखने लगेगा। इसी तरह ईश्वर के सम्पूर्ण रूप को माया वा सगुण ढँक नहीं सकता है। उसके अल्पाति-अल्प भाग को ढँक सकता है। लेकिन त्रयगुण आवरण के अंदर होने पर भी उसकी शक्ति घटती नहीं। दोनों हालतों में-निर्गुण रूप वा सगुण रूप में पूर्ण शक्ति है। आकाश में कुछ दूर तक धूल है, कुछ दूर तक धुआँ है और कुछ दूर तक अंधकार है। धूल, धूम और अंधकार से शून्य साफ-साफ देखा नहीं जाता और शून्य को पूरा-पूरा ये ढक नहीं सकते। इसको पार करो तो शून्य को ठीक-ठीक देख सकोगे। इसी तरह स्थूल, सूक्ष्म और कारण; इन तीनों को पार करो तो स्वरूप को देख सकते हो। |
लोग ईश्वर को सगुण और निर्गुण दोनों रूपों में मानते हैं। निर्गुण सनातन रूप है और सगुण पीछे का। एक जगह गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है-
उन्होंने निश्चित बात बता दी कि त्रयगुण रूप आवरण के धारण करने से वह त्रयगुण नहीं हो गया। अपने शरीर पर कितने भी कपड़े पहन लो, तुम्हारा शरीर भिन्न ही और कपड़ा भिन्न ही रहता है। इसी तरह चेतन आत्मा, चेतन आत्मा ही रहती है; शरीर, शरीर ही। चेतन आत्मा ज्ञानस्वरूप है और शरीर जड़-अज्ञानमय है। आवरण धारण करनेवाला वही हो जाता है, ऐसी बात नहीं। सृष्टि में ईश्वर का व्यापक विराटरूप सगुण है। लोगों ने विराटरूप में अनेक लोक-लोकान्तरों के दर्शन किए। अर्जुन को भगवान श्रीकृष्ण ने विराटरूप दिखाया और जब नारद को विराटरूप का दर्शन दिया, तब कहा कि 'तू जो मेरा रूप देख रहे हो, यह मेरी उत्पन्न की हुई माया है।' और श्रीमद्भगवद्गीता ७/२४ में भी कहा कि 'मैं अव्यक्त हूँ और बुद्धिहीन लोग मुझे व्यक्त मानते हैं।'
सगुण और निर्गुण ईश्वर |
अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः ।
भक्ति का अर्थ है सेवा। जिसको जिस चीज की आवश्यकता हो, उसको वह चीज दो, तो उसकी सेवा होती है। ईश्वर को क्या कमी है? ईश्वर से मिलने की इच्छा रखो, यही भक्ति है। संतों ने ईश्वर का जो ज्ञान दिया है, उस ओर हमारी बुद्धि प्रवाहित हो। दादू दयालजी ईश्वर- स्वरूप को बताते हैं-
वह ईश्वर कहाँ मिलते हैं? तो कहा- 'अविगत अंत अंत अंतर पट' अर्थात् वह सर्वव्यापी परमात्मा अपने अंदर के अंतिम पट को पार करने पर मिलेंगे। अकथ होने के कारण सूरदासजी ने भी कहा है-
उस सर्वव्यापी की प्राप्ति में ऐसी संतुष्टि होती है, जो कभी छूटने को नहीं है। अमित तोष होता है। मन-बुद्धि से आगे की बात है। अंदर में चलो,. . . शेष प्रवचन पढने के लिए👉 यहां दबाएं।
भक्तों के साथ चेयर पर गुरुदेव |
महर्षि मेँहीँ सत्संग सुधा सागर और शांति संदेश में प्रकाशित प्रवचन-
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महर्षि मेँहीँ सत्संग सुधा सागर 209ग |
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महर्षि मेँहीँ सत्संग-सुधा सागर |
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